फ़ारसी और हिंदू वास्तुकला का मिश्रण है लखनऊ की मुगल वास्तुशिल्प शैली

वास्तुकला I - बाहरी इमारतें
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फ़ारसी और हिंदू वास्तुकला का मिश्रण है लखनऊ की मुगल वास्तुशिल्प शैली

नवाबों के शहर के नाम से मशहूर हमारा शहर लखनऊ अपनी ऐतिहासिक इमारतों के लिए मशहूर है, जो सदियों से शहर की खूबसूरती में चार चांद लगा रही हैं। इन इमारतों की वास्तुकला में समृद्ध इतिहास और आधुनिकता का जीवंत मिश्रण है। लखनऊ की वास्तुशिल्प शैली मुगल और फारसी वास्तुकला के प्रभाव को दर्शाती है। मुग़ल वास्तुकला, फ़ारसी वास्तुकला शैली की प्रमुख रूप से इस्लामी वास्तुकला और हिंदू वास्तुकला का मिश्रण है। तो आइये आज हम फ़ारसी स्थापत्य शैली को समझते हैं। साथ ही भारत मे इसकी शुरुआत कब हुई और इसने हमारे देश की स्थापत्य शैली को कैसे रूपांतरित कर दिया, यह भी जानते हैं। प्राचीन काल से, फ़ारसी या ईरानी वास्तुकला ने, भारत और सीरिया (Syria) से लेकर चीन (China) तक, एशिया (Asia) की ज्यादातर सभी संस्कृतियों को प्रभावित किया है। वास्तव में यह वास्तुकला इतनी अधिक प्रभावशाली थी कि इससे संबंधित फ़ारसी साम्राज्य इतिहास के सबसे महान और शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक था और इसके निशान आज के आधुनिक समाज में भी दिखाई देते हैं। दरअसल, साइरस महान (Cyrus the Great) और डेरियस महान (Darius the Great), के शासनकाल के दौरान, दुनिया की लगभग 40% आबादी पर इस साम्राज्य का अधिकार था। फ़ारसी साम्राज्य में एशिया (Asia), अफ्रीका (Africa) और यूरोप (Europe) के भी कुछ हिस्से शामिल थे। 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक इस साम्राज्य के लिए फ़ारस शब्द का उपयोग किया जाता था। 1935 में इस देश को ईरान के नाम से जाना जाने लगा। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में शुरू हुआ अचमेनिद (Achaemenid) युग फ़ारसी साम्राज्य का सबसे प्रमुख साम्राज्य था। इसकी स्थापना साइरस महान ने की थी, जिसने इसे उस समय तक के इतिहास का सबसे विशाल क्षेत्र बना दिया था। फ़ारसी वास्तुकला सरलता और समरूपता का उत्तम मिश्रण है। फ़ारसी वास्तुकला पर अलग-अलग राजनीतिक और सांस्कृतिक विविधताओं का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। दुनिया की अब तक ज्ञात कुछ सबसे उल्लेखनीय और विस्तृत कलाकृतियाँ फ़ारसी वास्तुकला में ही बनी हुई हैं। आज भी मध्य पूर्व के विभिन्न देशों में कई इमारतों में फ़ारसी वास्तुकला की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं। फ़ारसी वास्तुकला की कुछ प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार हैं: गुंबद: फ़ारसी वास्तुकला की सबसे आम विशिष्ट विशेषताओं में से एक गुंबद हैं। फ़ारसी गुंबदों का रंगीन टाइल पर किया गया कार्य इसे अन्य शैलियों की गुंबदों से अलग बनाता है। यह अंदर और बाहर दोनों ओर सजावटी होते हैं। गुंबद का गोल आकार वास्तव में शाश्वत पूर्णता का प्रतीक है। इवान: फ़ारसी वास्तुकला की एक प्रमुख विशेषता इवान है, जो एक आयताकार प्रवेशद्वार होता है। फ़ारसी वास्तुकला में इसका उपयोग पार्थियन (Parthian) युग से देखा जा सकता है। आमतौर पर इसे जटिल डिजाइन, सुलेख और विस्तृत पच्चीकारी से सजे हुए देखा जा सकता है। मेहराब: चार-केंद्रों के साथ मेहराब फ़ारसी वास्तुकला की एक और विशिष्ट विशेषता है, और इसे इवान के साथ बनाया जाता है। इसका उपयोग मुख्य रूप से सजावटी उद्देश्यों के साथ-साथ बाहर से आने वाली रोशनी को कम करने के लिए किया जाता है। ज्यामिति: फ़ारसी वास्तुकला की सबसे मनोरम विशेषता दीवारों और टाइलों पर चित्रित वृत्तों, वर्गों, आयतों आदि की ज्यामितीय आकृतियाँ हैं, जो इसे सबसे अनुपम बनाती हैं। मशरबिया: फ़ारसी वास्तुकला की एक मुख्य विशेषता मशरबिया है जो एक प्रकार की हवादार खिड़की है जिसका उपयोग इमारत में हवा के आवागमन और हवा को ठंडा करने के लिए किया जाता है। यह आमतौर पर नक्काशीदार लकड़ी के साथ-साथ जाली से बनी होती है। आम तौर पर इस प्रकार की खिड़कियां इमारतों में ऊपरी मंजिल पर बनी होती हैं।
मूलतः मुगल (इस्लामी भारतीय वास्तुकला) और इस्लामी फारसी वास्तुकला शैलियाँ समान हैं क्योंकि मुगल वास्तुकला में फारसी वास्तुकला की कई विशेषताओं को देखा जा सकता है। मुगल वास्तुकला पर इस्लामी फारसी वास्तुकला का प्रभाव देखा जा सकता है। इन दोनों के बीच मुख्य अंतर या तो सौंदर्यशास्त्र का हैं या फिर इन शैलियों के अन्य संस्कृतियों के संपर्क में आने पर पड़ने वाले प्रभाव का है। मुगल वास्तुकला शैली 16वीं और 17वीं शताब्दी में भारत और आसपास के दक्षिण एशियाई देशों में विकसित हुई है, यह इस्लामी और फारसी वास्तुकला शैलियों के साथ-साथ हिंदू वास्तुकला से भी प्रभावित है। जबकि फारसी वास्तुकला 5000 ईसा पूर्व विकसित हुई है और स्पष्टतः इस्लामी शैली से बहुत पहले की है। मध्य काल के दौरान भारत में मुस्लिम साम्राज्यों की स्थापना के बाद इस्लामी वास्तुकला की शुरुआत हुई। इस वास्तुकला में फ़ारसी और मध्य एशियाई जैसी विभिन्न वास्तुकला शैलियों के साथ साथ भारतीय वास्तुकला का भी मिश्रण किया गया। और इस प्रकार विकसित वास्तुकला को भारतीय-इस्लामिक वास्तुकला के नाम से जाना गया। भारतीय-इस्लामिक स्थापत्य शैली न तो पूरी तरह से इस्लामी थी और न ही हिंदू; इसके बजाय यह भारतीय और इस्लामी वास्तुशिल्प घटकों का मिश्रण थी। इस वास्तुकला शैली की कुछ प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
1) सुलेख: अरबी तकनीक में जटिल ज्यामितीय डिजाइनों के साथ सुलेख का उपयोग सजावट के लिए किया जाता था।
2) चूना : इस वास्तुकला की इमारतों में सीमेंटिंग सामग्री के रूप में चूने का उपयोग किया जाता था।
3) मेहराब और गुंबद: मेहराब और गुंबद भारतीय-इस्लामिक वास्तुकला की एक ऐसी विशेषता है जो मध्य काल में बनी अधिकांश इमारतों में देखी जा सकती है।
4) बागवानी की चारबाग शैली: इस विशेषता के तहत एक वर्गाकार स्थान को चार समान उद्यानों में विभाजित किया गया।
5) पानी: इस्लामी निर्माणों में पानी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। इसका उपयोग शीतलता, सजावटी और धार्मिक कार्यों के लिए किया जाता था।

संदर्भ
https://rb.gy/57cbo5
https://rb.gy/779vkd
https://rb.gy/ii8s1w

चित्र संदर्भ
1. लखनऊ की एक मस्जिद को संदर्भित करता एक चित्रण (2Fopenclipart)
2. लखनऊ के विभिन्न पर्यटक स्थलों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
3. गुंबद को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)
4. इवान को संदर्भित करता एक चित्रण (Alluring World)
5. मेहराब को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
6. ज्यामिति को दर्शाता एक चित्रण (wallpaperflare)
7. मशरबिया को दर्शाता एक चित्रण (Wikipedia)
8. लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन को दर्शाता एक चित्रण (Wikipedia)