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लखनऊ और संगीत का नाता ठीक वैसा ही है, जैसा कि सूरज और किरणों का। संगीत ने हमेशा से ही लखनऊ की आभा को पूरे विश्व में फैलाया है, और इसके बदले में लखनऊ के संगीत घरानों ने भी संगीत को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया है। संगीत के संदर्भ में सबसे दिलचस्प ऐतिहासिक घटना तब घटी जब बनारस से शुरू हुआ "कथक", लखनऊ में भक्ति आंदोलन के साथ जुड़ गया। इसके बाद तो मानों भक्ति आंदोलन एवं कथक की लोकप्रियता को पंख ही लग गए।
कथक, भारत में प्रचलित एक लोकप्रिय शास्त्रीय नृत्य रूप है, जिसकी उत्पत्ति लगभग 400 ईसा पूर्व हुई थी। कथक से संबंधित सबसे पहला ग्रंथ "नाट्य शास्त्र" है, जिसे ऋषि भरत द्वारा लिखा गया था। कथक की शुरुआत बनारस में हुई थी, जिसके बाद इसका प्रभाव जयपुर, लखनऊ और उत्तरी भारत के अन्य हिस्सों में फैल गया।
कथक को भक्ति आंदोलन का हिस्सा माना जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य हिंदू धर्म में सुधार करना था और जन्म या लिंग की परवाह किए बिना सभी के लिए एक आध्यात्मिक मार्ग प्रदान करना था। "कथक" शब्द "कथा" से निकला है, जिसका अर्थ 'कहानी' होता है। ‘कथक’ मूल रूप से कहानीकार होते थे जो कविता, संगीत और नृत्य के मिश्रण के माध्यम से महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों की किवदंतियों को साझा करते हुए यात्रा करते थे। इन कहानीकारों का प्राथमिक लक्ष्य लोगों को आर्य देवताओं और पौराणिक कथाओं के बारे में शिक्षित करना था।
5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में, उत्तर भारत में बौद्ध धर्म फैलने लगा। सूक्ष्मवाद और शुद्धता के लिए समर्पित भिक्षुओं और भिक्षुणियों ने बौद्ध धर्म का प्रसार किया। किंतु इस दौरान कथक जैसे धार्मिक नृत्य के बजाय सामाजिक सेवा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाने लगा। हालाँकि, बौद्ध धर्म ने हिंदू धर्म या कथक का विरोध नहीं किया।
मुगल काल के दौरान, राज दरबारों में कथक का प्रदर्शन कुलीन मनोरंजन के रूप में किया जाता था। लेकिन इस दौरान नृत्य के मूल रूप को काफी हद तक बदलना पड़ा। कथक को अपनी मूल हिंदू संस्कृति को त्यागना पड़ा और मुग़ल राज दरबार की भव्यता को अपनाना पड़ा। अब यह भक्ति आंदोलन के बजाय, मनोरंजन और कामुक आनंद का एक रूप बन गया। कथक की वेशभूषा बदलकर अधिक आकर्षक शैलियों में बदल गई, और इसमें घुंघरू (पैर की घंटी) जैसे आभूषण भी जोड़े गए। इस अवधि तक कथक नर्तकियों को वेश्या के रूप में परिभाषित किया जाने लगा था, और नृत्य रूप की अखंडता से समझौता किया गया था।
इतिहासकार मानते हैं कि अकबर के संरक्षण में, हिंदू और मुस्लिम परंपराओं का विलय हुआ, जिससे एक परिष्कृत इंडो-इस्लामिक कला और संस्कृति का निर्माण हुआ। अकबर के पुस्तकालय में संस्कृत, फ़ारसी, ग्रीक, लैटिन और अरबी में 24,000 से अधिक खंड थे। उसका दरबार कलाकारों, कवियों, संगीतकारों, नर्तकियों, विद्वानों, सुलेखकों, वास्तुकारों, चित्रकारों और शिल्पकारों से सुसज्जित रहता था। अबुल-फ़ज़ल इब्न मुबारक द्वारा लिखित सोलहवीं शताब्दी के दस्तावेज ‘आइन-ए-अकबरी’ में अकबर के दरबार में वल्लभदास नामक एक प्रसिद्ध ‘कथक नर्तक’ का उल्लेख मिलता है। अकबर के बाद, उसके बेटे सम्राट जहाँगीर (1569-1627) ने भी कलाओं का संरक्षण जारी रखा।
जहाँगीर के बेटे, सम्राट शाहजहाँ (1592-1666), जो वास्तुकला के प्रति अपने प्रेम के लिए जाने जाते हैं, ने ताजमहल सहित कई स्मारक बनवाए। हालांकि, शाहजहाँ के शासनकाल के बाद उसके बेटे औरंगजेब के शासनकाल में कथक सहित उत्तर भारतीय कला के कई रूपों को पूरी तरह से जमिदोज़ कर दिया गया। औरंगजेब, एक रूढ़िवादी मुस्लिम और कला का धुर विरोधी था। उसने अपने पूर्वज अकबर की धर्मनिरपेक्षता को त्याग दिया। आपको जानकर हैरानी होगी कि उसने संगीत वाद्य यंत्रों को दफनाने तक का आदेश दे दिया और चित्रकारों एवं चित्रों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया।
उसके भय से कथक नर्तक ग्रामीण क्षेत्रों में चले गए, लेकिन अब उन्हें सामाजिक रूप से बहिष्कृत माना जाने लगा। हालांकि इसके बावजूद, पेरिस के मुसी डे ल'ऑरेंजरी (Musée de l'Orangerie) में आपको औरंगजेब के समय की एक पेंटिंग दिखाई देगी जिसमें कथक नर्तकियों को दर्शाया गया है।
कथक के बुरे दिन अभी भी ख़त्म न हुए। 19वीं शताब्दी में, ब्रिटिश शासन के तहत, कथक सहित शास्त्रीय नृत्यों के कई रूपों को हतोत्साहित किया गया और वे लगभग गायब ही हो गए। अंग्रेजों ने भी कथक को एक घटिया और कामुक परंपरा के रूप में देखा, और 1892 में "नृत्य विरोधी आंदोलन" शुरू किया। इस आंदोलन ने कथक नर्तकियों के अमानवीयकरण को बढ़ावा दिया, जिससे संरक्षकों पर उनका समर्थन बंद करने का दबाव पड़ा। अभी भी कथक को वेश्यावृत्ति का ही एक रूप माना जाता था। हालांकि इसके बावजूद, कथक के संस्थापक परिवारों (घरानों) ने इसे मौखिक रूप से आने वाली कई पीढ़ियों तक पारित करके नृत्य के इस शानदार रूप को जीवित रखा।
कथक की लखनऊ परंपरा के अनुसार एक बार भगवान कृष्ण अपनी एक परम भक्त ‘ईश्वरी’ के सपने में आए थे। उन्होंने उसे सपने में नृत्य को पूजा के रूप में विकसित करने का निर्देश दिया। ईश्वरी ने कथक को एक नृत्य शैली के रूप में विकसित किया और अपने वंशजों के माध्यम से इसकी शिक्षा और विकास को संरक्षित किया, जिससे कथक का लखनऊ घराना अस्तित्व में आया। भक्ति आंदोलन के युग में कथक राधा, कृष्ण और गोपियों के बीच अमर प्रेम को दर्शाने वाले विषय पर आधारित था। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह 'अख्तर' के समय में लखनऊ घराना एक अलग और व्यक्तिगत शैली में परिपक्व हुआ। नवाब वाजिद अली शाह के संरक्षण में कथक नृत्य का लखनऊ घराना खूब फला-फूला, और 19वीं शताब्दी के मध्य में उनके शासनकाल के दौरान अपनी विशिष्ट और व्यक्तिगत शैली तक पहुँच गया। कला के एक समर्पित संरक्षक, वाजिद अली शाह ने नर्तकियों के लिए "परियों का खाना" या "परियों का घर" नामक एक प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की। उन्होंने ठाकुर प्रसाद को अपना नृत्य गुरु नियुक्त किया, और उनके बाद, ठाकुर प्रसाद के बेटे, बिंदा दीन और कालका प्रसाद लखनऊ दरबार में उत्तराधिकारी बने।
कालका प्रसाद को लय और ताल में महारत हासिल थी, जबकि बिंदादीन ने ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल की अपनी रचनाओं के साथ गीतात्मक सामग्री को समृद्ध किया। साथ मिलकर दोनों भाइयों ने एक ऐसी कथक शैली विकसित की, जिसमें तकनीकी सटीकता के साथ गीतात्मक सुंदरता का संयोजन था। आधुनिक लखनऊ घराना वाजिद अली शाह के समर्थन में इन दोनों भाइयों के महत्वपूर्ण योगदान के कारण अस्तित्व में आया, जिसने लखनऊ को कथक नृत्य के विकास के लिए एक प्रमुख केंद्र के रूप में स्थापित किया। एक ओर जहाँ जयपुर घराना कथक के दौरान पैरों की हरकतों पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित करता है, वहीं बनारस और लखनऊ घराने चेहरे के हाव-भाव और सुंदर हाथों की हरकतों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करते हैं। इसके अलावा लखनऊ शैली अभिनय पर जोर देती है और जयपुर शैली अपने शानदार पैरों के काम के लिए प्रसिद्ध है।
संदर्भ
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