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इस साल की भीषण गर्मी के बीच, लोग राजनीति या बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर चर्चा करें या ना करें लेकिन जलवायु परिवर्तन और समाज में पेड़ों की भूमिका जैसे विषयों पर खूब बातें कर रहे हैं। अथाह गर्मी ने हमें हमारे आसपास पेड़-पौंधों की अहमियत को समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसलिए आने वाले समय में लोगों के बीच खेती, पारिस्थितिकी, पौधों की आनुवंशिकी के प्रति रूचि ज़रूर बढ़ेगी।
पौधों में जीन, जेनेटिक भिन्नता और आनुवंशिकता के अध्ययन क्षेत्र को प्लांट जेनेटिक्स (Plant Genetics) कहा जाता है। यह जीव विज्ञान और वनस्पति विज्ञान की एक शाखा होती है। हालाँकि यह पशु आनुवंशिकी के समान होती है, लेकिन इसके बावजूद, पशु आनुवंशिकी और प्लांट जेनेटिक्स में कुछ अलग अंतर होते हैं।
19वीं सदी के वैज्ञानिक और ऑगस्टिनियन भिक्षु (Augustinian monk) ग्रेगर मेंडल (Gregor Mendel) को जेनेटिक्स का जनक (father of genetics) माना जाता है। मेंडल ने "विशेषता विरासत (trait inheritance)" पर शोध किया, जिसके तहत इस विषय का अध्ययन किया जाता है कि, माता-पिता के लक्षण उनकी संतानों में कैसे पारित होते हैं? उन्होंने पाया कि प्रत्येक जीव अपना कोई न कोई लक्षण "विरासत की इकाइयों" के माध्यम से प्राप्त करता है। आधुनिक समय में इन इकाइयों को ही जीन (genes) के रूप में जाना जाता है। मेंडल के काम ने आधुनिक प्लांट जेनेटिक्स (Plant Genetics) की नींव रखी।
सभी जीवित जीवों की भांति, पौधे भी अपनी विशेषताओं को प्रसारित करने के लिए डीएनए का उपयोग करते हैं। जानवरों के विपरीत, पौधे कभी-कभी अपने आप ही संतान पैदा कर सकते हैं, जिससे उनकी पारिवारिक वंशावली को ट्रैक करना मुश्किल हो सकता है। हालाँकि, पौधों में कुछ विशेष आनुवंशिक क्षमताएँ होती हैं जो नई प्रजातियों के विकास को आसान बना सकती हैं। इन क्षमताओं में से एक गुणसूत्रों के एकाधिक सेट रखने की क्षमता भी है, जो कि जानवरों में नहीं होती है।
पौधे वाकई में अद्वितीय होते हैं, क्योंकि वे प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) के माध्यम से ऊर्जा-समृद्ध कार्बोहाइड्रेट (energy-rich carbohydrates) बना सकते हैं। इस प्रक्रिया में क्लोरोप्लास्ट (Chloroplasts) का उपयोग किया जाता है। क्लोरोप्लास्ट, माइटोकॉन्ड्रिया (कोशिका के उर्जा घर) के समान होते हैं, लेकिन उनका अपना खुद का डीएनए होता है। इसका मतलब यह है कि पौधों में जीन और आनुवंशिक विविधता का एक अतिरिक्त स्रोत होता है, जो उनकी आनुवंशिक संरचना को और भी जटिल बना देता है।
पौधों के अर्धसूत्रीविभाजन (meiosis) नामक एक प्रक्रिया के दौरान, डीएनए में विशिष्ट टूट-फूट (double-strand breaks) होती है। इस टूट-फूट को समजातीय पुनर्संयोजन (homologous recombination) नामक प्रक्रिया द्वारा ठीक किया जा सकता है, जिसमें RAD51 और DMC1 नामक प्रोटीन का उपयोग किया जाता है। ये प्रोटीन डीएनए क्षति की मरम्मत के लिए अन्य यूकेरियोट्स द्वारा उपयोग किए जाने वाले प्रोटीन के समान होते हैं।
हमारे लिए पादप आनुवंशिकी का अध्ययन करना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हम जो भी खाद्य पदार्थ खाते हैं, उनमें से कई को उनकी गुणवत्ता में सुधार हेतु आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है। उदाहरण के लिए, पादप आनुवंशिकी को समझकर वैज्ञानिक, फसलों को तेजी से विकसित कर सकते हैं, बीमारियों का प्रतिरोध कर सकते हैं, या अधिक पौष्टिक बना सकते हैं। इन बदलावों का अर्थव्यवस्था पर काफी असर पड़ सकता है।
कई मामलों में पेड़ पौंधे आर्थिक के साथ-साथ धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होते हैं, जिसके उदाहरण के तौर पर हम बाओबाब वृक्ष (baobab tree) को ले सकते हैं।
दुनिया भर में बाओबाब वृक्षों की आठ प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इनमें से छह प्रजातियाँ हिंद महासागर के एक द्वीप मेडागास्कर (Madagascar) में पाई जाती हैं, जबकि एक अफ्रीका में और आखिरी प्रजाति ऑस्ट्रेलिया में पाई जाती है। इन पौधों की उत्पत्ति लंबे समय से वैज्ञानिकों के बीच में रुचि का विषय रही है।
बाओबाब को "जीवन का वृक्ष" कहा जाता है, क्योंकि वे अनेकों जानवरों और कई प्रकार के पौधों को अनगिनत लाभ प्रदान करते हैं। बाओबाब के पेड़ों के खोखले तने विभिन्न जीवों के लिए आश्रय का काम करते हैं। साथ ही यह जीव भोजन के लिए भी बाओबाब के पानी और फलों पर आश्रित होते हैं। इन पेड़ों की विशाल जड़ प्रणाली मिट्टी के कटाव को रोकने और पोषक तत्वों को पुनर्चक्रित करने में मदद करती है, जिससे वे अपने पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाते हैं। बाओबाब के पेड़ों के तने कम गुणवत्ता वाली लकड़ी से बने खोखले सिलेंडर की भांति होते हैं, जिनमें पानी से भरी कई कोशिकाएँ होती हैं। ये कोशिकाएँ बड़ी मात्रा में पानी संग्रहित कर सकती हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि ऑस्ट्रेलिया के कुछ सबसे पुराने और सबसे बड़े पेड़ों में 1,00,000 लीटर से अधिक पानी संग्रहित होता है।
हालाँकि इतने महत्वपूर्ण होने के बावजूद बाओबाब के पेड़ कई घटनाओं के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। सूखे के समय में हाथी, पेड़ के अंदर मौजूद पानी तक पहुँचने के लिए उसकी छाल को छील लेते हैं, जिससे पेड़ को नुकसान पहुँच सकता है। हालांकि बाओबाब के पेड़ की छाल आग के प्रति आंशिक रूप से प्रतिरोधी यानी सुरक्षित होती है, जो सवाना के वातावरण में पनपने वाले पौधे के लिए बहुत ज़रूरी है।
निष्कर्षों से पता चलता है कि आज हम बाओबाब की जो भी प्रजातियाँ देखते हैं, वे सभी मेडागास्कर से उत्पन्न हुई हैं। वे लगभग 21 मिलियन वर्ष पहले अलग-अलग प्रजातियों के रूप में विकसित होने लगीं। बाद में, इनमें से दो प्रजातियाँ अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया पहुंच गईं। क्या आप जानते हैं कि अफ्रीकी बाओबाब के पेड़ भारतीय उपमहाद्वीप में भी पाए जाते हैं। शोधकर्ताओं ने भारत में बाओबाब के आगमन की प्रक्रिया को समझने के लिए अफ्रीका, भारत, मैस्करेन (Mascarene )और मलेशिया के बाओबाब पेड़ों का आनुवंशिक विश्लेषण किया।
शोधकर्ताओं ने अफ्रीका के उन क्षेत्रों की पहचान करने के लिए आनुवंशिक सामग्री का विश्लेषण किया, जहाँ बाओबाब की उत्पत्ति हुई। इसके बाद उन्होंने अफ्रीका और इन स्थानों के बीच व्यापार और बातचीत के ऐतिहासिक खातों के साथ आनुवंशिक संबंधों की तुलना की ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि बाओबाब पूरी दुनियां में कैसे फैले थे।
आनुवंशिक विश्लेषण से कुछ आकर्षक निष्कर्ष सामने आए। सबसे पहले, इसने दिखाया कि भारतीय बाओबाब, वास्तव में अफ्रीकी प्रजाति एडानसोनिया डिजिटाटा (Adansonia digitata) जैसी ही प्रजातियाँ थीं। इसके अलवा भारतीय आबादी में अफ्रीकी आबादी की तुलना में आनुवंशिक विविधता भी कम थी। हालांकि, विश्लेषण से यह भी पता चला कि कुछ भारतीय बाओबाब में अफ़्रीकी आबादी में नहीं पाए जाने वाले अनोखे आनुवंशिक लक्षण थे। इससे पता चलता है कि उन्हें संभवतः मनुष्यों द्वारा भारत उपमहाद्वीप में लाया गया हो।
इस संदर्भ में एक अन्य महत्वपूर्ण खोज यह भी थी कि अंतर्देशीय मोज़ाम्बिक और तटीय तंजानिया के कुछ क्षेत्रों में बाओबाब कि आबादी अलग-अलग आनुवंशिक समूहों से संबंधित थी। इससे पता चलता है कि यहाँ भी उन्हें कहीं और से लाया गया था। भारत में इस पेड़ को आप कई स्थानों में देख सकते हैं।
उदाहरण के तौर पर प्रयागराज के झूंसी गावं में ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण बाओबाब वृक्ष स्थित है। मौर्य, शुंग, कुषाण, गुप्त और मध्यकाल के अभिलेखीय अवशेष बताते हैं कि झूंसी में बहुत पहले से एक उन्नत सभ्यता निवास करती थी। प्रतिष्ठान (झूंसी) का उल्लेख कूर्म पुराण और मत्स्य पुराण में प्रयागमंडल के रूप में भी किया गया है। यहाँ पर बाओबाब का वृक्ष पवित्र नदी गंगा के बाएं तट पर मिट्टी के एक बड़े टीले पर उगा हुआ है, जो त्रिवेणी संगम के बहुत करीब है। यह पवित्र वृक्ष सूफी संत सैय्यद शाह सदरुल हक तकीउद्दीन (1320-1384) के "मज़ार" (मकबरे) से सिर्फ 5 मीटर की दूरी पर है, जिन्हें बाबा शेख तकी के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शेख तकी ने अपना "दातुन" (टूथब्रश के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली टहनी) ज़मीन पर उल्टा रख दिया था, जो बाद में इस पेड़ में विकसित हो गया। 1978 तक इस पेड़ को "विलायती इमली" कहा जाता था। हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक बार फिर से बाओबाब की जांच की, जिससे पता चला कि इसकी आयु 750 से 1350 वर्ष के बीच हो सकती है। 2013 में कुंभ मेले के दौरान इस पेड़ को बहुत नुकसान पंहुचा था, जब इसके पूर्वी हिस्से में पास में डेरा डाले तीर्थयात्रियों ने गलती से आग लगा दी थी।
इस वृक्ष की पूजा हिंदू और मुसलमान दोनों करते हैं और इसका अनोखा आकार तथा इसकी संरचना इसे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तौर पर महत्वपूर्ण बनाती है। हाल ही में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम 'मन की बात' में भी उत्तर प्रदेश के महोबा से एक कॉलर द्वारा की गई पूछताछ ने पेड़ की दुर्दशा की ओर ध्यान आकर्षित किया। इसके बाद, प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण (Botanical Survey of India (BSI) को पेड़ की स्थिति की जांच करने का निर्देश दिया। बीएसआई ने सेंटर फॉर सोशल फॉरेस्ट्री एंड इको रिहैबिलिटेशन (Centre for Social Forestry and Eco Rehabilitation (CSFER) की मदद मांगी और दोनों संस्थानों के वैज्ञानिकों ने पेड़ का निरीक्षण किया, और पीएमओ को इसे संरक्षित करने के तरीकों की रूपरेखा वाली एक रिपोर्ट भेजी। वैज्ञानिक रूप से 'एडंसोनिया डिजिटाटा (Adansonia digitata)' के नाम से जाना जाने वाला, यह पेड़ उत्तर प्रदेश के बाराबंकी और महोबा में भी पाया जाता है।
हालांकि, मिट्टी के कटाव के कारण इसकी जड़ें उजागर हो गई हैं, और पेड़ के कभी भी गिरने का खतरा बना हुआ है। इस प्राचीन और सांस्कृतिक रूप से महत्वपूर्ण पेड़ के संरक्षण के लिए प्रयास जारी हैं।
बाओबाब का एक अन्य वृक्ष उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के पास किंटूर गांव में में भी पाया जाता है, जिसे पारिजात वृक्ष के नाम से भी जाना जाता है, और इसे भी धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इसे "कल्पवृक्ष" या इच्छा-पूर्ति करने वाला पेड़ माना जाता है। एक किंवदंती के अनुसारमाता कुंती द्वारा स्थापित एक मंदिर के पास स्थित यह पेड़ कुंती की राख से विकसित हुआ था। एक और कहानी कहती है कि अर्जुन इस पेड़ को स्वर्ग से लाए थे और उनकी माँ कुंती ने इसके फूलों से भगवान शिव का मुकुट बनाया था। इस क्षेत्र में सबसे प्रचलित किंवदंती कहती है कि भगवान श्री कृष्ण खुद 5,000 साल पहले अपनी प्रिय रानी रुक्मिणी के लिए इस पेड़ को स्वर्ग से लाए थे।
आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि मध्य प्रदेश की राज्य सरकार बाओबाब पेड़ के फल, जिसे खोरासानी इमली के नाम से जाना जाता है, के लिए भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग के लिए आवेदन करने की योजना बना रही है, ताकि इसकी पहचान, किसानों के लिए आर्थिक लाभ और दुर्लभ पेड़ की सुरक्षा को बढ़ावा दिया जा सके। बाओबाब पेड़ अफ्रीका और मेडागास्कर का मूल निवासी है, लेकिन मध्य प्रदेश के मांडू में बहुतायत में पाया जाता है, इस क्षेत्र में अनुमानित 1,000 पेड़ हैं।
संदर्भ
https://tinyurl.com/4uzac757
https://tinyurl.com/4tbzffc6
https://tinyurl.com/mrysxbh7
https://tinyurl.com/4syf94y2
https://tinyurl.com/4xahudaja
चित्र संदर्भ
1. उत्तर प्रदेश राज्य में बाराबंकी के किंटूर में स्थित पारिजात भारत सरकार द्वारा संरक्षित वृक्ष है, जिसको दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. प्लांट जेनेटिक्स की प्रयोगशाला को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. अर्धसूत्रीविभाजन के चरणों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. प्लांट जेनेटिक्स को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
5. मेडागास्कर के बाओबाब वृक्षों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
6. बाओबाब के पेड़ के भीतर आदिवासी बच्चों को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
7. धुले, महाराष्ट्र, भारत में बाओबाब के पेड़ को दर्शाता एक चित्रण (wikipedia)
8. किंटूर में स्थित पारिजात वृक्ष को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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