लखनऊ - नवाबों का शहर












लखनऊ में आमतौर पर इस्तेमाल होने वाला स्मार्ट कार्ड, जानें कैसे करता है हमारी मदद
वास्तुकला 2 कार्यालय व कार्यप्रणाली
Architecture II - Office/Work-Tools
28-05-2025 09:25 AM
Lucknow-Hindi

स्मार्ट कार्ड(Smart Card), हमारे शहर के नागरिकों के दैनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं। इनके ज़रिए लेनदेन और सेवाएं पहले से कहीं अधिक सुविधाजनक बन गई हैं। चाहे लखनऊ मेट्रो में यात्रा करना हो, खरीदारी के दौरान भुगतान करना हो या स्वास्थ्य बीमा योजनाओं तक पहुंचना हो, स्मार्ट कार्ड, तेज़ और परेशानी मुक्त प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करते हैं। हमारे शहर के कई कार्यालयों और कॉलेजों में भी, सुरक्षित प्रवेश के लिए स्मार्ट आई डी कार्ड (Smart ID card) का उपयोग करते हैं। नकदीहीन भुगतान, डिजिटल पहचान और त्वरित प्रमाणीकरण जैसी सुविधाओं के साथ, स्मार्ट कार्ड दक्षता में सुधार कर रहे हैं, और भौतिक दस्तावेज़ों की आवश्यकता को कम कर रहे हैं। बार्टोनिक्स(Bartonics) और विन ए एम र (WinAMR) जैसे भारतीय ब्रांडों ने, हमारे देश में स्मार्ट कार्ड प्रौद्योगिकी के विकास में योगदान दिया है।
इसलिए आज, हम यह पता लगाएंगे कि, स्मार्ट कार्ड क्या है। इसके बाद, हम इस बात पर नज़र डालेंगे कि, स्मार्ट कार्ड कैसे काम करता है। अंत में, हम स्मार्ट कार्ड के विभिन्न अनुप्रयोगों पर चर्चा करेंगे तथा बैंकिंग, पहचान सत्यापन, परिवहन और अन्य क्षेत्रों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करेंगे।
स्मार्ट कार्ड क्या है?
एक स्मार्ट कार्ड (Smart Card), आमतौर पर किसी क्रेडिट कार्ड (Credit Card) के आकार में एक छोटा चलता–फिरता कंप्यूटर (Portable computer) होता है, जिसमें कोई डिस्प्ले (Display) और कीबोर्ड (Keyboard) नहीं होता है। यह एक माइक्रोप्रोसेसर (Microprocessor), कुछ मेमोरी (Memory) और कुछ ऐप्स (Apps) को एकीकृत करता है। गोलाकार धातु संपर्क, इस कार्ड के नीचे स्थित चिप(Chip) से संबद्ध होने और विद्युत रूप से कार्ड को सक्रिय करने के लिए महत्वपूर्ण है।
इसका उपयोग, एक संपर्क या संपर्क रहित कार्ड रीडर (Card Reader) के साथ किया जाता है। स्मार्ट कार्ड, पॉइंट ऑफ़ सेल भुगतान (Point of Sale payments), ए टी एम (ATM) पर, और यहां तक कि आपके मोबाइल फ़ोन पर भी, प्रयुक्त किया जा सकता है। ये कार्ड अधिक सुरक्षा और सुविधा प्रदान करते हैं, जिससे वे विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए आदर्श बनते हैं। इन अनुप्रयोगों में, सुरक्षित लेनदेन, एक्सेस कंट्रोल (Access control) और पहचान उद्देश्यों शामिल हैं।
स्मार्ट कार्ड कैसे काम करता है?
किसी मेज़बान कंप्यूटर, क्लाउड कंप्यूटर (Cloud computer) या किसी भी नियंत्रक टर्मिनल (Controlling terminal) से जुड़ा एक स्मार्ट कार्ड रीडर, उस कार्ड के माइक्रोप्रोसेसर चिप पर संग्रहीत जानकारी को एकत्रित करता है। फिर, यह स्मार्ट कार्ड से प्राप्त जानकारी को तत्काल प्रसंस्करण के लिए, नियंत्रक टर्मिनल पर वापस भेजता है।
स्मार्ट कार्ड, एक अद्वितीय रेडियो फ़्रीक्वेंसी आई डी (Radio Frequency ID) का उपयोग करके या कैरियर सेंसिंग कोलिजन डिटेक्शन सिस्टम प्रोटोकॉल (Carrier Sensing Collision Detection System Protocol) के माध्यम से, स्मार्ट कार्ड रीडर से जुड़ता है। रेडियो फ़्रीक्वेंसी आई डी टैग, अनुप्रयोगों की एक विस्तृत श्रृंखला में उपयोग पाते हैं, जैसे कि – आपूर्ति श्रृंखला के माध्यम से माल को ट्रैक करना, परिसंपत्तियों को ट्रैक करना, इमारतों में पहुंच को नियंत्रित करना तथा अन्य समान अनुप्रयोग।
एक तरफ़, कैरियर सेंसिंग कोलिजन डिटेक्शन प्रोटोकॉल, स्मार्ट कार्ड की वाहक आवृत्ति को पहचानता है। कोलिजन या टकराव का पता चलने पर, दो-तरफ़ा संचार का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, पुन: संचार, इसकी खोज की प्राथमिकता पर आधारित होता है।
स्मार्ट कार्ड, जी पी एस (Global Positioning System) सेवाओं का उपयोग करके, लोकेशन (Location) या स्थिति प्रदान नहीं कर सकते हैं। क्योंकि, स्मार्ट कार्ड में निरंतर संचालन का समर्थन करने के लिए ऊर्जा स्रोत नहीं है। जहां कोई व्यक्ति अपने कार्ड का उपयोग करता है, वह ऑडिट ट्रेल्स (Audit trails) का संचालन करके ट्रैक किया जाता है।
स्मार्ट कार्ड चिप, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कार्ड रीडर के संपर्क में आती है, और एक इलेक्ट्रॉनिक इंटरफ़ेस (Electronic interface) स्थापित करती है। यह संपर्क, तब लेनदेन को पॉइंट ऑफ़ सेल के माध्यम से भुगतान करने में सक्षम बनाता है। हालांकि, कुछ स्मार्ट कार्ड, किसी भी रीडर के संपर्क का उपयोग नहीं करते हैं। वे एक वायरलेस माध्यम का उपयोग करके, चिप से संबद्ध होते हैं। इस प्रकार के स्मार्ट कार्ड को, ‘संपर्क रहित कार्ड (Contactless card)’ कहा जाता है। जबकि, जिन कार्डों को रीडर से संपर्क की आवश्यकता होती है, उन्हें ‘संपर्क स्मार्ट कार्ड (Contact smart cards)’ के रूप में जाना जाता है। आज, संपर्क रहित स्मार्ट कार्ड, उपयोग में आसानी और लचीलेपन के कारण काफ़ी मांग में हैं।
स्मार्ट कार्ड का उपयोग कैसे किया जा सकता है?
स्मार्ट कार्ड का उपयोग त्वरित और सुरक्षित लेनदेन के साथ-साथ, व्यक्तिगत जानकारी की सुरक्षा के लिए किया जाता है। स्मार्ट कार्ड के सामान्य उपयोग निम्नलिखित उद्योगों में हैं:
•बैंकिंग
स्मार्ट कार्ड के सबसे आम उपयोगों में से एक, क्रेडिट और डेबिट कार्ड जैसे भुगतान कार्ड हैं। इनमें से अधिकांश कार्ड “चिप और पिन (Pin)” कार्ड हैं, जिनके लिए एक पिन की आवश्यकता होती है। जबकि अन्य कार्ड, “चिप और सिग्नेचर (Signature)” कार्ड हैं, जिनके सत्यापन के लिए गग्राहकों के हस्ताक्षर की आवश्यकता होती है।
•दूरसंचार
मोबाइल फ़ोन में उपयोग किए जाने वाले सिम कार्ड (SIM card) छोटे आकार के स्मार्ट कार्ड हैं। सिम कार्ड, उपयोगकर्ता को सही ढंग से पहचानने और उनका बिल बनाने हेतु, एक अद्वितीय पहचानकर्ता सिस्टम का उपयोग करता है। सिम कार्ड द्वारा प्रदान की गई सुरक्षा, वायरलेस प्रदाताओं को धोखाधड़ी से भी रोकती है।
•सूचना प्रौद्योगिकी
सुरक्षित वेब ब्राउज़िंग (Web browsing) के लिए सुरक्षा टोकन (Token) और स्टोर सर्टिफ़िकेट (Store certificates) के रूप में स्मार्ट कार्ड का उपयोग किया जा सकता है। वे सुरक्षित लॉगिन, उपयोगकर्ता प्रमाणीकरण, डिजिटल प्रमाणपत्रों का भंडारण, जानकारी, पासवर्ड और संवेदनशील डेटा एन्क्रिप्शन (Data encryption) को सक्षम करते हैं। ये कार्ड व्यक्तियों की गोपनीयता को बनाए रखते हुए, अवांछित घुसपैठ से उनकी जानकारी को सुरक्षित रखते हैं।
•शैक्षिक संस्थान
कई विद्यालय और कॉलेज भी, छात्रों की उपस्थिति दर्ज करने के लिए स्मार्ट कार्ड का उपयोग करते हैं। इससे ही वे पुस्तकालय के पुस्तकों, प्रतिबंधित सुविधाओं तक पहुंच और परिवहन सेवाओं पर नज़र रखते हैं। छात्र कैंटीन और वेंडिंग मशीनों (Vending Machine) में भुगतान के लिए भी, उनका उपयोग कर सकते हैं। ये कार्ड, इस प्रकार कर्मचारियों का व्यवस्थापन बोझ कम करने, अधिक शिक्षण समय सुनिश्चित करने और छात्र गतिविधि तथा व्यवहार पर वास्तविक समय डेटा प्रदान करने में भी मदद करते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में दिल्ली मेट्रो स्मार्ट कार्ड डिज़ाइन का स्रोत : Wikimedia
क्या होता है सतत विकास और कैसे इसे अपनाकर पूरे भारत में एक मिसाल कायम कर सकता है लखनऊ ?
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
27-05-2025 09:21 AM
Lucknow-Hindi

अपनी नवाबी तहज़ीब, ऐतिहासिक इमारतों और साहित्यिक समृद्धि के लिए मशहूर लखनऊ की पहचान इसके गौरवशाली अतीत और आधुनिकता के संतुलित मेल में झलकती है। लेकिन क्या यह खूबसूरत शहर, भविष्य में भी इतना ही अनमोल बना रहेगा? शहर के लगातार विस्तार के साथ ही कई पर्यावरणीय चुनौतियाँ भी बढ़ रही हैं। वायु प्रदूषण, जंगलों की कटाई, जल संकट और कचरे की बढ़ती समस्या न केवल लखनऊ, बल्कि पूरे देश के लिए खतरा बन रही हैं। अगर हमें लखनऊ की ऐतिहासिक सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखना है, तो हमें सतत विकास को प्राथमिकता देनी होगी। सतत विकास (Sustainable Development) का मतलब केवल नई इमारतें बनाने या बुनियादी ढाँचे का विस्तार करना नहीं है। इसका असली उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि विकास की कोई भी प्रक्रिया पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना आगे बढ़े। अक्षय ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देकर, सार्वजनिक परिवहन को प्राथमिकता देकर, कचरे के प्रभावी प्रबंधन को अपनाकर और जल संरक्षण के ठोस प्रयासों से हम लखनऊ को अधिक स्वच्छ, हरा-भरा और स्वस्थ बना सकते हैं। जब गोमती नदी का पानी साफ़ रहेगा, शहर की गलियों में ताज़ी हवा बहेगी और ऐतिहासिक बाग़-उद्यान हरियाली से भरपूर रहेंगे, तभी लखनऊ अपनी असली खूबसूरती को बनाए रख पाएगा। इस लेख में हम सतत विकास की अवधारणा को विस्तार से समझेंगे! आगे हम यह भी जानेंगे कि लखनऊ जैसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध शहर के लिए सतत विकास क्यों आवश्यक है। साथ ही, हम उन महत्वपूर्ण उपायों पर चर्चा करेंगे जो दीर्घकालिक विकास को संतुलित बनाए रखते हैं और ऐसे सफल उदाहरणों पर भी नज़र डालेंगे, जहाँ सतत विकास को प्रभावी रूप से लागू किया गया है।
आइए सबसे पहले "सतत विकास" या "संधारणीय विकास" की अवधारणा को समझते हैं।
सतत विकास का मतलब है "ऐसा विकास जिसके तहत वर्तमान ज़रूरतों को पूरा करते हुए भविष्य की आवश्यकताओं से समझौता न किया जाए।" यानी हम संसाधनों का उपयोग इस तरह करें कि वे आज के साथ-साथ आने वाली पीढ़ियों के लिए भी उपलब्ध रहें और उपयोगी बने रहें।
इसी सोच के तहत तैयार की गई इमारतों को "ग्रीन बिल्डिंग" कहा जाता है, जो पर्यावरण के अनुकूल होती हैं और ऊर्जा व संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करती हैं। आज मनुष्य धरती के प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब और अनियंत्रित दोहन कर रहा है। अगर यही स्थिति बनी रही, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे लिए शुद्ध हवा में सांस लेना और साफ पानी पीना भी दुर्लभ हो जाएगा। इसलिए अब सतत विकास पर ध्यान देना समय की आवश्यकता बन गई है।
यदि हम पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, वन्यजीवों का शिकार और जीवाश्म ईंधनों जैसे कोयले और पेट्रोलियम का अत्यधिक उपयोग करते रहेंगे, तो ये संसाधन जल्द ही समाप्त हो जाएंगे। हालांकि हमारे पास हवा, पानी, और सूर्य की रोशनी जैसे नवीकरणीय संसाधन मौजूद हैं, लेकिन अगर इनका भी समझदारी से उपयोग न किया गया तो ये भी एक दिन समाप्त हो जाएंगे।
इसलिए, हमें आज ऐसे फ़ैसले लेने होंगे जो पर्यावरण को बचाएं और आने वाली पीढ़ियों को एक स्वस्थ, सुरक्षित और टिकाऊ भविष्य प्रदान कर सकें। तभी हम एक ऐसी दुनिया बना पाएंगे, जहाँ सभी को स्वच्छ हवा, शुद्ध जल और बेहतर जीवन जीने का अधिकार मिल सकेगा।
सतत विकास एक बहुआयामी अवधारणा है। यह तीन प्रमुख स्तंभों पर आधारित है-
१. आर्थिक विकास।
२. सामाजिक समावेशन।
३. पर्यावरण संरक्षण।
ये तीनों पहलू एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। समाज के संतुलित और टिकाऊ विकास के लिए इनका समन्वित और संतुलित रूप से विकास होना अत्यंत आवश्यक है।
जब ये तीनों पहलू संतुलन में होते हैं, तभी समाज स्थिर, लचीला और समृद्ध बनता है। चलिए जानते हैं कैसे?
1. आर्थिक विकास: सतत आर्थिक विकास, सतत विकास का एक प्रमुख आधार है। इसका उद्देश्य केवल जी डी पी में वृद्धि नहीं, बल्कि समावेशी और समान अवसर प्रदान करने वाली अर्थव्यवस्था का निर्माण करना है। इसके तहत ऐसी आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाता है जो समाज के सभी वर्गों को लाभ पहुँचाएँ, और साथ ही पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बिना आगे बढ़ें। जब विकास में हर वर्ग की भागीदारी होती है, तभी यह दीर्घकालिक और स्थायी बनता है।
2. सामाजिक समावेशन: सामाजिक समावेशन का अर्थ है: "ऐसा समाज बनाना जहाँ हर व्यक्ति को समान अवसर, संसाधनों की पहुँच और गरिमामय जीवन का अधिकार मिले।" इसमें लैंगिक समानता को प्रोत्साहन, समुदायों का समावेशी विकास, विभिन्न संस्कृतियों का सम्मान, और शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच सुनिश्चित करना शामिल है। इससे सामाजिक असमानता कम होती है और एक न्यायसंगत समाज की नींव पड़ती है।
3. पर्यावरण संरक्षण: पर्यावरण की देखभाल सतत विकास का तीसरा और बहुत ज़रूरी हिस्सा होता है। इसका मकसद है "प्रकृति की रक्षा करना और उसका समझदारी से उपयोग करना।" इसमें प्राकृतिक संसाधनों (जैसे पानी, जंगल, जमीन) का सावधानी से इस्तेमाल करना, जैव विविधता (पौधों और जानवरों की विभिन्न प्रजातियाँ) को बचाना और प्रदूषण को कम करना शामिल है।
हम नवीकरणीय ऊर्जा (जैसे सौर और पवन ऊर्जा), जल संरक्षण, पर्यावरण के अनुकूल निर्माण तरीकों और टिकाऊ यातायात प्रणालियों को अपनाकर इस दिशा में बड़ा योगदान दे सकते हैं।
अगर हम नवीकरणीय ऊर्जा (जैसे सौर और पवन ऊर्जा) का इस्तेमाल करें, पानी की बचत करें, पर्यावरण के अनुकूल निर्माण तरीकों को अपनाएँ और ऐसी परिवहन व्यवस्था को बढ़ावा दें जो पर्यावरण को नुकसान न पहुँचाए, तो हम सतत विकास की दिशा में बड़ा कदम उठा सकते हैं।
सतत विकास का मतलब सिर्फ़ आर्थिक तरक्की नहीं है, बल्कि इसका मकसद समाज में समानता और पर्यावरण की रक्षा के बीच संतुलन बनाए रखना भी है।
इसमें कई महत्वपूर्ण पहलू शामिल हैं जो इसे एक दूरदर्शी और व्यापक सोच बनाते हैं:
1. पीढ़ी दर पीढ़ी बराबरी: सतत विकास यह सुनिश्चित करता है कि हमारी आज की ज़रूरतें पूरी पूरी होने के साथ साथ, हमारी आने वालीं पीढ़ियों की भी अपनी ज़रूरतें पूरी हो सकें। इसका मतलब है कि प्राकृतिक संसाधनों का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल न किया जाए।
2. पर्यावरण और विकास का मेल: यह सोच इस बात पर ज़ोर देती है कि जब हम देश की तरक्की की योजना बनाएँ, तो पर्यावरण की सेहत को भी ध्यान में रखें। एक साफ़ -सुथरा और स्वस्थ वातावरण ही टिकाऊ विकास की नींव है।
3. सबके लिए आर्थिक तरक्की: सतत विकास ऐसा आर्थिक मॉडल चाहता है जिससे समाज के हर वर्ग को फ़ायदा हो, खासकर उन लोगों को जो अक्सर विकास की मुख्यधारा से बाहर रह जाते हैं।
4. समाज में समानता: इसका मकसद ऐसा समाज बनाना है जिसमें सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के ज़रूरी सेवाएँ, मौके और संसाधन मिलें। सबको बराबरी का अधिकार हो – यही इसका लक्ष्य है।
5. संसाधनों का समझदारी से इस्तेमाल: सतत विकास यह सिखाता है कि हमें ज़मीन, पानी, जंगल और ऊर्जा जैसे संसाधनों का सोच-समझकर और जिम्मेदारी से इस्तेमाल करना चाहिए, ताकि ये लंबे समय तक उपलब्ध रहें।
6. सबकी भागीदारी वाला शासन: इसमें सभी लोगों "खासकर स्थानीय समुदायों" को फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में शामिल किया जाता है। इससे लोगों को अपने इलाके के विकास में हिस्सेदारी मिलती है।
7. बदलाव के अनुसार ढलने की क्षमता: सतत विकास ऐसी योजनाओं और प्रणालियों को बढ़ावा देता है जो सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय मुश्किलों का डटकर सामना कर सकें और ज़रूरत पड़ने पर खुद को समय के अनुसार बदल सकें।
8. तकनीकी तरक्की: यह पहलू नई तकनीकों को अपनाने पर ज़ोर देता है जो कम संसाधनों में ज़्यादा काम करें, पर्यावरण को कम नुकसान पहुँचाएँ और लोगों की ज़िंदगी को बेहतर बनाएँ।
सतत विकास के कुछ उदाहरण निम्नवत दिए गए हैं:
1. नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाएँ: सौर, पवन और जल ऊर्जा जैसी परियोजनाएँ हमें साफ़ और टिकाऊ ऊर्जा प्रदान करती हैं। इससे कोयला और पेट्रोल जैसे प्रदूषण फैलाने वाले ईंधनों पर निर्भरता कम होती है और वातावरण को भी नुकसान नहीं होता।
2. टिकाऊ खेती: जैविक खेती, फसल बदलना और पेड़ों के साथ खेती करना ऐसी विधियाँ हैं जो ज़मीन की उपजाऊ क्षमता बनाए रखती हैं और रासायनिक खादों के इस्तेमाल को कम करती हैं। यह किसानों की आमदनी को भी बढ़ाता है और पर्यावरण को भी सुरक्षित रखता है।
3. पर्यावरण के अनुकूल इमारतें (ग्रीन बिल्डिंग): ऐसी इमारतें जो बिजली और पानी की बचत करें और पर्यावरण को कम नुकसान पहुँचाएँ, टिकाऊ विकास का अच्छा उदाहरण हैं। इनमें ऐसी सामग्री और तकनीकें इस्तेमाल होती हैं जो लंबे समय तक चलती हैं और कम प्रदूषण करती हैं।
4. बेहतर सार्वजनिक परिवहन: सुलभ और भरोसेमंद बस, मेट्रो और ट्रेन जैसी सेवाएँ लोगों को निजी वाहन इस्तेमाल करने से रोकती हैं। इससे सड़कों पर ट्रैफ़िक कम होता है, प्रदूषण घटता है और ईंधन की भी बचत होती है।
कुल मिलाकर सतत विकास का मतलब है "ऐसी तरक्की जो सभी के लिए हो, लंबे समय तक चले और पर्यावरण को सुरक्षित रखे।" इसके लिए हमें अपनी सोच, तकनीक और जीवनशैली में बदलाव लाना होगा। यही भविष्य के लिए एक समझदारी भरा रास्ता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में बांग्लादेश के हरे भरे शहर का स्रोत : Wikimedia
आज लखनऊ अवगत होगा, वैश्विक स्तर पर, हीरा उद्योग में, भारत की वर्त्तमान स्थिति से
खदान
Mines
26-05-2025 09:20 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, हीरा दुनिया के सबसे कीमती और चमकदार रत्नों में से एक है। इसकी चमक और मज़बूती सबको बहुत पसंद आती है। लेकिन क्या आप जानते हो, जो हीरा गहनों में चमकता है, वह धरती के अंदर बहुत गहराई में बनता है?
हीरा बहुत ज़्यादा दबाव और गर्मी में बनता है। इसे धरती से निकालने के दो तरीक़े होते हैं — खुली खदान से खुदाई (open-pit mining) और ज़मीन के नीचे की खुदाई (underground mining)। हमारे देश भारत में ज़्यादातर हीरे मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं, खासकर पन्ना नाम की जगह पर।
जब हीरे की खुदाई हो जाती है, तब वह कच्चे होते हैं। फिर इन कच्चे हीरों को तराशा और चमकाया जाता है, जिससे वह सुंदर दिखने लगते हैं।
आज हम भारत में हीरे की खुदाई के बारे में जानेंगे — हीरे का इतिहास क्या है, अब क्या हो रहा है, और यह देश की अर्थव्यवस्था (Economy) के लिए कितना ज़रूरी है। फिर हम समझेंगे कि हीरे को ज़मीन से कैसे निकाला जाता है और हीरों का कारोबार कितना बड़ा है। आखिर में, हम 2023–24 में भारत ने कितने हीरे विदेशों में बेचे, किन देशों में भेजे और इसका हमारे देश पर क्या असर पड़ा — यह भी देखेंगे।
भारत में हीरे की खनन
भारत में हीरे की खुदाई की शुरुआत बहुत पहले, पाँचवीं शताब्दी (ईसा पूर्व) में हुई थी। बाद में, 16वीं और 17वीं शताब्दी (ईसा पश्चात) में आंध्र प्रदेश में हीरों की खुदाई और व्यापार बड़े पैमाने पर हुआ। उस समय गोलकुंडा एक बहुत ही मशहूर व्यापारिक केंद्र था। 19वीं शताब्दी से पहले, हीरे पुराने पत्थरों और नदियों की रेत से निकाले जाते थे। उस समय हीरे मिलने की जगहें थीं — आंध्र प्रदेश की कृष्णा नदी की रेत, मध्य प्रदेश का पन्ना हीरा क्षेत्र, ओडिशा की महानदी की रेत और महाराष्ट्र के वैरागढ़ इलाके के पत्थर। मध्य प्रदेश के मझगांव और आंध्र प्रदेश के वज्रकरूर नामक स्थानों पर भी हीरे की खुदाई हुई थी। बाद में साल 1930 में यह पता चला कि इन जगहों पर जो पत्थर हैं, वे खास तरह के होते हैं जिन्हें किंबरलाइट (Kimberlite) कहा जाता है, और ऐसे पत्थरों में हीरे मिलते हैं।
भारत में हीरे की खदानें
भारत के कई हिस्सों में हीरे के खनिज पाए जाते हैं, जिनमें आंध्र प्रदेश (वज्रकरूर), छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटका और तेलंगाना जैसे संभावित क्षेत्र शामिल हैं। आंध्र प्रदेश के अनंतपुर, कुरनूल, कृष्णा, मेहबूबनगर और गुंटूर ज़िले; मध्य प्रदेश के पन्ना और छतरपुर ज़िले; छत्तीसगढ़ के रायपुर ज़िले; राजस्थान के चित्तौड़गढ़, झालावार और कोटा ज़िले; उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर ज़िले में हीरे के खनिज पाए गए हैं। ओडिशा के संबलपुर ज़िले में महानदी नदी के बेसिन में संभावित हीरे की खनिज का पता लगाया जा रहा है। हीरे को मुख्य रूप से आभूषणों में सजावट के लिए इस्तेमाल किया जाता है। औद्योगिक हीरे का उपयोग ड्रिल बिट्स के लिए किया जाता है। भारत एक समय दुनिया में कटे और पॉलिश किए गए हीरे का सबसे बड़ा निर्यातक था, हालांकि इसका कच्चा हीरा उत्पादन बहुत कम है।
हीरों की खुदाई कैसे होती है?
हीरे निकालने के तीन मुख्य तरीके होते हैं: पाइप खनन/प्राथमिक जमा (primary deposits), जो ओपन-पिट खनन और अंडरग्राउंड खनन होते हैं; आलुवियल खनन (Alluvial mining)/द्वितीयक जमा (secondary deposits); और मरीन खनन (Marine mining)।
1. पाइप खनन
पाइप खनन के दो प्रकार होते हैं: ओपन-पिट खनन और अंडरग्राउंड खनन।
- खुली खदान खनन – ओपन-पिट खनन, जैसे कि किम्बर्ली बिग होल (Kimberley Big Hole), में किंबरलाइट (Kimberlite) के ऊपर की रेत और पत्थरों की परतों को हटाया जाता है। फिर उस गहरे गड्ढे में विस्फ़ोटक का उपयोग करके चट्टानों को तोड़ा जाता है। इसके बाद टूटे हुए कच्चे माल को इकट्ठा किया जाता है और उसे प्राथमिक कच्चा माल क्रशर में भेजा जाता है, जहां से हीरा निकालने की प्रक्रिया शुरू होती है।
- भूमिगत खनन – इस प्रकार के खनन में, खनिक पृथ्वी की पपड़ी में सुरंगें खोदते हैं ताकि किंबरलाइट पाइप तक पहुंच सकें। सुरंगें दो स्तरों में बनाई जाती हैं, एक दूसरे के ऊपर, और दोनों स्तरों को जोड़ने के लिए पाइप बनाए जाते हैं। खनन सबसे ऊपर के स्तर से विस्फोट करके शुरू होता है, और तोड़ी गई चट्टानें पाइप के माध्यम से नीचे आती हैं और दूसरे सुरंग में इकट्ठी होती हैं। यहां, लोडर्स (loaders) इन टूटे हुए कच्चे माल को इकट्ठा करते हैं और फिर उसे सतह पर लाकर प्रोसेसिंग के लिए भेजते हैं।
2. आलुवियल खनन (Alluvial Mining)
हजारों सालों की बारिश और हवा के कारण, वह किंबरलाइट पाइप जो पृथ्वी की सतह तक पहुंचता है, घिसने लगता है। कच्चे हीरे इस किंबरलाइट से बहकर नदियों और धाराओं में चले जाते हैं। ये हीरे अक्सर अन्य सामग्री जैसे मिट्टी, कीचड़ और पानी के नीचे की वनस्पतियों के बीच बालू की परतों में पाए जाते हैं। औद्योगिक आलुवियल प्रक्रिया में एक बड़ी दीवार बनाई जाती है, ताकि पानी एक स्थान पर इकट्ठा हो जाए, जहां बालू इकट्ठा किया जाता है, फिर उसे सतह तक खींचा जाता है और प्रोसेसिंग के लिए तैयार किया जाता है।
3. गहरे समुद्र में खनन
मरीन या गहरे समुद्र में खनन में समुद्र की गहराई से हीरे निकाले जाते हैं। इस प्रक्रिया में विशेष तकनीक से सुसज्जित जहाजों का उपयोग किया जाता है, जो समुद्र के तल से बालू को खींचने के लिए शक्तिशाली क्रॉलर का उपयोग करते हैं, जो लचीले होज़ या पाइप्स के माध्यम से समुद्र के तल से बालू उठाते हैं। मरीन खनन के पहले दिनों में, एक तैराक समुद्र के उथले हिस्से से हीरा युक्त बालू इकट्ठा करता था। इसके अलावा, आजकल जहाज़ों पर बड़े पैमाने पर ड्रिल का उपयोग किया जाता है ताकि समुद्र तल से हीरे निकाले जा सकें। नमिबिया (Namibia) के तट पर मरीन हीरे का सबसे बड़ा स्रोत है, जो लगभग 64% नमिबिया के कुल हीरे के उत्पादन का हिस्सा है।
हीरे की उद्योग का आकार
दुनिया भर में हीरे का बाज़ार 2023 में 94.19 अरब डॉलर का अनुमानित था और 2032 तक यह 138.66 अरब डॉलर तक पहुँचने की उम्मीद है। इसका मतलब है कि इस दौरान सालाना 4.5% की दर से वृद्धि होगी।
भारत में 2022 में हीरे के आभूषणों का बाज़ार 65.8 अरब डॉलर का था, और 2027 तक यह 85.8 अरब डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है।
दुनिया भर में 38 हीरे की खदानें हैं, जिनमें से 23 खदानें भारत की हैं। इनमें से अधिकतर गोलकुंडा में स्थित हैं, जिसे पहले “हीरों की राजधानी” के नाम से जाना जाता था। भारत की हीरे निर्माण कंपनियाँ इस कीमती पत्थर से बहुत आकर्षित हैं और उसकी सुंदरता को बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं।
भारत से हीरे का निर्यात: 2023-24
हीरे के निर्यात के आंकड़ों के अनुसार, भारत के कटे और पॉलिश किए हुए हीरे का निर्यात 2024 के वित्तीय वर्ष में अमेरिका को 15.97 अरब डॉलर का हुआ।
भारत के हीरे निर्यातकों ने मार्च 2023 से लेकर फ़रवरी 2024 तक हीरे के कुल 37,42,248 शिपमेंट निर्यात किए। अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और हांगकांग भारत के हीरों का अधिकांश आयात करते हैं।
हालाँकि, चीन, वियतनाम और भारत हीरे के सबसे बड़े निर्यातक देश हैं। भारत, प्रति वर्ष, 14,955,928 शिपमेंट के साथ दुनिया का सबसे बड़ा हीरे का निर्यातक है। चीन और वियतनाम 4,99,577 , और 2,75,775 शिपमेंटों के दुनिया के दूसरे और तीसरे सबसे बड़ा हीरा निर्यातक हैं ।
संदर्भ
मुख्य चित्र में जैकब डायमंड का स्रोत : Wikimedia
देखिए सालों पहले के लखनऊ शहर की दुर्लभ और अनदेखी झलकियाँ!
वास्तुकला 1 वाह्य भवन
Architecture I - Exteriors-Buildings
25-05-2025 09:12 AM
Lucknow-Hindi

उत्तर प्रदेश की राजधानी, लखनऊ एक ऐसा नगर है जहाँ पर इतिहास, संस्कृति और आधुनिकता बड़े ही सुंदर ढंग से घुले-मिले हैं। अपनी समृद्ध विरासत, शानदार इमारतों और जीवंत परंपराओं के लिए मशहूर लखनऊ, अपने अतीत के वैभव और आज की तरक्की का जीता-जागता प्रमाण है। अवध के नवाबों ने लखनऊ की सांस्कृतिक और स्थापत्य विरासत को बनाने में एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अवध के चौथे नवाब, आसफ़-उद-दौला को उनके योगदानों के लिए खास तौर पर याद किया जाता है, जिनमें प्रसिद्ध बड़ा इमामबाड़ा का निर्माण भी शामिल है। नवाबों के दौर में मुगल और फ़ारसी प्रभावों का मिश्रण देखने को मिलता था, जो आज भी शहर के भोजन, भाषा और कला में साफ़ दिखाई देता है। लखनऊ को अक्सर उत्तर भारत की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है। इस शहर को अपने शास्त्रीय संगीत, नृत्य शैलियों, शायरी और लाजवाब खानपान के लिए जाना जाता है। आज हम एक ऐसे सफ़र पर निकलेंगे, जिसे देखकर आप अंदाज़ा लगा पाएंगे कि आज से सैकड़ों साल पहले लखनऊ शहर कैसा दिखाई देता था।
आज के इस पहले वीडियो में आपको 1800 के दशक की लखनऊ की कई दुर्लभ तस्वीरें देखने को मिलेंगी! उस समय भारत में ब्रिटिश शासनकाल का था। यह तस्वीरें देखकर आप ज़रूर हैरान हो जाएंगे।
यह अगला वीडियो भी आपको 1800 और 1900 के दशक के पुराने लखनऊ की अनदेखी झलकियां दिखाएगा। इसमें ब्रिटिश शासनकाल के दौरान लखनऊ शहर और एक सदी पहले के लखनऊ शहर की कई भव्य इमारतों की सुंदर वास्तुकला देखने को मिलती है।
यह आखिरी चलचित्र भी लखनऊ की दुर्लभ और अद्वितीय वास्तुकला को समर्पित है! इसमें भी आँखों को सुकून देने वाली लखनऊ की कुछ पुरानी झलकियाँ दिखाई गई हैं, जो शहर की जीवंतता को दर्शाती हैं। इसमें यहाँ-वहाँ भागते लोग, ब्रिटिश रेजीडेंसी, छोटा इमामबाड़ा और भूल भुलैया जैसी शहर की मशहूर इमारतों को देखने का मौका मिलता है। इसके अलावा सड़कों के बीच चलती गायें, फुटपाथों पर फल बेचते हुए लोग, थोड़ा अस्त-व्यस्त यातायात, तांगे की सवारी और सर्दियों की धूप का आनंद लेते बुज़ुर्ग भी यहाँ आसानी से दिख जाते हैं।
संदर्भ :
आइए जानें, ‘जंगल के अविश्वसनीय वास्तुकार’ कहे जाने वाले भारतीय कलगीदार साही के बारे में
शारीरिक
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24-05-2025 09:21 AM
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भारतीय कलगीदार साही (Indian Crested Porcupine) एक बड़ा, रात्रिचर कृंतक है जिसकी तेज़ पंख जैसी कलमें होती हैं जिन्हें वह अपने बचाव के लिए खोल सकते हैं। यह जानवर दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व का मूल निवासी है, जो जंगलों, चट्टानी इलाकों और कृषि क्षेत्रों में पाया जाता है। भारत में, ये जीव पश्चिमी घाट, मध्य भारत, निचले हिमालय, दक्कन पठार और थार रेगिस्तान सहित विभिन्न क्षेत्रों में पाए जाते हैं। हालाँकि, आप इन्हें हमारे शहर के चिड़ियाघर "नवाब वाज़िद अली शाह प्राणी उद्यान" में भी देख सकते हैं। भारतीय क्रेस्टेड साही भी कहा जाता है। शाकाहारी के रूप में, ये घास, फल और छाल सहित विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों पर भोजन करते हैं। वे मक्का, गन्ना और मूंगफली जैसी कृषि फसलों पर हमला करने के लिए जाने जाते हैं, जिसके कारण कभी-कभी उनके और मनुष्यों के बीच संघर्ष भी देखा जाता है। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 की अनुसूची IV के तहत 'प्रकृति संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय संघ' (International Union for Conservation of Nature (ICUN)) की लाल सूची की सबसे कम चिंता वाली प्रजाति श्रेणी में रखा गया है। हालांकि, ये उन जानवरों में से एक है जिनके बारे में कम अध्ययन किया जाता है, जिसके कारण वे मृत्यु के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकते हैं, क्योंकि भारत में कुछ स्थान पर उन्हें कीट माना जाता है और उनके बुशमीट के लिए अवैध रूप से उनका शिकार किया जाता है। तो आइए, आज इस जानवर के बारे में विस्तार से जानते हुए, समझते हैं कि उन्हें जंगल का अविश्वसनीय वास्तुकार क्यों कहा जाता है और देखते हैं कि साही अपनी कलमों के माध्यम से शिकारियों से कैसे अपनी रक्षा करते हैं। इसके साथ ही, हम भारतीय साही के लिए कुछ संरक्षित क्षेत्रों के बारे में बात करेंगे। अंत में, हम भारतीय पौराणिक कथाओं में साही के महत्व के बारे में जानेंगे और समझेंगे कि भारत में गोद भराई अनुष्ठान के लिए साही की कलमों का उपयोग कैसे और क्यों किया जाता है।
भारतीय कलगीदार साही का परिचय:
भारतीय कलगीदार साही भारत में पाया जाने वाला सबसे बड़ा कृंतक है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापक रूप से वितरित है। यह एक एकांतवासी प्राणी है, जो पर्णपाती जंगलों, चट्टानी इलाकों और खुले ग्रामीण इलाकों में रहता है। यह कृंतक मोटी एवं लंबी कलमों से ढका होता है जिनकी लंबाई 16 इंच तक हो सकती है। इसका वज़न 11-18 किलोग्राम के बीच होता है, जबकि नाक से पूंछ तक शरीर की लंबाई 70 से 90 सेंटीमीटर तक होती है, साथ ही पूंछ की लंबाई 8-10 सेंटीमीटर तक होती है।
इनकी आयु 18 से 20 वर्ष की होती है। यह एक शाकाहारी और रात्रिचर प्रजाति है, जिसे अक्सर रात में भोजन करते हुए देखा जाता है, जो पौधों, फलों और जड़ों को खाते समय घुरघुराने की आवाज़ें निकालता है। इनके दांत बड़े कृन्तक होते हैं जो लगातार बढ़ते रहते हैं जो उनकी भोजन की आदत का एक प्रमुख संकेतक है। साही एकपत्नीत्व का पालन करते हैं और मादाएं एक साल में एक बार में 2-4 बच्चे पैदा करती हैं। बच्चे 15 से 20 सप्ताह तक मांद में रहते हैं, इस दौरान माता-पिता उनकी देखभाल करते हैं। वे आमतौर पर 2 साल के बाद यौन रूप से सक्रिय होने पर अपनी मांद छोड़ देते हैं।
भारतीय कलगीदार साही - जंगल का अविश्वसनीय वास्तुकार:
इन्हें जंगल का अविश्वसनीय वास्तुकार माना जाता है क्योंकि इनका बिल 13 मीटर तक लंबा हो सकता है। उनके अगले पैर इतने मज़बूत होते हैं कि वे अलग-अलग पार्श्व कक्षों के साथ इतना लंबा बिल बना सकते हैं, जिससे अगर कोई शिकारी आसपास हो तो उन्हें गायब होने में भी मदद मिलती है। इसके अलावा, वे पक्षियों, चमगादड़ों और सरीसृपों की 18-22 विभिन्न प्रजातियों के साथ अपना बिल साझा करते हैं।
साही अपनी कलमों से शिकारियों से खुद को कैसे बचाते हैं:
साही एकांतवासी, धीमी गति से चलने वाले जानवर हैं जो आम तौर पर अपने तक ही सीमित रहते हैं, जब तक उन्हें किसी खतरे का सामना नहीं करना पड़ता। खतरा न होने तक, कलम आम तौर पर साही के शरीर पर सपाट रहती है, लेकिन खतरे का आभास होते ही साही अपनी कलमों को खड़ा कर देते हैं, अपनी कांटेदार पूंछ को तब तक हिलाते रहते हैं जब तक कि खतरा या तो उन्हें नहीं छोड़ देता है या उनका पूरा शरीर कलमों से भरकर फूल नहीं जाता है। कलमें वास्तव में कठोर, खोखले बाल होते हैं जिनके सिरे पर सूक्ष्म, पीछे की ओर झुके हुए कांटे होते हैं, इसलिए जब वे मानव या किसी अन्य जानवर के संपर्क में आते हैं तो वे फंस जाते हैं और साही की त्वचा से मुक्त हो जाते हैं।
भारतीय कलगीदार साही के लिए संरक्षित क्षेत्र:
भारतीय क्रेस्टेड साही पूरे भारत में कई राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभ्यारण्यों में पाए जाते हैं, जहाँ उन्हें संरक्षित किया जाता है और उनकी आबादी की निगरानी की जाती है। ऐसा ही एक उद्यान मध्य प्रदेश में बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान है, जो भारतीय कलगीदार साही के उच्च घनत्व के लिए जाना जाता है। इसके अलावा, अन्य उद्यान, जहां यह प्रजाति पाई जाती है उनमें कान्हा राष्ट्रीय उद्यान, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान और पेंच टाइगर शामिल हैं, जो सभी मध्य प्रदेश में स्थित हैं। वे राजस्थान में सरिस्का टाइगर रिजर्व, कर्नाटक में नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान और तमिलनाडु में मुदुमलाई राष्ट्रीय उद्यान में भी पाए जाते हैं। ये संरक्षित क्षेत्र भारतीय कलगीदार साही के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे शिकार और आवास-विनाश जैसी मानवीय गतिविधियों से आवास और सुरक्षा प्रदान करते हैं। राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव अभ्यारण्य प्रजातियों के अनुसंधान और निगरानी के अवसर भी प्रदान करते हैं, जो संरक्षण रणनीतियों को सूचित करने और प्रजातियों के दीर्घकालिक अस्तित्व को सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं।
भारतीय पौराणिक कथाओं में साही का महत्व:
कई भारतीय पौराणिक कथाओं में भारतीय कलगीदार साही का वर्णन, एक रूपक के रूप में मिलता है, जो इसके महत्व को दर्शाता है। पुराणों के संदर्भ में, यह उन योद्धाओं के लिए एक रूपक के रूप में कार्य करता है जिनके शरीर तीरों से ढके होने के कारण साही की तरह दिखते हैं। इसके अलावा, इसका उपयोग, द्रोण के बेटे को गंभीर चोट लगने के बाद वर्णन करने के लिए एक उपमा के रूप में किया जाता है, जो उसकी भारी घायल अवस्था को उजागर करता है।
भारत में गोद भराई अनुष्ठान के लिए साही की कलमों का उपयोग कैसे और क्यों किया जाता है ?
गोद भराई अनुष्ठान में, लगातार प्रार्थनाओं और मंत्रों के बीच, गर्भवती मां की नाभि से उसके माथे तक तीन बार सीधी रेखा खींचने के लिए साही की कलम का उपयोग किया जाता है। साही, एक ऐसा जानवर है जिसे इसके कांटेदार बाहरी आवरण के कारण आसानी से नहीं मारा जा सकता। पिता अपने अजन्मे बच्चे की सलामती के लिए प्रार्थना करता है और आशा करता है कि भगवान उसके बच्चे की रक्षा करेंगे जैसे साही अपनी रक्षा करता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में भारतीय कलगीदार साही का स्रोत : Wikimedia
अवांछित स्पैम संदेशों और टेलीमार्केटिंग कॉलों से हमें बचाएगी वितरित खाता प्रौद्योगिकी
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
23-05-2025 09:30 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, आप सभी निश्चित रूप से अक्सर स्पैम संदेशों और टेलीमार्केटिंग कॉलों का सामना करते होंगे, जिनसे आपके दैनिक कार्यों में बाधाएं भी आती होंगी। क्या आप जानते हैं कि वितरित लेजर प्रौद्योगिकी या वितरित खाता प्रौद्योगिकी (Distributed Ledger Technology (DLT)) यह सुनिश्चित करके एक समाधान प्रदान करती है कि केवल पंजीकृत व्यवसाय ही संदेश भेज सकें, जिससे धोखाधड़ी और अवांछित संचार कम हो सके। यह प्रेषक आई डी और टेम्पलेट का रिकॉर्ड रखने और प्रबंधित करने के लिए एक डिजिटल प्रणाली है। भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (Telecom Regulatory Authority of India (TRAI)) द्वारा अनचाहे एस एम एस पर अंकुश लगाने और व्यवसायों को डी एल टी प्लेटफ़ॉर्मों पर अपनी संस्थाओं, प्रेषक आईडी और संदेश टेम्पलेट्स को पंजीकृत करने के लिए अनिवार्य करके टेलीमार्केटिंग संचार की पारदर्शिता और जवाबदेही में सुधार करने के लिए वितरित खाता प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाता है। तो आइए, आज वितरित खाता प्रौद्योगिकी और इसकी कार्यप्रणाली के बारे में विस्तार से जानते हैं। इसके साथ ही, हम डी एल टी से संबंधित प्रमुख संस्थाओं और उनकी ज़िम्मेदारियों पर कुछ प्रकाश डालेंगे। हम भारतीय उद्यमों में डी एल टी कार्यान्वयन के लिए दिशानिर्देशों और इसके नियामक ढांचे को भी समझेंगे। इसके अलावा, हम भारत में डी एल टी प्लेटफ़ॉर्म पर पंजीकरण की चरण-दर-चरण प्रक्रिया के बारे में जानेंगे, जिससे व्यवसायों के लिए नियमों का अनुपालन करना आसान हो सके। अंत में, हम डी एल टी पंजीकरण के लिए आवश्यक दस्तावेज़ों और उद्यमों के लिए एक सुचारू ऑनबोर्डिंग प्रक्रिया के बारे में समझेंगे।
वितरित खाता प्रौद्योगिकी क्या है और यह कैसे काम करती है:
डी एल टी में क्रिप्टोग्राफ़ी (Cryptography) का उपयोग करके जानकारी को सुरक्षित और सटीक रूप से संग्रहित किया जाता है। डेटा को 'की' (Key) और क्रिप्टोग्राफ़िक हस्ताक्षरों का उपयोग करके एक्सेस किया जा सकता है। एक बार जानकारी संग्रहित हो जाने पर, यह एक अपरिवर्तनीय डेटाबेस बन जाता है; लेजर डेटाबेस प्रोग्रामिंग की कोडिंग में लिखे गए नेटवर्क के नियमों से नियंत्रित होता है।
क्योंकि ये डेटाबेस विकेंद्रीकृत, निजी और एन्क्रिप्टेड हैं, वितरित लेजर में साइबर अपराध का खतरा कम हो जाता है, क्योंकि साइबर हमले के सफ़ल होने के लिए नेटवर्क पर संग्रहित सभी प्रतियों पर एक साथ हमला करने की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, रिकॉर्ड के पीयर-टू-पीयर साझा होने और अपडेट होने से यह पूरी प्रक्रिया बहुत तेज़, अधिक प्रभावी और सस्ता हो जाती है।
वितरित लेजर नेटवर्क में प्रत्येक उपकरण पर लेजर की एक प्रति संग्रहित होती है। इन उपकरणों को नोड (nodes) कहा जाता है—एक नेटवर्क में किसी भी संख्या में नोड हो सकते हैं। लेजर में कोई भी परिवर्तन, जैसे डेटा को एक ब्लॉक से दूसरे ब्लॉक में मूव करना, सभी नोड्स में दर्ज़ किया जाता है। चूँकि प्रत्येक नोड में लेजर की एक प्रति होती है, प्रत्येक नोड नवीनतम लेनदेन के साथ अपना संस्करण दर्शाता है। यदि नेटवर्क पर नवीनतम लेजर की वैधता के साथ तालमेल बैठता है, तो लेनदेन को अंतिम रूप दिया जाता है, एन्क्रिप्ट (Encrypt) किया जाता है और लेनदेन के लिए आधार के रूप में उपयोग किया जाता है। ब्लॉकचेन (Blockchain) इस प्रकार विकसित होते हैं कि प्रत्येक ब्लॉक में आगे बढ़ने वाले ब्लॉक के बारे में एन्क्रिप्टेड जानकारी होती है, जिससे उन्हें बदलना असंभव हो जाता है।
डी एल टी से संबंधित संस्थाएं और उनकी ज़िम्मेदारियां:
- प्रधान इकाई (Principal Entity (PE)): इसके अंतर्गत व्यवसाय आते हैं जो अपने ग्राहकों को एस एम एस और आरसीएस संदेश भेजना चाहते हैं। ट्राई के दिशानिर्देशों के अनुसार, प्रत्येक पीई को दूरसंचार ऑपरेटरों के साथ डी एल टी प्लेटफ़ॉर्म पर पंजीकृत होना आवश्यक है।
- अंतिम उपयोगकर्ता (End-user): अंतिम उपयोगकर्ता वह मोबाइल ग्राहक हैं जो एस एम एस और आर सी एस (Rich Communication Services) संदेश प्राप्त करते हैं। उन्हें किसी भी व्यवसाय से प्रचारात्मक एस एम एस और आरसीएस संदेश प्राप्त करने, शिकायत दर्ज़ करने और अवांछित/स्पैम संदेशों से बाहर निकलने के लिए सहमति प्रदान करने का अधिकार है।
- सेवा प्रदाता या टेलीमार्केटर (Service Provider or Telemarketer): पीई को अंतिम उपयोगकर्ताओं को एस एम एस और आरसीएस संदेश भेजने के लिए सेवा प्रदाताओं की आवश्यकता होती है। सभी सेवा प्रदाताओं को डी एल टी प्लेटफ़ॉर्म पर पंजीकृत होना आवश्यक है ताकि वे पीई की ओर से एस एम एस और आरसीएस भेज सकें।
- टेलीकॉम ऑपरेटर (Telecom Operators): टेलीकॉम ऑपरेटर एक्सेस प्रदाता ( वोडाफ़ोन, एयरटेल, आइडिया, बी एस एन एल, आदि) हैं जो ट्राई के साथ सीधे संबंध में हैं और विनियमन प्रक्रिया में सहायता करते हैं।
- नियामक (Regulator - (TRAI)): ट्राई ग्राहकों की प्राथमिकताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने और धोखाधड़ी को रोकने के लिए संचालन का ऑडिट और संचालन करके नियामक अनुपालन स्थापित करता है।
भारतीय उद्यमों में लेजरवितरित खाता प्रौद्योगिकी कार्यान्वयन के लिए दिशानिर्देश:
- उद्यमों को आवश्यक व्यावसायिक दस्तावेज़ जमा करके ऑपरेटर के डी एल टी प्लेटफ़ॉर्म पर पंजीकरण करना आवश्यक है। उद्यमों को एक पंजीकृत टेलीमार्केटर का चयन करके, उन्हें अपनी ओर से कार्य करने की अनुमति देनी होगी।
- उद्यमों को, जो डी एल टी प्लेटफ़ॉर्म पर मैसेजिंग और वॉयस गेटवे के माध्यम से संचार भेजना चाहते हैं, एस एम एस, वेब या मोबाइल ऐप के माध्यम से उपभोक्ताओं से सहमति प्राप्त करना और उन्हें डी एल टी प्लेटफ़ॉर्म पर अपलोड करना आवश्यक है।
- टेलीमार्केटर और अंतिम उपयोगकर्ताओं को डी एल टी प्लेटफ़ॉर्म पर अलग से पंजीकरण करना होगा।
- हेडर (प्रेषक आई डी) पंजीकरण: संदेशों को प्रचारात्मक, लेन-देन, सेवा स्पष्ट और सेवा अंतर्निहित में वर्गीकृत किया जाता है जो पंजीकृत होते हैं और प्रत्येक हैडर को एक अद्वितीय हेडर आई डी (Header ID) मिलती है जिसे अन्य डी एल टी प्लेटफ़ॉर्मों पर निर्बाध रूप से साझा किया जाता है। प्लेटफ़ॉर्म पर सभी हेडर और टेम्प्लेट पंजीकृत होने चाहिए।
- सामग्री टेम्पलेट पंजीकरण: संस्थाओं को अपने सभी टेम्पलेट को डी एल टी प्रणाली पर पंजीकृत करना आवश्यक है। प्रत्येक टेम्पलेट को एक अद्वितीय टेम्पलेट आईडी मिलती है जिसे अन्य डी एल टी प्लेटफ़ॉर्मों पर समान रूप से साझा किया जाता है।
भारत में डी एल टी प्लेटफ़ॉर्म पर पंजीकरण की प्रक्रिया:
उद्यम नीचे दिए गए चरणों का पालन करके सीधे डी एल टी प्लेटफ़ॉर्म पर पंजीकरण कर सकते हैं:
- डी एल टी प्लेटफ़ॉर्म पर जाएं - https://dltconnect.airtel.in/
- एक उद्यम के रूप में चयन करके साइन-अप करें,
- अपना व्यवसाय पैन विवरण दर्ज़ करें,
- वह ईमेल पता और पासवर्ड दर्ज़ करें, जिसका उपयोग आप भविष्य में लॉग-इन करने के लिए करेंगे,
- ओटीपी सत्यापन की प्रतीक्षा करें,
- अपने मेलबॉक्स पर भेजे गए लिंक पर क्लिक करके अपना व्यवसाय ईमेल सत्यापित करें,
- साइन-अप प्रक्रिया होने पर, पोर्टल पर लॉगइन करें,
- आवश्यक विवरण और दस्तावेज़ों के साथ फ़ॉर्म पूरा करें,
- पंजीकरण शुल्क का भुगतान करें,
- एक बार पंजीकरण प्रक्रिया पूरी हो जाने पर, एक अस्थायी पंजीकरण संख्या उत्पन्न हो जाएगी,
- प्रस्तुत दस्तावेज़ों की समीक्षा के बाद आपका खाता 48 घंटों में सक्रिय हो जाएगा,
- एक बार आपका खाता सक्रिय हो जाने पर, आप अपनी जानकारी के साथ डी एल टी पैनल पर लॉग इन कर सकते हैं।
डी एल टी पंजीकरण के लिए आवश्यक दस्तावेज़:
- पहचान प्रमाणपत्र - पैन कार्ड (बिज़नेस पैन कार्ड)
- निवास प्रमाणपत्र - जी एस टी प्रमाणपत्र, निगमन प्रमाणपत्र, टैन (TAN) प्रमाणपत्र, एफ़ एस एस ए आई (FSSAI) लाइसेंस, आयात/निर्यात पंजीकरण प्रमाणपत्र
- प्राधिकरण प्रमाणपत्र ।
स्पैम टेलीमार्केटिंग संदेशों और कॉल की समस्या को रोकने के लिए ट्राई द्वारा डी एल टी का उपयोग:
1 अक्टूबर 2024 से, 140xx नंबरिंग श्रृंखला से शुरू होने वाली टेलीमार्केटिंग कॉल को सख्त निगरानी और नियंत्रण के लिए लेजरवितरित खाता प्रौद्योगिकी प्लेटफ़ॉर्म पर स्थानांतरित कर दिया गया है। एक्सेस प्रदाताओं ने प्राप्तकर्ताओं को संदेश भेजने में शामिल संस्थाओं की पता लगाने की क्षमता सुनिश्चित करने के लिए तकनीकी समाधान लागू किए हैं। यह नई प्रणाली यह सुनिश्चित करती है कि संदेश भेजने वाले से लेकर संदेश प्राप्तकर्ता तक संदेश को संभालने वाले प्रत्येक व्यक्ति को ट्रैक किया जाए। इसमें प्रमुख इकाई-टेलीमार्केटर श्रृंखला को परिभाषित किया जाता है जिनके माध्यम से संदेश एक्सेस प्रदाता तक पहुंचते हैं। ट्राई ने 28 अक्टूबर, 2024 के अपने निर्देश के तहत, एक्सेस प्रदाताओं को जल्द से जल्द सभी पीई और टीएम द्वारा पीई-टीएम श्रृंखला घोषणा सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है, और पीई और टीएम जो पीई-टीएम श्रृंखला पर घोषित नहीं हैं, उन्हें 30 नवंबर तक दैनिक आधार पर संबंधित एक्सेस प्रदाताओं द्वारा चेतावनी जारी की जाएगी। 1 दिसंबर 2024 से, कोई भी ट्रैफ़िक (संदेश) जहां टेलीमार्केटर की श्रृंखला परिभाषित नहीं है या पूर्व-निर्धारित श्रृंखला से मेल नहीं खाती है, अस्वीकार कर दिया जाएगा।
संदर्भ
चित्र स्रोत : Wikimedia
आइए जानते हैं, नवाबी दौर में लखनऊ की मुद्राओं का इतिहास और उनका प्रतीकात्मक महत्व
सिद्धान्त I-अवधारणा माप उपकरण (कागज/घड़ी)
Concept I - Measurement Tools (Paper/Watch)
22-05-2025 09:15 AM
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अवध की मुद्रा का इतिहास, बहुत ही दिलचस्प है, जो वहाँ के नवाबों और अन्य शासकों से जुड़ा है । शुरुआत में, अवध की मुद्राएं मुगल सम्राटों के नाम से जारी की जाती थीं, लेकिन जैसे-जैसे अवध के शासकों ने अपनी स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ाया, उन्होंने अपनी मुद्राओं में नए प्रतीक और नाम डाले, जैसे मछली का प्रसिद्ध निशान। यह बदलाव राजनीति और अर्थव्यवस्था में बदलाव को दिखाता है, जो व्यापार, उधारी और बैंकिंग प्रणाली को भी प्रभावित करता था, जैसे कि अवध कमर्शियल बैंक (Oudh Commercial Bank)।
आज हम अवध में मुद्राओं के बदलने और बढ़ने के बारे में जानेंगे। फिर, हम जानेंगे कि नवाब ग़ाज़ी-उद-दीन हैदर के समय लखनऊ में जो मुद्राएं जारी की गईं, वो कैसी थीं। इसके बाद, हम मुगल काल में लखनऊ में उधारी के बारे में भी बात करेंगे। इसमें हम सर्राफ़ों की भूमिका और उनके बैंकिंग में योगदान को समझेंगे। आखिर में, हम अवध कमर्शियल बैंक के इतिहास और उसके महत्व के बारे में भी जानेंगे।
अवध की मुद्राएं
अवध प्रांत का मौद्रिक प्रणाली सोने की अश्रफी, चांदी के रुपये और तांबे के फ़ुलूस से बना था। यह माना जाता है कि क्रांतिकारियों ने नवाब-वज़ारत के नाम पर मुद्राएं जारी की थीं।
लखनऊ में नवाब ग़ाज़ी-उद-दीन हैदर के समय की मुद्राएं
अवध के नवाब मुगल सम्राट के नाम पर राज्य चलाते थे। ग़ाज़ी-उद-दीन हैदर, 11 जुलाई 1814 को अपने पिता नवाब सआदत अली खान की मृत्यु के बाद अवध के नवाब वज़ीर बने। शुरुआत में उन्होंने मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय के नाम पर मुद्राएं जारी कीं, लेकिन 1818 में ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स (Warren Hastings) के प्रभाव में आकर, उन्होंने दिल्ली से स्वतंत्रता की घोषणा की और खुद को “पदशाह-ए-अवध शाह-ए-ज़मान” का शीर्षक दिया। 1819 में वारेन हेस्टिंग्स के मारक्विस ने उन्हें ‘राजा’ का उपाधि दी और 8 अक्टूबर 1819 से वह अवध के पहले स्वतंत्र राजा बने।
ग़ाज़ी-उद-दीन हैदर वह पहले वज़ीर थे जिन्होंने खुद को स्वतंत्र राजा घोषित किया और अपनी शक्ति को दिखाने के लिए उन्होंने मुगल सम्राट के बजाय अपने नाम पर मुद्राएं जारी कीं, जो अहमद हिजरी कैलेंडर के अनुसार (AH 1234-35), यानी ग्रेगोरियन कैलेंडर के हिसाब से 1819-20 के बीच की हैं ।
उनकी मुद्राएं अपने पूर्वजों से पूरी तरह अलग थीं। इन सिक्कों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इनपर बने कोट-ऑफ़-आर्म्स (Coat of arms) थे, जो सिक्के के एक तरफ़ ( ओब्वर्स (obverse)) पर होती थी। इस कोट-ऑफ़-आर्म्स में एक दूसरे को देखती हुई दो मछलियाँ, झंडा पकड़े दो शेर , एक कटारी (छोटी छुरी) जो ऊपर की ओर इशारा कर रही थी, और एक मुकुट की तस्वीरें थीं । उन्होंने सिक्के के दूसरी तरफ़ (रिवर्स (reverse)) पर अपना खुद का शेर लिखा, जो एक काव्य रूप में था, जो बाद में सभी नवाबों द्वारा जारी किया गया। इस कोट-ऑफ़-आर्म्स पर यूरोपीय प्रभाव रॉबर्ट होम, जो अवध के दरबार के चित्रकार थे, के कारण था, जिन्होंने अवध के मुकुट और ताजपोशी के वस्त्र भी डिज़ाइन किए थे।
नवाब ग़ाज़ी-उद-दीन हैदर के शासन के पहले वर्ष में जारी की गई मुद्राओं पर “दार-उस-इमारत लखनऊ” का नाम था। दूसरे वर्ष से यह नाम बदलकर “दार-उस-सल्तनत लखनऊ” कर दिया गया। ये सिक्के ऐतिहासिक दृष्टि से कई ‘पहली बार’ की गवाही देते हैं - अवध के पहले राजा, पहले वर्ष की मुद्राएं, पहली अवध मुद्रा जिसमें कोट-ऑफ़-आर्म्स था, पहली मुद्रा जिसमें ‘दार-उस-इमारत का नाम था आदि।
लखनऊ में मुगल शासन के दौरान उधारी प्रणाली
मुगल काल की विनिमय अर्थव्यवस्था को नकद और उधारी के दो चक्रों के रूप में देखा जा सकता है। पहले चक्र में लेन-देन मुद्रा में (धातु और गैर-धातु) होता था, जिसमें नए आयात और पहले से मौजूद स्टॉक्स शामिल थे। दूसरे चक्र में, भुगतान पूर्वनिर्धारित तारीखों पर उधारी उपकरणों का उपयोग करके किया जाता था। नकद और उधारी के ये चक्र सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में बढ़े, संभवतः सत्रहवीं सदी में अधिक।
यह लेख एक अनोखे पेशेवर समूह, ‘सर्राफ़ों’ (Sarrafs) के बारे में है, जिनके सदस्य इन दोनों चक्रों में शामिल होते थे। वे मूल रूप से धातु परीक्षक और मुद्रा बदलने वाले होते थे, जो बाज़ार में काम करते थे या किसी क्लाइंट (राज्य, गांव समुदाय, शासक वर्ग के सदस्य, व्यापारी) के लिए कार्य करते थे, या दोनों कार्य एक साथ करते थे। नकद का स्वामित्व और उसे संभालने की क्षमता उन्हें अपनी गतिविधियों में विविधता लाने की अनुमति देती थी, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण थी बैंकिंग।
बैंकर्स के रूप में, सार्राफ़ों ने ब्याज पर जमा स्वीकार किए, वाणिज्यिक और उपभोग ऋण दिए, और हंडियों (bill of exchange) और बुक एंट्री (giro) के माध्यम से पैसे को एक स्थान या व्यक्ति से दूसरे स्थान या व्यक्ति तक स्थानांतरित किया। सर्राफ़ों ने भुगतान में ज़ोख़िम कवर करके पैसे और माल के आंदोलन को भी सुगम बनाया, जिसमें आंतरिक, समुद्री और उधारी बीमा शामिल थे।
अवध कमर्शियल बैंक का परिचय
अवध कमर्शियल बैंक एक भारतीय बैंक था, जिसकी स्थापना, 1881 में फैज़ाबाद में हुई थी और यह 1958 में विफल हो गया। यह भारत का पहला वाणिज्यिक बैंक था जिसमें सीमित देनदारी थी और इसका बोर्ड पूरी तरह से भारतीय था। यह एक छोटा बैंक था, जिसके कोई शाखाएँ नहीं थीं और ये केवल स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करता था।
विफल होने से पहले इसने बैंक ऑफ़ रोहिलखंड (या बैंक ऑफ़ रोहिलखण्ड) का अधिग्रहण किया, जिसे रामपुर के यूसुफ़ अली खान, (1832–1887) ने स्थानीय साहूकारों के विरोध के बावजूद बढ़ावा दिया था। बैंक ऑफ़ रोहिलखंड की स्थापना, 1862 में हुई थी, ठीक उसी समय जब बैंकों के लिए सीमित देनदारी को स्वीकार किया गया था। बैंक ऑफ़ रोहिलखंड एक रियासी राज्य द्वारा बढ़ावा दिया गया पहला बैंक था; जो अवध कमर्शियल बैंक जैसा एक छोटा बैंक था।
संदर्भ
मुख्य चित्र में अवध के वाजिद अली शाह के सिक्के का स्रोत : Wikimedia
दुनिया के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक, पारसी धर्म सिखाता है सत्य और पवित्रता का मार्ग
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
21-05-2025 09:28 AM
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लखनऊ के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि पारसी धर्म दुनिया के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक है, जिसकी जड़ें प्राचीन फ़ारस में 3,000 साल से भी अधिक पुरानी हैं। इस धर्म की स्थापना पैगंबर जरथुस्त्र (ज़ोरोस्टर) ने की थी और यह धर्म अपने ईष्ट 'अहुरा मज़्दा' के विचारों पर आधारित है, जो ज्ञान और प्रकाश के प्रतीक माने जाते हैं। पारसी धर्म अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष को केंद्र में रखते हुए, अपने अनुयायियों को सच्चाई, धर्म और अच्छे कर्मों के मार्ग पर चलने का संदेश देता है। समय के साथ, यह धर्म फ़ारस से परे विभिन्न देशों में फैला, और इसने विभिन्न संस्कृतियों और विश्वास प्रणालियों को प्रभावित किया। हमारे देश भारत में भी इस धर्म को मानने वाले असंख्य अनुयायी हैं, जिन्होंने सदियों से इसकी परंपराओं को बरकरार रखा है। तो आइए, आज हम दुनिया के सबसे पुराने धर्मों में से एक, पारसी धर्म के बारे में जानते हुए इसकी उत्पत्ति, ऐतिहासिक जड़ों और विकास पर चर्चा करेंगे। इसके साथ ही, हम पारसी धर्म की प्रमुख मान्यताओं, मूल शिक्षाओं और जीवन मूल्यों को समझने का प्रयास करेंगे। अंत में, हम पारसी धर्म का महत्व समझेंगे।
परिचय:
पारसी धर्म दुनिया के सबसे पुराने ज्ञात धर्मों में से एक है। इसकी उत्पत्ति प्राचीन फ़ारस (वर्तमान ईरान) में हुई थी। इसके अनुयायी मुख्य रूप से ईरान और उत्तरी भारत में हैं। पारसी धर्म पैगंबर ज़ोरोस्टर जिन्हें जरथुस्त्र के नाम से भी जाना जाता है, की शिक्षाओं पर आधारित है। इस धर्म में अहुरा मज़्दा नामक ईष्ट की पूजा की जाती है, जिन्हें सत्य, अच्छाई और प्रकाश का प्रतीक माना जाता है। पारसी लोग अच्छी और बुरी ताकतों के बीच लौकिक युद्ध में विश्वास करते हैं, जिसमें से मनुष्य अपनी इच्छानुसार स्वतंत्र रूप से किसी भी एक का चयन कर सकते हैं।
पारसी धर्म की उत्पत्ति
पारसी धर्म की उत्पत्ति 6वीं या 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व मानी जाती है। ऐसा माना जाता है कि इस धर्म के संस्थापक ज़ोरोस्टर 6ठी या 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व में अस्तित्व में थे, हालांकि इस बारे में सटीक तिथि निश्चित नहीं है। कहा जाता है कि उनका जीवन कुछ रहस्यों से घिरा हुआ था। परंपरा के अनुसार, ज़ोरोस्टर को पारसी धर्म के सर्वोच्च देवता अहुरा मज़्दा से ईश्वरोक्ति अर्थात आकाशवाणी प्राप्त हुई। कुछ विद्वानों का मानना है कि वह छठी शताब्दी ईसा पूर्व में फ़ारसी साम्राज्य के राजा साइरस महान के समकालीन थे, हालांकि अधिकांश पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार उनका समयकाल 1500 और 1200 ईसा पूर्व के बीच होने की संभावना है। ज़ोरोस्टर की शिक्षाओं, भजनों और प्रार्थनाओं को 'गाथा' नामक संग्रह में संकलित किया गया था, जो 'अवेस्ता' (Avesta) नामक बड़े पवित्र ग्रंथ का हिस्सा हैं। अवेस्ता में भजन, अनुष्ठान और दार्शनिक चर्चाएँ शामिल हैं जो पारसी मान्यताओं की नींव हैं। पारसी धर्म में अहुरा मज़्दा को सर्वोच्च और परोपकारी देवता के रूप में माना जाता है। पारसी धर्म द्वैतवाद की अवधारणा प्रमुख है, जहाँ अहुरा मज़्दा अच्छाई की शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि अंगरा मेन्यू (अहरिमन) बुराई की शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन दोनों ताकतों के बीच संघर्ष पारसी ब्रह्मांड विज्ञान का एक प्रमुख पहलू है।
पारसी धर्म का विकास:
8वीं शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास, फ़ारस पर अरब-मुस्लिम विजय और उसके परिणामस्वरूप गैर-मुसलमानों के उत्पीड़न जैसे विभिन्न कारणों से, पारसी लोगों का एक समूह भारतीय उपमहाद्वीप में स्थानांतरित हो गया। यह यकीनन दुनिया का पहला एकेश्वरवादी धर्म है, जो अभी भी अस्तित्व में सबसे पुराने धर्मों में से एक है। पारसी धर्म तीन फ़ारसी राजवंशों का राजकीय धर्म था। पारसी धर्म के दुनिया भर में अनुमानित 100,000 से 200,000 उपासक हैं और ईरान और भारत के कुछ हिस्सों में यह धर्म अल्पसंख्यक धर्म के रूप में प्रचलित है।
पारसी धर्म के सिद्धांत:
- पारसी धर्म एक एकेश्वरवादी विश्वास प्रणाली है, जो एक शक्तिशाली ब्रह्मांडीय इकाई के विचार पर केंद्रित है। इस ब्रह्मांडीय इकाई को अहुरा मज़्दा के नाम से जाना जाता है, जिसे अक्सर फ़ारसी में 'प्रकाश का भगवान' कहा जाता है। पारसी धर्म के मुख्य सिद्धांतों में शामिल हैं:
- मसीहावाद: पारसी धर्म एक 'मसीहा' या उद्धारकर्ता में विश्वास करता है जो लोगों के एक समूह को मुक्ति और शाश्वत मोक्ष दिलाएगा।
- मृत्यु के बाद न्याय: अनुयायियों का मानना है कि सांसारिक जीवन से प्रस्थान करने के बाद, आत्मा अहुरा मज़्दा के न्याय से गुज़रती है। यह उसके स्वर्ग या नर्क में जाने का मार्ग निर्धारित करता है।
- स्वर्ग और नर्क का अस्तित्व: पारसी धर्म में स्वर्ग और नर्क दोनों के अस्तित्व को मान्यता दी गई है और इसके बारे में विस्तृत जानकारी भी मिलती है।
- स्वतंत्र इच्छा: स्वतंत्र इच्छा की अवधारणा इस बात पर ज़ोर देती है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास कार्य करने के विभिन्न संभावित तरीकों में से चुनाव करने की क्षमता होती है। व्यक्ति अच्छे या बुरे कर्मों में से अपनी इच्छानुसार किसी एक का चयन करने के लिए स्वतंत्र है।
पारसी धर्म का महत्व:
पारसी धर्म की विभिन्न मान्यताओं का विभिन्न विचारों पर गहन प्रभाव पड़ा है, जो इस प्रकार समझा जा सकता है:
- सत्य: पारसी धर्म का केंद्रीय विषय सत्य है। मनुष्य में सत्य और असत्य के बीच अंतर करने की मानसिक जागरूकता निहित होती है, साथ ही सही या गलत और अच्छा या बुरा का निर्णय लेने की स्वतंत्र इच्छा भी होती है। एक पारसी बच्चे द्वारा की गई पहली प्रार्थना को ईमानदारी की शपथ माना जाता है। 'अशेम वोहू' प्रार्थना में कहा गया है कि "सच्चाई सबसे बड़ा गुण है।" इस प्रकार पारसी धर्म सच्चाई के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है।
- दान: "यथा अहु वैर्यो" में एक वाक्यांश में कहा गया है, "जो गरीबों की मदद करता है वह भगवान के राज्य को स्वीकार करता है," यह वह पहली प्रार्थना है जो एक पारसी बच्चा सीखता है। इस प्रकार पारसी धर्म लोगों को दान के लिए प्रेरित करता है।
- पवित्रता: पारसी धर्म मानसिक और शारीरिक स्वच्छता को बहुत महत्व देता है। मनुष्य को शारीरिक रूप से स्वच्छ होने के साथ-साथ, अपने मन को भी स्वच्छ करना आवश्यक है।
- श्रम की गरिमा: पारसी धर्म श्रम एवं परिश्रम पर ज़ोर देता है और इस प्रकार लोगों में मेहनत और परिश्रम के प्रति गरिमा का भाव जागृत करता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में बाकू के अग्नि मंदिर का स्रोत : Wikimedia
लखनऊ वासियों, जानिए क्रिकेट से जुड़े नकारात्मक मुद्दे हमारे देश में कैसे बढ़ने लगे?
हथियार व खिलौने
Weapons and Toys
20-05-2025 09:22 AM
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क्रिकेट, हमारे लिए सिर्फ़ एक खेल से बढ़कर एक जुनून है, जो लोगों को एकजुट करता है। हालांकि, क्रिकेट में बढ़ता जुआ, गंभीर चिंताएं उत्पन्न कर रहा है। अवैध सट्टेबाज़ी और मैच-फ़िक्सिंग(Match-fixing), न केवल इस खेल की अखंडता को नुकसान पहुँचाते हैं, बल्कि व्यक्तियों के बीच वित्तीय नुकसान और लत जैसी गंभीर समस्याओं को भी बढ़ाते हैं। सरकार और कानूनन संस्थाएं इन गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए सख्त कार्रवाई कर रही हैं, लेकिन जागरूकता फैलाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इसलिए, आज हम क्रिकेट सट्टेबाज़ी के बारे में संक्षिप्त चर्चा करेंगे। इसके बाद, हम क्रिकेट में सट्टेबाज़ी के इतिहास पर एक नज़र डालेंगे, तथा इसकी उत्पत्ति और विकास का पता लगाएंगे। अंत में, हम यह जानेंगेकि, क्रिकेट सट्टेबाज़ी और जुए के लिए एक केंद्र कैसे बन गया।
क्या क्रिकेट सट्टेबाज़ी, इस खेल के जितनी ही लोकप्रिय है?
क्रिकेट, अब फुटबॉल के बाद दुनिया में दूसरा सबसे लोकप्रिय खेल है। यह मुख्य रूप से यूरोपीय देशों(European countries), यूनाइटेड किंगडम(United Kingdom) और विशेष रूप से भारत में लोकप्रिय है। इसके बावजूद कि, हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है, क्रिकेट हमारे देश में सबसे लोकप्रिय खेल बन चुका है। यह इस तथ्य में स्पष्ट है कि, हमारे पूरे देश में क्रिकेट क्लब्स हैं, औरबच्चों को सड़कों पर भी इसे खेलते हुए देखा जाता है। और तो और, क्रिकेट खिलाड़ी हमारे देश में सेलिब्रिटी जैसे सम्मानित होते हैं।
देश में खेल की ऐसी लोकप्रियता के साथ, यह समझ में आता है कि, क्रिकेट सट्टेबाज़ी भी उतनी ही लोकप्रिय है। इसका एक सबूत यह है कि, ऑनलाइन-यू के(Online-U K) जैसी सट्टेबाज़ी साइट को हर महीने 5000 नए पंजीकरण मिलते हैं, जबकि, हर महीने में केवल भारत से ही यहां 5,00,000 पेज आगंतुक होते हैं।
इंडियन प्रीमियर लीग(Indian Premier League) या आई पी एल के दौरान, विभिन्न ऑनलाइन सट्टेबाज़ी साइट्स पर विशेष रूप से भारतीयों आगंतुकों की बाढ़ आती हैं। हमारे देश में आई पी एल सट्टेबाज़ी, सबसे प्रतीक्षित गतिविधियों में से एक बन चुकी है। आई पी एल, दुनिया भर में सबसे अधिक देखी जाने वाली टूर्नामेंटों की ‘शीर्ष 10’ सूची में है, और इस कारण, दुनिया भर में कई लोग इस टूर्नामेंट की मैचों पर अपने दांव लगाते हैं।
क्रिकेट में सट्टेबाज़ी का संक्षिप्त इतिहास-
खेल के प्रारंभिक काल में, क्रिकेट के विभिन्न प्रादेशिकी संघों पर अमीर लोग जुआ खेलते थे। क्रिकेट पर सट्टेबाज़ी को, फिर ब्रिटिश प्रेस द्वारा अधिक लोकप्रिय बनाया गया था, जो खेल को कवर करने के बजाय, ऑड्स(Odds) की रिपोर्ट करना पसंद करते थे। सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में, यूनाइटेड किंगडम के धनी लोग, अपने दांवों को मज़बूत करने हेतु, अपने खुद के क्रिकेट संघों को भी प्रायोजित करने लगे। जैसे–जैसे यह खेल अधिक लोकप्रिय हो गया, वैसे–वैसे औसत दर्शक किसी क्रिकेट मैच पर सट्टेबाज़ी में अपना हाथ आजमाता गया। इन छोटे दांवों एवं क्रिकेट के नए एवं सरल टूर्नामेंट्स(tournaments) के साथ, जुआ आम अभ्यास हो गया।
क्रिकेट में सट्टेबाज़ी घोटालों की भी अपनी हिस्सेदारी है। कहा जाता है कि, 2000 में, भारत और दक्षिण अफ़्रीका के बीच खेली गई एक मैच में, दक्षिण अफ़्रीकी कप्तान – हैंसी क्रोनजे(Hansie Cronje) ने मैच फ़िक्सिंग के लिए पैसे स्वीकार किए थे। आधुनिक खेलों में कुछ मामले हैं, जो ऐसे मामलों का अनुकरण करते हैं, और दर्शाते हैं कि, सट्टेबाज़ी खेल को कैसे प्रभावित करती है।
आधुनिक युग में विशेष रूप से खेलों में प्रौद्योगिकी का तेज़ विकास, वास्तव में क्रिकेट को भी प्रभावित कर रहा है। इस कारण, ऑनलाइन सट्टेबाज़ी, क्रिकेट पर दांव लगाने का एक आम तरीका बन गया है, जहां मोबाइल ऐप और वेबसाइट सट्टेबाज़ी को आसान बना रहें हैं। इस सुविधा के चलते, क्रिकेट प्रशंसक कभी भी और कहीं भी, मैच पर दांव लगा सकते हैं। प्रौद्योगिकी के कारण, वास्तविक समय के डेटा और इन-प्ले सट्टेबाज़ी(In-play betting) तक पहुंच ने दांव लगाने वाले लोगों के अनुभव को और भी सुलभ कर दिया है।
क्रिकेट जुआ और सट्टेबाज़ी के लिए, एक केंद्र कैसे बन गया?
•लोकप्रियता-
साधारणतः आप उन्हीं खेलों पर दांव लगाते हैं, जो आपका सबसे पसंदीदा है। और बेशक ही, भारत में क्रिकेट का एक बड़ा प्रशंसक आधार है।
•त्वरित लाभ-
इस खेल पर दांव लगाकर, पर्याप्त रकम अर्जित करने के बाद, कई लोगों ने क्रिकेट सट्टेबाज़ी पर ध्यान केंद्रित किया है। देश के कई नागरिक, इसी आशा के साथ सट्टेबाज़ी में उतरते हैं।
•अनगिनत विकल्प-
क्रिकेट पर दांव लगाते समय छोटे से लेकर बड़े, व्यापक विकल्प उपलब्ध हैं। कई खिलाड़ियों द्वारा, ऐसे विकल्पों की उपलब्धता का फ़ायदा उठाया जाता है।
•डेटा उपलब्धता-
इस खेल के बारे में डेटा तक पहुंच, किसी भी सट्टेबाज़ के लिए महत्वपूर्ण है। आज, इंटरनेट सहित कई प्रिंट और डिजिटल संसाधन उपलब्ध हैं, जहां कोई भी क्रिकेट डेटा तक पहुंच सकता है।
•सुविधा-
सट्टेबाज़ी वाली विभिन्न वेबसाइट्स एवं ऐप्स, मोबाइल उपयोगकर्ताओं को सुविधा प्रदान करते हैं। साथ ही, नाममात्र प्रारंभिक भुगतान के कारण, खिलाड़ी तुरंत ही इनका उपयोग कर सकते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pixhive
लखनऊ में हवाई यात्रा को सुरक्षित बनाने के लिए किन आधुनिक तकनीकें का उपयोग होता है ?
सिद्धान्त I-अवधारणा माप उपकरण (कागज/घड़ी)
Concept I - Measurement Tools (Paper/Watch)
19-05-2025 09:24 AM
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लखनऊ के आसमान में उड़ान भरना अब केवल एक सफ़र ही नहीं, बल्कि एक अनुभव बन चुका है! नवाबी तहज़ीब के इस शहर में, जहां हर चीज़ में बारीकी और नज़ाकत है, वहीं हवाई यात्रा भी एक आम ज़रूरत बन गई है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि जब विमान हवा में तैरता है, तो उसकी रफ़्तार और ऊँचाई कैसे मापी जाती है? जिस तरह लखनऊ की मशहूर चिकनकारी में बारीक टांकों की सटीक माप ज़रूरी होती है, ठीक उसी तरह विमान की सुरक्षित उड़ान के लिए पिटोट-स्टेटिक सिस्टम, अल्टीमीटर और जी पी एस जैसे एडवांस उपकरण अहम भूमिका निभाते हैं।
लखनऊ के चौधरी चरण सिंह हवाई अड्डे से उड़ने वाला हर विमान अपनी गति, ऊंचाई और दिशा को नियंत्रित करने के लिए विभिन्न तकनीकों पर निर्भर करता है। पायलट अपनी उड़ान को सुगम बनाने के लिए जी पी एस (GPS), आर एन ए वी (Area Navigation) और डी एम ई (Distance Measuring Equipment) जैसी आधुनिक नैविगेशन प्रणालियों का इस्तेमाल करते हैं, जो उड़ान को सटीक और सुरक्षित बनाते हैं। इतना ही नहीं, हर हवाई जहाज़ में मौजूद 'ब्लैक बॉक्स' (Black Box) वह महत्वपूर्ण डेटा रिकॉर्ड करता है, जो किसी भी दुर्घटना की स्थिति में जांच के लिए बेहद ज़रूरी होता है। इसलिए आज के इस लेख में हम जानेंगे कि हवाई जहाज़ का "स्पीडोमीटर" यानी पिटोट-स्टेटिक सिस्टम (Pitot-static system) कैसे काम करता है, विमान अपनी ऊँचाई को कैसे मापते हैं और इसके पीछे की तकनीक क्या है। फिर, हम उन आधुनिक नैविगेशन सिस्टम्स की चर्चा करेंगे, जिनका इस्तेमाल पायलट उड़ान को कुशलतापूर्वक संचालित करने के लिए करते हैं। अंत में, हम ब्लैक बॉक्स की भूमिका पर नज़र डालेंगे और समझेंगे कि यह कैसे जहाज़ों की सुरक्षा को सुनिश्चित करता है।
हवाई जहाज़ में स्पीडोमीटर कैसे काम करता है?
हवाई जहाज़ और नावों में स्पीड मापने के लिए "पिटोट ट्यूब" नामक एक साधारण उपकरण का उपयोग किया जाता है। यह उपकरण हवा या पानी की गति को मापने के लिए काम आता है। पिटोट ट्यूब का आविष्कार, हेनरी पिटोट (Henri Pitot) ने 1732 में किया था। पिटोट ट्यूब में एक खुला सिरा होता है, जिसे आमतौर पर हवाई जहाज़ के पंख पर लगाया जाता है। यह सिरा हवा या पानी की दिशा में होता है। इस उपकरण का काम वायु धारा और स्थिर सेंसर के बीच दबाव का अंतर मापना होता है।
जब हवाई जहाज़ खड़ा होता है, तो दोनों ट्यूबों में दबाव बराबर होता है, और स्पीडोमीटर शून्य दिखाता है। लेकिन जब हवाई जहाज़ उड़ान भरता है, तो हवा की गति से पिटोट ट्यूब और स्टैटिक ट्यूब के बीच दबाव में अंतर आने लगता है। यह दबाव अंतर स्पीडोमीटर को गति दिखाने के लिए प्रेरित करता है।
जब हवाई जहाज़ की गति बढ़ती है, तो पिटोट ट्यूब के अंत में दबाव भी बढ़ता है। इस बढ़े हुए दबाव के कारण हवा का दबाव एक लचीले डायाफ्राम पर लगता है, जो यांत्रिक सूचक को चलाता है। इस सूचक को हवा या पानी के प्रवाह के हिसाब से समायोजित किया जाता है। आधुनिक हवाई जहाज़ों में, इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम हवा की गति को और सटीक रूप से मापने के लिए ऊंचाई और हवा के तापमान के हिसाब से भी समायोजन करते हैं। इस प्रकार, पिटोट ट्यूब का सरल सिस्टम हवाई जहाज़ की गति मापने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
विमान ऊंचाई कैसे मापते हैं?
जब कोई विमान उड़ता है, तो उसे यह जानना ज़रूरी होता है कि वह ज़मीन से कितनी ऊंचाई पर उड़ रहा है। इसके लिए पायलट अल्टीमीटर (Altimeter) नाम के एक उपकरण का इस्तेमाल करते हैं। यह उपकरण हवा के दबाव को मापकर ऊंचाई बताता है। आमतौर पर, इसे हेक्टोपास्कल (hPa) या पारे के इंच (inHg) में कैलिब्रेट किया जाता है।
लेकिन सिर्फ़ अल्टीमीटर से ऊंचाई मापना काफी नहीं होता। हमें एक डेटम (datum) यानी एक संदर्भ बिंदु की जरूरत होती है, जिससे ऊंचाई को मापा जाए।
अल्टीमीटर सेटिंग के तीन तरीके
अल्टीमीटर को सेट करने के तीन मुख्य तरीके होते हैं:
- QNH (pressure at mean sea level) – यह औसत समुद्र तल से ऊंचाई को मापता है।
- QFE (atmospheric pressure at aerodrome elevation) – यह ज़मीन के स्तर से ऊंचाई मापने के लिए इस्तेमाल होता है।
- QNE (pressure altitude) – इसका उपयोग उच्च ऊंचाई पर उड़ान स्तर (Flight Level) मापने के लिए किया जाता है।
कौन किस सेटिंग का इस्तेमाल करता है ?
छोटे विमान, खासकर जो किसी हवाई अड्डे के आसपास उड़ते हैं, वे क्यू एफ़ ई (QFE) का इस्तेमाल करते हैं। इससे पायलट को पता चलता है कि वे ज़मीन से कितनी ऊंचाई पर हैं।
वाणिज्यिक विमान, जैसे यात्री जहाज़, क्यू एन एच (QNH) का उपयोग करते हैं। इससे उनकी ऊंचाई समुद्र तल से मापी जाती है, जो हवाई यातायात नियंत्रण (Air Traffic Control) के लिए ज़्यादा सुविधाजनक होता है।
क्यू एन एच के साथ समस्या क्या है?
जब विमान बहुत ऊंचाई पर उड़ते हैं, तो हवा का दबाव अलग-अलग इलाकों में बदलता रहता है। यह ऊंचाई मापने में गड़बड़ी पैदा कर सकता है। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि दो विमान उड़ रहे हैं। दोनों के अल्टीमीटर 10,000 फीट दिखा रहे हैं, लेकिन एक इलाके में हवा का दबाव 1000 hPa है और दूसरे में 1004 hPa। दबाव में इस मामूली अंतर की वजह से दूसरा विमान असल में पहले वाले से 112 फीट ज़्यादा ऊंचा होगा, जबकि दोनों को 10,000 फीट दिख रहा है!
अगर हर विमान अपने-अपने इलाके के क्यूएनएच पर चलता, तो हर किसी के लिए 10,000 फीट की ऊंचाई अलग-अलग होती। इससे हवाई यातायात नियंत्रण के लिए विमान ट्रैक करना बहुत मुश्किल हो जाता।
इस समस्या से निपटने के लिए क्यूएनएच सेटिंग का उपयोग किया जाता है। इसे फ़्लाइट लेवल (FL) कहा जाता है। उदाहरण के लिए, FL100 का मतलब होता है 10,000 फीट की ऊंचाई, लेकिन यह एक मानक दबाव (1013.25 hPa) पर आधारित होती है।
जब विमान एक निश्चित ऊंचाई से ऊपर जाते हैं, तो वे स्थानीय दबाव की बजाय मानक दबाव का उपयोग करने लगते हैं। इससे सभी विमानों के लिए एक समान ऊंचाई मापने का तरीका बन जाता है और टकराने का खतरा कम हो जाता है।
पायलट विमान को कैसे नैविगेट करते हैं?
जब भी कोई पायलट विमान उड़ाता है, तो उसे सही रास्ते पर बनाए रखने के लिए कई तरह की नैविगेशन तकनीकों का इस्तेमाल करना पड़ता है। पहले के ज़माने में पायलट नक्शे, कंपास और ज़मीन के दृश्य चिन्हों (जैसे पहाड़, नदियाँ) पर निर्भर रहते थे। लेकिन आज की आधुनिक तकनीकों ने नैविगेशन को और आसान और सटीक बना दिया है। अब पायलट जी पी एस, जड़त्वीय नैविगेशन सिस्टम और उड़ान प्रबंधन प्रणाली जैसे एडवांस टूल्स का उपयोग करते हैं।
नैविगेशन का मुख्य उद्देश्य क्या होता है?
विमान को सही दिशा में और सुरक्षित तरीके से ले जाना ही पायलट का मुख्य काम होता है। इसके लिए उन्हें हमेशा यह जानना ज़रूरी होता है कि उनका विमान इस समय कहाँ है और किस दिशा में जा रहा है।
यह जानकारी हासिल करने के लिए वे अलग-अलग उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं, जैसे:
अल्टीमीटर – विमान की ऊँचाई बताता है।
एयरस्पीड इंडिकेटर – विमान की गति दिखाता है।
वर्टिकल स्पीड इंडिकेटर – यह बताता है कि विमान कितनी तेजी से ऊपर या नीचे जा रहा है।
ये उपकरण पायलट को उड़ान के दौरान ज़रूरी जानकारी देते हैं, जिससे वे सही निर्णय ले पाते हैं।
आधुनिक पायलट केवल पुराने तरीकों पर निर्भर नहीं रहते। नई टेक्नोलॉजी ने नैविगेशन को पहले से ज़्यादा आसान और सुरक्षित बना दिया है।
आइए, अब कुछ अहम नैविगेशन सिस्टम के बारे में जानते हैं :
1. जी पी एस नैविगेशन: जी पी एस (ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम) एक उपग्रह-आधारित नैविगेशन सिस्टम है। यह पायलट को सटीक स्थान और दिशा की जानकारी देता है। आज लगभग हर पायलट इस सिस्टम का उपयोग करता है, क्योंकि यह तेज़, विश्वसनीय और बहुत सटीक होता है।
2. आर एन ए वी (RNAV) नैविगेशन: आरएनएवी (एरिया नैविगेशन) एक उन्नत प्रणाली है जो पायलट को तयशुदा हवाई मार्गों पर निर्भर रहने की ज़रूरत को खत्म कर देती है। यह ग्राउंड-आधारित रेडियो सिग्नल या सैटेलाइट डेटा के जरिए विमान को किसी भी वांछित मार्ग पर उड़ाने में मदद करता है।
3. डी एम ई नैविगेशन: डीएमई (डिस्टेंस मेजरिंग इक्विपमेंट) एक रेडियो-आधारित नैविगेशन सिस्टम है। यह पायलट को यह बताता है कि उसका विमान ज़मीन पर स्थित डी एम ई स्टेशन से कितनी दूरी पर है। इससे पायलट को यह तय करने में आसानी होती है कि वे सही रास्ते पर हैं या नहीं।
आइए अब जानते हैं कि हवाई जहाज़ का ब्लैक बॉक्स कैसे जानकारी रिकॉर्ड करता है?
जब भी किसी विमान दुर्घटना की जांच होती है, तो “ब्लैक बॉक्स” सबसे ज़रूरी चीज होती है! यह डिवाइस विमान की उड़ान से जुड़ी हर अहम जानकारी को रिकॉर्ड करता है, जिससे दुर्घटना के कारणों को समझने में मदद मिलती है। लेकिन ब्लैक बॉक्स आखिर काम कैसे करता है? आइए, इसे आसान भाषा में समझते हैं।
1) फ़्लाइट डेटा रिकॉर्डर (FDR) क्या करता है ?
एफ़एफ़ डी आर, यानी फ़्लाइट डेटा रिकॉर्डर (Flight Data Recorder), विमान की कई अहम प्रणालियों से डेटा इकट्ठा करता है। यह उड़ान नियंत्रण, नैविगेशन सिस्टम और इंजन के प्रदर्शन से जुड़ी जानकारी रिकॉर्ड करता है। इस डेटा को एक सॉलिड-स्टेट मेमोरी डिवाइस में स्टोर किया जाता है, जिसे दुर्घटना के झटकों और आग के उच्च तापमान को सहने के लिए खास तौर पर बनाया गया है।
एफ़एफ़ डी आर की मदद से विमान की गति, ऊंचाई और उड़ान पथ को फिर से ट्रैक किया जा सकता है। इससे जांचकर्ताओं को यह समझने में मदद मिलती है कि दुर्घटना से पहले विमान में क्या हो रहा था।
2) कॉकपिट वॉइस रिकॉर्डर (CVR) कैसे काम करता है?
ब्लैक बॉक्स का दूसरा अहम हिस्सा है सी वी आर, जिसे कॉकपिट वॉइस रिकॉर्डर (Cockpit Voice Recorder) भी कहा जाता है। यह कॉकपिट में होने वाली हर आवाज़ को रिकॉर्ड करता है, जिसमें पायलटों की बातचीत, अलार्म, रेडियो संचार और बैकग्राउंड की अन्य आवाज़ें शामिल होती हैं।
ये ऑडियो रिकॉर्डिंग्स दुर्घटना की जांच में बेहद ज़रूरी होती हैं। अगर पायलटों ने किसी तकनीकी खराबी की चर्चा की हो या कोई संदिग्ध आवाज़ सुनी गई हो, तो इससे दुर्घटना के कारणों को समझने में आसानी होती है।
3) ब्लैक बॉक्स को विमान के टेल सेक्शन में क्यों लगाया जाता है?
अक्सर ब्लैक बॉक्स को विमान के पिछले हिस्से (टेल सेक्शन) में लगाया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि किसी भी दुर्घटना में विमान का यह हिस्सा सबसे ज़्यादा सुरक्षित रहने की संभावना रखता है।
ब्लैक बॉक्स को बहुत मजबूत बनाया जाता है। यह भारी टक्कर, तेज गर्मी और गहरे पानी में दबाव सहने के लिए तैयार किया जाता है। यहां तक कि अगर विमान समुद्र में गिर जाए, तब भी यह डिवाइस डेटा को सुरक्षित रखता है।
4) दुर्घटना के बाद ब्लैक बॉक्स का क्या होता है ?
किसी भी दुर्घटना के बाद ब्लैक बॉक्स को ढूंढना प्राथमिकता होती है। इसे मिलते ही जांच दल इस डिवाइस का डेटा निकालता है और फिर उसकी गहराई से जांच करता है।
एफ़एफ़ डी आर और सी वी आर से मिली जानकारी को विमान के रखरखाव रिकॉर्ड, मौसम की स्थिति और रडार डेटा के साथ मिलाकर विश्लेषण किया जाता है। इससे जांचकर्ता यह पता लगा सकते हैं कि दुर्घटना का असली कारण क्या था।
संदर्भ
मुख्य चित्र में बोइंग 737-4Q8 कॉकपिट का स्रोत : Wikimedia
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18-05-2025 09:00 AM
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लखनऊ वासियों, हमारे शहर से लगभग 230 किलोमीटर दूर मध्य प्रदेश में स्थित चित्रकूट, एक प्रसिद्ध धार्मिक और पर्यटन स्थल है, जो अपने गहरे आध्यात्मिक महत्व और प्राकृतिक सौंदर्य के कारण पर्यटकों को आकर्षित करता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान राम ने, माता सीता और अपने भाई लक्ष्मण के साथ, अपने 14 वर्षों के वनवास का एक लंबा समय यहीं बिताया था। यही कारण है कि यह स्थान, हिंदू श्रद्धालुओं के लिए अत्यंत पवित्र माना जाता है। चित्रकूट, हरे-भरे जंगलों, मंदाकिनी नदी और विंध्य पर्वतमाला की सुंदरता से घिरा हुआ है, जिसके कारण यह गर्मियों की छुट्टियों के लिए भी एक आदर्श गंतव्य है। लखनऊ से चित्रकूट जाने के लिए सड़क मार्ग से लगभग 5–6 घंटे या ट्रेन से 6–7 घंटे लगते हैं। यदि आप एक दिन में चित्रकूट के सभी दर्शनीय स्थलों की यात्रा करना चाहते हैं, तो सबसे पहले कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करें, जिसे भगवान राम का निवास स्थान माना जाता है। इसके बाद मंदाकिनी नदी के किनारे स्थित रामघाट जाएँ, माना जाता है कि यहां तुलसीदास को भगवान राम के दर्शन हुए थे। इसके बाद, हनुमान धारा के दर्शन करें, जो एक पवित्र जलधारा स्थल है। कहावत है कि जब हनुमान जी लंका जलाकर इस स्थान पर अपनी जलती पूंछ बुझाने आए थे, तो भगवान राम ने उन्हें शांत करने के लिए एक चट्टान पर तीर चलाया, जिससे जलधारा फूट पड़ी। यह स्थल हनुमान भक्तों के लिए अत्यंत पवित्र माना जाता है। फिर, गुप्त गोदावरी गुफ़ाओं का भ्रमण करें, जो एक अद्भुत प्राकृतिक चमत्कार हैं। इसके अलावा, भरतकूप, सती अनुसुइया आश्रम, स्फ़टिक शिला जैसे स्थान भी अवश्य देखने लायक हैं। यदि आप केवल एक दिन में चित्रकूट का भ्रमण कर रहे हैं, तो यात्रा सुबह जल्दी शुरू करें। यात्रा के अंत में रामघाट पर शाम की आरती का अनुभव अवश्य लें, जो अत्यंत शांत और आध्यात्मिक होता है। तो आइए, आज कुछ चलचित्रों के माध्यम से चित्रकूट की सुंदरता से अवगत हों। हम शुरुआत में एक संपूर्ण वीडियो-आधारित मार्गदर्शिका देखेंगे, जो हमें इस आध्यात्मिक गंतव्य से विस्तार से परिचित कराएगी। इसके बाद, हम चित्रकूट धाम का भ्रमण करेंगे, जहां हम राम घाट, गुप्त गोदावरी गुफ़ाएँ, सती अनुसया मंदिर, हनुमान धारा स्फ़टिक शिला आदि जैसे लोकप्रिय स्थानों का दौरा करेंगे। इसके अलावा, हम एक अन्य वीडियो क्लिप के ज़रिए यह भी पता लगाएंगे कि केवल एक दिन में चित्रकूट के सभी मुख्य आकर्षणों का अनुभव कैसे करें, ताकि आप इस यात्रा का आध्यात्मिक लाभ पूरी तरह उठा सकें।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/2sk359r4
लखनऊ के युवाओं को मानसिक और शारीरिक रूप से कमज़ोर कर रहा है, उच्च रक्तचाप
विचार 2 दर्शनशास्त्र, गणित व दवा
Thought II - Philosophy/Maths/Medicine
17-05-2025 09:20 AM
Lucknow-Hindi

हमारे शहर की तंग गलियों से लेकर नवाबी इमारतों तक, इस शहर की पहचान सिर्फ़ इसकी तहज़ीब और तमीज़ से नहीं, बल्कि यहाँ के लोगों की सेहत से भी जुड़ी है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसी शहर के हर चौक-चौराहे, हर गली-मोहल्ले में एक खामोश बीमारी चुपचाप पैर पसार रही है? इस बिमारी का नाम है "उच्च रक्तचाप, यानी हाई ब्लड प्रेशर (High Blood Pressure)।" यह बीमारी अक्सर बिना किसी चेतावनी के शरीर को अपनी गिरफ़्त में ले लेती है। इसके लक्षण इतने मामूली और सामान्य होते हैं कि ज़्यादातर लोगों को इसका एहसास तक नहीं होता। लेकिन अगर इसे नजरअंदाज़ किया जाए, तो यह दिल के दौरे (Heart Attack) और स्ट्रोक (Stroke) जैसी जानलेवा स्थितियों का कारण बन सकती है। हर साल लखनऊ में हज़ारों लोग इस 'साइलेंट किलर' (silent killer) की चपेट में आ रहे हैं। खासकर जब उम्र 35 के पार पहुंचती है, तो इसका ख़तरा और भी बढ़ जाता है। लखनऊ मेडिकल कॉलेज और शहर के विभिन्न अस्पतालों की रिपोर्ट्स इस बात की पुष्टि करती हैं कि यह केवल एक स्वास्थ्य समस्या नहीं, बल्कि एक व्यापक सामाजिक चुनौती बन चुकी है। इसके बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सरकार और स्थानीय संगठनों ने सक्रिय कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन, स्कूलों में जागरूकता अभियान और मोहल्ला सभाओं के माध्यम से लोगों को नियमित जांच कराने की सलाह दी जा रही है। आज के इस लेख में हम भारत में तेज़ी से बढ़ते उच्च रक्तचाप के मामलों को गहराई से समझने की कोशिश करेंगे। विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, और उसमें भी लखनऊ में इस समस्या की गंभीरता पर चर्चा करेंगे। साथ ही, हम यह भी जानेंगे कि इस संकट से निपटने के लिए सरकार और सामाजिक संगठनों द्वारा क्या प्रयास किए जा रहे हैं। अंत में, हम समझेंगे कि 'विश्व उच्च रक्तचाप दिवस' क्यों महत्वपूर्ण है, और यह दिन कैसे वैश्विक स्तर पर लोगों को सचेत करने का काम करता है।
उच्च रक्तचाप होता क्या है?
अमेरिकन कॉलेज ऑफ़ कार्डियोलॉजी (ACC) के अनुसार, अगर सिस्टोलिक प्रेशर 130 mmHg या उससे ज़्यादा और/या डायास्टोलिक प्रेशर 80 mmHg से ऊपर है, तो यह उच्च रक्तचाप माना जाता है। भारत उच्च रक्तचाप के एक ऐसे खतरनाक स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है, जो हर साल लाखों ज़िंदगियों को ख़तरे में डाल रहा है। देश में 30 से 79 वर्ष की आयु के लगभग 188.3 मिलियन वयस्क इस "साइलेंट किलर" से प्रभावित हैं, और ये संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। हालाँकि भारत में उच्च रक्तचाप का प्रचलन वैश्विक औसत 31% से थोड़ा कम है, लेकिन इसकी बढ़ती गति गंभीर चिंता का कारण है। अगर अभी ठोस कदम न उठाए गए, तो स्थिति और भयावह हो सकती है।
भारत को ज़रूरत है कि हम 67 मिलियन अतिरिक्त मरीज़ों तक प्रभावी इलाज पहुँचाए, ताकि हम 50% नियंत्रण दर हासिल कर सकें। अगर हम अभी सही दिशा में आगे बढ़ें, तो 2040 तक 4.6 मिलियन मौतों को टाला जा सकता है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि भारत में लगभग 80% मरीज़ो को सही इलाज नहीं मिल रहा। लेकिन अगर समय पर और सही इलाज दिया जाए, तो 2050 तक 76 मिलियन मौतें, 120 मिलियन स्ट्रोक, 79 मिलियन हार्ट अटैक और 17 मिलियन हार्ट फेल्योर को रोका जा सकता है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS)-6 ने यह गंभीर चेतावनी दी है कि उत्तर प्रदेश में हर चार में से एक व्यक्ति उच्च रक्तचाप से पीड़ित है। ये आंकड़े सिर्फ़ नंबर नहीं, बल्कि एक तेज़ी से बढ़ते स्वास्थ्य खतरे की गूंज हैं। उच्च रक्तचाप को यूं ही "साइलेंट किलर" नहीं कहा जाता! यह चुपचाप हमारे दिल, दिमाग, आंखों और गुर्दों जैसे अहम अंगों को नुकसान पहुंचाता है, और कई बार इसका पता तब चलता है जब बहुत देर हो चुकी होती है।
सबसे खतरनाक पहलू ये है कि अधिकतर लोग अपनी स्थिति से अनजान रहते हैं, जिससे उनका जोखिम स्ट्रोक और हार्ट अटैक जैसी गंभीर स्थितियों के लिए और भी बढ़ जाता है। भारत सरकार (IHCi) जैसे कार्यक्रमों के ज़रिए इस संकट से निपटने के लिए तेज़ी से काम कर रही है, ताकि 2025 तक 75 मिलियन लोगों को बेहतर और मानक स्वास्थ्य सेवाएं मिल सकें।
चौंकाने वाली बात यह भी है कि अब सिर्फ़ वयस्क ही नहीं, 15–20% बच्चे भी उच्च रक्तचाप की चपेट में आ रहे हैं। ये संकेत हैं कि यह अब सिर्फ़ एक बीमारी नहीं, बल्कि एक वैश्विक स्वास्थ्य आपदा बनता जा रहा है। जो लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं, उनके लिए हृदय रोगों का खतरा दोगुना हो जाता है। यह धीरे-धीरे शरीर के सबसे अहम हिस्सों को निशाना बनाती है, और जब तक इसके लक्षण सामने आते हैं, तब तक शरीर गहरी चोट खा चुका होता है। आज की बदलती दुनिया में किशोरों की जीवनशैली एक गंभीर मोड़ पर पहुँच गई है, जहाँ शारीरिक गतिविधियाँ तेज़ी से घट रही हैं, और हेल्दी खानपान की जगह अस्वस्थ आदतों ने ले ली है।
फल और सब्ज़ियों का सेवन लगातार कम हो रहा है, जबकि तंबाकू और नशीली चीज़ों का सेवन खतरनाक रूप से बढ़ रहा है। यही नहीं, मोटापा, घंटों बैठे रहने की आदत और नशे की लत अब किशोरों में उच्च रक्तचाप जैसी गंभीर बीमारियों का बड़ा कारण बन रही है। पहले जो सिर्फ़ वयस्कों की बीमारी मानी जाती थी, आज वह प्राथमिक उच्च रक्तचाप बच्चों में भी सामने आ रही है! यह बदलाव वाकई चौंकाने वाला और चिंता का विषय बन गया है। भारत इस समय एक और बड़े संकट से जूझ रहा है! देश में लगभग 22 करोड़ वयस्क उच्च रक्तचाप से पीड़ित हैं। लेकिन आज भी इस बीमारी के निदान, इलाज और नियंत्रण के बीच एक गहरी खाई बनी हुई है। और इस खाई की सबसे बड़ी वजह है जागरूकता की कमी।
इस चुनौती से निपटने का सबसे प्रभावी तरीका है:
- स्वस्थ जीवनशैली अपनाएं।
- फल और सब्ज़ियों को रोज़ाना की डाइट में शामिल करें।
- हर दिन कम से कम 30 से 60 मिनट तक शारीरिक गतिविधि ज़रूरी है।
- बच्चों को बाहर खेलने और एक्टिव रहने के लिए प्रोत्साहित करें
तनाव आज की ज़िंदगी का एक हिस्सा बन गया है! इसलिए इससे सकारात्मक रूप से निपटना और खुद को मानसिक रूप से लचीला बनाना, हमारी सबसे अहम ज़रूरत बन चुका है। हमें अपने बच्चों को न सिर्फ़ मुश्किल हालातों का सामना करना सिखाना होगा, बल्कि ये भी समझाना होगा कि मानसिक मजबूती ही किसी भी संघर्ष में सबसे बड़ा हथियार होती है।
विश्व उच्च रक्तचाप दिवस (World Hypertension Day), हर साल 17 मई को पूरी दुनिया में मनाया जाता है। यह कोई सामान्य आयोजन नहीं, बल्कि एक अहम अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन है, जो हमें उच्च रक्तचाप जैसे "मूक हत्यारे" से समय रहते सतर्क रहने की चेतावनी देता है। इस दिन का मकसद लोगों को यह एहसास दिलाना है कि उच्च रक्तचाप एक गंभीर वैश्विक स्वास्थ्य खतरा है। साथ ही उन्हें यह भी समझाना है कि इससे जुड़ी घातक बीमारियों जैसे हार्ट अटैक और स्ट्रोक से कैसे बचा जा सकता है। और यह जानकारी देना कि हम इसकी पहचान, रोकथाम और इलाज कैसे कर सकते हैं।
इन लक्ष्यों को साकार करने के लिए, दुनिया भर के डॉक्टर, हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन (Health Organization), मीडिया और स्वयंसेवी संस्थाएं (NGO’s) मिलकर काम कर रही हैं, ताकि जानकारी और संसाधनों को हर व्यक्ति तक पहुँचाया जा सके।
विश्व उच्च रक्तचाप दिवस की ज़रूरत क्यों पड़ी?
क्योंकि उच्च रक्तचाप धीरे-धीरे, बिना किसी लक्षण के शरीर को अंदर से नुकसान पहुँचाता है। इसे यूँ ही "साइलेंट किलर" नहीं कहा जाता। अगर समय रहते ध्यान न दिया जाए, तो यह हार्ट फ़ेलियर, स्ट्रोक और मायोकार्डियल इंफार्क्शन जैसी बीमारियों की वजह बन सकता है।
आज दुनिया में 100 करोड़ से ज़्यादा लोग यानी हर दूसरा वयस्क इससे प्रभावित है। यह खतरा न उम्र देखता है, न समाज या आर्थिक स्थिति। विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट्स बताती हैं कि 1990 से ही यह मृत्यु और विकलांगता का एक बड़ा कारण बना हुआ है। अनुमान है कि 2025 तक 15-20% की तेज़ बढ़त के साथ यह संख्या बढ़कर 150 करोड़ तक पहुँच सकती है!
इसलिए, अब ज़रूरत है कि हम इस खतरे को सिर्फ़ पहचानें नहीं, बल्कि उससे पहले ही एक कदम आगे चलें। उच्च रक्तचाप को समय रहते रोकना, उससे जुड़ी बीमारियों से लड़ने से कहीं बेहतर है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में रक्तचाप जाँच का स्रोत : Wikimedia
संस्कृति 2048
प्रकृति 699