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ओडिशा में भी है एक रामपुर; जानिए वहां के दिलचस्प कुटिया कोंध आदिवासी समूह के बारे में

लखनऊ

 01-03-2024 09:17 AM
सिद्धान्त 2 व्यक्ति की पहचान

हमारा रामपुर शहर ब्रिटिश शासन के दौरान देश की प्रसिद्ध रियासतों में से एक था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारे शहर रामपुर के नाम से मिलते जुलते ओडिशा राज्य के कालाहांडी जिले में भवानीपटना उप-विभाग में मदनपुर रामपुर और थुआमुल रामपुर नाम के दो शहर है जहाँ कुटिया कोंध नामक आदिवासी समूह रहते हैं। किंतु आधुनिकीकरण के कारण आज ये आदिवासी समूह और इनकी विशिष्ट संस्कृति एवं भाषाएं विलुप्त होती जा रही हैं। तो आइए आज हम इस आदिवासी समूह के बारे में जानते हैं और समझते हैं कि हमारे देश भारत में, जहाँ यह माना जाता है कि हर 11 किलोमीटर पर बोलियां बदल जाती हैं, भाषाएं क्यों खत्म हो रही हैं और इनका संरक्षण किस प्रकार किया जा सकता है। कुटिया कोंध देश के कई अन्य आदिवासी समूहों की तरह प्रकृति की पूजा करते हैं। समुदाय के सदस्य बारी-बारी से अपने घरों के आसपास के जंगलों और वन्यजीवों की रक्षा करते हैं। अत्यंत गरीबी में रहने और जीवित रहने के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहने के बावजूद, कोंध लोग ईंधन के लिए जंगलों से लकड़ी का उपयोग नहीं करते हैं और वृक्षों की अवैध कटाई का विरोध भी करते हैं। लांजीगढ़ में 90 प्रतिशत से अधिक निवासी कोंध हैं। इस जनजाति को गरीबी के अलावा अशिक्षा, स्कूल, स्वास्थ्य, पोषण, रोजगार, भूमि स्वामित्व जैसी बुनियादी सेवाओं तक पहुंच की कमी; कम कृषि उत्पादन, संस्थागत ऋण की कमी और गैर-लकड़ी वन उपज तक पहुंच जैसी कई अन्य विकास चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
प्रत्येक जनजाति समूह के समान ही कुटिया कोंध समूह की एक विशिष्ट जीवन शैली है। एक विशिष्ट कुटिया कोंध बस्ती में एक आयताकार स्थान पर फैले हुए एक-दूसरे के सामने घरों की दो पंक्तियाँ होती हैं। इस जनजाति के लोग अपने तक ही सीमित होते हैं और बाहरी लोगों के साथ उनका संपर्क बेहद सीमित होता है। कोंध बस्ती में सामाजिक संरचना सुसंगठित एवं एकीकृत है। लोगों का व्यवहार सहयोगपूर्ण होता है। इसमें परिवार अधिकतर एकल और पितृसत्तात्मक होते हैं। हालाँकि, घर और बच्चों की देखभाल के अलावा, सभी आयु वर्ग की महिलाएँ लकड़ी के अलावा वन उपज के संग्रह, प्रसंस्करण और बिक्री में अपेक्षाकृत बड़ी भूमिका निभाती हैं। जनजाति की किशोर महिलाएं आमतौर पर 'युवा शयनगृह' में बाकी सदस्यों से अलग रहती हैं। हालाँकि, यह प्रथा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है। सरकारी हस्तक्षेप से अब इन गाँवों में कुछ प्राथमिक विद्यालय भी खुले हैं। सरकार और कल्याणकारी संगठनों के प्रयासों के परिणामस्वरूप समुदाय के सामाजिक जीवन और बुनियादी ढांचे में क्रमिक परिवर्तन हुआ है। स्थानान्तरित खेती और पशुपालन क्षेत्र के आदिवासी समुदायों के लिए आजीविका का प्रमुख स्रोत हैं। कोंध लोग स्थानान्तरित खेती को डोंगर चास या पोडु चास कहते हैं। स्थानांतरित खेती प्रणाली में मुख्य रूप से रागी, कोसल, कांगू जैसे मोटे अनाज और अरहर की खेती की जाती है। स्थानांतरित खेती प्रणाली में कोंध के किसानों द्वारा किसी भी खाद या रासायनिक उर्वरक का उपयोग नहीं किया जाता है। इसके अलावा यह आदिवासी समुदाय अपनी आजीविका के लिए जंगल, जल और भूमि जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है। संसाधनों तक पहुँच की कमी के कारण आज यह जनजाति अपनी संस्कृति एवं भाषा के साथ अत्यधिक खतरे में है जिसकी ओर शीघ्र ही नीति निर्माताओं का ध्यान जाना चाहिए। भारत विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं का देश है। कहा जाता है कि देश में हर 11 किलोमीटर पर बोली बदल जाती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, देश में कई भाषाएँ एवं बोलियाँ पूर्ण रूप से समाप्त या विलुप्त हो गई हैं। भाषाओं का नुकसान न केवल किसी देश की विरासत के लिए बल्कि पूरे मानव इतिहास के लिए एक सांस्कृतिक नुकसान है। अब प्रश्न उठता है कि भाषाएं कैसे विलुप्त हो रही हैं? 1971 की जनगणना के बाद 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली किसी भी स्वदेशी भाषा को अब भारत की आधिकारिक भाषाओं की सूची में शामिल नहीं किया जाता है, जिससे सूची में 108 भाषाओं की गिरावट आई है। अधिकांश लुप्त होती भाषाएँ जनजातीय समूहों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं एवं बोलियाँ हैं। इनमें से कुछ भाषाएँ महाराष्ट्र, कर्नाटक और तेलंगाना में खानाबदोश लोगों द्वारा बोली वाडारी, कोल्हाटी, गोला, गिसारी हैं। 2018 में यूनेस्को (UNESCO) की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में 10,000 से भी कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली 42 भाषाएँ विलुप्त होने की कगार पर हैं। इनमें से 11 भाषाएं एवं बोलियाँ (ग्रेट अंडमानी, जारवा, लामोंगसे, लुरो, मुओट, ओंगे, पु, सानेन्यो, सेंटिलीज़, शोम्पेन और ताकाहानयिलंग) अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की, 7 (आइमोल, अका, कोइरेन, लामगांग, लैंगरोंग, पुरम और ताराओ) मणिपुर की और 4 (बघाटी, हंडूरी, पंगवली और सिरमौदी) हिमाचल प्रदेश की हैं। आदिवासी संस्कृति और विरासत से समृद्ध राज्य ओडिशा को भी भाषा विलुप्त होने का गंभीर खतरा है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि यह राज्य लगभग 60 जनजातियों का घर है, साथ ही 21 आदिवासी भाषाओं और 74 बोलियों का भी घर है, जो राज्य की भाषाई विविधता में बहुत योगदान देती हैं और केवल यहीं बोली जाती हैं। विशेषज्ञों का मानना ​​है कि जब कोई भाषा ख़त्म हो जाती है, तो आसपास की ज्ञान व्यवस्था भी विलुप्त हो जाती है। इस प्रकार दुनिया को पीछे मुड़कर देखने का अनोखा तरीका भी खो जाता है। प्रत्येक भाषा का एक अनोखा विश्व दृष्टिकोण और पारंपरिक ज्ञान का भंडार होता है अतः उन्हें खोना विनाशकारी हो सकता है। इसके अलावा, भाषा का राजनीतिक महत्त्व भी होता है। स्थानीय प्रशासक और नागरिकों के बीच एक आम भाषा की कमी के कारण दोनों पक्षों को अपनी जरूरतों को व्यक्त करने में समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जबकि इस तकनीक-संचालित दुनिया में, भाषा विविधता को एक महान सांस्कृतिक पूंजी और वास्तविक पूंजी में बदला जा सकता है।

संदर्भ
https://shorturl.at/dHIR0
https://shorturl.at/EMRU0
https://shorturl.at/cqsx1

चित्र संदर्भ
1. कुटिया कोंध आदिवासी परिवार को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. कुटिया कोंध आदिवासी महिला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. कुटिया कोंध आदिवासी परिवार के घर को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. कोंध की पारंपरिक चावल की खेती को संदर्भित करता एक चित्रण (wikipedia)
5. कुटिया कोंध कुटिया को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. नजदीक से कुटिया कोंध आदिवासी महिला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)



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