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संस्कृत, को देववाणी अर्थात् "देवताओं की भाषा" कहलाने का गौरव प्राप्त है। हिंदुओं के अधिकांश धार्मिक ग्रंथों को इसी प्राचीनतम भाषा में लिखा गया है। आधुनिक समय में भी धार्मिक अनुष्ठानों और समारोहों के दौरान, संस्कृत मंत्रों का पाठ किया जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि संस्कृत की उत्पत्ति कैसे हुई तथा इसका साहित्य और व्याकरण कैसे बना? आज, हम पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि जैसे प्राचीन विचारकों के योगदान को समझते हुए, संस्कृत व्याकरण की जटिलताओं को भी आसान भाषा में समझने का प्रयास करेंगे।
संस्कृत की जड़ें प्रोटो-इंडो-ईरानी और प्रोटो-इंडो-यूरोपीय भाषाओं में निहित हैं, यानी संस्कृत की संरचना, शब्दावली और व्याकरण काफ़ी हद तक इन प्राचीन भाषाओं से मिलती जुलती हैं। संस्कृत का इंडो-ईरानी (आर्य) और इंडो-यूरोपीय भाषाओं को बोलने वाले लोगों के साथ ऐतिहासिक संबंध रहा है। आज, पूरी दुनियाँ में तक़रीबन 46% लोग इंडो-यूरोपीय भाषा बोलते हैं। इनमें से सबसे अधिक बोली जाने वाली अंग्रेजी, हिंदी, बंगाली, पंजाबी, स्पेनिश, पुर्तगाली और रूसी हैं, जिनमें से प्रत्येक को बोलने वाले लोगों की संख्या 100 मिलियन से अधिक है। प्रोटो-इंडो-यूरोपीय भाषाओं से विकसित संस्कृत भाषा का उपयोग 1500-500 ईसा पूर्व से ही वेदों और हिंदू धार्मिक ग्रंथों को लिखने के लिए किया गया था।
1500-500 ईसा पूर्व के आसपास संकलित वेद (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद) और संहिताएं, वैदिक धर्म के अनुयायियों के लिए मार्गदर्शक का काम करते हैं। भारत में वर्णमाला लेखन के आगमन से भी बहुत पहले, वैदिक मंत्रोच्चार परंपरा के हिस्से के रूप में, वैदिक संस्कृत को मौखिक रूप से संरक्षित और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पारित किया गया था।
संस्कृत साहित्य की शुरुआत लगभग 1500 ईसा पूर्व में कांस्य युग के दौरान वेदों से हुई, जिन्हें मौखिक तौर पर बोला या गाया जाता था। भारत में यह परंपरा 1200 ईसा पूर्व में लौह युग के दौरान भी संस्कृत महाकाव्यों की मौखिक परंपरा के साथ जारी रही। समय के साथ, लगभग 1000 ईसा पूर्व के आसपास, वैदिक संस्कृत का उपयोग दैनिक भाषा के तौर पर धर्म और शिक्षा की भाषा के रूप में भी किया जाने लगा।
लगभग 500 ईसा पूर्व में प्राचीन विद्वान पाणिनि ने वैदिक संस्कृत के व्याकरण का मानकीकरण किया, जिसमें वाक्यविन्यास, शब्दार्थ और आकृति विज्ञान (शब्दों का अध्ययन, उनके गठन और उनके अंतर्संबंध) के 3,959 नियम शामिल थे। पाणिनि द्वारा रचित (अष्टाध्यायी, जिसमें उनके नियमों और उनके स्रोतों का विवरण देने वाले आठ अध्याय शामिल हैं) को संस्कृत के भाषाई विश्लेषण और व्याकरण हेतु सबसे महत्वपूर्ण पाठ माना जाता है। इस मानकीकरण के माध्यम से, पाणिनि ने शास्त्रीय संस्कृत की नींव रखी।
वैदिक पौराणिक कथाओं से प्रभावित कई नाटक, संस्कृत साहित्य की एक अनूठी शैली बन गए। शूद्रक, भास, अश्वघोष और कालिदास जैसे प्रसिद्ध नाटककारों ने कई नाटक लिखे, जिन्हें हम आज भी पढ़ सकते हैं। हालाँकि, हम इन लेखकों के बारे में ज़्यादा नहीं जानते। कालिदास के नाटकों में से एक, अभिज्ञानशाकुंतलम को एक उत्कृष्ट कृति माना जाता है, जो कि अंग्रेजी और कई अन्य भाषाओं में अनुवादित पहली संस्कृत कृतियों में से एक थी।
कुछ संस्कृत रचनाओं, (जैसे पतंजलि के योग-सूत्र, जिनका उल्लेख आज भी योग चिकित्सक करते हैं, और उपनिषद- पवित्र हिंदू ग्रंथों का एक संग्रह) का अरबी और फ़ारसी में भी अनुवाद किया गया था। अपने नैतिक पाठों और दार्शनिक कथनों के लिए जानी जाने वाली संस्कृत किवदंतियों और दंतकथाओ, ने फ़ारसी और अरबी साहित्य को प्रभावित किया।
लगभग 500 ईसा पूर्व में पाणिनी द्वारा लिखित "अष्टाध्यायी" में संस्कृत व्याकरण के नियम बताए गए हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन नियमों में आज भी कोई बदलाव नहीं किया गया है, और इनका प्रयोग आज भी किया जाता है।
संस्कृत में क्रियाओं के भी तीन संख्यात्मक रूप होते हैं:
1. एकवचन
2. द्विवचन
3. बहुवचन
इसके अतिरिक्त, क्रियाओं के लिए दस काल और तीन स्वर (सक्रिय, मध्य और निष्क्रिय) निर्धारित होते हैं। यह व्यापक संरचना संस्कृत को बहुत सटीक और सूत्रबद्ध बनाती है।
हालाँकि जटिल प्रतीत होने के बावजूद, संस्कृत वास्तव में कठिन भाषा नहीं है। "संस्कृत" के नाम का अर्थ ही "शुद्ध या परिपूर्ण" होता है। इसे मानव इतिहास की सबसे सटीक और संतुलित भाषाओं में से एक माना जाता है। इसकी शब्दावली, ध्वनियाँ, व्याकरण और वाक्य संरचना सभी पूरी तरह से व्यवस्थित हैं, जिस कारण इसे चरण-दर-चरण तरीके से सीखना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है।
शुरुआत में संस्कृत व्याकरण सीखना आपको कठिन लग सकता है, लेकिन एक बार जब आप समझ जाएंगे कि यह कैसे काम करता है, तो आप पाएंगे कि यह उन चुनिंदा भाषाओं में से एक है जहां शब्द और वाक्य बनाना काफी सरल है।
संस्कृत में 52 अक्षर होते हैं, जिनमें 16 स्वर और 36 व्यंजन होते हैं। दिलचस्प बात यह है कि 52 संस्कृत वर्णमाला में से 50 अक्षर मानव शरीर के चक्रों से उत्पन्न हुए हैं।
संस्कृत में संसार की प्रत्येक वस्तु का एक तत्सम शब्द होता है। ये शब्द हजारों वर्षों से वैसे ही बने हुए हैं, और इनमें कोई नया शब्द नहीं जोड़ा गया है। संस्कृत में प्रत्येक अक्षर का एक अर्थ होता है, और प्रत्येक शब्द किसी वस्तु का संपूर्ण वर्णन करने के बजाय उसकी विशेषता का वर्णन करता है।
संस्कृत शब्द धातु नामक मूल तत्वों से बने होते हैं, जिनमें से प्रत्येक का अपना अर्थ होता है। संस्कृत में लगभग 2200 धातुएँ हैं और इन धातुओं में उपसर्ग और प्रत्यय जोड़कर अनगिनत शब्द बनाए जा सकते हैं। संस्कृत के प्रत्येक शब्द में लिंग, मात्रा और काल जैसी जानकारी भी होती है, जिससे संस्कृत बोलने वालों के लिए शब्द और उसका संदर्भ दोनों समझना आसान हो जाता है।
संस्कृत में लिखित रूप (अक्षर) और मौखिक रूप (ध्वनि) का एकदम सटीक मेल नज़र आता है। संस्कृत में उच्चारण करते समय होठों के आकार के आधार पर स्वरों को लघु और दीर्घ में वर्गीकृत किया जाता है। इसमें व्यंजन भी तार्किक ढंग से व्यवस्थित हैं।
संस्कृत साहित्य को मानव जीवन के समतुल्य ही व्यापक समझा जाता है। यह जीवन के चार मुख्य लक्ष्यों को इंगित करता है, जिन्हें पुरुषार्थ के रूप में जाना जाता है:
1. धर्म (कर्तव्य और ज़िम्मेदारियां),
2. अर्थ (वित्तीय ज़रूरतें),
3. काम (सभी प्रकार की मानवीय इच्छाएं)
4. मोक्ष (जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति)
धर्म की नींव माने जाने वाले वेद, संस्कृत साहित्य का एक प्रमुख हिस्सा माने जाते हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार, वेद द्रष्टाओं या ऋषियों द्वारा देखे गए दिव्य रहस्योद्घाटन हैं, जिन्हें बाद में ऋषि व्यास द्वारा चार संग्रहों में व्यवस्थित किया गया। विद्वानों का मानना है कि ये ग्रंथ 6500 ईसा पूर्व से 1500 ईसा पूर्व के बीच लिखे गए थे।
महर्षि वाल्मीकि, सांसारिक कविता, या लोक-काव्य लिखने वाले पहले दिव्य पुरुष माने जाते हैं। उन्होंने लगभग 500 ईसा पूर्व महाकाव्य रामायण की रचना की, जिसने बाद के साहित्य को बहुत प्रभावित किया। दूसरा महाकाव्य, महाभारत, कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा लिखा गया था, जिसे ज्ञान का भंडार माना जाता है।
संस्कृत के साथ भारतीय महाकाव्य के उत्थान में गुप्त काल के दौरान कालिदास और अश्वघोष सहित कई कवियों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस दौरान भारवि, भट्टी, कुमार दास और माघ जैसे कालजयी लेखकों ने कई प्रमुख महाकाव्य लिखे। हरिषेण और वत्सभट्टी भी इस अवधि के उल्लेखनीय लेखक माने जाते हैं। हालाँकि आज अधिकांश संस्कृत साहित्य प्रकाशित हो चुका है, लेकिन फिर भी कई पांडुलिपियां अभी भी प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। ये पांडुलिपियाँ पुस्तकालयों और संस्कृत विद्वानों के घरों में संग्रहित हैं। इन रचनाओं का प्रकाशन होना भी आवश्यक है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/48wxwwtc
https://tinyurl.com/9zn2hc3d
https://tinyurl.com/4s8fb2t3
चित्र संदर्भ
1. एक संस्कृत पाण्डुलिपि को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. संस्कृत की एक चिकित्सा आधारित पाण्डुलिपि को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. एक भारतीय ऋषि को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. संस्कृत की पुरुष तालिका को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
5. संस्कृत वाक्य के अन्दर उपस्थित पहचान-चिह्न को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. महर्षि वाल्मीकि को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)