पैपिरस के पौधे से लेकर लखनऊ के उच्च गुणवत्ता वाले अरवाल कागज़ तक का ऐतिहासिक सफर

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पैपिरस के पौधे से लेकर लखनऊ के उच्च गुणवत्ता वाले अरवाल कागज़ तक का ऐतिहासिक सफर

 

सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।

धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥ 


 

मानव इतिहास के सबसे क्रांतिकारी संतो में से एक, ‘कबीरदास जी’ द्वारा लिखित यह दोहा, मूलतः हमें हमारे जीवन में ईश्वर (अथवा कुछ अनुवादों में गुरु) की महत्ता से परिचित करा रहा है। लेकिन यदि आप गौर करें तो दशकों पुराने इस दोहे में आपको कागद (कागज़) का भी वर्णन मिलेगा। कबीर के दोहे में ईश्वर की महिमा का वर्णन करने के लिए कागज शब्द का प्रयोग करना, यह संकेत भी देता है कि भारतीय संस्कृति के विकास में कागज़ ने हमेशा से ही बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज यदि हम अपने इतिहास पर गर्व भी करते हैं, तो उस गौरव का एक हिस्सा कागज़ को भी दिया जाना चाहिए जिसने सदियों पुराने हमारे इतिहास को ताज़ा रखा। आज हम इसी कागज़ के ऐतिहासिक सफर पर चलेंगे।


 

कागज़ का इतिहास 3000 ईसा पूर्व से शुरू होता है, जब मिस्र वासियों ने दलदली घास की पट्टियों पर लिखना शुरू किया। इस सामग्री को "साइपरस पैपिरस(Cyperus papyrus)" कहा जाता था। कागज़ को पैपिरस नामक पौधे के गूदे से बनाया जाता था, जो नील नदी के किनारे बहुतायत में उगता था। कागज़ के लिए अंग्रेजी शब्द "पेपर (paper)" भी मूलतः ग्रीक शब्द 'पैपिरस' पौधों से ही आया है। कागज़ बनाने की प्रक्रिया को चीन के त्साई लून ने 105 ई. में और अधिक परिष्कृत किया गया। चीन के बाद कागज़ का उपयोग इस्लामी दुनिया में भी किया जाने लगा और 12वीं सदी की शुरुआत में कागज़ यूरोप पहुँच गया।

भारत में, पहला कागज़ उद्योग कश्मीर में सुल्तान ज़ैनुल आबेदीन (शाही खान) द्वारा 1417 और 1467 ई. के बीच ("तारीख-ए-कश्मीर" के अनुसार) विकसित किया गया था। "कागज़" शब्द संस्कृत शब्द "काकरी/कागद" से उत्पन्न हुआ है, जो कागज़ के लिए चीनी शब्द "त्चे" के समान है। भारत में पहली मशीनीकृत कागज़ मिल 1812 में पश्चिम बंगाल के ‘सेरामपुर’ में स्थापित की गई थी।

कागज़ के अस्तित्व में आने से पहले, लोग चित्रों और प्रतीकों के माध्यम से संवाद करते थे। वे अपने कथनों को पेड़ की छाल पर उकेरते थे, गुफा की दीवारों पर रंगते थे और उन्हें पैपिरस या मिट्टी की पट्टियों पर अंकित करते थे।

लगभग 2,000 साल पहले, चीन के आविष्कारकों ने चित्र और लेखन के लिए कपड़े की चादरें बनाकर संचार करना शुरू किया। इस प्रकार हमारे जाने पहचाने कागज़ की शुरुआत हुई।

सबसे पहले कागज़ को चीन के लेई-यांग (Lei-Yang) में एक चीनी दरबारी अधिकारी त्साई लुन (Cai Lun) द्वारा बनाया गया था। त्साई ने संभवत शहतूत की छाल, भांग और चिथड़ों को पानी में मिलाया, इसे मसलकर गूदा बनाया, तरल को निचोड़ा और पतली चटाई को धूप में सुखाने के लिए लटका दिया।


 

त्साई की खोज के लगभग 300 साल बाद, 8वीं शताब्दी में कागज़ बनाने का रहस्य मध्य पूर्व तक पहुँच गया। हालाँकि, कागज़ को यूरोप में प्रवेश करने में 500 साल और लग गए। सबसे पहली कागज़ मिलों में से एक स्पेन में बनाई गई थी, और जल्द ही, पूरे यूरोप में मिलों में कागज़ बनाया जाने लगा।

कागज़ के उत्पादन में आसानी के कारण, इसका उपयोग महत्वपूर्ण पुस्तकों, ईसाई धर्म की बाइबलों और कानूनी दस्तावेजों को छापने के लिए किया जाने लगा। 15वीं शताब्दी के अंत में इंग्लैंड ने बड़े स्तर पर कागज़ की आपूर्ति करना शुरू किया और कई वर्षों तक उपनिवेशों को कागज़ की आपूर्ति की। अंत में, 1690 में, पेंसिल्वेनिया (Pennsylvania) में पहली अमेरिकी पेपर मिल (paper mill) बनाई गई।

शुरू में, अमेरिकी पेपर मिलों ने कागज़ बनाने के लिए पुराने लत्ता और कपड़ों को अलग-अलग रेशों में काटने की चीनी विधि का उपयोग किया । लेकिन जैसे-जैसे कागज़ की मांग बढ़ी, वैसे-वैसे मिलों ने पेड़ों से प्राप्त फाइबर का उपयोग करना शुरू कर दिया क्योंकि लकड़ी कपड़े की तुलना में कम महंगी और अधिक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी।

यदि हम भारत में कागज़ के इतिहास को देखें तो हस्तनिर्मित कागज तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से ही भारतीय परंपरा का हिस्सा रहा है। हस्तनिर्मित कागज के अनूठे लाभों के कारण कागज़ बनाने की तकनीक को गुप्त रखा गया। सदियों से, भारत के कई क्षेत्र अपने हस्तनिर्मित कागज़ उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हो गए, जिससे इसमें शामिल कारीगरों की स्थिति में सुधार हुआ। इन कुशल कागज़ निर्माताओं की व्यापारियों, रिकॉर्ड रखने वालों और यहाँ तक कि शाही दरबारों में भी बहुत मांग हुआ करती थी।


 

भारतीय इतिहास में हस्तनिर्मित कागज़ उत्पादन के प्रमुख केंद्रों में शामिल हैं:

  1. सांगानेर, राजस्थान: सांगानेर, एक प्राचीन शहर है जिसे अपने वस्त्रों और प्राकृतिक रंगाई विधियों के लिए जाना जाता है, साथ ही यह अपने कागज़ बनाने के लिए भी प्रसिद्ध है। कागज़ी, (कागज़ बनाने वाले कारीगर) सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुगलक के समय से ही यहाँ कागज़ बनाते आ रहे हैं। 16वीं शताब्दी में, राजा मान सिंह उन्हें सांगानेर लेकर आए।
  2. तवांग, अरुणाचल प्रदेश: अरुणाचल प्रदेश की मोनपा जनजाति ‘मोन शुगु’ नामक महीन बनावट वाला हस्तनिर्मित कागज़ बनाती है, जिसका उपयोग बौद्ध धर्मग्रंथ लिखने के लिए मठों में किया जाता है। यह कागज़ शुगु शेंग पेड़ की छाल से बनाया जाता है, जिसमें चिकित्सीय गुण होते हैं। ऐतिहासिक रूप से आय का एक प्रमुख स्रोत, तवांग में हस्तनिर्मित कागज़ उद्योग पिछली शताब्दी में लगभग गायब हो गया था। खादी और ग्रामोद्योग आयोग (KVIC) ने इस पारंपरिक शिल्प को पुनर्जीवित करने के प्रयास शुरू किए हैं।
  3. कागज़ीपुरा: कागज़ीपुरा, महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले का एक छोटा सा शहर है, जो दौलताबाद किले और खुल्दाबाद में एलोरा गुफाओं के बीच बसा है। इस शहर ने कागज़ बनाने की प्राचीन कला को आज भी संरक्षित किया हुआ है, जो मुगल काल से पहले की परंपरा है। यहाँ का स्थानीय कुटीर उद्योग सुंदर कागज़ के बैग, नोटबुक (notebooks), फ़ोल्डर (folders), कोस्टर (coasters), फ़्रेम (frames) और बहुत कुछ बनाता है। कारीगर, जिन्हें कागज़ी के रूप में जाना जाता है, इस सदियों पुराने शिल्प को बनाए रखते हैं। माना जाता है कि कागज़ीपुरा के शिल्पकार उन लोगों के वंशज हैं जो मुहम्मद बिन तुगलक के साथ तब आए थे जब उन्होंने राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरित किया था। हालाँकि अंततः राजधानी को दिल्ली ही ले आया गया, लेकिन ये परिवार वहीं रहे और उन्होंने अपनी बस्ती का नाम कागज़ीपुरा रखा। माना जाता है कि हस्तनिर्मित कागज़ बनाने का उद्योग 12वीं और 14वीं शताब्दी के बीच दक्कन की राजधानी के प्रशासन का समर्थन करने के लिए शुरू हुआ था। मुगल काल के दौरान, फरमान और पांडुलिपियों जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेज कागज़ीपुरा कागज़ पर लिखे गए थे, जो अपने बड़े आकार (कभी-कभी छह फीट से अधिक) और टिकाऊपन के लिए प्रसिद्ध था। मुगलों ने इस कागज़ की प्रसिद्धि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैलाने में मदद की।


 

उपर दिए गए सभी स्थानों के अलावा क्या आप जानते हैं कि हमारे लखनऊ में भी कागज़ का प्रचुरता के साथ उत्पादन किया जाता था। 1880 में, लखनऊ के कर अधिकारी विलियम होए ने देखा कि लखनऊ, जो कभी अपने उच्च गुणवत्ता वाले अरवाल (Arwali) कागज़ (तात से बना) के लिए जाना जाता था, अब केवल मोटे किस्म के कागज़ (जैसे कि वस्ली, जिसका उपयोग बुकबाइंडिंग के लिए किया जाता है, और ज़र्द कागज़, जो एक खुरदुरा सफ़ेद कागज़ है।) का उत्पादन करने लगा था। इस बीच, पार्सल बाँधने के लिए नेपाल से बांस का कागज़ और लिखने के लिए कलकत्ता के पास बल्ली से बादामी कागज़ और सेरामपुरी जैसे अन्य प्रकार के कागज़ आयात किए गए।

 

संदर्भ 
https://tinyurl.com/5deyncyn

https://tinyurl.com/36x8jd6u

https://tinyurl.com/2s3wckdn

https://tinyurl.com/mr45mppm


https://tinyurl.com/69dxre6m


 

चित्र संदर्भ

1. पैपिरस के पौधे और उच्च गुणवत्ता वाले कागज़ को दर्शाता चित्रण (

Look and Learn, pixels)

2. पैपिरस के पौधे को संदर्भित करता एक चित्रण (Store norske leksikon)

3. प्राचीन चीनी कागज निर्माण के पांच मौलिक चरणों को दर्शाती लकड़ी की नक्काशी! को संदर्भित करता एक चित्रण (PICRYL)

4. एक पेपरमिल को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)

 

5. उच्च गुणवत्ता वाले कागज के ढेर को संदर्भित करता एक चित्रण (Peakpx)