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हमारा रामपुर शहर कुछ ऐसे कारीगरों का मेज़बान है, जो मुहर्रम के त्योहार के लिए ‘ताज़िया’ बनाने में कुशल हैं। इसके अलावा, हमारा शहर कई इमामबाड़ों जैसे कि, इमामबाड़ा किला-ए-मुआल्ला, ज़नाना इमामबाड़ा और अन्य इमारतों का भी घर है। दरअसल, ताज़िया इमाम हुसैन के मकबरे की प्रतिकृति है, और ये कई रूपों व आकारों में बनाये जाते हैं । ताज़िया शब्द अरबी शब्द – ‘अज़ा’ से लिया गया है, जिसका अर्थ – मृतकों का स्मरण करना, है। तो, इस लेख में, हम मुहर्रम के त्योहार में ताज़िया और उसके महत्व के बारे में जानेंगे। हम सिद्धार्थनगर के बारे में भी बात करेंगे, जो भारत में ताज़िया बनाने का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। साथ ही, हम एक घोड़े और इस्लामी इतिहास की एक महत्वपूर्ण हस्ती – ‘दुलदुल’ पर भी प्रकाश डालेंगे।
मुहर्रम, एक अरबी शब्द है। यह इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है और वर्ष
के चार पवित्र महीनों में से एक है। रमज़ान को छोड़कर, इसे सभी महीनों में सबसे
पवित्र माना जाता है। “मुहर्रम” शब्द का अर्थ – “निषिद्ध” है, और यह ‘हराम’ शब्द
से लिया गया है, जिसका अर्थ “पापमय” है। मुहर्रम के दौरान, खुशी के जश्न के बजाय,
नए साल की शुरुआत मुसलमान लोग दुख की काली पोशाक पहनकर करते हैं और शोक सभाओं में
भाग लेते हैं। इन शोक सभाओं में इमाम हुसैन और उनके साथियों के बलिदानों को याद
किया जाता है। यह साल के उन चार महीनों में से भी एक होता है, जिसमें लड़ाई करना
वर्जित है।
इस महीने में इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों ने इंसानियत और इस्लाम के ख़ातिर, अपनी जान कुर्बान की थी। यह बलिदान, दुनिया को सबक
सिखाता है कि, झूठ और ज़ुल्म के खिलाफ जोश और जज़्बे से बदलाव लाया
जा सकता है।
ज़ुल्जनाह, इमाम हुसैन (पैगंबर मुहम्मद के पोते) के स्वामित्व वाला भूरा अरबी घोड़ा था। इसे ‘दुलदुल’ उपनाम से भी जाना जाता है। ज़ुल्जनाह आज भी उन लोगों के लिए शक्ति का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, जो कर्बला में इमाम हुसैन की मृत्यु पर शोक मनाते हैं। कर्बला की लड़ाई में इमाम हुसैन की शहादत को याद करने वाले लोग आज भी, ज़ुल्जनाह से ताकत हासिल करते हैं।
ज़ुल्जनाह को उसकी दृढ़ता, कठोरता और वफ़ादारी के लिए
सम्मानित किया जाता है । इसे पैगंबर मुहम्मद द्वारा
पाला और बड़ा किया गया था। कर्बला की लड़ाई के दौरान, ज़ुल्जनाह ने कथित तौर पर, इमाम
हुसैन पर छोड़ा गया तीर, अपने शरीर पर लेकर, उनकी रक्षा की थी। अपना परम कर्तव्य निभाने के बाद, ज़ुल्जनाह खून से
लथपथ हो गया। अपने परिवार के पास लौटकर, उसने घात के बारे
में सबको बताया, और अपने घावों के कारण, मृत्यू को प्यारा हो गया। अतः मुहर्रम जुलूस
के दौरान, अनुयायी इसी महान घोड़े को श्रद्धांजलि देते हैं।
मुहर्रम जुलूस में एक अन्य बात जो हमारा ध्यान आकर्षित करती है, वह ताज़िया है। ताज़िया, इमाम हुसैन के मकबरे की प्रतिकृति होती है, और कई रूपों और आकारों में बनाई जाती है। मकबरे की इस प्रतिकृति को मुहर्रम के पहले दिन से नौवें दिन के बीच, घर लाया जा सकता है। जबकि, इसे ‘अशूरा’ अर्थात, दसवें दिन दफ़नाया जाता है, जब इमाम हुसैन शहीद हुए थे। इसलिए, ताज़िया का अर्थ – मृतक के प्रति अपनी संवेदना, श्रद्धांजलि और सम्मान व्यक्त करना, है।
वास्तव में, ताज़िया वह प्रतीकवाद रखता है, जिसकी ओर कर्बला की त्रासदी का चित्रण घूमता है। ताज़िया को अज़ाखाना के अंदर स्थापित किया जाता है, जिसे आमतौर पर इमामबाड़ा के नाम से जाना जाता है। यह विशेष रूप से मुहर्रम के लिए बनाया गया, एक अस्थायी क्षेत्र होता है।
मुस्लिम समुदाय के लोग ढोल-नगाड़ों के साथ या हुसैन के नारे लगाते हुए, ताज़िया के साथ जुलूस निकालते हैं। ताज़िया का आगमन, मातम शुरू होने का संकेत देता है।
इमामबाड़े में ताज़िया स्थापित करने
के अलावा, फूलों और इत्र से अज़ाखाना भी तैयार किया
जाता है, क्योंकि, यहां लोग शोक मनाते हैं।
ताज़िया बनाते समय लोग
रंगीन कागज़ों, फूलों, लाइट्स
और दर्पणों का उपयोग करके अपनी रचनात्मकता दिखाते हैं।
मुहर्रम पर रखे जाने वाले ताज़िया को बनाने के
काम में, डुमरियागंज क्षेत्र के हल्लौर कस्बे में कारीगर बड़ी तेज़ी के साथ जुट जाते हैं। क्योंकि, छोटे व बड़े तमाम ताज़ियों को, मुहर्रम की नौवीं पर चौक में रखा जाता है।
सिद्धार्थनगर ज़िले के डुमरियागंज तहसील क्षेत्र में, कस्बा हल्लौर में सबसे
बड़ा और आकर्षण का मुख्य केंद्र, वफफ शाह आलमगीर सानी कमेटी का बड़ा ताज़िया होता है। इसकी ऊंचाई 25 फीट से अधिक होती है। इस ताज़िए को बड़े इमामबाड़ा में हर साल चौक में रखा जाता
है।
बड़े ताज़िया में चार खंड
होते हैं, जिसमें सबसे पिछला खंड – बहरी, दूसरा खंड – अठवास, तीसरा खंड – चौरस तथा
सबसे ऊपरी हिस्सा – गुंबद, होता है। ताज़िया में सबसे कठिन काम गुंबद और अठवास बनाना होता है। क्योंकि, इन
हिस्सों पर कुरान की आयतों को कागज़ पर लिखा जाता
है। कस्बे में, बड़े ताज़िया के साथ-साथ दो
दर्जन और भी मध्यम आकार के ताज़िए बनाए जाते हैं।
इन्हें गांव के अन्य स्थानों पर, रखा जाता हैं, और
इनकी ऊंचाई 15–16 फीट के बीच होती है।
हल्लौर में बनाए जाने वाले छोटे व बड़े ताज़ियों में, ईरानी नक्काशी(Iranian carving) साफ़ तौर से दिखाई
देती है। ताजिया पर कुरान की आयतों को, कागज़ों पर छापकर लगाया जाता है। साथ ही रंग-बिरंगे कागजों से
ताजियों को सजाया जाता है। इससे ताज़िए की खूबसूरती
काफी बढ़ जाती है। इस प्रकार, कारीगरों की कशीदाकारी, यानी उनकी कला ताज़िए पर साफ़तौर से दिखाई देती है।
संदर्भ
चित्र संदर्भ
1. को कंधे पे ले जाते जुलूस को दर्शाता चित्रण (flickr)
2. दिल्ली में मुहर्रम के जुलूस के दृश्य को दर्शाता चित्रण (flickr)
3. ईरान के एक गाँव में मुहर्रम के शोक को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. 1790-1800 में मुहर्रम पर ताज़िया विसर्जन के लिए नदी के किनारे शिया मुस्लिमों के जुलूस को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. ताज़िया चित्रकला को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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