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आईये याद करें प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, लखनऊ में घटित घटनाओं एवं उनके प्रभाव को

लखनऊ

 10-05-2024 10:14 AM
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक

हमारे शहर लखनऊ की गिनती भारत के उन शहरों में होती है, जो अपनी समृद्ध विरासत के लिए जाने जाते हैं। ऐतिहासिक रूप से, अवध क्षेत्र में स्थित, लखनऊ हमेशा एक बहुसांस्कृतिक शहर रहा है। शहर में फ़ारसी भाषा व् सभ्यता के प्रेमी रहे शिया नवाबों द्वारा संरक्षित दरबारी शिष्टाचार, आकर्षक उद्यानों, संगीत और लज़ीज व्यंजनों ने सदैव भारतीयों और दक्षिण एशियाई संस्कृति और इतिहास के प्रशंसकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। लखनऊ को नवाबों के शहर के नाम से जाना जाता है। इसे पूर्व का स्वर्ण शहर, शिराज-ए-हिंद और भारत का कॉन्स्टेंटिनोपल (Constantinople) भी कहा जाता है।
लखनऊ का इतिहास 1350 ईसवी के आसपास शुरू होता है, जब इस स्थान को अवध के नाम से जाना जाता था। लखनऊ के प्राचीन इतिहास में उल्लेख है कि 1350 ईसवी के बाद से लखनऊ और अवध क्षेत्र के कुछ हिस्से दिल्ली सल्तनत, शर्की सल्तनत, मुगल साम्राज्य, अवध के नवाब, और फिर ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश राज के अधीन रहे। लखनऊ, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख केंद्रों में से एक था और इसने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और स्वतंत्रता के बाद यह उत्तर भारत का एक प्रमुख शहर बनकर उभरा। 1857 के विद्रोह को आम तौर पर सैन्य संदर्भ में प्रस्तुत किया जाता है, क्योंकि यह ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों के खिलाफ हमारे सिपाहियों द्वारा विद्रोह के रूप में शुरू हुआ था। 1857 के महान विद्रोह की घटनाओं की रूपरेखा से हर कोई परिचित है लेकिन कुछ पहलू ऐसे हैं जिन्होंने लखनऊ पर एक विशिष्ट प्रभाव डाला। इसके विषय में जानने के लिए हमें फरवरी 1856 (जब अंग्रेज़ों ने अवध राज्य पर कब्ज़ा कर लिया था) से लेकर 1857 (जब पुरानी लखनऊ छावनी में विद्रोह शुरू हुआ था) के घटनाक्रमों को देखने की आवश्यकता है। इन 15 महीनों के दौरान जो घटनाएं घटित हुई उन सभी ने एक साथ अंग्रेज़ों के विरुद्ध एक दृढ़ आक्रोश की भावना को जन्म दिया। शुरुआत में यह विद्रोह बहुत स्थानीय था, और इसका मुख्य केंद्र केवल उत्तर भारत के तीन या चार शहरों - मेरठ, कानपुर, दिल्ली और लखनऊ तक ही सीमित था।
अवध के अंतिम शासक वाजिद अली शाह को ब्रिटिश रेज़िडेंट मेजर जनरल सर जेम्स आउट्रम (Sir James Outram) ने 7 फरवरी 1856 को अपदस्थ कर दिया था। जिसके कारण वाजिद अली शाह ने महारानी विक्टोरिया (Queen Victoria) से इंग्लैंड जाकर मिलने का फैसला किया। 12 मार्च को वाजिद अली शाह अपनी मां, अपने भाई और अपनी दो पत्नियों के साथ कलकत्ता से जहाज़ में बैठ इंग्लैण्ड चले गए। वाजिद अली शाह के चले जाने के बाद, उनकी सेना को अंग्रेज़ों ने भंग कर दिया, और अवध की अनियमित सेना के नाम से अपनी खुद की रेजिमेंट स्थापित की। लेकिन पुरानी सेना में काम कर चुके आधे से अधिक अधिकारियों और सैनिकों को इस नई सेना में स्थान नहीं मिला। जिसके कारण 1856 के अंत तक अनुमानित 30,000 सेवामुक्त, सशस्त्र अधिकारी और सैनिक, जो कि बेरोज़गार थे, अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ने के लिए एक बड़ी ताकत के रूप में सामने आए। लेकिन इसके अलावा, अंग्रेज़ों द्वारा लखनऊ में इमारतों को ध्वस्त करना, अंग्रेज़ों के खिलाफ लोगों के मन में सबसे अधिक आक्रोश की भावना को भड़काने वाला कृत्य था। जब लोगों ने अपने घरों और शानदार सार्वजनिक भवनों को ढहते देखा, तो उनके आक्रोश की सीमा ना रही। अंग्रेज़ों द्वारा प्रशासनिक मुख्यालय, मोती मोहाल और पुराने सैन्य मुख्यालय, मच्छी भवन किले पर कब्ज़ा कर लिया गया। इसके अलावा अंग्रेज़ों ने रेज़िडेंसी के पूर्व बैंक्वेटिंग हॉल में अपना खुद का इलेक्ट्रिक टेलीग्राफ स्थापित कर दिया, ताकि वे कलकत्ता से संदेश प्राप्त कर सकें। जबकि वाजिद अली शाह के द्वारा इसके लिए अनुग्रह किए जाने पर अंग्रेज़ों ने इसके लिए साफ इनकार कर दिया था। इस अवधि के दौरान लखनऊ के उर्दू भाषा के समाचार पत्रों के संपादकों को गलत आरोपों पर गिरफ्तार कर लिया गया, और समाचार पत्रों को बंद कर दिया गया। अंग्रेज़ों द्वारा नए कर लागू किए गए, जिससे व्यापारियों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ा।
इसके अलावा अंग्रेज़ों ने ग्रामीण इलाकों में तालुकदारों एवं ज़मींदारों से उनकी ज़मीनें हड़प लीं। और इस प्रकार यह वर्ग भी अंग्रेज़ों के विरुद्ध हो गया। इसके बाद विद्रोह की पहली चिंगारी तब भड़की, जब 2 मई 1857 को लखनऊ में ब्रिटिश छावनी में तैनात नई रेजिमेंट के सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का उपयोग करने से इनकार कर दिया। अगले दिन सर हेनरी लॉरेंस द्वारा इन सैनिकों को निरस्त्र कर दिया गया और दो सप्ताह बाद इस विरोध प्रदर्शन में भाग लेने वाले बीस सैनिकों को मच्छी भवन किले के सामने फाँसी दे दी गई। यह कहना गलत नहीं है कि यह चर्बी वाले कारतूस ही थे जिन्होंने विद्रोह के लिए चिंगारी प्रदान की। इधर मई में ही लखनऊ में लोगों को मेरठ और दिल्ली प्रशासन पर भी भारतीय सैनिकों द्वारा कब्जे के बारे में पता चला। वहीं दूसरी ओर अंग्रेज़ों द्वारा भारतीयों की संपत्ति एवं ज़मीन जायदाद पर कब्जा किया जा रहा था। सबसे महत्वपूर्ण घटना यह थी कि बेगम हजरत महल के नेतृत्व में क्रांतिकारी जुंटा ने शहर के चारों ओर विशाल मिट्टी की प्राचीरों का निर्माण शुरू कर दिया था। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने इन स्थानों पर काम करने वाले मजदूरों को भुगतान करने के लिए अपने आभूषण और कीमती सामान 5 लाख रुपये में बेच दिए थे। ग्रामीण इलाकों में, ग्रामीणों पर अंग्रेज़ों को भोजन न देने का दबाव डाला गया और कुल मिलाकर, यह एक सफल युद्धाभ्यास था। और अंग्रेज़ों को लखनऊ से बाहर खडेड़ दिया गया। लखनऊ के मध्य में वापस लौटने के लिए ब्रिटिश सेना को अत्यधिक संघर्ष के साथ 1 मार्च से 16 मार्च 1858 तक दो सप्ताह लगे। ब्रिटिश सेना ने नेपाल के राजा द्वारा भेजे गए गोरखा सैनिकों से हाथ मिला लिया और एक साथ आगे बढ़ते हुए, उन्होंने शहर के दक्षिण में तीन अलग-अलग महलों पर कब्ज़ा कर लिया। मार्च 1858 के अंत तक, ब्रिटिश और उनके भारतीय सहयोगियों ने लखनऊ पर पुनः कब्ज़ा कर लिया था। जून 1858 तक, उन्होंने अधिकांश विद्रोही समूहों को आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया था। इसके बाद, यह सुनिश्चित करने के लिए कई राजनीतिक परिवर्तन किए गए कि विद्रोह दोबारा न हो। विद्रोही रेजीमेंटों को भंग कर दिया गया जबकि ब्रिटिशों के साथ लड़ने वाले भारतीय सैनिकों को पुरस्कृत किया गया।
इस विद्रोह का तात्कालिक परिणाम यह रहा कि भारत पर ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रत्यक्ष शासन को समाप्त कर दिया गया और इसके स्थान पर ब्रिटिश शासन लागू किया गया। विद्रोह के कारण उत्पन्न वित्तीय संकट के कारण भारतीय प्रशासन के वित्त को आधुनिक आधार पर पुनर्गठित किया गया। भारतीय सेना का भी बड़े पैमाने पर पुनर्गठन किया गया। विद्रोह का एक और महत्वपूर्ण परिणाम भारतीयों के साथ परामर्श की नीति की शुरुआत थी।1853 की विधान परिषद में केवल यूरोपीय लोग शामिल थे। यह व्यापक रूप से महसूस किया गया कि भारतीयों के साथ संचार की कमी ने संकट को बढ़ाने में मदद की थी। तदनुसार, 1861 की नई परिषद में भारतीयों को स्थान दिया गया। अंततः विद्रोह का प्रभाव स्वयं भारत की जनता पर पड़ा। भारतीय समाज की पारंपरिक संरचना का स्थान अंततः पश्चिमी वर्ग व्यवस्था ने ले लिया, जिससे भारतीय राष्ट्रवाद की गहरी भावना के साथ एक मजबूत मध्यम वर्ग उभरा। नये लखनऊ के निर्माण में अवध के तालुकदारों ने पुनर्जागरण का हिस्सा बनकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विद्रोह के बाद लखनऊ में बड़ी मात्रा में विकास हुआ; मेडिकल कॉलेज, लखनऊ विश्वविद्यालय और कई अन्य संस्थान और पुस्तकालयों की स्थापना हुई। इसी दौरान पुराने एवं नए लखनऊ के बीच में हजरतगंज एक माध्यम के रूप में भी उभरा। अपनी प्राचीन संस्कृति को न भुलाते हुए लखनऊ ने सदैव खुद को अपने शासक की नई संस्कृति के अनुरूप ढाला। अवध के इतिहास में 1857 एक ऐतिहासिक काल था। 1857 से पहले यहां जो संस्कृति थी, वह भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के बाद लुप्त हो गयी। और एक नई औपनिवेशिक संस्कृति का उदय हुआ। शुरुआत में इस बदलाव का विरोध हुआ. अंततः प्रतिरोध कम हो गया। औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लोगों का गुस्सा कम हो गया और अभिजात वर्ग ने अंग्रेजी भाषा की वैश्विक तस्वीर, पश्चिमी उत्पादों के महत्व, पश्चिमी शिक्षा और पश्चिमी न्यायशास्त्र को एक अलग तरीके से देखना शुरू कर दिया। उस संदर्भ में, लखनऊ, जो पहले से ही विकसित हो चुका था, ने खुद को पश्चिमीकरण के अनुरूप भी ढाल लिया।

संदर्भ
https://shorturl.at/cdJ34
https://shorturl.at/hsv89
https://rb.gy/vkig11
https://rb.gy/psqizw

चित्र संदर्भ
1. थॉमस जे. बार्कर द्वारा लगभग 1914 में निर्मित "रिलीफ ऑफ़ लखनऊ' के चित्र' (The Relief of Lucknow)" को संदर्भित करता एक चित्रण (getarchive)
2. ब्रिटिश अधीन भारत में कलकत्ता के दृश्य को संदर्भित करता एक चित्रण (getarchive)
3. 14 सितंबर 1857 के दिन दिल्ली के कश्मीरी गेट पर क़ब्ज़े को संदर्भित करता एक चित्रण (picryl)
4. 1857 में लखनऊ के बाहरी इलाके में कानपुर रोड के पास स्थित आलमबाग की छत पर ब्रिटिश सैनिकों को संदर्भित करता एक चित्रण (picryl)
5. 1857 में लखनऊ में फैले विद्रोह की पेंटिंग को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)



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