लखनऊ - नवाबों का शहर












तमिल नाडु के उदाहरण से समझें, शहरों एवं राज्यों के विकास में चेंबर ऑफ़ कॉमर्स की भूमिका को
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
20-02-2025 09:35 AM
Lucknow-Hindi

यह तो हर कोई जानता है कि किसी भी देश अथवा शहर की अर्थव्यवस्था वहां के व्यवसायों पर निर्भर करती है और व्यवसायों के फलने-फूलने के लिए प्रोत्साहन के साथ-साथ विज्ञापन और प्रचार की आवश्यकता होती है। इसमें मुख्य भूमिका आती है शहर से संबंधित येलो पेजे और ई-कार्ड्स की। आपको यह जानकर गर्व होगा कि, भारत की पहली हिंदी येलो पेज़ और ई-कार्ड्स पहल की शुरुआत प्रारंग द्वारा की गई है। हमारे लखनऊ के पोर्टल पर इनके उपयोग के बारे में भी बताया गया है। यहां निःशुल्क खाता खोलने और शहर में अपने उत्पादों को साझा करने के लिए आपको बस एक मोबाइल नंबर की आवश्यकता है। हमारे शहर लखनऊ के लिए आप इस लिंक पर क्लिक करके पूरी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं:
https://www.prarang.in/yellow-pages/lucknow
आप सभी इस बात से सहमत होंगे कि हाल के वर्षों में, हमारा शहर उत्तर भारत में एक औद्योगिक केंद्र के रूप में उभर रहा है। शहर में विनिर्माण, भंडागार और संभारिकी क्षेत्रों में महत्वपूर्ण निवेश और वृद्धि देखी जा रही है। क्या आप जानते हैं कि, हमारे शहर के साथ-साथ, किसी भी शहर के विकास में राज्य और देश के विभिन्न वाणिज्य मंडलों अर्थात 'चेंबर्स ऑफ़ कॉमर्स' (Chambers of commerce) का महत्वपूर्ण योगदान होता है। तो आइए, आज भारत में विभिन्न स्तर पर मौज़ूद चेंबर्स ऑफ़ कॉमर्स के बारे में जानते हैं। इस संदर्भ में, हम विशेष रूप से मद्रास चेंबर ऑफ़ कॉमर्स (Madras Chamber of Commerce) की उत्पत्ति, विकास और कार्यों के बारे में विस्तार से बात करेंगे। इसके साथ ही, हम इस बात पर भी प्रकाश डालेंगे कि, तमिलनाडु को 2030 तक, 1 ट्रिलियन डॉलर की सकल राज्य घरेलू उत्पाद (Gross State Domestic Product (GSDP)) तक पहुंचने में मद्रास चेंबर ऑफ़ कॉमर्स की क्या भूमिका होगी।

भारत में चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स के प्रारूप:
चेंबर्स ऑफ़ कॉमर्स कई अलग-अलग प्रारूपों में से एक में आयोजित किए जा सकते हैं:
क्षेत्रीय, शहरी और सामुदायिक: क्षेत्रीय, शहरी और सामुदायिक चेंबर्स क्षेत्रीय या स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित होते हैं, जिसमें स्थानीय सरकार के साथ सहयोग शामिल होता है। वे व्यापक रूप से सीमा पार व्यापार समर्थक पहलों को बढ़ावा देते हैं, जैसे कि आप्रवासी समूहों और उनके देशों के बीच व्यापार को बढ़ावा देना।
सिटी चेंबर: सिटी चेंबर्स , का उद्देश्य स्थानीय और संभवतः विश्व स्तर पर शहर के आर्थिक हित को बढ़ावा देना है।
स्टेट चेंबर: स्टेट चेंबर्स , राज्य स्तर पर व्यापार, वाणिज्य, और उद्योग का संगठन होता है। इनका उद्देश्य व्यापार को बढ़ावा देना और व्यावसायिक अवसर पैदा करना होता है।
राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय चेंबर: राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय चेंबर राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार एवं वाणिज्य से जुड़ी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
अनिवार्य चेंबर्स : कुछ देशों में, एक निश्चित आकार के व्यवसायों को एक चेंबर ऑफ़ कॉमर्स में शामिल होने की आवश्यकता होती है। ये चेंबर्स स्व-नियमन के माध्यम से, सदस्य व्यवसायों को बढ़ावा देते हैं, आर्थिक विकास का समर्थन करते हैं, और कार्यकर्ता प्रशिक्षण की देखरेख करते हैं। ऐसे चेंबर्स यूरोप और जापान में लोकप्रिय हैं। कुछ देशों में चेंबर ऑफ़ कॉमर्स अपनी सदस्यता का सर्वेक्षण करके प्रमुख आर्थिक डेटा प्रदान कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, ब्रिटिश चेंबर ऑफ़ कॉमर्स द्वारा प्रदत्त त्रैमासिक आर्थिक सर्वेक्षण का उपयोग सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था का आकलन करने के लिए किया जाता है।
मद्रास चेंबर ऑफ़ कॉमर्स का परिचय:
मद्रास चेंबर ऑफ़ कॉमर्स की शुरुआत 1836 में हुई थी और यह दक्षिण भारत में सबसे पुराना चेंबर है। यह चेंबर 'एसोसिएटेड चेंबर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ़ इंडिया' (Associated Chambers of Commerce and Industry of India (ASSOCHAM)), नई दिल्ली का समर्थक और सहयोगी तथा 'फेडरेशन ऑफ़ इंडियन चेम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री' (Federation of Indian Chambers of Commerce and Industry (FICCI)), नई दिल्ली का सदस्य है। यह सिटी चेम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स, चेन्नई की परामर्शदाता समिति का एक घटक और भारतीय मध्यस्थता परिषद का आजीवन सदस्य है।

मद्रास चेंबर ऑफ़ कॉमर्स के इतिहास में कुछ महत्वपूर्ण तिथियां:
1. 29 सितंबर 1836 को, बिन्नी एंड कंपनी के कार्यालय में, 18 सदस्यों और श्री जॉन ए. आर्बुथनोट (Mr John Alves Arbuthnot) की अध्यक्षता में मद्रास चेंबर ऑफ़ कॉमर्स का गठन किया गया।
2. 1868 में, "मेल" (The Mail) मद्रास चेंबर और यूरोपीय मर्केंटाइल समुदाय का आधिकारिक अंग बन गया।
3. 1914 में, मद्रास चेंबर ने भारतीय रेलवे की दक्षिणी रेलवे शाखा को विकसित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसमें रेलवे बोर्ड में एक स्थायी सदस्य को शामिल करने की भी वकालत की गई।
4. 1948 में, मद्रास चेंबर ने सरकार द्वारा उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का कड़ा विरोध किया और निजी उद्योगों के अधिक फायदेमंद होने के विचार को बढ़ावा दिया।
5. 1965 में, ए एम एम मुरुगप्पा चेट्टियार (AMM Murugappa Chettiar) को मद्रास चेंबर का पहला भारतीय अध्यक्ष चुना गया। इसके साथ ही, इस चेंबर ने मद्रास की औद्योगिक क्रांति की सरकारी पहल का समर्थन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
6. वर्ष 2000 में, 'मद्रास चेंबर विवाचन, मध्यस्थता और सुलह केंद्र' (Madras Chamber Arbitration, Mediation and Conciliation Centre (MAMC)) अस्तित्व में आया। चेंबर वाणिज्यिक विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थता सेवाएं प्रदान करने वाले पहले कुछ संगठनों में से एक था।
7. 2021 में, अत्याधुनिक बुनियादी ढांचे वाले, मध्यस्थता हॉलों के साथ एम ए एम सी(MAMC) के अनन्य परिसर का उद्घाटन हुआ।
मद्रास चेंबर ऑफ़ कॉमर्स के कार्य:
मद्रास चेंबर ऑफ़ कॉमर्स का मुख्य कार्य, चेन्नई में विभिन्न सरकारी विभागों, संस्थानों, राजनयिक मिशनों और भारत और विदेशों में अन्य प्रमुख शहरों के साथ तालमेल बनाए रखना है। यह भारतीय उत्पादों के आयात/निर्यात, कानून में परिवर्तन, कानून, नियम, विनियमों और अधिसूचनाओं के लिए प्राप्त एक ऑन-गोइंग (ongoing) आधार व्यापार पूछताछ पर भी प्रसारित होता है, जो सरकार और अन्य संस्थानों, स्थिति रिपोर्ट, स्थिति कागजात, श्वेत पत्रों द्वारा जारी किए जाते हैं एवं उद्योगों के लिए प्रासंगिक होते हैं। व्यापार और वाणिज्य के विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विकास से अवगत रहने के लिए, चेंबर विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित नागरिकों, वरिष्ठ अधिकारियों, सरकार और अन्य संगठनों के साथ सेमिनार, कार्यशालाएं, सम्मेलन, प्रशिक्षण कार्यक्रम, ओपन हाउस चर्चा आदि आयोजित करता है।
तमिलनाडु सरकार के 1 ट्रिलियन डॉलर की जी एस डी पी तक पहुंचने में, मद्रास चेंबर ऑफ़ कॉमर्स की भूमिका:
तमिलनाडु सरकार के अनुसार, तमिलनाडु के 1 ट्रिलियन के जी एस डी पी तक पहुंचने के लक्ष्य को समर्थन करने के लिए, 'मद्रास चेंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज़' द्वारा निर्यात संवर्धन, उद्योग और वित्तीय प्रौद्योगिकी पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। इस दिशा में तमिलनाडु सरकार की महत्वाकांक्षी पहल 'नान मुधलवन योजना' एक बड़ा कदम है। 186 साल पुराने इस चेंबर द्वारा तमिलनाडु में नए निवेश को बढ़ावा देने के लिए सरकार के साथ मिलकर काम करके 'डूइंग बिज़नेस इन तमिलनाडु' (Doing Business in Tamil Nadu) शीर्षक से नियामक अनुपालन पर एक हैंडबुक भी लाई जाएगी। राज्य सरकार द्वारा निर्यात कंपनियों के बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए 100 करोड़ रुपये का आवंटन, नॉलेज सिटी की स्थापना और तमिलनाडु को निर्यात में भारतीय राज्यों में अग्रणी बनाने के लिए निर्यात प्रोत्साहन रणनीति जारी करने जैसी कई पहल की गईं हैं। इसके अलावा, सूचना प्रौद्योगिकी, डेटा सेंटर, कपड़ा, इलेक्ट्रिक वाहन विनिर्माण, फुटवियर जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2022 में तमिलनाडु की जी एस डी पी में 14.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और वित्त वर्ष 2023 में इसमें 14 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान है। राज्य द्वारा 2030 तक 1 ट्रिलियन डॉलर की जी एस डी पी और 300 बिलियन के निर्यात को प्राप्त करने का लक्ष्य अपनाया गया है। गौरतलब है कि तमिलनाडु में इस वर्ष 50,000 करोड़ रुपये के निवेश प्रस्ताव आए हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र : 23 जून, 2022 को तीन दिवसीय बंगाल मैंगो फ़ेस्टिवल का आयोजन, पश्चिम बंगाल खाद्य प्रसंस्करण उद्योग और बागवानी विभाग ने इंडियन चैंबर ऑफ़ कॉमर्स (ICC) के सहयोग से किया (Wikimedia)
आइए जानते हैं, किन कारणों से प्रभावित होती है, लखनऊ के चिकनकारी कारीगरों की आजीविका
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
19-02-2025 09:33 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ अपनी अनोखी चिकनकारी कढ़ाई के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है।हालांकि चिकनकारी का काम, कई जगहों पर होता है, लेकिन लखनऊ की पारंपरिक चिकनकारी खास होती है, क्योंकि इसमें कपड़े पर फूलों और बेलों के सुंदर डिज़ाइन बनाए जाते हैं।
साल 2020 में, लखनऊ में करीब 5 लाख लोग, जिनमें कारीगर और व्यापारी शामिल थे, इस काम से जुड़े हुए थे। तो चलिए, आज हम इस उद्योग में रोज़गार के बारे में बात करते हैं। सबसे पहले, हम यह जानेंगे कि लखनऊ की महिलाएँ, जो चिकनकारी का काम करती हैं, कितना कमाती हैं। फिर, हम, उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले के चिकनकारी कारीगरों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के बारे में समझने की कोशिश करेंगे।
इसके बाद, हम जानेंगे कि यह कढ़ाई करने की तकनीक कैसे काम करती है। फिर, लखनऊ की चिकनकारी में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल के बारे में बात करेंगे। और अंत में, इस हस्तशिल्प में इस्तेमाल किए जाने वाले औज़ारों के बारे में जानकारी लेंगे।
लखनऊ की चिकनकारी और उत्तर भारतीय कढ़ाई शैलियाँ
चिकनकारी, जो लखनऊ की पहचान है, अन्य उत्तर भारतीय कढ़ाई शैलियों जैसे ज़र्दोज़ी से प्रभावित और मेलजोल करती है। ज़र्दोज़ी की तुलना में चिकनकारी के डिज़ाइन अधिक नाज़ुक होते हैं, जिसमें फूलों और बेलों की डिज़ाइन को प्राथमिकता दी जाती है। यह पारंपरिक कला रूप, जो फ़ारसी सौंदर्यशास्त्र से प्रभावित है, अब समय के साथ और भी समृद्ध हो चुका है, विशेषकर ज़र्दोज़ी के साथ जुड़ने के द्वारा।
लखनऊ में महिला चिकनकारी कारीगर कितना कमाती हैं ?
लखनऊ की चिकनकारी कला, भारत में सबसे बड़ा कारीगर समूह बनाती है। करीब 3 लाख कारीगर, इस कला से जुड़े हुए हैं, और लगभग 5000 परिवार, लखनऊ और आसपास के गाँवों में चिकनकारी का काम करके अपनी आजीविका कमाते हैं। इन परिवारों में लगभग 90% काम महिलाओं द्वारा किया जाता है। यह कला पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाई और अपनाई जाती है।
महिलाएँ अक्सर फ़ैक्ट्रियों में काम करने के साथ-साथ घर पर भी इन कपड़ों पर कढ़ाई करती हैं। लेकिन कारीगरों और बाजार के बीच एक बड़ी खाई है, जिसे बिचौलिये (middlemen) भरते हैं। ये बिचौलिये कारीगरों से कम कीमत में काम करवाकर व्यापारियों से अधिक पैसा लेते हैं। इस वजह से, एक महिला कारीगर, औसतन केवल 800-1000 रूपए प्रति माह ही कमा पाती है। इतनी कम आमदनी से अपना घर चलाना बेहद मुश्किल हो जाता है।
1986 में, मशहूर बॉलीवुड निर्देशक, मुज़फ़्फ़र अली ने इस मुद्दे पर आधारित एक फ़िल्म “अंजुमन” बनाई थी। इस फ़िल्म में लखनऊ की चिकनकारी कारीगर महिलाओं की समस्याओं और बिचौलियों द्वारा किए जाने वाले शोषण को दिखाया गया है।
कारीगरों की कमाई और जीवनस्तर को बेहतर बनाने के लिए कई कदम उठाए जाने की ज़रूरत है, ताकि यह कला और इससे जुड़े लोग सम्मानजनक जीवन जी सकें।
सीतापुर ज़िले में चिकनकारी कारीगरों की सामाजिक आर्थिक स्थिति
सीतापुर ज़िले में चिकनकारी कारीगरों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति काफ़ी चुनौतीपूर्ण है। इस ज़िले के ग्रामीण लोग मुख्य रूप से चिकनकारी कढ़ाई पर निर्भर हैं, और यह कला खासतौर पर यहां की महिलाओं के बीच काफ़ी लोकप्रिय है। एक अध्ययन के अनुसार, 20-40 साल की उम्र की महिलाएं इस काम में अधिक सक्रिय हैं क्योंकि उन्हें बुज़ुर्गों की तुलना में स्वास्थ्य समस्याएं कम होती हैं।
2019 के “मॉडिफाइड कुप्पुस्वामी सामाजिक-आर्थिक पैमाने” के अनुसार, इन कारीगरों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर है। इनमें से 60% लोग “उच्च-निम्न वर्ग” में आते हैं, जबकि 40% “निम्न-मध्यम वर्ग” के हैं। इनकी मासिक कमाई ज़्यादातर 5000 रूपए से कम होती है, और औसत आय 2566.66 रूपए प्रति व्यक्ति होती है। परिवारों की कुल मासिक आय 19,516 से 29,199 रूपए के बीच होती है, जिसमें औसत आय 20,542.91 रूपए होती है।
इन कारीगरों के रहने की स्थिति भी उनकी आर्थिक परेशानियों को दिखाती है। अधिकांश लोग कच्चे मकानों में रहते हैं, लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाते हैं, और पीने के पानी के लिए सार्वजनिक हैंडपंप का इस्तेमाल करते हैं। उनके पास ज़मीन बहुत कम या बिल्कुल नहीं होती, और वे अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर रहते हैं।
लखनऊ की मशहूर चिकनकारी कला, अब सीतापुर और आसपास के जिलों में भी फैल गई है। इस कला से लाखों कारीगरों को रोज़गार मिलता है। लेकिन इस उद्योग के असंगठित होने, कम मजदूरी और ख़राब जीवन स्तर की वजह से इन कारीगरों की स्थिति सुधारने और इस कला को बचाने के लिए ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है।
लखनऊ की चिकनकारी का निर्माण प्रक्रिया
1) ब्लॉक प्रिंटिंग: चिकनकारी का काम शुरू करने के लिए, डिज़ाइन पहले कपड़े पर प्रिंट किया जाता है। लकड़ी के ब्लॉक को एक खास रंग घोल (जिसमें गोंद और इंडिगो/नील मिलाए जाते हैं) में डुबोकर कपड़े पर छापा जाता है। बुटियां, फूलों के डिज़ाइन और बॉर्डर के लिए अलग-अलग ब्लॉक्स का इस्तेमाल होता है। लखनऊ में ब्लॉक प्रिंटिंग का काम अलग कारीगरों का समूह करता है जो इस काम में माहिर होते हैं। प्रिंट किए गए कपड़े को फिर कढ़ाई के लिए तैयार किया जाता है। लगभग हर चिकनकारी वाले कपड़े में फूलों के डिज़ाइन और रूपांकन होते हैं, जो इस कला पर फ़ारसी सौंदर्यशास्त्र के गहरे प्रभाव को दर्शाते हैं।
2) कढ़ाई: कपड़े को एक छोटे फ़्रेम, जिसे ‘अड्डा’ कहते हैं, में कसकर लगाया जाता है। कढ़ाई का काम प्रिंट किए गए डिज़ाइन के ऊपर सुई और धागे की मदद से किया जाता है। एक ही प्रोडक्ट में अलग-अलग प्रकार के टांके इस्तेमाल किए जा सकते हैं। कारीगर डिज़ाइन के क्षेत्र, रूपांकन के प्रकार और आकार के अनुसार टांका चुनते हैं। चिकनकारी में इस्तेमाल होने वाले मुख्य टांकों के नाम हैं: टेपटची, बखिया, हूल, ज़ंजीरा, जाली, रहत, फंदा और मुर्री।
3) धुलाई: निर्माण प्रक्रिया का आखिरी चरण धुलाई है। कढ़ाई का काम पूरा होने के बाद कपड़े को पानी में भिगोकर धोया जाता है ताकि ब्लॉक प्रिंट का नीला रंग हट सके। इसके बाद कपड़े को स्टार्च करके आयरन किया जाता है ताकि उसे सख़्त और तैयार लुक मिल सके। इस तरह फ़ाइनल प्रोडक्ट बिक्री के लिए तैयार हो जाता है।
4) रख-रखाव: चिकनकारी के कपड़े, लंबे समय तक चल सकते हैं अगर सही देखभाल की जाए। इन्हें ड्राई क्लीन या हाथ से धोना बेहतर होता है, जो कपड़े के प्रकार पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, सिल्क चिकनकारी के कपड़े, ड्राई क्लीन करने से ज़्यादा चलते हैं, जबकि कॉटन चिकनकारी का कुर्ता हाथ से धोया जा सकता है। कपड़ों को अलमारी में रखते समय उन्हें मोड़ने के बजाय रोल करके रखना बेहतर होता है, क्योंकि मोड़ने से कढ़ाई पर असर पड़ सकता है।
लखनऊ के चिकनकारी उद्योग में उपयोग होने वाली कच्ची सामग्री
1.) कपड़े की विभिन्न प्रकार की किस्में जैसे सूती (वॉयल, कैम्ब्रिक, मलमल, रुबिया, पीसी, आदि), रेशम, शिफ़ॉन, क्रेप, जॉर्जेट, शिफॉन, ऑर्गेंजा, मलमल, विस्कोज़, आदि का इस्तेमाल चिकनकारी कढ़ाई के काम में किया जाता है।
2.) सूती धागे का पारंपरिक रूप से इस्तेमाल कपड़े पर डिज़ाइन बनाने के लिए किया जाता है।
3.) सोने की जरी, चांदी की ज़री, रेशम आदि धागे भी चिकनकारी कढ़ाई में उपयोग किए जाते हैं।
4.) ब्लॉक प्रिंटिंग प्रक्रिया में इस्तेमाल होने वाला नीला रंग, जिसे हाथ से तैयार किया जाता है।
5.) कपड़ों को धोने के लिए नदी का पानी उपयोग किया जाता है, ताकि प्रिंटिंग के निशान साफ़ किए जा सकें।
6.) स्टार्च का उपयोग धोए गए कपड़ों को सख़्त बनाने के लिए किया जाता है, जिससे कपड़े को बेहतर फ़िनिश भी मिलती है।
लखनऊ के चिकनकारी उद्योग में प्रयुक्त उपकरण
1. सूई-धागा: चिकनकारी में सूई-धागा, एक महत्वपूर्ण उपकरण है। इसका उपयोग, डिज़ाइन बनाने के लिए किया जाता है।
2. गोल आकार का फ़्रेम: कपड़े को तानकर रखने के लिए गोल आकार का फ़्रेम उपयोग में लाया जाता है। यह लकड़ी या कपड़े से बना हो सकता है, लेकिन आजकल ज़्यादातर प्लास्टिक से बने होते हैं।
3. लकड़ी के ब्लॉक: इन्हें सादा कपड़े पर डिज़ाइन प्रिंट करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
4. आयताकार लकड़ी की मेज़: यह प्रिंटिंग प्रक्रिया में सहारे के रूप में काम आती है।
5. कंटेनर: इन्हें कपड़े धोने के लिए उपयोग किया जाता है, जब सिलाई का काम पूरा हो जाता है।
6. कैंची और कटर: इनका उपयोग, अतिरिक्त धागे को काटने के लिए किया जाता है, ताकि अंतिम फ़िनिशिंग हो सके।
समय के साथ, चिकनकारी में और भी सजावट जोड़ी गई है, जैसे मुक़य्यश, कामदानी (सुच्ची जर रेशम वस्त्र), बादला, सीक्वेंस(सितारे), और मोती व कांच का काम, जो इसे और भी भव्य और आकर्षक बनाता है। इन सभी उपकरणों और तकनीकों का मिश्रण, हर चिकनकारी उत्पाद को खास और अद्वितीय बनाता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत: Wikimedia
प्रारंभिक लोकोमोटिव भाप इंजन से, वैश्विक रेलवे नेटवर्क तक, कैसे व क्यों हुआ इनका विकास ?
य़ातायात और व्यायाम व व्यायामशाला
Locomotion and Exercise/Gyms
18-02-2025 09:40 AM
Lucknow-Hindi

हमारे शहर लखनऊ में रेलवे प्रणाली, शहर को शेष भारत से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इससे यह दैनिक जीवन और क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का, एक अनिवार्य हिस्सा बन जाती है। यहाँ का सुस्थापित रेलवे नेटवर्क, लखनऊ जंक्शन और चारबाग रेलवे स्टेशन जैसे प्रमुख स्टेशनों के साथ, एक प्रमुख परिवहन केंद्र के रूप में कार्य करता है। यह लोगों, वस्तुओं और सेवाओं की आवाजाही को सुविधाजनक बनाता है। निवासियों के लिए, यह यात्रा का एक किफ़ायती और सुविधाजनक तरीका प्रदान करता है, जबकि, व्यवसायों के लिए, यह कुशल रसद और व्यापार सुनिश्चित करता है। ये नेटवर्क, पर्यटन को बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण रहा है, क्योंकि, कई तीर्थयात्री और पर्यटक आस-पास के गंतव्यों के लिए लखनऊ से होकर गुज़रते हैं। कुल मिलाकर, रेलवे प्रणाली शहर के लिए संयोजकता, विकास और सुविधा की रीढ़ बनी हुई है।
आज हम, दुनिया में रेलवे के इतिहास का पता लगाएंगे, और जानेंगे कि, कैसे रेल परिवहन ने वैश्विक संयोजकता और अर्थव्यवस्थाओं को आकार दिया है। इसके बाद, हम भाप से चलने वाली ट्रेनों के विकास में कुछ महत्वपूर्ण आविष्कारों पर प्रकाश डालते हुए, लोकोमोटिव स्टीम इंजनों (Locomotive Steam Engines) की समयरेखा पर नज़र डालेंगे। अंत में, हम चर्चा करेंगे कि, रेलवे का निर्माण क्यों किया गया। इसमें, आर्थिक ज़रूरतों से लेकर, तेज़ यात्रा और औद्योगिक विकास की इच्छा तक, उनके निर्माण के पीछे की प्रेरक शक्तियों की खोज की जाएगी।
रेलवे का इतिहास-
सन 1550 में , जर्मनी (Germany) में, रेलवे का जन्म हुआ था। तब इसकी लकड़ी की पटरियों को “वैगनवेज़ (Wagonways)” कहा जाता था और ये आधुनिक रेल परिवहन की शुरुआत थी। इससे घोड़ों द्वारा खींची जाने वाली वैगनों या गाड़ियों के लिए, सड़कों के साथ चलना आसान हो गया। 1700 के दशक के अंत तक, लोहे ने लकड़ी की पटरियों और पहियों की जगह ले ली। क्योंकि तब वैगनवेज़, “ट्रामवेज़ (Tramways)” में बदल गए, और पूरे यूरोप में लोकप्रिय हो गए। 1800 के दशक की शुरुआत में, भाप से चलने वाले लोकोमोटिव के चलन में आने तक, घोड़े तब भी माल के लिए “शक्ति” प्रदान करते थे।
लोकोमोशन -
रेलवे का इतिहास, एक परिवर्तनकारी यात्रा है, जो सदियों से चली आ रही है। इसने दुनिया भर में अर्थव्यवस्थाओं, समाजों और परिदृश्यों को नया आकार दिया है। रेलवे की उत्पत्ति का पता, 19वीं सदी की शुरुआत में लगाया जा सकता है, जो परिवहन और औद्योगीकरण के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण है।
प्रारंभिक शुरुआत:
दुनिया की पहली सार्वजनिक रेलवे – स्टॉकटन और डार्लिंगटन रेलवे (Stockton and Darlington Railway), 1825 में इंग्लैंड (England) में शुरू की गई थी। जॉर्ज स्टीफ़ेनसन (George Stephenson) इसके इंजीनियर थे, और यह रेलवे मुख्य रूप से खदानों से बंदरगाहों तक कोयले के परिवहन का काम करती थी। 1829 में स्टीफ़ेनसन के “रॉकेट (Rocket)” इंजन के प्रतिष्ठित होने के साथ, भाप इंजनों के उपयोग ने पारंपरिक घोड़ा-गाड़ी से एक क्रांतिकारी बदलाव को चिह्नित किया, और तेज़ी से, कुशल परिवहन का द्वार खोल दिया।
रेलवे द्वारा औद्योगीकरण को बढ़ावा देना:
रेलवे तेज़ी से औद्योगीकरण की रीढ़ बन गई, जिससे माल और कच्चे माल की कुशल आवाजाही में सुविधा हुई। ब्रिटेन (Britain) और यूरोप में रेल नेटवर्क के विकास ने विनिर्माण केंद्रों, बंदरगाहों और संसाधन-संपन्न क्षेत्रों को जोड़कर आर्थिक विकास को उत्प्रेरित किया। रेलवे निर्माण की मांगों को पूरा करने के लिए, लौह और इस्पात उद्योग विकसित हुए, जिससे एक सहजीवी संबंध बना। इसने औद्योगिक क्रांति को बढ़ावा दिया।
महाद्वीपों में रेलवे:
19वीं सदी के मध्य में, रेलवे का अभूतपूर्व वैश्विक विस्तार देखा गया। 1869 में, संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America) में पहले अंतरमहाद्वीपीय या ट्रांसकॉन्टिनेंटल रेलमार्ग (Transcontinental Railroad) के पूरा होने से, पूर्वी और पश्चिमी तट जुड़ गए, जिससे यात्रा का समय कम हो गया और पश्चिम की ओर विस्तार को बढ़ावा मिला। भारत में, 1850 के दशक में, रेलवे की शुरूआत ने, हमारे विशाल उपमहाद्वीप को एकजुट करने और लोगों और सामानों की आवाजाही को सुविधाजनक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लोकोमोटिव स्टीम इंजन के बारे में एक इतिहास समयरेखा-
लोकोमोटिव स्टीम इंजन का इतिहास, 19वीं सदी की शुरुआत से मिलता है, जब इसके आविष्कारक जॉर्ज स्टीफ़ेनसन ने 1829 में पहला सफ़ल स्टीम लोकोमोटिव – “रॉकेट” बनाया था। इस क्रांतिकारी तकनीक ने परिवहन को तेज़ी से बदल दिया, जिससे रेल द्वारा तेज़ और अधिक कुशल यात्रा की अनुमति मिली। इन वर्षों में, भाप इंजन औद्योगिक क्रांति की रीढ़ बन गए, जिससे ट्रेनों को शक्ति मिली, जो माल और लोगों को विशाल दूरी तक ले गई। भाप इंजनों का स्वर्ण युग, 20वीं सदी के मध्य तक चला, जब डीज़ल और इलेक्ट्रिक इंजनों ने उनका स्थान लिया। आज, भाप इंजनों का उपयोग मुख्य रूप से ऐतिहासिक और पर्यटक उद्देश्यों के लिए किया जाता है, लेकिन, आधुनिक परिवहन को आकार देने पर उनके प्रभाव को कम करके नहीं आंका जा सकता है।
हला सफ़ल भाप इंजन
रिचर्ड ट्रेविथिक (Richard Trevithick) द्वारा निर्मित पहला सफ़ल स्टीम लोकोमोटिव, 17 फ़रवरी,1804 को वेल्स (Wales) में शुरू हुआ था। यह लोकोमोटिव, 10 टन लोहे का भार और 70 यात्रियों को, पांच मील प्रति घंटे की गति से 10 मील की दूरी तक ले जाने में सक्षम था। यह भाप से चलने वाले परिवहन के विकास में, एक महत्वपूर्ण क्षण साबित हुआ।
स्टॉकटन और डार्लिंगटन रेलवे का उद्घाटन
स्टॉकटन और डार्लिंगटन रेलवे, भाप इंजनों का उपयोग करने वाली दुनिया की पहली सार्वजनिक रेलवे थी, जिसे 27 सितंबर,1825 के दिन इंग्लैंड में उद्घाटित किया गया था। इस रेलवे को जॉर्ज स्टीफ़ेनसन द्वारा डिज़ाइन किया गया था, और इसमें उनकी कंपनी – रॉबर्ट स्टीफ़ेनसन एंड कंपनी (Robert Stephenson and Company) द्वारा निर्मित भाप इंजन शामिल थे। इसने रेलवे युग की शुरुआत की और परिवहन में क्रांति ला दी।
“टॉम थंब” लोकोमोटिव (“Tom Thumb” locomotive)
पीटर कूपर (Peter Cooper) द्वारा डिज़ाइन किया गया, बाल्टीमोर और ओहियो रेलरोड (Baltimore and Ohio Railroad) का “टॉम थंब” लोकोमोटिव, 1 अगस्त,1830 को पहली बार चला था। यह लोकोमोटिव, हालांकि छोटा और प्रायोगिक था, यात्रियों और माल ढुलाई की ट्रेन को, 18 मील प्रति घंटे की गति से खींचने में सक्षम था। “टॉम थंब” की सफ़लता ने संयुक्त राज्य अमेरिका में भाप इंजनों की क्षमता का प्रदर्शन किया।
प्रथम अंतरमहाद्वीपीय रेलमार्ग का समापन
संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्वी और पश्चिमी तटों को जोड़ने वाला पहला ट्रांसकॉन्टिनेंटल रेलमार्ग, 10 मई,1869 तारीख को पूरा हुआ था। यह रेलमार्ग भाप इंजनों का उपयोग करके बनाया गया था, और इसने अमेरिकी पश्चिम क्षेत्र के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रेलमार्ग का पूरा होना, परिवहन इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ।
द फ़्लाइंग स्कॉट्समैन (The Flying Scotsman)
आधिकारिक तौर पर, 100 मील प्रति घंटे से अधिक चलने वाला, पहला भाप लोकोमोटिव, इंग्लैंड में, लंदन (London) और उत्तर पूर्वी रेलवे का “फ़्लाइंग स्कॉट्समैन” था। 22 मार्च,1876 को, इस लोकोमोटिव ने 100.5 मील प्रति घंटे की गति हासिल की, जिसने भाप इंजनों के लिए एक नया विश्व रिकॉर्ड स्थापित किया। “फ़्लाइंग स्कॉट्समैन”, ब्रिटिश इंजीनियरिंग का एक प्रतिष्ठित प्रतीक भी बन गया।
रेलवे का निर्माण क्यों किया गया?
•व्यापार – रेलवे, खदानों और कारखानों वाले क्षेत्रों को सीधे बंदरगाहों से जोड़ती थी, ताकि ब्रिटिश, उपज को पूरे देश और दुनिया भर में निर्यात कर सके। किसान अपनी उपज आसानी से और जल्दी बाज़ार भेज सकते थे।
•लागत – कच्चे और निर्मित माल को सस्ते मूल्य में ले जाया जा सकता था। कम कीमतों का मतलब था कि, अधिक उत्पाद बेचे जा सकते थे, जिससे उद्योगपतियों का मुनाफ़ा बढ़ता। साथ ही, जनता यात्रा करने में अधिक सक्षम होगी, क्योंकि परिवहन की लागत अधिक किफ़ायती हो जाएगी।
•विश्वसनीयता – यूरोप की नदियों के विपरीत, जो सर्दियों के दौरान जम जाती थीं, या गर्मियों के दौरान नौगम्य नहीं होती थीं, रेलवे लगभग हमेशा माल परिवहन करने में सक्षम थी।
•जनसंख्या वृद्धि – जनसंख्या में वृद्धि का मतलब, कोयले जैसे भारी सामान के वितरण की मांग में बढ़ावा होना । इस कारण भी, रेलवे की आवश्यकता महसूस की गई थी।
संदर्भ
मुख्य चित्र : लिवरपूल डॉक में स्टीम लोकोमोटिव शंटिंग: Wikimedia
जानिए, ठंड के इन दिनों में प्रभावी जड़ी बूटियों – तुलसी व आंवले का महत्व
पेड़, झाड़ियाँ, बेल व लतायें
Trees, Shrubs, Creepers
17-02-2025 09:32 AM
Lucknow-Hindi

जैसे ही लखनऊ में सर्दियां आती हैं, ठंडी हवाएं, हमें थका हुआ महसूस करा सकती हैं और मौसमी बीमारियों की चपेट में भी ला सकती हैं। हालांकि, तुलसी और आंवला दो ऐसे आयुर्वेदिक पौधे हैं, जो इन ठंड के महीनों के दौरान, हमें मज़बूत और स्वस्थ रहने में मदद कर सकते हैं। तुलसी, अपने प्राकृतिक उपचार गुणों के साथ, हमारी श्वसन प्रणाली को साफ़ करने में मदद करती है, और सर्दी और खांसी से लड़ती है। दूसरी ओर, विटामिन सी (Vitamin C) से भरपूर आंवला, हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ावा देता है, जिससे हमको ऊर्जावान रहने और संक्रमणों से सुरक्षित रहने में मदद मिलती है। तुलसी की चाय और आंवले को अपने दैनिक आहार में शामिल करने से, हम पूरे सर्दियों में स्वस्थ रह सकते हैं।
आज, हम आयुर्वेदिक चिकित्सा में प्रसिद्ध जड़ी-बूटी – तुलसी और प्रतिरक्षा को बढ़ावा देने और तनाव को कम करने जैसे, इसके विभिन्न उपयोगों तथा औषधीय लाभों पर चर्चा करेंगे। इसके बाद, हम आंवला के बारे में जानेंगे, जो एक शक्तिशाली फल है, व अपनी उच्च विटामिन सी मात्रा के लिए जाना जाता है। हम, पाचन में सुधार और त्वचा के स्वास्थ्य को बढ़ाने सहित, इसके अन्य औषधीय लाभों की भी जांच करेंगे।
पवित्र तुलसी–
पवित्र तुलसी का वैज्ञानिक नाम, ओसीमम टेनुइफ़्लोरम (Ocimum tenuiflorum) है। हिंदू लोग, इसकी पूजा भी करते हैं और यह, तथ्य हम सब जानते ही हैं। यह दरअसल, एक औषधीय जड़ी बूटी है, जो भारत की मूल है। इसकी खेती पूर्वी एशिया (Asia), ऑस्ट्रेलिया (Australia) और आसपास के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में की जाती है। “पवित्र तुलसी” को इसका नाम, हिंदू धर्म के वैष्णव संप्रदाय से संबंधित लोगों के बीच, इसके पवित्र वर्गीकरण के कारण मिला है। तुलसी का उपयोग अक्सर पाक कला में किया जाता है, और इसके अपने कई फ़ायदे हैं। आयुर्वेद की औषधीय पद्धतियों में एक मुख्य घटक के रूप में, तुलसी का एक समृद्ध इतिहास भी है।
तुलसी का उपयोग, भारत और नेपाल में इसके औषधीय गुणों के लिए, हज़ारों वर्षों से किया जाता रहा है। इसे ‘जीवन का अमृत’, ‘तरल योग’ और ‘जड़ी-बूटियों की रानी’ भी कहा जाता है।
तुलसी पौधे के सभी भाग – और विशेष रूप से इसकी पत्तियां और बैंगनी फूल – फ़ायदेमंद माने जाते हैं। यदि आप इसके कड़वे, परंतु मसालेदार स्वाद को संभाल सकते हैं, तो तुलसी को कच्चा भी खाया जा सकता है।
तुलसी के उपयोग एवं लाभ-
- रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाना –
तुलसी में, प्रचुर मात्रा में एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidants) और सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं, जो सर्दी, फ़्लू, बुखार, अस्थमा आदि सामान्य बीमारियों से लड़ने में मदद करते हैं। गले की खराश और सर्दी के लक्षणों से राहत पाने के लिए, तुलसी के पत्ते चबाना या तुलसी के साथ उबाला गया पानी पीना, उपयोगी साबित होता है।
- संक्रमण को ठीक करना
सदियों से, तुलसी में मौजूद एंटीवाइरल (Antiviral), एंटीफ़ंगल (Antifungal) और जीवाणुरोधी गुणों के संयोजन के कारण, तुलसी का उपयोग घावों और संक्रमणों को ठीक करने में किया जाता रहा है। इसमें एंटी–एंटीइंफ़्लेमेटरी (Anti-inflammatory) गुण भी होते हैं, जो सूजन को कम करने और घावों को जल्दी ठीक करने में मदद करते हैं।
- खून को शुद्ध करना
तुलसी हमारे रक्त को शुद्ध करने एवं स्वस्थ त्वचा को प्रतिबिंबित करने के लिए भी जानी जाती है।
- कीड़े के काटने का इलाज़
कुछ त्वचा संक्रमण, जैसे कि, दाद या कीड़े के काटने का इलाज़, तुलसी की पत्तियों का उपयोग करके, आसानी से किया जा सकता है।
- रक्तचाप को कम करना
उच्च रक्तचाप के रोगियों को तुलसी के महत्वपूर्ण स्वास्थ्य लाभ मिल सकते हैं, क्योंकि, तुलसी के पत्तों का सेवन उच्च रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल (Cholesterol) के स्तर को कम करके हमें लाभ पहुंचाता है। तुलसी सिरदर्द, चिंता, अवसाद, नींद की कमी और उच्च रक्तचाप के लक्षणों के लिए भी एक शक्तिशाली औषधि है।
- श्वसन संबंधी विकारों का इलाज़
प्रदूषित वातावरण, हमारे फेफ़ड़ों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। परिणामस्वरूप, अस्थमा (Asthama) और ब्रोंकाइटिस (Bronchitis) जैसी श्वसन संबंधी समस्याएं होती हैं। ऐसी स्थिति में, तुलसी श्वसन तंत्र पर प्रभावी ढंग से कार्य करती है।
आंवला–
आंवला, एक एक ऐसा फल है, जो मूल रूप से एशिया के कुछ हिस्सों में उगता है। इसके कई पाक और औषधीय उपयोग हैं। खासकर, इसके मूल देश – हमारे भारत में, इसका व्यापक उपयोग किया जाता है। यह फ़ल विटामिन सी से भरपूर होता है। अक्सर माना जाता है कि, इसमें संभावित एंटीऑक्सिडेंट और हृदय-स्वास्थ्य लाभकारी गुण होते हैं। आंवला, जिसे ‘भारतीय करौदा’ भी कहा जाता है, वैज्ञानिक रूप से कई स्वास्थ्य समस्याओं से लड़ने में मदद करने के लिए सिद्ध है। इसे इसके खट्टे स्वाद और उत्कृष्ट स्वास्थ्यगुणों के लिए जाना जाता है।
आंवले को दो वैज्ञानिक नामों से जाना जाता है – फ़िलैन्थस एम्ब्लिका (Phyllanthus emblica) और एम्ब्लिका ऑफ़िसिनैलिस (Emblica officinalis)। इस छोटे पेड़ में पीले-हरे फूल होते हैं, जो इसी रंग के गोल व खाने योग्य फलों में खिलते हैं। आंवला, गोल्फ़ बॉल के आकार के होते हैं, जिनमें एक गुठली और पतला छिलका होता है। इनका स्वाद खट्टा, कड़वा और कसैला होता है। आंवले का उपयोग, भारत में खाना पकाने में किया जाता है। आज बाज़ार में, अधिकांश आंवला पूरक, केवल पाउडर, सूखे फल या फल के अर्क से बनाए जाते हैं। हालांकि, इस पूरे पौधे – जिसमें फ़ल, पत्ते और बीज शामिल हैं – का उपयोग पारंपरिक भारतीय चिकित्सा में किया जाता है।
आंवले के स्वास्थ्य लाभ-
1. प्रतिरक्षा कार्य को बढ़ावा देना-
आंवला विटामिन सी से भरपूर है, जो आपके शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है। इसके नियमित सेवन से, आपके शरीर की विभिन्न संक्रमणों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ सकती है।
2. बेहतर त्वचा-
आंवले में मौजूद एंटीऑक्सिडेंट का उच्च स्तर, मुक्त कणों से लड़ने में मदद कर सकता है, जो उम्र बढ़ने के लिए ज़िम्मेदार हैं। इसके नियमित सेवन से उम्र बढ़ने के लक्षणों और पर्यावरणीय क्षति को कम करके, आपकी त्वचा को साफ़ और अधिक चमकदार दिखने में मदद मिल सकती है।
3. रक्त शर्करा नियंत्रण-
आंवले में क्रोमियम (Chromium) होता है, जिसका मधुमेह के रोगियों के लिए चिकित्सीय महत्व है। क्योंकि, यह कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrate) चयापचय को विनियमित करने में मदद करता है, और शरीर को इंसुलिन (Insulin) के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है। यह बदले में रक्त शर्करा के स्तर को स्थिर करता है।
4. बेहतर पाचन-
इसमें फ़ाइबर (Fibre) की मात्रा अधिक होती है, इसलिए, आंवला स्वस्थ मल त्याग करने में मदद करता है, और कब्ज़ को रोकने में मदद करता है। यह जठरीय और पाचक रसों के स्राव को भी प्रेरित करता है, जिससे आपके भोजन को पचाना आसान हो जाता है। इससे अल्सर (Ulcer) जैसे जठरीय विकारों की घटनाओं में कमी आती है।
5. बेहतर यकृत-
आंवला में हेपेटोप्रोटेक्टिव गुण (Hepatoprotective properties) भी होते हैं, जो लिवर अर्थात यकृत को डिटॉक्सीफ़ाई (Detoxify) करने में सहायता करते हैं। इस प्रकार, लिवर के कामकाज की समग्र बेहतरी के लिए, शरीर से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र: (Wikimedia)
आइए, आज अपने लखनऊ की खूबियों को और करीब से जानें
द्रिश्य 3 कला व सौन्दर्य
Sight III - Art/ Beauty
16-02-2025 09:19 AM
Lucknow-Hindi

हमारे प्यारे लखनऊ वासियों, आप सभी इस बात से अवगत होंगे कि, एक समय हमारा लखनऊ, नवाबों की सत्ता का केंद्र हुआ करता था। नवाबों की सत्ता ने यहां एक परिष्कृत शिष्टाचार, भव्य वास्तुकला और ललित कला तथा व्यंजनों के प्रति हमारे प्रेम को जन्म दिया, जो आज हमारी विरासत का अभिन्न अंग बन चुके हैं। हमारा शहर, आज, प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक तत्वों का एक सम्मिश्रण बन चुका है जो इसे और भी खास बनाता है। यहाँ पर मुगल और ब्रिटिश राज के समय की इमारतें और मकबरे जैसे रेज़ीडेंसी, बड़ा इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा और ज़ामा मस्ज़िद आज भी मौजूद हैं। यहां स्थित भूल भुलैया, अपने आप में आश्चर्य का केंद्र है। यह सैकड़ों छोटी-छोटी सीढ़ियों का एक चक्रव्यूह है, जिनमें से कुछ रास्ते ऐसे हैं जो आक्रमणकारियों को भगाने के लिए बनाए गए थे। यह सबसे रहस्यमयी जगहों में से एक है। यहाँ से, आप छोटा इमामबाड़ा तक "तांगा की सवारी" कर सकते हैं । लखनऊ की "चिकनकारी", भारतीय संस्कृति का एक अविभाज्य हिस्सा रही है। यहां की समृद्ध संस्कृति और इसके विकास की खुशबू, इसके प्राकृतिक "इत्र" में समाहित है। लखनऊवासी अक्सर कहते हैं, कि "यहाँ पर सब नवाब हैं!" और यह कहना वास्तव में उचित भी है, क्यों कि इस शहर की भावना या इसकी आत्मा को व्यक्त करने का इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका नहीं है। यह दर्शाता है कि हर लखनऊवासी एक नवाब है, और शहर में आने वाले हर आगंतुकों का निस्संदेह नवाबों की तरह स्वागत किया जाएगा। तो आइए, आज कुछ चलचित्रों के ज़रिए हम अपने शहर की विरासत, इसके ऐतिहासिक स्मारकों और संस्कृति के बारे में और भी जानने की कोशिश करें। फिर हम, कुछ अन्य चलचित्रों के माध्यम से, यहाँ के बेहतरीन स्ट्रीट फ़ूड और नॉन वेज व्यंजनों जैसे टुंडे कबाब, निहारी, मटन बिरयानी आदि का आनंद लेंगे।
संदर्भ:
आइए समझें, चित्रकूट के पहाड़ों के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को
पर्वत, चोटी व पठार
Mountains, Hills and Plateau
15-02-2025 09:33 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ से लगभग 200 किलोमीटर दूर स्थित चित्रकूट धाम, उत्तर प्रदेश के चित्रकूट ज़िले का एक शहर है। यह बुंदेलखंड क्षेत्र में स्थित है और इसका सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक और पुरातात्विक महत्व है। कहा जाता है कि, हिंदू धर्म के प्रमुख देवता राम ने अपने 14 साल के वनवास में से 11 साल चित्रकूट में बिताए थे। चित्रकूट, विंध्याचल पर्वतमाला के उत्तरी भाग में आता है, जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश राज्यों में फैली हुई है।
आज के लेख में, हम समझने की कोशिश करेंगे कि चित्रकूट के पहाड़ों को “चमत्कारिक पहाड़ियां” क्यों कहा जाता है। फिर हम चित्रकूट धाम के आध्यात्मिक महत्व के बारे में विस्तार से जानेंगे। उसके बाद, हम चित्रकूट के महत्वपूर्ण पर्यटन स्थलों के बारे में बात करेंगे। अंत में, हम जानेंगे कि, हवाई मार्ग, सड़क और ट्रेन के ज़रिए यहां कैसे पहुंचा जा सकता है।
चित्रकूट के पहाड़ों को अनेक आश्चर्यों की पहाड़ियां क्यों कहा जाता है?
चित्रकूट के पहाड़ों को “अनेक आश्चर्यों की पहाड़ियां” इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह भगवान राम का पवित्र निवास स्थान था, जहाँ उन्होंने अपने
वनवास के 11 साल बिताए थे।यहां की ख़ास चट्टानों और प्रकृति की विविधता की वजह से यह विद्वानों और श्रद्धालुओं के लिए बहुत ख़ास है।
जानकी कुंड में, 1600 मिलियन साल पुराने ऐसे जीवाश्म (फ़ॉसिल्स) मिले हैं, जो धरती पर ऑक्सीजन बनने में मददगार थे। चित्रकूट के पास, मझगवां और पन्ना में भारत की अकेली हीरे की खदान और पन्ना टाइगर रिज़र्व (Panna Tiger Reserve) है। रानेह घाटी में चट्टानों की ख़ास बनावट देखने को मिलती है।
चित्रकूट वह जगह है, जहाँ बुंदेलखंड की चट्टानों और विंध्य पर्वत श्रृंखला का अध्ययन किया जा सकता है। यही सब चीज़ें इसे “दुनिया के सबसे ख़ास पहाड़ियां” बनाती हैं।
चित्रकूट धाम का महत्व
1. रामायण से जुड़ाव: चित्रकूट का रामायण से गहरा संबंध है। कहा जाता है कि भगवान राम ने अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अपने 14 वर्ष के वनवास में से लगभग ग्यारह वर्ष चित्रकूट की शांति भरी वादियों में बिताए थे। यहां के जंगल, नदियां और गुफाएं भगवान राम, सीता और लक्ष्मण की उपस्थिति की गवाही देते हैं। इसी कारण यह स्थान लाखों भक्तों के लिए एक पवित्र तीर्थ बन गया है।
2. दिव्य प्राकृतिक सौंदर्य: चित्रकूट की हरियाली, ऊँची-नीची पहाड़ियाँ और बहती नदियाँ इसकी सुंदरता को अद्भुत बनाती हैं। कहा जाता है कि, यहां की प्राकृतिक सुंदरता ने, देवताओं और ऋषियों को ध्यान और साधना करने के लिए प्रेरित किया। यहां रामघाट जैसे पवित्र स्थान हैं, जहाँ भगवान राम ने मंदाकिनी नदी में स्नान किया था, और कामदगिरि पर्वत, जिसे भगवान
हनुमान की भक्ति का प्रतीक माना जाता है।
3. पौराणिक महत्व: चित्रकूट की हर चट्टान, गुफा और पेड़ रामायण की कहानियाँ सुनाते हैं। भारत मिलाप मंदिर, वह स्थान है, जहाँ भगवान राम और उनके भाई भरत का मिलन हुआ था। हनुमान धारा, यहाँ एक पहाड़ी पर स्थित प्राकृतिक झरना है | ऐसा माना जाता है कि इसे भगवान राम ने हनुमान जी की प्यास बुझाने के लिए बनाया था। ये पौराणिक कथाएँ चित्रकूट को और भी पवित्र बनाती हैं।
4. आध्यात्मिक साधनाएँ: चित्रकूट में आने वाले भक्त ध्यान, भजन और धर्मग्रंथों का पाठ करते हैं। यहां की शांति उन्हें आत्मचिंतन और भगवान से जुड़ने में मदद करती है। भक्त यहां पवित्र स्थलों की परिक्रमा करते हैं, जिसे भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक माना जाता है।
5. सांस्कृतिक धरोहर: चित्रकूट, न केवल आध्यात्मिक स्थल है, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर का भी खज़ाना है। यहां भजन, कीर्तन और धार्मिक प्रवचन की गूंज सुनाई देती है। राम नवमी, दीवाली और चित्रकूट महोत्सव जैसे त्योहार यहाँ बड़े उत्साह के साथ मनाए जाते हैं, जो इस क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति
को दर्शाते हैं।
6. पवित्र तीर्थ: भक्तों के लिए, चित्रकूट की यात्रा सिर्फ़ एक सफ़र नहीं, बल्कि आत्मा की तीर्थ यात्रा है। ऐसा माना जाता है कि, यहां की पवित्र भूमि के दर्शन और इसके पवित्र जल का स्पर्श, पापों को मिटा देता है और भक्तों को
आध्यात्मिक आशीर्वाद मिलता है।यहां आने वाले भक्त शांति, मोक्ष और भगवान की कृपा पाने की इच्छा रखते हैं।
7. सार्वभौमिक आकर्षण: चित्रकूट का महत्व, केवल हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए नहीं है। इसकी आध्यात्मिक ऊर्जा, हर धर्म, जाति और राष्ट्रीयता के लोगों को आकर्षित करती है। रामायण में सिखाई गई प्रेम, सच्चाई और भक्ति की शिक्षा हर व्यक्ति को प्रेरणा देती है।
चित्रकूट के महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल
1. कामदगिरि मंदिर: यह मंदिर, भगवान कामतानाथ को समर्पित है और कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा के लिए प्रसिद्ध है। ‘कामदगिरि’ का अर्थ है, वह पर्वत जो सभी इच्छाएँ पूरी करता है। ऐसा माना जाता है कि, भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण ने अपने वनवास के दौरान, यहाँ निवास किया था। यहाँ की मुख्य परिक्रमा, लगभग 6 किलोमीटर लंबी है, जो लगभग 1 घंटे में पूरी होती है। सुबह की ताज़गी, भक्तों का राम नाम का जाप और जय कामतानाथ के उद्घोष से, वातावरण में एक अद्भुत आध्यात्मिक ऊर्जा
महसूस होती है।
2. गुप्त गोदावरी गुफाएँ: यह पवित्र स्थल, चित्रकूट से लगभग 18 किलोमीटर दूर है। रामायण के अनुसार, भगवान राम और लक्ष्मण ने अपने वनवास के दौरान, यहाँ कुछ समय बिताया था। यहाँ दो अलग-अलग गुफाएँ हैं, और इन गुफ़ाओं में पानी घुटनों तक भर जाता है।
3. रामघाट: उत्तर प्रदेश के सबसे प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से एक है रामघाट, जहाँ संत गोस्वामी तुलसीदास का भगवान राम,
माता सीता और लक्ष्मण के साथ लंबी बातचीत हुई थी।यही कारण है कि, यह स्थान, लोगों के दिलों में एक ख़ास जगह बनाता है।
4. स्फटिक शिला: यह स्थान, मंदाकिनी नदी के किनारे स्थित है। ‘स्फटिक शिला’ असल में दो बड़े पत्थर हैं, जिन पर माना जाता है कि माता सीता और भगवान राम के पदचिह्न हैं। यदि आप एक शांत और सुकून भरी जगह की तलाश में हैं, तो यह स्थान एक बेहतरीन विकल्प है।
5. सती अनुसूया मंदिर: रामघाट से लगभग 18 किलोमीटर दूर स्थित सती अनुसूया आश्रम, चित्रकूट के सबसे पवित्र स्थानों में से एक है। इसे ‘चित्रकूट चार धाम’ का हिस्सा माना जाता है। यह स्थान महर्षि अत्रि और उनकी पत्नी महा सती अनुसूया के आश्रम के रूप में प्रसिद्ध है। उनकी पवित्रता और शुद्धता के कारण वे हिंदू धर्मग्रंथों में एक महान सती के रूप में जानी जाती हैं।
6. हनुमान धारा: यह स्थान, रामघाट से लगभग 3 किलोमीटर दूर स्थित है और भगवान हनुमान के भक्तों के लिए एक प्रमुख आकर्षण है। ‘हनुमान धारा’ नाम, वहाँ बहने वाले सुंदर झरने से पड़ा, जो भगवान हनुमान की मूर्ति पर गिरता है। भक्तों के लिए यह दृश्य, अत्यंत सुंदर और आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध करने वाला होता है। बजरंग बली की मूर्ति, लाल संगमरमर की बनी हुई है और मंदिर में प्रवेश करते समय यह मूर्ति, भक्तों को आशीर्वाद देती है।
चित्रकूट कैसे पहुंचें?
हवाई मार्ग से: चित्रकूट के पास का सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा, इलाहाबाद का बमरोली एयरपोर्ट है, जोचित्रकूट से 106.1 किलोमीटर दूर है।इसके अलावा, वाराणसी का लाल बहादुर शास्त्री इंटरनेशनल एयरपोर्ट और खजुराहो एयरपोर्ट भी पास में हैं। इन हवाई अड्डों से चित्रकूट आने के लिए, आप प्री-पेड टैक्सी (Pre-paid taxi) ले सकते हैं, जो सबसे अच्छा तरीका है।
सड़क मार्ग से: चित्रकूट तक जाने के लिए, बहुत सी बसें चलती हैं जो उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कई शहरों से चित्रकूट
आती-जाती हैं। ये बसें, राज्य राजमार्गों और NH 76 (National Highway 76) पर चलती हैं।आप साझा टैक्सी या कैब भी ले सकते हैं, जो इन्हीं रास्तों से जाती हैं।
रेल मार्ग से: चित्रकूट का सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन, करवी (चित्रकूट) है, जो झांसी-मणिकपुर रेलवे लाइन पर है। यहां से आप, नियमित ट्रेनों से भारत के सभी बड़े शहरों में जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश संपर्क क्रांति , एक प्रमुख ट्रेन है, जो औसतन 59 किमी/घंटा की गति से चलती है।
चित्रकूट में स्थानीय परिवहन
चित्रकूट की सड़कें, दूसरे शहरों से अच्छी तरह से जुड़ी हुई हैं। क्योंकि यहां बहुत सारे पर्यटक आते हैं, इसलिए यहां बसें, टैक्सियाँ और रिक्शा आसानी से मिल जाते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र: रामघाट का दृश्य और कंचन मृग के भेष में मारीच (Wikimedia, flickr)
अपने बच्चों को जन्मजात हृदय रोग से बचाएं और उन्हें एक स्वस्थ भविष्य का तोहफ़ा दें !
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
14-02-2025 09:24 AM
Lucknow-Hindi

पिछले महीने, लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में आयोजित कार्डियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ़ इंडिया (Cardiological Society of India (CSI)) के 76वें चार दिवसीय वार्षिक सम्मेलन में भारत और विदेश के प्रतिष्ठित हृदय रोग विशेषज्ञों ने जन्मजात हृदय रोग (CHD) के कारणों, निदान और उपचार पर अपने विचार साझा किए। क्या आप जानते हैं कि, भारत में हर साल 200,000 से अधिक बच्चे, जन्मजात हृदय रोग के साथ पैदा होते हैं। यह एक ऐसी समस्या है जो तब शुरू होती है, जब गर्भावस्था के दौरान हृदय या उसके आसपास की रक्त वाहिकाओं का सामान्य विकास नहीं हो पाता। आज जन्मजात हृदय दोष जागरूकता दिवस (World Congenital Heart Defect Awareness Day) है, इसलिए इस अवसर पर, हम इस गंभीर बीमारी के बारे में विस्तार से जानने की कोशिश करेंगे। सबसे पहले, हम जन्मजात हृदय रोग के दो प्रमुख प्रकारों को समझेंगे, जिन्हें सायनोटिक (Cyanotic) और एसियानोटिक (Acyanotic) जन्मजात हृदय रोग कहा जाता है। इसके बाद, इसके कारण, लक्षण और इससे जुड़े जोखिम कारकों पर चर्चा करेंगे। फिर, हम यह जानने की कोशिश करेंगे कि कैसे कुछ उपाय अपनाकर जन्मजात हृदय रोग से पीड़ित बच्चे होने की संभावना को कम किया जा सकता है। अंत में, भारत में इस बीमारी के इलाज की उपलब्ध सुविधाओं और उपचार के तरीकों पर प्रकाश डालेंगे।
ये रोग, कई प्रकार के होते हैं, जिनमें शामिल हैं:
1. सायनोटिक हृदय रोग: सायनोटिक हृदय रोग वह स्थिति है, जिसमें हृदय शरीर के सभी हिस्सों तक पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं पहुँचा पाता। इस स्थिति से प्रभावित बच्चों में ऑक्सीजन का स्तर सामान्य से कम होता है और उन्हें अक्सर सर्जरी की आवश्यकता होती है।
इसके उदाहरणों में शामिल हैं:
बाएँ हृदय अवरोधक घाव (Left heart obstructive lesions) : इस स्थिति में हृदय और शरीर के अन्य हिस्सों (प्रणालीगत रक्त प्रवाह) के बीच रक्त प्रवाह बाधित हो जाता है।
हाइपोप्लास्टिक बाएँ हृदय सिंड्रोम: इसमें हृदय का बायाँ हिस्सा बहुत छोटा होता है।
बाधित महाधमनी चाप: इसमें महाधमनी पूरी तरह विकसित नहीं होती।
दाएँ हृदय अवरोधक घाव (Right heart obstructive lesions): यह हृदय और फेफड़ों (फुफ्फुसीय रक्त प्रवाह) के बीच रक्त प्रवाह को बाधित करता है।
टेट्रालॉजी ऑफ़ फ़ैलोट (Tetralogy of Fallot) : इसमें चार प्रकार की विसंगतियाँ होती हैं। एबस्टीन की विसंगति, फुफ्फुसीय एट्रेसिया और ट्राइकसपिड एट्रेसिया: इनमें हृदय के वाल्व सही ढंग से विकसित नहीं होते।
2. एसियानोटिक जन्मजात हृदय रोग
इस प्रकार के हृदय रोग में ऑक्सीजन का प्रवाह सामान्य हो सकता है, लेकिन रक्त प्रवाह में अन्य बाधाएँ होती हैं।
इसके उदाहरणों में शामिल हैं:
हृदय में छेद (Hole in the Heart) : हृदय की दीवारों में असामान्य छेद हो सकता है।
छेद के स्थान के आधार पर इसे विभिन्न नामों से जाना जाता है:
- एट्रियल सेप्टल दोष,
- एट्रियोवेंट्रीकुलर कैनाल,
- पेटेंट डक्टस आर्टेरियोसस,
- वेंट्रिकुलर सेप्टल दोष।
महाधमनी की समस्या (Problem with the Aorta): इस स्थिति में महाधमनी, जो शरीर को रक्त प्रवाहित करती है, संकीर्ण हो सकती है! इसे महाधमनी संकुचन भी कहा जाता है।
महाधमनी वाल्व की समस्या (Problem with the Pulmonary Artery) : यह वाल्व सामान्य रूप से खुल और बंद नहीं हो सकता या इसमें तीन के बजाय केवल दो फ्लैप हो सकते हैं, जिसे बाइकसपिड महाधमनी वाल्व कहते हैं
आइए, अब जन्मजात हृदय दोष (सीएचडी) के बारे में जानते हैं:
जन्मजात हृदय दोष (सी एच डी), वह हृदय संबंधी समस्या है, जो बच्चे के जन्म के समय से ही मौजूद होती है। यह समस्या गर्भ में हृदय के असामान्य विकास के कारण पैदा होती है। अधिकतर मामलों में इसके किसी निश्चित कारण नहीं पता चल पाता। कुछ मामलों में यह दोष बच्चे के गुणसूत्रों में असामान्यता या एकल जीन दोषों से जुड़ा हो सकता है। पर्यावरणीय कारक भी इसे प्रभावित कर सकते हैं। अक्सर, यह समस्या जीन और पर्यावरणीय कारणों के संयोजन से उत्पन्न होती है। इसका मतलब है कि माता-पिता के जीन और अज्ञात पर्यावरणीय प्रभाव मिलकर समस्या का कारण बन सकते हैं।
इसके लक्षणों में शामिल हैं:
अनियमित दिल की धड़कन: इसे अतालता कहा जाता है।
नीली या त्वचा,होंठ और नाखून का ग्रे होना: ऐसा ऑक्सीजन स्तर की कमी के कारण होता है। त्वचा के रंग के अनुसार यह बदलाव आसानी से या मुश्किल से दिख सकता है।
सांस फूलना: सामान्य गतिविधियों के दौरान भी सांस लेने में कठिनाई।
थकान: हल्की गतिविधि के बाद भी जल्दी थकान महसूस होना।
सूजन: शरीर के ऊतकों में तरल पदार्थ जमा होने से एडिमा नामक सूजन।
जन्मजात हृदय रोग के जोखिम कारक
आनुवंशिकी: जन्मजात हृदय रोग परिवार में चल सकता है, यानी यह विरासत में मिलता है। जीन में हुए बदलाव जन्म के समय मौजूद हृदय संबंधी समस्याओं से जुड़े हो सकते हैं।
जर्मन खसरा (रूबेला): गर्भावस्था के दौरान रूबेला होने से शिशु के हृदय विकास पर असर पड़ सकता है। गर्भावस्था से पहले कराया गया रक्त परीक्षण यह पता लगाने में मदद करता है कि आप रूबेला से प्रतिरक्षित हैं या नहीं।
मधुमेह: गर्भावस्था के दौरान, टाइप 1 या टाइप 2 मधुमेह (Type 1 or Type 2 Diabetes) होने से बच्चे के हृदय विकास पर प्रभाव पड़ सकता है। हालांकि, गर्भकालीन मधुमेह आमतौर पर जन्मजात हृदय रोग के जोखिम को नहीं बढ़ाता।
दवाएँ: गर्भावस्था के दौरान कुछ दवाओं का सेवन करने से जन्मजात हृदय रोग या अन्य स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं। जैसे, द्विध्रुवी विकार के लिए ली जाने वाली लिथियम (लिथोबिड) और मुँहासे के इलाज के लिए उपयोग होने वाली आइसोट्रेटिनॉइन (क्लेराविस, मायोरिसन आदि) हृदय दोषों से जुड़ी हो सकती हैं।
सी.एच.डी. (जन्मजात हृदय रोग) से पीड़ित बच्चे के जन्म के जोखिम को कम करने के लिए आप निम्नलिखित कदम उठा सकते हैं:
रूबेला और फ्लू के टीके लगवाएं: सुनिश्चित करें कि आपने रूबेला और फ़्लू के खिलाफ़ टीकाकरण कराया है।
शराब और हानिकारक दवाओं से बचें: गर्भावस्था के दौरान शराब पीने और अनावश्यक दवाएं लेने से बचें।
फोलिक एसिड का सेवन करें: गर्भावस्था की पहली तिमाही (पहले 12 हफ़्तों) में रोज़ाना 400 माइक्रोग्राम फोलिक एसिड सप्लीमेंट लें। यह न केवल जन्मजात हृदय रोग, बल्कि अन्य जन्म दोषों के जोखिम को भी कम करता है।
दवा लेने से पहले सलाह लें: किसी भी दवा, यहां तक कि हर्बल उपचार या काउंटर पर उपलब्ध दवाएं लेने से पहले अपने डॉक्टर या फ़ार्मेसिस्ट से सलाह लें।
संक्रमण से बचाव करें: ऐसे लोगों के संपर्क से बचें जिन्हें किसी संक्रमण का पता चला हो।
मधुमेह को नियंत्रित रखें: यदि आपको मधुमेह है, तो सुनिश्चित करें कि यह पूरी तरह नियंत्रित हो।
हानिकारक सॉल्वैंट्स से बचें: ड्राई क्लीनिंग, पेंट थिनर, और नेल पॉलिश रिमूवर जैसे कार्बनिक सॉल्वैंट्स के संपर्क में आने से बचें।
इन उपायों को अपनाकर आप अपने बच्चे को जन्मजात हृदय रोग के जोखिम से बचाने में मदद कर सकते हैं।
जन्मजात हृदय रोग के इलाज के लिए सही समय पर ध्यान देना बहुत जरूरी है। उदाहरण के लिए, महान धमनियों के परिवहन जैसी स्थिति का इलाज बच्चे के जन्म के पहले तीन के भीतर करना चाहिए। इसी तरह, बड़े वेंट्रिकुलर सेप्टल डिफ़ेक्ट (वी एस डी) और पेटेंट डक्टस आर्टेरियोसस (पी डी ए) जैसी समस्याओं का समाधान पहले साल के भीतर, और बेहतर हो तो छह महीने के अंदर ही कर लेना चाहिए।
एट्रियल सेप्टल डिफ़ेक्ट (ए एस डी) जैसी स्थिति का इलाज आमतौर पर बच्चे की उम्र साढ़े तीन साल होने तक किया जा सकता है। वहीं, टेट्रालॉजी ऑफ़ फ़ैलोट ज़रुरत से ग्रस्त बच्चों में यदि गंभीर रूप से त्वचा नीली पड़ने लगे, तो उन्हें तुरंत सर्जरी की हो सकती है।
यदि वी एस डी, पी डी ए, या ए एस डी का समय पर इलाज न किया जाए, तो ये स्थितियां बच्चे के जीवन के लिए खतरा बन सकती हैं। उदाहरण के लिए, सायनोटिक हृदय रोग से ग्रस्त बच्चों में ऊतकों को ऑक्सीजन न मिल पाने की वजह से मृत्यु का खतरा हो सकता है। समय पर उपचार न होने की स्थिति में, फ़ेफ़डों में रक्त प्रवाह का दबाव इतना बढ़ सकता है कि बच्चे को "अक्षम" घोषित कर दिया जाएगा और उसकी जान भी जा सकती है।
कई बच्चे बचपन में ही दिल की विफलता या फेफड़ों के संक्रमण, जैसे निमोनिया, की वजह से अपनी जान गंवा बैठते हैं। महाधमनी के संकुचन से पीड़ित बच्चों में उच्च रक्तचाप की समस्या हो सकती है। अगर इस स्थिति का शुरू में ही इलाज न किया जाए, तो बच्चे को जीवनभर उच्च रक्तचाप झेलना पड़ सकता है और उसे दवाइयों पर निर्भर रहना पड़ेगा।
इसलिए, जन्मजात हृदय रोग का समय पर और सही तरीके से इलाज करना, न केवल बच्चे की जान बचाने के लिए जरूरी है, बल्कि यह उसके जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाने में भी मदद करता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/274y6ffc
https://tinyurl.com/23o4rdqr
https://tinyurl.com/y6glpoh4
https://tinyurl.com/24t84pou
https://tinyurl.com/26q9r6eq
मुख्य चित्र स्रोत: Rawpixel
सफ़लता की राह पर अग्रसर है, भारतीय अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था
आधुनिक राज्य: 1947 से अब तक
Modern State: 1947 to Now
13-02-2025 09:40 AM
Lucknow-Hindi

क्या आप जानते हैं कि, वर्तमान में भारतीय अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था का मूल्य, लगभग 8.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो वैश्विक अंतरिक्ष बाज़ार मूल्य का 2% हिस्सा है। देश की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था के 2033 तक बढ़कर, 44 बिलियन डॉलर होने की उम्मीद है, जो वैश्विक बाजार का 7-8% हिस्सा होगा। भारत की अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में हमारे शहर लखनऊ का भी अहम योगदान है। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि, लखनऊ, 'भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन' (Indian Space Research Organization (ISRO)) और इसके 'टेलीमेट्री, ट्रैकिंग और कमांड नेटवर्क' (Telemetry, Tracking and Command Network (ISTRAC)) के माध्यम से, अंतरिक्ष अनुसंधान से जुड़ा हुआ है। लखनऊ में इंटीग्रल यूनिवर्सिटी का 'मानव संसाधन विकास केंद्र' भी है, जिसने अंतरिक्ष अनुसंधान परियोजनाओं पर इसरो के साथ सहयोग किया है। तो आइए, आज भारत के अंतरिक्ष अन्वेषण क्षेत्र की वर्तमान स्थिति के बारे में विस्तार से जानते हैं और देखते हैं कि, हमारे देश की अर्थव्यवस्था को अंतरिक्ष उद्योग से कैसे लाभ हुआ है। इसके बाद, हम इस बारे में बात करेंगे कि भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रमों और अंतरिक्ष क्षेत्र में निवेश से आम जनता को कैसे लाभ हुआ है। इसके साथ ही, हम इस बात पर कुछ प्रकाश डालेंगे कि, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी हमारे देश के निर्माण उद्योग को कैसे मदद कर सकती है। अंत में, हम भारत के सबसे सफ़ल अंतरिक्ष मिशनों के बारे में जानेंगे।
भारत के अंतरिक्ष अन्वेषण क्षेत्र की वर्तमान स्थिति की खोज:
2014 से 2024 के बीच, भारतीय अंतरिक्ष उद्योग ने भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 60 बिलियन डॉलर का योगदान दिया है, जिसके अगले 10 वर्षों में 131 बिलियन डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। 'भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम रिपोर्ट' के अनुसार, अंतरिक्ष उद्योग के तहत भारत में अब तक 96,000 प्रत्यक्ष नौकरियां और 4.7 मिलियन अप्रत्यक्ष नौकरियां उत्पन्न हुई हैं। भारत, अब दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था है। 2024 तक, भारतीय अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था का मूल्य लगभग 8.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था का 2% -3% हिस्सा है, इसके 2025 तक, 6% चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर पर 13 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। भारत का लक्ष्य, अगले दशक तक वैश्विक अर्थव्यवस्था में 10% हिस्सेदारी हासिल करना है। इसरो दुनिया की छठी सबसे बड़ी अंतरिक्ष एजेंसी है और इसके प्रक्षेपण मिशनों की सफलता दर उच्च है। भारत में 400 से अधिक निजी अंतरिक्ष कंपनियाँ हैं। 'भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्धन और प्राधिकरण केंद्र' (IN-SPACe) की स्थापना के साथ, भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र में स्टार्टअप की संख्या 2020 में 54 से बढ़कर वर्तमान में 200 से अधिक हो गई है।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का लोगो | Source : Wikimedia
भारत के अंतरिक्ष उद्योग ने हमारे देश की अर्थव्यवस्था को कैसे लाभ पहुँचाया है:
यूरोपीय परामर्श फ़र्म नोवास्पेस (Novaspace) के अनुसार, भारतीय अंतरिक्ष उद्योग द्वारा अर्जित प्रत्येक डॉलर के लिए $2.54 के गुणक प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था को लाभ हुआ है, एवं भारत का अंतरिक्ष उद्योग कार्यबल देश के व्यापक औद्योगिक कार्यबल की तुलना में 2.5 गुना अधिक उत्पादक है, जबकि इसरो की स्थापना के बाद से पिछले 55 वर्षों में इसमें निवेश की गई पूरी राशि नासा के वार्षिक बजट से भी कम है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जहां 2024 में, 'चीन राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन' (China National Space Administration (CNSA)) और नासा (NASA) का वार्षिक बजट क्रमशः 18 अरब डॉलर और 25 अरब डॉलर से अधिक है, वहीं इसकी तुलना में, इसरो का वार्षिक बजट लगभग 1.6 अरब डॉलर है।
भारत के अंतरिक्ष क्षेत्र में निवेश से समाज को किस प्रकार लाभ हुआ है:
रोज़गार सृजन: अंतरिक्ष क्षेत्र में निवेश से, इसरो द्वारा सीधे तौर पर, वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और तकनीशियनों को प्रत्यक्ष रोज़गार दिया गया है और अप्रत्यक्ष रूप से उपग्रह निर्माण और डेटा विश्लेषण जैसे संबंधित उद्योगों में अवसर उत्पन्न हुए हैं।
आर्थिक लाभ: इसरो के अनुमान के अनुसार, अंतरिक्ष अभियानों में निवेश से खर्च की गई राशि का लगभग 2.54 गुना रिटर्न मिला है। नोवास्पेस की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि, 2014 और 2024 के बीच, भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र ने कर राजस्व में 24 बिलियन डॉलर का योगदान दिया है। इसके अलावा, इसरो के उपग्रह संचार, मौसम पूर्वानुमान और नेविगेशन से विभिन्न क्षेत्रों को लाभ होता है और आर्थिक उत्पादकता बढ़ती है।
कृषि विकास: इसरो के पृथ्वी अवलोकन उपग्रह, जैसे रिसोर्ससैट और कार्टोसैट से, फ़सल स्वास्थ्य, मिट्टी की नमी और भूमि उपयोग की निगरानी करके कृषि विकास को बढ़ावा मिला है, जिससे किसानों को सूचित निर्णय लेने और उत्पादकता में सुधार करने में मदद मिलती है।
आपदा प्रबंधन और संसाधन योजना: सैटेलाइट, आपदा प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण डेटा प्रदान करते हैं, जिससे प्राकृतिक आपदाओं पर समय पर प्रतिक्रिया संभव हो पाती है। इसरो अपने पूर्वानुमान के आधार पर प्रतिदिन लगभग 8 लाख मछुआरों की मदद करता है और 1.4 अरब भारतीयों को उपग्रह-आधारित मौसम पूर्वानुमानों का लाभ मिलता है।
शहरी नियोजन और बुनियादी ढाँचा विकास: उच्च-रिज़ॉल्यूशन उपग्रह छवियां, शहरी मानचित्रण, यातायात प्रबंधन और बुनियादी ढाँचे की निगरानी में सहायता करती हैं। यह डेटा, शहरों को भूमि उपयोग को अनुकूलित करने, सार्वजनिक सेवाओं में सुधार करने, और स्थायी शहरी विकास में योगदान करने की अनुमति देता है।
युवाओं के लिए प्रेरणा और शिक्षा का स्रोत: चंद्रयान और मंगलयान जैसी इसरो की उपलब्धियां, छात्रों को प्रेरित करती हैं। अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी से संबंधित शैक्षिक पहल विज्ञान और प्रौद्योगिकी में रुचि को और बढ़ाती है।
चंद्र अन्वेषण और वैज्ञानिक उन्नति: चंद्रयान मिशन से चंद्र अन्वेषण के क्षेत्र में भारत की क्षमताओं का प्रदर्शन हुआ है और राष्ट्रीय गौरव को बढ़ावा मिला है। इसके साथ ही, इसने वैश्विक अंतरिक्ष अन्वेषण प्रयासों में योगदान दिया है।
अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: 300 से अधिक विदेशी उपग्रहों को सफलतापूर्वक लॉन्च करके, इसरो वैश्विक अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में एक नेता के रूप में उभर कर आया है, जिससे वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देते हुए भारत की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को बढ़ावा मिला है। मंगलयान जैसे अंतरिक्ष अभियानों के लिए इसरो का कम लागत वाला दृष्टिकोण भारत को अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए एक आकर्षक भागीदार बनाता है।

अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी का निर्माण उद्योग के लिए महत्व:
रिमोट सेंसिंग (Remote Sensing): सैटेलाइट छवियों और भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS), प्रौद्योगिकियों से निर्माण स्थलों के सटीक सर्वेक्षण और मानचित्रण की अनुमति मिलती है। इस तकनीक का उपयोग पर्यावरणीय स्थितियों की निगरानी करने, स्थान की उपयुक्तता का मूल्यांकन करने और निर्माण प्रक्रिया के दौरान प्रगति का प्रबंधन और ट्रैक करने के लिए किया जा सकता है।
संचार: सैटेलाइट संचार से निर्बाध वास्तविक समय संचार और डेटा स्थानांतरण की सुविधा मिलती है, विशेष रूप से दूरस्थ या दुर्गम स्थानों में, जिससे समन्वय और दक्षता में सुधार हो सकता है।
3डी प्रिंटिंग और स्वचालन: अंतरिक्ष अन्वेषण से स्वचालन और रोबोटिक प्रणालियों के साथ-साथ, 3डी प्रिंटिंग प्रौद्योगिकियों के विकास को बढ़ावा मिला है। इन प्रौद्योगिकियों को निर्माण प्रक्रियाओं को स्वचालित , श्रम आवश्यकताओं को कम , सुरक्षा बढ़ाने और अपशिष्ट को कम करने के लिए पृथ्वी पर लागू किया जा सकता है।
सौर ऊर्जा: अंतरिक्ष में विश्वसनीय, हल्के विद्युत स्रोतों की आवश्यकता से प्रेरित सौर ऊर्जा प्रौद्योगिकी में प्रगति से निर्माण उद्योग को भी लाभ हो सकता है। उच्च दक्षता वाली सौर ऊर्जा प्रणालियों को इमारतों में एकीकृत किया जा सकता है, जिससे उनकी स्थिरता में सुधार होगा।
पृथ्वी अवलोकन डेटा: सैटेलाइट डेटा का उपयोग, बाढ़, भूस्खलन और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं की भविष्यवाणी और निगरानी के लिए किया जा सकता है। इस जानकारी से सुरक्षित स्थानों पर निर्माण की योजना बनाने या ऐसी घटनाओं का सामना करने के लिए, इमारतों को डिज़ाइन करने में मदद मिल सकती है।
जी पी एस और जी एन एस एस सिस्टम (GPS and GNSS Systems): अंतरिक्ष अनुप्रयोगों के लिए विकसित की गई ये प्रणालियाँ, सटीक स्थिति, नेविगेशन और समय के लिए आवश्यक हैं। निर्माण में, इनका उपयोग भूमि सर्वेक्षण, मशीन नियंत्रण और बेड़े प्रबंधन के लिए किया जाता है।
विद्युतरोधन प्रौद्योगिकियां (Insulation Technologies): अंतरिक्ष में अत्यधिक तापमान की स्थिति के कारण, उन्नत विद्युतरोधन सामग्री और तकनीकों का विकास हुआ है। इनका उपयोग, पृथ्वी पर इमारतों की ऊर्जा दक्षता बढ़ाने के लिए किया जा सकता है। अंतरिक्ष की विषम परिस्थितियों के कारण, अत्यधिक टिकाऊ और हल्की सामग्री का विकास हुआ है। इन सामग्रियों का उपयोग निर्माण में ऐसी इमारतें बनाने के लिए किया जा सकता है जो अधिक लचीली और कुशल हों।
इसरो के सफ़ल मिशन:
1969 में, अपनी स्थापना के बाद से इसरो ने कई बार भारत को गौरवान्वित किया है। यहां इसरो की कुछ प्रमुख और सफ़ल उपलब्धियां दी गई हैं:

1. आर्यभट्ट, 1975: महान भारतीय खगोलशास्त्री आर्यभट्ट (Ayabhatta) के नाम पर नामित, आर्यभट्ट उपग्रह पहला भारतीय उपग्रह था। यह पूरी तरह से भारत में निर्मित, डिज़ाइन और असेंबल किया गया था, जिसका वज़न, 360 किलोग्राम से अधिक था। इस उपग्रह को 19 अप्रैल, 1975 को रूस के 'वोल्गोग्राड लॉन्च स्टेशन' से सोवियत कॉसमॉस-3एम (Cosmos-3M) रॉकेट द्वारा लॉन्च किया गया था।
2. भारतीय राष्ट्रीय सैटेलाइट प्रणाली (इनसैट) श्रृंखला, (Indian National Satellite System (INSAT)) Series, 1983): पहली बार, 1983 में लॉन्च की गई, इनसैट श्रृंखला ने भारत के दूरसंचार क्षेत्र में एक क्रांति ला दी। नौ परिचालन संचार सैटेलाइट के साथ, इनसैट प्रणाली, एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सबसे बड़ी घरेलू संचार सैटेलाइट प्रणालियों में से एक है। इनसैट प्रणाली, टेलीविज़न प्रसारण, उपग्रह समाचार एकत्रीकरण, सामाजिक अनुप्रयोग, मौसम पूर्वानुमान, आपदा चेतावनी और खोज और बचाव गतिविधियाँ प्रदान करती है।
3. जीसैट श्रृंखला (GSAT Series): 'जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट' (Geosynchronous Satellite), भारत में निर्मित संचार उपग्रह हैं। इन उपग्रहों का उपयोग, मुख्य रूप से डिजिटल ऑडियो, डेटा और वीडियो प्रसारण के लिए किया जाता है। इसरो द्वारा लॉन्च किए गए कई जीसैट उपग्रहों में से 18 अभी भी चालू हैं।

4. चंद्रयान-1 (Chandrayaan-1 2008): यह चंद्रमा पर भारत का पहला मिशन था। 22 अक्टूबर 2008 को सफलतापूर्वक लॉन्च किया गया यह मिशन, सबसे बड़ी वैज्ञानिक सफलताओं में से एक साबित हुआ क्योंकि, इस यान ने चंद्रमा की सतह पर पानी के अणुओं की उपस्थिति का पता लगाया। चंद्रयान-1 के ज़रिए ही दुनिया को चंद्रमा पर पानी के बारे में पता चला।

5. मंगल ऑर्बिटर मिशन (Mars Orbiter Mission (MOM)), 2014: मंगल ऑर्बिटर मिशन के साथ, भारत अपने पहले प्रयास में मंगल पर पहुंचने वाला पहला देश बन गया। यह देश का पहला अंतरग्रहीय मिशन भी था। मंगलयान को 5 नवंबर 2013 को श्रीहरिकोटा से पी एस एल वी – C25 (PSLV-C25) रॉकेट द्वारा लॉन्च किया गया था। इसके साथ, इसरो मंगल ग्रह की कक्षा में अंतरिक्ष यान को सफलतापूर्वक लॉन्च करने वाली चौथी अंतरिक्ष एजेंसी बन गई।
6. चंद्रयान-3: चंद्रयान-2 के बाद, चंद्रयान-3, अपनी सफलता के साथ, रूस, अमेरिका और चीन के बाद चंद्रमा पर उतरने वाले दुनिया के चार विशिष्ट देशों में से एक बन गया है। यह न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व के लिए एक प्रमुख ऐतिहासिक घटना है। इस मिशन के साथ, भारत चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सफलतापूर्वक उतरने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है।
संदर्भ
मुख्य चित्र: पी एस एल वी (PSLV) 7842 के पूर्ण आकार का हीट शील्ड (Wikimedia)
टीकाकरण और इसकी जानकारी से कम किए जा सकते हैं, सर्वाइकल कैंसर के बढ़ते मामले
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
12-02-2025 09:36 AM
Lucknow-Hindi

भारत में, हर साल, लगभग 123,907 महिलाओं में गर्भाशय ग्रीवा या सर्वाइकल कैंसर (Cervical cancer) के नए मामले सामने आते हैं और लगभग 77,348 महिलाओं की इससे दुखद मृत्यु हो जाती है। भारत की महिलाओं में, स्तन कैंसर के बाद, सर्वाइकल कैंसर, दूसरा सबसे आम कैंसर है। भारत में इस कैंसर के निदान में एक समस्या, विशेष किटों की कमी है। जनवरी 2025 में एक दैनिक पत्र में छपी एक खबर के अनुसार, लखनऊ के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (Community Health Centres (CHCs)) में इन किटों की उपलब्धता की कमी के कारण, महिलाओं को या तो अपनी किट खरीदनी पड़ती है या निजी स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों में निदान कराना पड़ता था। दुर्भाग्य से, दोनों विकल्प अत्यंत महंगे थे। तो आइए, आज भारत में सर्वाइकल कैंसर से पीड़ित महिलाओं के आंकड़े के बारे में जानते हैं। इसके साथ ही, हम इस कैंसर के कारणों और लक्षणों के बारे में समझेंगे। हम इस बात पर भी प्रकाश डालेंगे कि भारतीय महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर के मामले अधिक आम क्यों होते जा रहे हैं और हमारे देश में इस प्रकार के कैंसर के लिए परीक्षण किटों की कमी क्यों है। अंत में, हम कुछ तरीकों के बारे में जानेंगे जिनके माध्यम से हम भारत में सर्वाइकल कैंसर के इलाज से संबंधित प्रमुख समस्याओं से निपट सकते हैं।
भारत में कैंसर से पीड़ित महिलाओं की संख्या:
वैश्विक कैंसर वेधशाला (Global Cancer Observatory, (GLOBOCAN)) 2020 के अनुसार, भारत में, 18.3% (123,907 मामले) प्रतिवर्ष की दर के साथ सर्वाइकल कैंसर, दूसरा सबसे आम कैंसर है और 9.1% की मृत्यु दर के साथ मृत्यु का दूसरा प्रमुख कारण है। 'राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम' के अनुसार, स्तन और सर्वाइकल कैंसर महिलाओं में होने वाले सबसे आम कैंसर हैं। भारत में महिलाओं में होने वाले सभी कैंसरों में से 6-29% सर्वाइकल होते हैं। भारत के अरुणाचल प्रदेश राज्य के पापुमपारे जिले में सर्वाइकल कैंसर की घटना दर एशिया में सबसे अधिक (27.7) है। कैंसर के अधिकांश रोगियों में स्तन (57.0%), सर्वाइकल (60.0%), सिर और गर्दन (66.6%), और पेट (50.8%) के कैंसर का पता उन्नत चरण में ही चला।
देश में कैंसर से संबंधित संक्षिप्त आंकड़े:
जनसंख्या (मिलियन) | 1360 |
20-29 आयु वर्ग की महिला जनसंख्या (मिलियन) | 137.8
|
30-59 आयु वर्ग की महिला जनसंख्या (मिलियन) | 230.5
|
एचपीवी प्रसार (%) | 2.3% - 36.9% |
सर्वाइकल कैंसर की घटना दर (प्रति 100,000) | 18.7
|
सर्वाइकल कैंसर की घटना दर (आयु-मानकीकृत, प्रति 100,000) | 18.0
|
सर्वाइकल कैंसर से मृत्यु दर (प्रति 100,000) | 11.7
|
सर्वाइकल कैंसर से मृत्यु दर (आयु-मानकीकृत, प्रति 100,000) | 11.4
|
स्क्रीनिंग की उपलब्ध/अनुशंसित विधि | वी आई ए (VIA) |
स्क्रीनिंग का प्रकार | समयानुवर्ती |
सर्वाइकल कैंसर के कारण:
सर्वाइकल कैंसर, वह कैंसर है, जो गर्भाशय ग्रीवा की सतह पर शुरू होता है। यह तब होता है जब गर्भाशय ग्रीवा की कोशिकाएं, कैंसरपूर्व कोशिकाओं में बदलने लगती हैं। इस कैंसर के लगभग सभी मामलों में, ह्यूमन पेपिलोमावायरस (Human papillomavirus (HPV)) संक्रमण, मुख्य कारण होता है। एच पी वी, एक वायरस है जो यौन संपर्क से फैलता है।
सर्वाइकल कैंसर के चेतावनी संकेत:
सर्वाइकल कैंसर के लक्षण:
प्रारंभिक चरण में सर्वाइकल कैंसर के लक्षण आमतौर पर दिखाई नहीं देते हैं और इसका पता लगाना कठिन होता है। सर्वाइकल कैंसर के पहले लक्षण विकसित होने में समय लग सकता है। इसके मुख्य लक्षणों में शामिल हैं:
1. पानी जैसा या खूनी योनि स्राव, जो भारी हो सकता है और उसमें दुर्गंध हो सकती है।
2. सहवास के बाद, मासिक धर्म के बीच या रजोनिवृत्ति के बाद योनि से रक्तस्राव।
3. सहवास के दौरान दर्द (डिस्पेर्यूनिया (dyspareunia))।
यदि कैंसर आस-पास के ऊतकों या अंगों में फैल गया है, तो इसके निम्न लक्षण दिखाई दे सकते हैं:
1.मूत्र त्याग में कठिनाई या दर्द, कभी-कभी मूत्र में खून भी आता है।
2.दस्त, या मलत्याग करते समय आपके मलाशय में दर्द या रक्तस्राव।
3.वज़न और भूख में कमी, शीघ्र थकान का अनुभव।
4.बीमार महसूस करना,
5.पैरों या पीठ में हल्का दर्द या सूज़न।
6.पेट दर्द।
भारत में सर्वाइकल कैंसर के मामलों में वृद्धि के कारण:
भारत में सर्वाइकल कैंसर के मामलों में वृद्धि का एक प्राथमिक कारण, इसके निवारक उपायों के बारे में जागरूकता और शिक्षा की कमी है। भारत में अधिकांश लोगों को एच पी वी वायरस के बारे में जानकारी नहीं है, जो सर्वाइकल कैंसर का मुख्य कारण है। स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की कमी और नियमित जांच और टीकों के महत्व की सामान्य अज्ञानता के कारण निदान में देरी और उच्च मृत्यु दर होती है। इसके अलावा, निम्न एवं मध्यम वर्ग की महिलाओं के लिए स्वास्थ्य देखभाल, विशेष रूप से नियमित जांच और एच पी वी टीकाकरण जैसे निवारक उपचार प्राप्त करना अक्सर मुश्किल होता है। अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल बुनियादी ढांचे और ग्रामीण क्षेत्रों में धन की कमी ने समस्या को बढ़ा दिया है, जिससे शीघ्र निदान और उपचार अधिक कठिन हो गया है।
सर्वाइकल कैंसर एक कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों और नीतियों का अपर्याप्त कार्यान्वयन भी है। स्क्रीनिंग सुविधाओं और टीकाकरण तक पहुंच सीमित है और अक्सर भारत की जनसंख्या के अनुरूप जागरूकता अभियानों की कमी है। भारत में सर्वाइकल कैंसर की बढ़ती घटनाओं को संबोधित करने के लिए, स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को मज़बूत करने, केंद्रित शैक्षिक पहलों के माध्यम से जागरूकता बढ़ाने और निवारक देखभाल तक पहुंच की सुविधा प्रदान करने की आवश्यकता है।
भारत में सर्वाइकल कैंसर के लिए, परीक्षण किटों की कमी क्यों है:
भारत में, परीक्षण सुविधा स्थापित करने की उच्च एकमुश्त लागत को ध्यान में रखते हुए प्राथमिक एच पी वी स्क्रीनिंग को लागू करना कठिन है, जिसमें उपकरण और उपभोग्य सामग्रियों और किटों की आवर्ती लागत शामिल है। स्व-नमूना प्रदर्शन पर एक हालिया समीक्षा में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि किफ़ायती परीक्षण उपकरणों की कमी, प्रशिक्षण के लिए वित्तीय सहायता, और स्क्रीनिंग और फॉलो-अप में सहायता के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को नियोजित करना सर्वाइकल कैंसर स्क्रीनिंग कार्यक्रम के स्व-नमूनाकरण के विस्तार में संभावित बाधाएं हैं।
भारत में सर्वाइकल कैंसर के इलाज में आने वाली समस्याओं से निपटने के लिए उपाय:
सामुदायिक सशक्तिकरण: कैंसर के बारे में जागरूकता की कमी, व्यक्तिगत मान्यताएं, कलंक और चिकित्सा देखभाल के साथ पिछले नकारात्मक अनुभव लोगों को कैंसर स्क्रीनिंग केंद्रों पर जाने से हतोत्साहित करते हैं। स्वास्थ्य शिक्षा अभियान, स्वयं सहायता समूह (self help groups) और कैंसर से बचे लोगों की भागीदारी से, कैंसर पीड़ित लोगों में विश्वास उत्पन्न हो सकता है।
उचित परीक्षण: वर्तमान में, भारत में सर्वाइकल कैंसर स्क्रीनिंग, 'एसिटिक अम्ल के साथ दृश्य निरीक्षण' (Visual Inspection with Acetic Acid (VIA)) परीक्षण के माध्यम से होती है। वी आई ए स्क्रीनिंग की लागत, कम होती है। इसके लिए, एक ही दौरे पर मरीज़ों की जांच और इलाज संभव है जिससे कैंसर का शीघ्र निदान और इलाज होने से मृत्यु दर में कमी आती है। इस कारण यह परीक्षण एक बिंदु के रूप में आदर्श है।
एचपीवी परीक्षण के लिए स्व-नमूनाकरण: पश्चिम बंगाल के एक जनसंख्या समूह अध्ययन में बताया गया है कि, बेसलाइन पर बिना किसी घाव के एच पी वी पॉज़िटिव तीन चौथाई से अधिक महिलाएं एक साल तक दोबारा परीक्षण के लिए नहीं लौटीं, जब ऐसा करने की सलाह दी गई थी। एच पी वी परीक्षण के लिए स्व-नमूना लेने से शर्मिंदगी, यात्रा की दूरी और लागत, और अस्पतालों का दौरा करने के डर की बाधाओं को दूर करने में मदद मिलती है।
स्वदेशी तकनीक: पोर्टेबल कोल्पोस्कोप, थर्मल एब्लेटर और एच पी वी परीक्षण किट जैसे स्वदेशी नवाचार, स्क्रीनिंग को और अधिक सुविधाजनक बना रहे हैं। हाल ही में, कई सरकारी अस्पतालों और सरकार-सूचीबद्ध परीक्षण केंद्रों में, एक कार्ट्रिज-आधारित न्यूक्लिक एसिड प्रवर्धन परीक्षण (Nucleic acid amplification test (NAAT)) प्रणाली वितरित की गई है। मुफ़्त निदान सेवा योजना के तहत, ज़िला/उपज़िला अस्पतालों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर न्यूक्लिक एसिड प्रवर्धन परीक्षण की शुरूआत से भी एच पी वी परीक्षण की सुविधा मिल सकती है।
एच पी वी टीकाकरण: संयुक्त राज्य अमेरिका और स्वीडन के अनुभव से पता चला है कि, एच पी वी टीकाकरण, सर्वाइकल कैंसर की जांच को आसान बनाता है। बाल चिकित्सा अकादमी और टीकाकरण पर राष्ट्रीय तकनीकी सलाहकार समूह ने 10-12 वर्ष की लड़कियों के लिए एच पी वी वैक्सीन की दो और 15 वर्ष और अधिक आयु की लड़कियों के लिए तीन-खुराक की शुरूआत का समर्थन किया है। हाल ही में, 'सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया' (Serum Institute of India) द्वारा विकसित और डब्ल्यू एच ओ (WHO) द्वारा समर्थित एक चतुःसंयोजी वैक्सीन की एकल-खुराक एच पी वी टीकों से टीकाकरण की लागत में काफ़ी कमी आई है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/429bz5f2
मुख्य चित्र: महिलाओं में एच पी वी (Human Papillomavirus) के कारण होने वाला गर्भाशय-ग्रीवा कैंसर (Wikimedia)
भारतीय संस्कृति में, गहराई तक फैलीं हैं, रंगमच की जड़ें
द्रिश्य 2- अभिनय कला
Sight II - Performing Arts
11-02-2025 09:33 AM
Lucknow-Hindi

रंगमंच, भारत की संस्कृति का एक अहम हिस्सा रहे हैं।मनोरंजन, कहानी सुनाने और शिक्षाप्रद सबक देने में इनका अतुलनीय योगदान रहा है।भारत के पारंपरिक रंगमंच में, "नौटंकी" एक प्रसिद्ध शैली है।इसकी शुरुआत उत्तर भारत, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में हुई थी।नौटंकी अपनी जीवंत प्रस्तुतियों के लिए जानी जाती है।इसमें नाटक, संगीत, नृत्य और रंगीन वेशभूषा का अनोखा मेल होता है, जिससे कहानियाँ प्रस्तुत की जाती हैं।नौटंकी में आमतौर पर लोक कथाएँ, पौराणिक कहानियाँ और नैतिक संदेश शामिल होते हैं।अपने समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास के लिए मशहूर, लखनऊ भी नौटंकी के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। यह शहर, लंबे समय से नौटंकी प्रदर्शनों का प्रमुख केंद्र रहा है।

आज भी यह कला भारत के कई हिस्सों, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, काफ़ी लोकप्रिय है। इसलिए आज के इस लेख में हम भारत में रंगमंच और नाटक की उत्पत्ति पर चर्चा करेंगे। हम इसकी जड़ों को प्राचीन काल तक ले जाकर भारत में नाटक के विभिन्न प्रकारों और क्षेत्रीय व पारंपरिक रंगमंच की विविधता
को समझेंगे।इसके अलावा, हम नौटंकी पर विशेष ध्यान देंगे, जो उत्तरी भारत की एक लोकप्रिय परंपरा है। अंत में, उत्तर प्रदेश में नौटंकी रंगमंच के विकास पर विचार करेंगे।
रंगमंच क्या है?
रंगमंच प्रदर्शन कला का एक रूप है, जिसमें कलाकार किसी विशेष स्थान पर,
आमतौर मंच पर, दर्शकों के सामने लाइव घटनाओं को प्रस्तुत करते हैं।ये घटनाएँ वास्तविक या काल्पनिक हो सकती हैं।भारतीय रंगमंच की शुरुआत दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में हुई थी।इसका सबसे प्रारंभिक रूप संस्कृत रंगमंच था, जो भरत मुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र परआधारित था। कालांतर में, ब्रिटिश शासन के दौरान इस कला का आधुनिकरण हुआ।
भारत में नाटक की परंपरा अत्यंत समृद्ध रही है, जिसमें विभिन्न शैलियाँ, विषय और क्षेत्रीय विविधताएँ शामिल हैं।
नाटकों के कुछ प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं:
1. संस्कृत नाटक: संस्कृत नाटक, भारत के सबसे प्राचीन नाट्य रूपों में से एक है। कालिदास और भास जैसे प्रसिद्ध साहित्यकारों की कृतियों ने इसे विशेष बना दिया। यह नाटक जटिल कथानक, काव्यात्मक भाषा और संगीत व नृत्य के संयोजन पर आधारित होता है। इसमें नाट्यशास्त्र में उल्लिखित नियमों का पालन किया जाता है।
2. लोक नाटक: लोक नाटक भारत की विविध परंपराओं से उपजा है। प्रत्येक क्षेत्र के लोक नाटकों की अपनी विशेषताएँ होती हैं।
कुछ प्रमुख लोक नाटकों के उदाहरणों में शामिल हैं:
तमाशा (महाराष्ट्र): इसमें नृत्य, संगीत और नाटक का संगम होता है इसके तहत सामाजिक मुद्दों को हास्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।
भवई (गुजरात): भवई, अपनी रंगीन वेशभूषा और ऊर्जावान प्रदर्शन के लिए प्रसिद्ध है।इसमें सामाजिक टिप्पणियाँ प्रमुख रहती हैं।
जात्रा (बंगाल): यह एक घूमने वाले दल का प्रदर्शन है, जो पौराणिक कथाएँ और समकालीन मुद्दे प्रस्तुत करता है।
3. यक्षगान: कर्नाटक में उत्पन्न यक्षगान, नृत्य-नाटक का पारंपरिक रूप है इसमें नृत्य, संवाद, संगीत और विस्तृत वेशभूषा का अनूठा समन्वय होता है।यह अक्सर महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्यों की कहानियों पर आधारित होता है।
4. कूडियाट्टम: केरल का कूडियाट्टम, संस्कृत रंगमंच का सबसे प्राचीन रूप है। इसमें अनुष्ठानिक और शैलीबद्ध प्रदर्शन होते हैं, जो मुख्यतः प्राचीन हिंदू ग्रंथों पर आधारित होते हैं।
5. कठपुतली थियेटर: कठपुतली भारत की पारंपरिक रंगमंच विधा है।
इसके विभिन्न प्रकार होते हैं:
6. कठपुतली (राजस्थान): रंगीन लकड़ी की कठपुतलियों के माध्यम से लोक कथाएँ और मिथक प्रस्तुत किए जाते हैं।
7. बोम्मलट्टम (तमिलनाडु): चमड़े की कठपुतलियों से महाकाव्यों की कहानियों को छाया थियेटर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
8. नौटंकी: उत्तर भारत, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में लोकप्रिय, नौटंकी एक संगीत नाटक है। इसमें जीवंत संगीत, नृत्य और अतिरंजित अभिनय शामिल होता है।इसकी कहानियाँ रोमांस और सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित रहती हैं।
इन विविध नाट्य रूपों के माध्यम से भारतीय रंगमंच न केवल मनोरंजन करता है, बल्कि समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर
भी करता है। नौटंकी उत्तरी भारत का एक प्रसिद्ध ओपेरा थियेटर है। इसमें नृत्य, संगीत, कहानी, हास्य, संवाद, नाटक और बुद्धिमत्ता का अनोखा मिश्रण होता है।यह कला उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में उत्तर प्रदेश में उभरी और बेहद लोकप्रिय हो गई।नौटंकी के नाटक बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किए जाते थे।इसके नायक कुशल अभिनेता और गायक होते थे, जो अपनी अद्भुत प्रतिभा से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते थे
भले ही मंच पर बहुत कम प्रॉप्स का उपयोग होता था, लेकिन अभिनेताओं की कला से दर्शकों को भव्य दृश्य का अनुभव होता था।ये प्रदर्शन खुले मैदान में अस्थायी मंच पर आयोजित किए जाते थे। जब कलाकार अपनी रंगीन वेशभूषा पहनकर प्रदर्शन करते थे, तो सभी आयु वर्ग के लोग मंत्रमुग्ध होकर उन्हें देखते थे।
नौटंकी का पहला ज्ञात केंद्र, उत्तर प्रदेश के हाथरस को माना जाता है। 1910 के दशक तक कानपुर और लखनऊ इसके प्रमुख केंद्र बन गए। इन शहरों ने अपनी-अपनी विशिष्ट शैली विकसित की, जो उनके दर्शकों के अनुरूप थी।
नौटंकी ने साहित्य और परंपरा के विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत किया। इसमें किंवदंतियों, संस्कृत और फ़ारसी रोमांस, और पौराणिक कथाओं की पुनर्व्याख्या शामिल थी। कुछ लोकप्रिय नौटंकियों में राजा हरिश्चंद्र, लैला मजनूं, शीरीं फ़रहाद, श्रवण कुमार, हीर रांझा और बांसुरीवाली शामिल थीं। इसके अलावा, पृथ्वीराज चौहान, अमर सिंह राठौर और रानी दुर्गावती जैसे ऐतिहासिक पात्रों पर आधारित नाटक भी खूब पसंद
किए जाते थे।
लखनऊ और कानपुर के लोगों के लिए, नौटंकी मनोरंजन का मुख्य साधन हुआ करती थी। इसमें न केवल मनोरंजन बल्कि नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक संदेश भी शामिल होते थे। यह कथानक के माध्यम से प्रासंगिक मुद्दों पर प्रकाश डालती थी। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, नौटंकी ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने अवध क्षेत्र में देशभक्ति और वीरता से भरे नाटकों का मंचन किया और स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को प्रेरित किया।
नौटंकी का प्रभाव इतना गहरा था कि जब मजनूं पहली बार पागलपन के बाद लैला से मिलता था, तो थिएटर में दर्शक भी सिसकियाँ भरते थे। जब फरहाद, शीरीं की कब्र पर अपना सिर पटकता था या सुल्ताना डाकू में सुल्ताना ब्रिटिश पुलिस कमिश्नर को चौंकाता था, तो
दर्शकों में गहरी भावनाएँ जागती थीं। इस कला में अभिनेता और दर्शक के बीच का अंतर मिट जाता था। दोनों के बीच एक गहरा जुड़ाव बनता था, जो इसे और भी प्रभावशाली बनाता था।
स्वांग-नौटंकी प्रदर्शन परंपरा का इतिहास कई सौ साल पुराना है। इस परंपरा का पहला उल्लेख 16वीं शताब्दी में आइन-ए-अकबरी नामक ग्रंथ में मिलता है, जिसे सम्राट अकबर के दरबार के विद्वान अबुल फ़ज़ल ने लिखा था। नौटंकी की जड़ें उत्तर प्रदेश के मथुरा और वृंदावन की भगत और रासलीला परंपराओं तथा राजस्थान के ख्याल से जुड़ी हुई हैं।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में, हाथरस, मथुरा, कानपुर, और लखनऊ नौटंकी प्रदर्शन के प्रमुख केंद्र बन गए। पहला स्वांग उत्तर प्रदेश के हाथरस में इंदरमन द्वारा स्थापित एक अखाड़े में विकसित किया गया। यह अखाड़ा केवल नाटक का मंच नहीं था, बल्कि संगीत, कविता, कुश्ती और शरीर सौष्ठव के अभ्यास का स्थान था। इंदरमन, जो छिपि जाति के कवि थे, ने 1890 के दशक में अपने शिष्यों चिरंजीलाल और गोविंद राम के साथ स्वांग प्रस्तुत करना शुरू किया। इंदरमन के शिष्य नथाराम गौड़, जो दरियापुर गांव के थे, नौटंकी के सबसे प्रतिभाशाली कलाकार बने। वे गायक, नर्तक, संगीतकार और अभिनेता थे। उन्होंने महिला भूमिकाओं को भी बेहतरीन ढंग से निभाया।
1890 के दशक में नथाराम और उनकी मंडली ने उत्तर प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में प्रदर्शन करना शुरू किया।इस मंडली में कई प्रसिद्ध कलाकार शामिल हुए, जैसे विद्याधर, गणेशी लाल, नज़ीर खान,और चुन्नीलाल हाथरसी। संगीत में मोहम्मद नक्कारा, घूरे खान (हारमोनियम), और खैरात मियाँ (ढोलक) जैसे कुशल वादक थे।नथाराम की मंडली ने शहज़ादी नौटंकी नामक स्वांग प्रस्तुत किया, जो पंजाब की एक लोककथा पर आधारित था। यह नाटक कानपुर क्षेत्र में बेहद लोकप्रिय हुआ, और धीरे-धीरे इस शैली को ही नौटंकी कहा जाने लगा।
1910 के दशक तक, कानपुर नौटंकी का प्रमुख केंद्र बन गया और अपनी विशिष्ट शैली विकसित की। इनमें शामिल हैं:
हाथरस शैली: यह शैली स्वांग के करीब रही और हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन पर ज़ोर देती थी। नाटक की शुरुआत ध्रुपद से होती थी, जिसमें गायकों को लगातार तीन-चार मिनट तक स्वर बनाए रखना पड़ता था।
कानपुर शैली: इसमें संवाद, चेहरे के भाव और अभिनय पर अधिक ज़ोर दिया गया।इसका संगीत सरल और मंचीय कला अधिक प्रभावशाली थी।
1930 के दशक तक, नौटंकी एक व्यावसायिक कला रूप में विकसित हो गई।टिकटों की बिक्री ने इसके आर्थिक पक्ष को मज़बूत किया।अखाड़ा प्रणाली की जगह पेशेवर कंपनियों ने ले ली। कंपनियाँ 80 लोगों तक का स्टाफ़ रखती थीं और कलाकारों को मासिक वेतन दिया जाता था।पारसी रंगमंच के प्रभाव से नौटंकी में चित्रित पृष्ठभूमि, पर्दे, भव्य पोशाक और शहनाई व हारमोनियम जैसे वाद्ययंत्रों का उपयोग
शुरू हुआ।
नौटंकी ने आधुनिकता को अपनाते हुए प्रदर्शन की गुणवत्ता और दर्शकों के अनुभव को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।यह न केवल मनोरंजन का साधन बनी, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक बदलावों का माध्यम भी साबित हुई।
संदर्भ
https://tinyurl.com/28scgjcd
https://tinyurl.com/2cwga27p
https://tinyurl.com/29u4dz7r
मुख्य चित्र : मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई एक प्रसिद्ध कहानी कफ़न की नाट्य प्रस्तुति (Wikimedia)
आप, उच्च पोषण मूल्य वाली और सबकी पसंदीदा भिंडी की खेती कर सकते हैं, इन बातों को जानकर
साग-सब्जियाँ
Vegetables and Fruits
10-02-2025 09:21 AM
Lucknow-Hindi

हमारे देश में भिंडी, बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक सभी की पसंदीदा सब्ज़ी है। अपने पोषण मूल्यों के साथ-साथ, यह सब्ज़ी खाना पकाने में बहुमुखी प्रतिभा के लिए पसंद की जाती है। क्या आप जानते हैं कि, 100 ग्राम भिंडी में. 1.9 ग्राम प्रोटीन, 0.2 ग्राम वसा, 6.4 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 0.7 ग्राम खनिज और 1.2 ग्राम फ़ाइबर होता है, जिसके कारण, भिंडी का पोषण मूल्य अत्यधिक होता है। भिंडी भारत की महत्वपूर्ण सब्ज़ियों में से एक है। 2021 में, वैश्विक स्तर पर 10.8 मिलियन टन भिंडी का उत्पादन हुआ था, जिसमें कुल उत्पादन में 60% योगदान के साथ भारत का शीर्ष स्थान था, जबकि द्वितीय स्थान पर नाइज़ीरिया और माली थे। इसके अलावा, 2024 में अकेले हमारे राज्य उत्तर प्रदेश में ही, इस सब्ज़ी का 351,012 टन उत्पादन हुआ था। निस्संदेह, हमारे शहर लखनऊ ने भी इस आंकड़े में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उत्तर भारत में, भिंडी की खेती, बरसात और वसंत ऋतु में की जाती है। तो आइए, आज भिंडी की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु, मिट्टी, बुआई के समय, बीज दर, सिंचाई के तरीके, खाद और उर्वरकों का उपयोग आदि पर विस्तार से बात करते हैं। हम यह भी जानेंगे कि, इसकी खेती के लिए, ज़मीन कैसे तैयार की जाती है। फिर, हम भारत में उगाई जाने वाली भिंडी की विभिन्न लोकप्रिय किस्मों के बारे में बात करेंगे। अंत में, हम भारत में भिंडी की खेती के महत्व के बारे में जानेंगे।
आवश्यक जलवायु परिस्थितियाँ:
भिंडी के पौधे के इष्टतम विकास के लिए, विशिष्ट परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। भिंडी का पौधा, गर्म और आर्द्र जलवायु में भली-भांति पनपता है। इसके लिए उचित तापमान, 25° सेल्सियस से 35° सेल्सियस के बीच होना चाहिए। मध्यम वर्षा उपयुक्त है, लेकिन इसकी फ़सल जलभराव के प्रति संवेदनशील होती है। इसकी खेती के लिए, प्रतिदिन, कम से कम 6-8 घंटे पूर्ण सूर्य के प्रकाश की आवश्यकता होती है एवं अच्छी जल निकास वाली दोमट मिट्टी आदर्श होती है, जिसका पीएच स्तर थोड़ा अम्लीय से तटस्थ (6.0 से 7.5) के बीच होना चाहिए। मिट्टी संतुलित पोषक तत्वों के साथ कार्बनिक पदार्थों से भरपूर होनी चाहिए।
भूमि की तैयारी:
इसकी खेती के लिए, मिट्टी के प्रकार के आधार पर एक या दो बार जुताई करके भूमि तैयार करें। खेत में 3 टन खाद (Farm yard manure (FYM)) और 3 लीटर खाद बनाने वाले बैक्टीरिया (composting bacteria) मिलाएं | इसे 10 दिनों के लिए, खुली हवा में सड़ने दें। इस मिश्रण को मिट्टी पर समान रूप से फैलाएं और पूरे खेत में अच्छी जुताई करने के लिए रोटावेटर (rotavator) नामक उपकरण का उपयोग करें। ट्रैक्टर का उपयोग करके 90 - 120 सेंटीमीटर चौड़ी क्यारियां तैयारी करें।भारत में उगाई जाने वाली भिंडी की कुछ लोकप्रिय किस्में:
- पूसा मखमली: इस किस्म के फल, हल्के हरे रंग के होते हैं। यह 'येलो वेन मोज़ेक वायरस' (Yellow Vein Mosaic Virus (YVMV)) के प्रति, अत्यधिक संवेदनशील होती है।
- पंजाब नं. 13: यह किस्म, वसंत-ग्रीष्म ऋतु में खेती के लिए उपयुक्त है। इसके फल, हल्के हरे रंग , 5 स्थूलक वाले और मध्यम लंबाई के होते हैं। यह किस्म, मोज़ेक के प्रति संवेदनशील होती है।
- पंजाब पद्मिनी: इस किस्म के फल, तेज़ी से बढ़ते हैं और गहरे हरे रंग , रेशे और 5 स्थूलक वाले होते हैं, जो लंबे समय तक कोमल बने रहते हैं। भिंडी की यह किस्म, बुआई के 55-60 दिनों के भीतर पक जाती है। यह 'येलो वेन मोज़ेक वायरस' के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती है।
- पूसा सावनी: यह किस्म, वसंत, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु में खेती के लिए उपयुक्त है। इसके फल, गहरे हरे रंग के, 5 स्थूलक वाले चिकने और लगभग 10-12 सेमी लंबे होते हैं। इसकी फ़सल, बुआई के 50 दिन के अन्दर पक जाती है और औसत उपज, 12-15 टन/हेक्टेयर होती है। यह भी 'येलो वेन मोज़ेक वायरस' के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती है।
- परभणी क्रांति: इसके फल, मध्यम लंबे और कोमल चिकनी सतह वाले होते हैं। इसकी फ़सल, 120 दिनों में तैयार हो जाती है और औसत उपज, 8.5-11.5 टन/हेक्टेयर होती है। यह भी 'येलो वेन मोज़ेक वायरस' के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होती है।
- अर्का अनामिका: इसके पौधे पर फल दो बार लगते हैं। पहली बार, बुआई के 45-50 दिन बाद मुख्य तने पर फल लगते हैं। दूसरी बार, फल छोटी शाखाओं पर लगते हैं, जो मुख्य तने के मध्य भाग से उगती हैं। फल 5-6 स्थूलक वाले, नाजुक सुगंध और अच्छी गुणवत्ता वाले होते हैं। भिंडी की अन्य किस्म के विरुद्ध, यह किस्म 'येलो वेन मोज़ेक वायरस (YVMV) के प्रतिरोधी होती है। भिंडी की ये फ़सल, लगभग 130 दिनों में तैयार हो जाती है और औसत उपज, 20 टन/हेक्टेयर होती है।
बीज दर एवं बुआई का समय:
भिंडी की खेती के लिए, गर्मी के मौसम में, प्रति हेक्टेयर भूमि में, 5-5.5 किलोग्राम बीज पर्याप्त होते हैं। जबकि, बरसात के मौसम में, प्रति हेक्टेयर भूमि में, 8-10 किलोग्राम बीजों की आवश्यकताहै होती है। आम तौर पर, बीज दर, मौसम के अंकुरण प्रतिशत पर निर्भर करता है। बीजों को बोने से पहले, 6 घंटे तक बाविस्टिन नामक एक कवकनाशी (fungicide) के (0.2%) विलयन में भिगोना चाहिए। फिर बीजों को छाया में सूखने के लिए रख देना चाहिए। बीजों को ख़रीफ़ के मौसम में 60 x 30 सेंटीमीटर और गर्मी के मौसम में 30 x 30 सेंटीमीटर की दूरी पर मेड़ के दोनों किनारों पर बोया जाता है। संकर किस्मों को, 75 x 30 सेंटीमीटर या 60 x 45 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाया जाता है। बुआई से 3-4 दिन पहले, मिट्टी की सिंचाई करना बहुत फ़ायदेमंद होता है। बीज लगभग 4-5 दिनों में अंकुरित हो जाते हैं।
सिंचाई:
गर्मियों के दौरान, फ़सल के तेज़ी से विकसित होने के लिए, मिट्टी में उचित नमी की आवश्यकता होती है। ड्रिप सिंचाई, फ़सल के लिए सबसे उपयोगी है क्योंकि यह पूरे मौसम में लगातार नमी प्रदान करती है। प्रारंभिक विकास चरण के दौरान, प्रतिदिन लगभग 75 मिनट तक सिंचाई करनी चाहिए और चरम विकास चरण के दौरान, 2 लीटर प्रति घंटे () की कंडक्टर क्षमता के साथ 228 मिनट तक सिंचाई करनी चाहिए। उचित पानी देने से इष्टतम विकास और उपज़ सुनिश्चित होती है। सिंचाई का एक अन्य प्रभावी तरीका नाली सिंचाई है, जहां पौधों की पंक्तियों के बीच चैनलों के माध्यम से पानी की आपूर्ति की जाती है। यह तकनीक भिंडी की पत्तियों को गीला होने से बचाने के साथ-साथ मिट्टी में नमी के स्तर को बनाए रखने में मदद करती है।
खाद एवं उर्वरक:
अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए, एक हेक्टेयर भूमि में बुआई से पहले पंक्तियों में लगभग 30 टन खाद, 350 किलोग्राम सुपर फ़ॉस्फेट, 125 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश और 300 किलोग्राम अमोनियम सल्फ़ेट डालना चाहिए। फर्टिगेशन के माध्यम से, नाइट्रोजन को तीन बराबर भागों में डाला जाना चाहिए।
कटाई:
रोपण के 35-40 दिनों के बाद, पौधे पर फूल आना शुरू हो जाता है। फ़सल की कटाई रोपण के 55-65 दिन बाद शुरू होती है, जब फलियाँ 2-3 इंच लंबी हो जाती हैं। इस अवस्था में फलियाँ कोमल होती हैं। हर 2-3 दिन बाद, इसकी कटाई करनी चाहिए क्योंकि भिंडी की फलियां बहुत तेजी से बढ़ती हैं। यह ध्यान रखना चाहिए कि पौधे पर फलियाँ न पकें क्योंकि इससे अधिक फलियाँ उगने में बाधा आएगी और पौधे का उत्पादन कम हो जाएगा।
उपज :
गर्मियों में भिंडी की उपज 5-7 टन/हेक्टेयर और बरसात के मौसम में 8-10 टन/हेक्टेयर तक अलग-अलग होती है।
भंडारण:
भिंडी की ताज़ी फलियों को, 7-10 दिनों तक 7-10 डिग्री तापमान तथा 90-95% आर्द्रता में भण्डारित किया जा सकता है। तापमान 7 डिग्री सेल्सियस से नीचे होने पर, भिंडी की सतह का रंग खराब हो जाता है और यह सड़ जाती है।
भारत में भिंडी की खेती का महत्व:
अपने उच्च पोषण मूल्य और विभिन्न पाक उपयोगों के साथ, भिंडी की सब्ज़ी सभी की पसंदीदा है। इसलिए इसकी खेती न केवल देश के लिए स्वस्थ आहार में योगदान देती है, बल्कि यह किसानों के लिए आर्थिक लाभ का भी माध्यम है। भिंडी की खेती में रुचि रखने वाले किसान बाज़ार में उपलब्ध विभिन्न किस्मों, जलवायु परिस्थितियों और बाज़ार की मांग जैसे कारकों के बारे में जानकर और सही किस्म का चयन करके भिंडी की खेती में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
संदर्भ:
मुख्य चित्र : अपने झोले में भिंडी भरता एक किसान (Wikimedia)
आइए आनंद लें, पंडित रवि शंकर जी को ग्रैमी पुरस्कार दिलाने वाले कुछ शानदार प्रदर्शनों का
ध्वनि 1- स्पन्दन से ध्वनि
Sound I - Vibration to Music
09-02-2025 09:27 AM
Lucknow-Hindi

संगीत की सीमाएं, किसी भी देश की अपनी सीमा, वहां पर फल-फूल रही संस्कृतियों, और हज़ारों सालों के वहां पर मौजूद धर्म के फ़ैलाव से भी अधिक फ़ैली हुई होती है। हमारे पास इस तथ्य को साबित करने के लिए कई विकल्प मौजूद हैं। भारत के महानतम संगीतकारों में से एक ‘पंडित रवि शंकर’ (Pandit Ravi Shankar) जी, इसका एक बेहतरीन उदाहरण हैं। उनका संगीत, कहने को तो भारतीय शैली का था, लेकिन इसकी धुनों ने, कोसों दूर तक फ़ैले समुद्र की सीमाओं के उस पार रहने वाले लोगों को उनका मुरीद बना दिया। पंडित रवि शंकर जी, उन चुनिंदा भारतीयों में गिने जाते हैं, जिन्हें संगीत जगत के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक ''ग्रैमी पुरस्कार' (Grammy Awards) से नवाज़ा गया है। यह पुरस्कार, नेशनल एकेडमी ऑफ़ रिकॉर्डिंग आर्ट्स एंड साइंसेज़ (National Academy of Recording Arts and Sciences), यू एस ए द्वारा प्रदान किया जाता है। पंडित रवि शंकर ने भारतीय संगीत और सितार को दुनियाभर के संगीतकारों और श्रोताओं तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई पीढ़ियों को भारतीय संगीत के साथ जोड़ा। इसलिए, आज इस रविवार के दिन को संगीतमय बनाते हुए हम कुछ दिलचस्प चलचित्रों के माध्यम से उनके प्रतिष्ठित प्रदर्शनों को देखेंगे।
ऊपर दी गई विडियो में 1967 में कैलिफ़ोर्निया, यू एस ए में आयोजित मोंटेरे इंटरनेशनल पॉप फ़ेस्टिवल (Monterey International Pop Festival) का है, जहाँ उन्होंने एक यादगार लाइव प्रस्तुति दी थी।
इस दूसरे चलचित्र के द्वारां आप उनकी ग्रैमी पुरस्कार विजेता एल्बम 'द कॉन्सर्ट फ़ॉर बांग्लादेश' (The Concert for Bangladesh) के प्रसिद्ध गाने बांग्ला धुन (Bangla Dhun) को सुनेंगे।
आगे के चलचित्रों में हम उनकी कुछ अन्य पुरस्कार विजेता रचनाओं का आनंद लेंगे। जैसे कि उनकी एल्बम, फुल सर्कल: कार्नेगी हॉल 2000 (Full Circle: Carnegie Hall 2000) से राग कौशी कान्हारा : अलाप-जोर-झाला नामक यह चलचित्र देखिए:
पंडित रवि शंकर ने अपना पहला ग्रैमी पुरस्कार, 1967 में जीता था। यह सम्मान उन्हें महान वायलिन वादक मेनुहिन के साथ वेस्ट मीट्स ईस्ट (West Meets East) एल्बम के लिए मिला। इस एल्बम को सर्वश्रेष्ठ चैंबर संगीत प्रदर्शन श्रेणी में पुरस्कृत किया गया।
1971 में, रवि शंकर और जॉर्ज हैरिसन (George Harrison) ने बांग्लादेश के लिए एक कॉन्सर्ट का आयोजन किया। इस कार्यक्रम को संगीत इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण लाभ संगीत कार्यक्रमों में से एक माना जाता है। इस कॉन्सर्ट से जुड़ी एल्बम में रवि शंकर, जॉर्ज हैरिसन और एरिक क्लैप्टन (Eric Clapton) सहित कई प्रसिद्ध संगीतकार शामिल थे। 1972 में, इस एल्बम को एल्बम ऑफ़ द ईयर (Album of The Year) के लिए ग्रैमी पुरस्कार मिला।
पंडित रवि शंकर को सबसे हालिया ग्रैमी पुरस्कार, 2000 में फुल सर्कल - कार्नेगी हॉल 2000 के लिए, सर्वश्रेष्ठ विश्व संगीत एल्बम (Best World Music Album) की श्रेणी में मिला । इसके बाद, अप्रैल 2012 में रिलीज़ हुई उनके एल्बम द लिविंग रूम सेशंस पार्ट 1 (The Living Room Sessions Part 1) को 55वें वार्षिक ग्रैमी अवार्ड्स में सर्वश्रेष्ठ विश्व संगीत एल्बम की श्रेणी में नामांकित किया गया।
आइए अब उनकी एल्बम “वेस्ट मीट्स ईस्ट वॉल्यूम 2” से रविशंकर और येहुदी मेनुहिन के बीच सितार और वायलिन के मंत्रमुग्ध कर देने वाले तालमेल को देखते हैं:
संदर्भ:
https://tinyurl.com/mr2u6cxt
https://tinyurl.com/32t9dx8e
https://tinyurl.com/mprhuszm
https://tinyurl.com/46tzk5b9
https://tinyurl.com/23cj8oo2
संस्कृति 1974
प्रकृति 674