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चिकनकारी और ज़रदोज़ी कढ़ाई बनाती है, लखनऊ को पूरब का स्वर्ण

लखनऊ

 16-04-2024 09:43 AM
स्पर्शः रचना व कपड़े

हमारे लखनऊ शहर को यहाँ के हस्तशिल्प उद्योग की संपन्नता के आधार पर “पूरब का स्वर्ण" भी कहा जाता है ।" हालांकि केवल लखनऊ ही नहीं बल्कि पूरे भारत के वस्त्र उद्योग को दुनिया के प्राचीनतम वस्त्र उद्योग होने का गौरव प्राप्त है। यद्यपि जहां एक ओर भारत को आज भी प्रचुर मात्रा में कपास उत्पादन के लिए दुनिया भर में जाना जाता है, तो वहीं हमारे शहर को ज़रदोज़ी और चिकनकारी की खूबसूरत कढ़ाई के आधार पर अलग पहचान हासिल है।
भारत का कपड़ा उद्योग अपने आप में 5000 से अधिक वर्षों का इतिहास समेटे हुए है। इस उद्योग की शुरुआत गांवों में साधारण हथकरघा उद्योग से शुरु हुई और धीरे-धीरे यह आधुनिक कपड़ा मिलों में विकसित हो गया। प्राचीन काल में 'चोल', 'सेल्जुक' और 'सफ़ाविद' के शासनकाल काल से लेकर आधुनिक भारत तक, कपड़ा उद्योग में उल्लेखनीय प्रगति देखी गई है। भारतीय वस्त्रों का इतिहास विश्व स्तर पर सबसे पुराना माना जाता है। भारत में लगभग 4000 ईसा पूर्व में भी सूती धागों के प्रयोग होने के साक्ष्य मिले हैं। उस समय भारत के वस्त्र उद्योग के प्रभाव का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि, प्राचीन ग्रीस और बेबीलोन में, ‘भारत' शब्द को 'कपास' का पर्याय माना जाता था।
सिंधु घाटी सभ्यता (2500-2000 ईसा पूर्व) के दौरान, मोहनजदारो और हड़प्पा जैसे शहरों में कपड़ो का उत्पादन खूब फला-फूला। पुरातात्विक खोजों में स्पिंडल व्होरल (spindle whorl), कपास के बीज और बुने हुए कपड़े के भी निशान शामिल हैं। भारत का कपड़ा उद्योग आज भी हमारी अर्थव्यवस्था और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है! भारत में इस उद्योग के विकास को तीन चरणों में समझा जा सकता है: 1. औपनिवेशिक शासन से पहले: यूरोपीय लोगों के आने से पहले भी भारत अपने वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध था। पश्चिम में, यहाँ के रेशम और कपास की बहुत अधिक मांग हुआ करती थी। 15वीं शताब्दी में वास्को ड गामा (Vasco da Gama) द्वारा भारत की ओर समुद्री मार्ग की खोज ने पश्चिमी देशों की भारतीय वस्तुओं तक की पहुंच को और भी अधिक सुलभ बना दिया। इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company) के आगमन से व्यापार को और बढ़ावा मिला उस समय भी भारतीय कारीगरों को स्थानीय संसाधनों का उपयोग करके कपड़ा बनाने और सजाने के अपने अनूठे तरीकों के लिए जाना जाता था। 2. औपनिवेशिक शासन के दौरान: ब्रिटिश साम्राज्य में कैलिकौ: (Calico) जैसे भारतीय वस्त्र खूब लोकप्रिय हुआ करते थे। पीढ़ियों से तराशी गई भारतीय कारीगरों की विविधता और शिल्प कौशल ने इन वस्त्रों को यूरोपीय वस्त्रों से भी बेहतर साबित किया। लेकिन बाद में यूरोप से सस्ते और मशीन से बने कपड़े, भारतीय तथा यूरोपीय बाजारों में आने के साथ ही परिस्थितियां बदलने लगी। इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के कारण भारत में ब्रिटिश वस्तुओं पर आयात शुल्क हटा दिया गया, जबकि भारतीय वस्त्रों को ब्रिटेन में भारी शुल्क देना पड़ रहा था। इस प्रतिस्पर्धा के कारण भारत के कपड़ा उद्योग में भारी गिरावट देखी गई।
3. स्वतंत्रता के बाद: औपनिवेशिक शासन के तहत इस उद्योग को भारी नुकसान उठाना पड़ा और इस दौरान अंग्रेजों ने केवल लाभ पर ध्यान केंद्रित किया। लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन की बदौलत ब्रिटिश कपड़ों के बहिष्कार और खादी के उपयोग में वृद्धि देखी गई, जो कि स्व-शासन का प्रतीक था। इसका समर्थन महात्मा गांधी द्वारा किया गया था।
15 अगस्त 1947 के दिन देश को आजादी मिलने के बाद भारत को अपने वस्त्र उद्योग का आधुनिकीकरण करना पड़ा। सरकार ने अखिल भारतीय हथकरघा बोर्ड (All India Handloom Board) के साथ मिलकर पारंपरिक बुनकरों की मदद की और राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान के साथ नए डिजाइनों की पेशकश की। आज के समय में भारत विश्व स्तर पर चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा कपड़ा उत्पादक बन चुका है। भारत के वस्त्र उद्योग को देश के विनिर्माण क्षेत्र की आधारशिला माना जाता है, जो न केवल कपड़ा क्षेत्र में बल्कि संबंधित क्षेत्रों में भी रोजगार प्रदान करता है। इस क्षेत्र में हमारे लखनऊ शहर का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है, जो कि खासतौर पर अपनी उत्कृष्ट चिकनकारी और ज़रदोज़ी कढ़ाई के लिए प्रसिद्ध है । चिकनकारी एक पारंपरिक शिल्प है, जिसमें जटिल हाथ की सिलाई से जटिल और आकर्षक डिज़ाइनों का निर्माण किया जाता है। यह कला हमारे शहर के लिए गौरव का विषय है। ऐसा कहा जाता है कि इसकी शुरुआत मुगल सम्राट जहांगीर की पत्नी महारानी नूरजहाँ ने की थी। चिकनकारी की विशेषता टप्पा, जाली और टेपची जैसे 36 अद्वितीय टाँके होते हैं, जिनसे ऐसे ख़ास पैटर्न बनाए जाते हैं जो शिफॉन, रेशम और ऑर्गेज़ा जैसे कपड़ों की सुंदरता में चार चाँद लगा देते हैं।
इस शैली से निर्मित कपड़े स्टाइलिश (stylish) होने के साथ-साथ आरामदायक और गर्मी के मौसम के लिए भी बिल्कुल उपयुक्त होते हैं। लखनऊ की चिकनकारी साड़ियों और कुर्तियों की अपने बेहतरीन, शाही लुक के कारण बहुत अधिक मांग रहती है। लखनऊ की चिकनकारी कढ़ाई ने 1700 और 1800 के दशक में अवध के नवाबों के अधीन प्रसिद्धि प्राप्त की। इन शासकों को कला से बहुत प्रेम था।
इसी वजह से स्थानीय संस्कृति के साथ मिश्रण करके चिकनकारी को फलने-फूलने में मदद मिली, जिससे इसके अनूठे पैटर्न सामने आए। चिकनकारी कढ़ाई का इतिहास लखनऊ की समृद्ध संस्कृति को दर्शाता है, और समय के साथ इसका आकर्षण और भी बढ़ा है।
लखनऊ की चिकनकारी के साथ-साथ ज़रदोज़ी कढ़ाई को भी अपनी ख़ास पहचान हासिल है। जरदोज़ी कढ़ाई में भी सोने और चांदी के तार से रेशम, ऑर्गेंज़ा, मखमल, या साटन जैसे कपड़ों पर जटिल डिज़ाइन बनाए जाते हैं। भारत में प्राचीन काल से ही ज़रदोज़ी कढ़ाई की जाती रही है। ज़रदोज़ी धातु-धागे की कढ़ाई का एक रूप है, जो लखनऊ में सबसे प्रसिद्ध है। यह फर्रुखाबाद, चेन्नई और भोपाल के कुछ हिस्सों में भी प्रचलित है। इस कढ़ाई की उत्पत्ति फारस में हुई थी, जहां 'ज़ार' का अनुवाद सोना और 'दोज़ी' का अनुवाद “कढ़ाई” होता है। हालाँकि यह शैली मूल रूप से फ़ारसी है।
लेकिन चांदी और सोने के धागे की गई बुनाई प्राचीन भारत में भी मौजूद थी। पवित्र सोने का कपड़ा, जिसे हिरण्य के नाम से जाना जाता है, आज की ज़री कढ़ाई के समान प्रतीत होता है।
छठी शताब्दी के जैन साहित्य में भिक्षुओं को सोने की कढ़ाई वाले कपड़े पहनने के प्रति सावधान किया गया है। 13वीं शताब्दी में मार्को पोलो (Marco Polo) ने तमिल-पांड्य साम्राज्य के “सोने और चांदी के तार से कुशलतापूर्वक कढ़ाई किए गए" कपड़ों की प्रशंसा की। ज़री का उल्लेख शिहाब अल उमरी, ज़ियाउद्दीन बरनी और इब्न बतूता जैसे इतिहासकारों के मध्ययुगीन लेखों में भी मिलता है। मुगल शासन के दौरान जरदोजी की लोकप्रियता अपने चरम पर पहुंच गई थी। सोने और चाँदी की कढ़ाई, शाही पोशाक और वस्त्रों को सुशोभित करती थी। आज, ज़रदोज़ी डिज़ाइनर पहनावे, घर की साज-सज्जा और भव्य शादियों में विवाहित जोड़े की शोभा बढ़ाती है।

संदर्भ
https://tinyurl.com/ye2atkj3
https://tinyurl.com/2cc827vh
https://tinyurl.com/2cc827vh
https://tinyurl.com/sxyjeawd

चित्र संदर्भ
1. चिकनकारी और ज़रदोज़ी कढ़ाई को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
2. सिंधु घाटी सभ्यता की पोशाक पहने "पुजारी राजा" की मूर्ति को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. पहली शताब्दी ईस्वी में पुरुषों को उत्तरीय और अंतरिय, (जो क्रमशः शरीर के ऊपरी और निचले भाग के वस्त्र होते थे!) में  दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. ब्रिटिश साम्राज्य में कैलिकौ जैसे भारतीय वस्त्र खूब लोकप्रिय हुआ करते थे। को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. गांधीजी के चरखे को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. चिकनकारी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
7. ज़री ज़रदोज़ी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)



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