लखनऊ - नवाबों का शहर












आज हम लखनऊ वासी गोता लगाएंगे, रबींद्रनाथ टैगोर के जीवन तथ्यों के चलचित्रों में
ध्वनि 2- भाषायें
Sound II - Languages
04-05-2025 09:04 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, हम सभी जानते हैं कि, रबींद्रनाथ टैगोर भारत के महानतम कवियों, लेखकों और विचारकों में से एक थे। वर्ष 1913 में, अपने प्रसिद्ध कार्य – ‘गीतांजलि’ के लिए साहित्य में नोबेल पुरस्कार(Nobel Prize) जीतने वाले, वे पहले एशियाई व्यक्ति थे। टैगोर के लेखन, गीत और विचारों ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और सांस्कृतिक पहचान को गहराई से प्रभावित किया है। हमारे देश भारत के राष्ट्रगान – “जन गण मन” सहित, उनकी अन्य रचनाओं को आज भी याद किया जाता है।
रबींद्रनाथ टैगोर, विभिन्न प्रतिभाओं में संपन्न थे। उन्हें अपने साहित्यिक कार्यों – कविता, दर्शन, नाटकों और विशेष रूप से, गीत लेखन के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। रबींद्रनाथ टैगोर वह व्यक्ति थे, जिन्होंने हमारे भारत देश को राष्ट्रगान भी दिया है। वे हमारे समय के सबसे बड़े महापुरुषों में से एक थे, और नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले एकमात्र भारतीय भी है।
रबींद्रनाथ टैगोर को 1913 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, जो यह सम्मान प्राप्त करने वाले पहले गैर-यूरोपीय भी थे। क्या आप जानते हैं कि, वे केवल सोलह वर्ष के थे, जब उनकी अपनी पहली लघु कहानी – “भानुसिंह” प्रकाशित की गई थी। उनका जन्म 07 मई, 1861 को कोलकाता में हुआ था। टैगोर, ब्रह्म समाज के सक्रिय सदस्यों में से एक थे, एवं देबेंद्रनाथ टैगोर के पुत्र थे। हालांकि, इस महान व्यक्ति ने 7 अगस्त 1941 को एक लंबी बीमारी के चलते अपनी अंतिम सांस ली।
आज रविवार के दिन, हम कुछ चलचित्रों के माध्यम से रबींद्रनाथ टैगोर के बारे में अधिक रोचक तथ्य जानने की कोशिश करेंगे। हम उनके शुरुआती जीवन के बारे में जानकारी बताते हुए लेख की शुरूआत करेंगे। फिर अंत में, हम साहित्य में उनके योगदान के बारे में पढ़ेंगे।
रबीन्द्रनाथ टैगोर के जीवन परिचय के बारे में जानने के लिए ऊपर दिए गए चलचित्र की मदद ले सकते हैं।
उनके जीवन, नोबेल पुरस्कार तथा अन्य कार्यों को बेहतर समझने के लिए नीचे दिए गए चलचित्र आपकी मदद करेंगे।
संदर्भ:
https://tinyurl.com/yc29vm89
https://tinyurl.com/ys8hefa2
https://tinyurl.com/48cv4kdc
https://tinyurl.com/mvt36fhk
लखनऊ के अवध पंच से लेकर आधुनिक अख़बारों तक, पत्रकारिता का बदलता चेहरा!
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
03-05-2025 09:11 AM
Lucknow-Hindi

हमारा शहर लखनऊ सिर्फ़ एक शहर नहीं है, तहज़ीब और इल्म की जीती-जागती मिसाल है। यहाँ की गलियों में इत्र की ख़ुशबू बसी है, और अख़बारों की सुर्खियाँ भी सुबह-सुबह लोगों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन जाती हैं। यहाँ घटने वाली एक छोटी से छोटी घटना भी ख़बर में तब्दील हो जाती है! अब्दुल मियां सुबह की पहली चाय के साथ ही अख़बार की सारी ताज़ा ख़बरों को टटोल लेते हैं! अख़बार पढ़ने के बाद वे गली के सबसे ‘ख़बरदार’ आदमी लगने लगते हैं, जो हर बड़ी-छोटी ख़बर से वाक़िफ़ रहते हैं। इससे पता चलता है कि प्रेस महज़ ख़बरों का ज़रिया नहीं, बल्कि समाज को जागरूक करने और बदलाव लाने का हथियार है। अख़बार, टी वी और डिज़िटल मीडिया (Digital Media) ही वो कड़ी हैं, जो आम आदमी को राजनीति से लेकर गली-मोहल्ले की हलचल तक, हर अहम मुद्दे से जोड़े रखते हैं। एक स्वतंत्र और ज़िम्मेदार प्रेस न केवल जनता की आवाज़ बनती है, बल्कि सरकार को जवाबदेह ठहराकर शासन में पारदर्शिता भी लाती है।
लखनऊ की पत्रकारिता का इतिहास भी कम रोशन नहीं है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यहाँ के पत्रकारों ने अपनी कलम को हथियार बना लिया था। ‘अवध पंच’ जैसे अख़बारों ने अपने तीखे व्यंग्य और बेख़ौफ़ लेखनी से ब्रिटिश हुकूमत की नींद उड़ा दी थी। आज भी लखनऊ की पत्रकारिता सामाजिक मुद्दों को उठाकर नागरिकों को जागरूक करती है और उन्हें सही फ़ैसले लेने की ताकत देती है। लोकतंत्र में प्रेस को यूँ ही "चौथा स्तंभ" नहीं कहा जाता। यह सरकार और जनता के बीच संतुलन बनाए रखने वाला अहम माध्यम है। इसकी मौज़ूदगी एक स्वस्थ, निष्पक्ष और मज़बूत समाज के लिए बेहद ज़रूरी है।
इसलिए आज के इस लेख में हम भारत में प्रेस के इतिहास को समझेंगे! इसके तहत हम देखेंगे कि समय के साथ इसका विकास कैसे हुआ। फ़िर, हम औपनिवेशिक शासन के दौर में प्रेस के योगदान पर नज़र डालेंगे और जानेंगे कि कैसे इसने स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक जागरूकता में अहम भूमिका निभाई। अंत में, हम देखेंगे कि आधुनिक दौर में पत्रकारिता का समाज, लोकतंत्र और शासन पर क्या प्रभाव पड़ता है।
भारतीय पत्रकारिता की शुरुआत कब हुई थी?
भारत में पत्रकारिता की नींव 18वीं सदी में रखी गई थी। 1780 में जेम्स ऑगस्टस हिकी (James Augustus Hickey) ने देश का पहला समाचार पत्र 'बंगाल गजट' (Bengal Gazette) प्रकाशित किया। यह अख़बार अंग्रेज़ी में था और इसकी केवल 400 प्रतियाँ ही छपती थीं। हालाँकि इसे पढ़ने वाले बहुत कम लोग थे, लेकिन इसने भारतीय प्रेस के लिए नई राह खोल दी।
शुरुआती दौर में ज़्यादातर समाचार पत्रों का संचालन ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के हाथ में था। ये अख़बार मुख्यतः अंग्रेज़ शासकों के समर्थन में प्रकाशन करते थे, जिसमें आम भारतीयों की समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे राष्ट्रवादी आंदोलन तेज़ हुआ, वैसे-वैसे भारतीय पत्रकारों ने ब्रिटिश प्रभुत्व को चुनौती देनी शुरू कर दी। उन्होंने ऐसे समाचार पत्र निकाले, जो भारतीय जनता की आवाज़ बनने लगे।
1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय पत्रकारिता के लिए एक बड़ा बदलाव लेकर आया। उस समय तक मीडिया पर अंग्रेज़ों का पूर्ण नियंत्रण था, लेकिन विद्रोह के बाद भारतीयों द्वारा संचालित अख़बारों की संख्या बढ़ने लगी।
इन अख़बारों ने अंग्रेज़ों के अत्याचारों को उज़ागर किया और जनता को उनके ख़िलाफ़ जागरूक किया। पत्रकारों ने विद्रोह की ख़बरें और ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियाँ लोगों तक पहुँचाईं, जिससे विरोध की भावना और अधिक भड़क उठी। इस दौर में प्रेस, स्वतंत्रता संग्राम का एक मज़बूत हथियार बन गया।
20वीं सदी में भारत में राष्ट्रवादी पत्रकारिता ने तेज़ रफ़्तार पकड़ी। इस दौर में 'द हिंदू (The Hindu)', 'द इंडियन एक्सप्रेस (The Indian Express)' और 'अमृत बाज़ार पत्रिका' जैसे अख़बारों ने ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई।
इन समाचार पत्रों ने भारतीयों की समस्याओं, संघर्षों और आकांक्षाओं को प्रमुखता से प्रकाशित किया। उन्होंने जनता को स्वतंत्रता संग्राम के लिए जागरूक किया और समर्थन जुटाने में अहम भूमिका निभाई।
20वीं सदी के मध्य में पत्रकारिता के माध्यमों में बड़ा बदलाव आया। 1936 में ऑल इंडिया रेडियो (All India Radio) की स्थापना हुई, जिसने समाचार और सूचनाओं को देशभर में पहुँचाने का काम किया। रेडियो की वजह से ख़बरें तेज़ी से लोगों तक पहुँचने लगीं। 1950 के दशक में भारत में टेलीविज़न (Television) आया, जिसने पत्रकारिता का दायरा और भी बढ़ा दिया। दृश्य और ध्वनि के माध्यम से ख़बरें दिखाने का यह तरीक़ा जनता तक सूचना पहुँचाने में बेहद प्रभावी साबित हुआ।
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन (1870-1918) के दौर में भारतीय प्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम को गति देने में अहम भूमिका निभाई। उस समय भारतीय मीडिया का मुख्य उद्देश्य जनता में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करना था। प्रेस ने न केवल सरकार की राजनीतिक नीतियों पर चर्चा की, बल्कि निरक्षरता के खिलाफ़ जागरूकता फ़ैलाने, जन आंदोलनों को प्रेरित करने और सरकार के खिलाफ़ खुली बहस का मंच भी तैयार किया।
- ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में प्रभाव: उस समय अख़बारों का प्रभाव केवल शहरों तक सीमित नहीं था। वे दूर-दराज के गाँवों तक भी पहुँचते थे। कई गाँवों में स्थानीय पुस्तकालय अख़बारों के संपादकीय पृष्ठों पर खुली चर्चा और बहस के केंद्र बन गए थे। प्रेस ने समाज के विभिन्न वर्गों को जोड़ने और एकजुट करने का काम किया।
- औपनिवेशिक नीतियों का विरोध: प्रेस ने ब्रिटिश शासन की नीतियों और अन्यायपूर्ण कानूनों को उज़ागर किया। अख़बार सरकार की ग़लत नीतियों की आलोचना करने वाले प्रमुख मंच बन गए थे। उन्होंने जनता को शोषण के प्रति जागरूक किया और विरोध के लिए प्रेरित किया।
- स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: प्रेस ने स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लोकमान्य तिलक के अख़बार केसरी ने ब्रिटिश नीतियों का खुलकर विरोध किया। बिपिन चंद्र पाल के न्यू इंडिया (New India) और लाला लाजपत राय के वंदे मातरम जैसे अख़बारों ने लोगों में जोश और जागरूकता भरी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी अपने निर्णय और कार्यवाहियों को जनता तक पहुँचाने के लिए प्रेस का सहारा लिया।
- जनमत तैयार करने में भूमिका: प्रेस ने लोगों को संगठित किया और उनके विचारों को एक स्वर में व्यक्त करने का मंच दिया। उसने अंग्रेज़ों की दमनकारी नीतियों की पोल खोली और उनके खिलाफ़ जनमत तैयार किया। इसके परिणामस्वरूप, देशभर में स्वतंत्रता संग्राम की लहर तेज़ हो गई।
इस प्रकार, औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय प्रेस ने केवल सूचनाओं का प्रसार ही नहीं किया, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन को दिशा देने और जनचेतना को जागृत करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
आइए अब जानते हैं कि आधुनिक समय में भारत में पत्रकारिता क्या भूमिका निभा रही है?
पत्रकारिता का मक़सद लोगों तक सही, सटीक़ और निष्पक्ष जानकारी पहुँचाना, उन्हें जागरूक रखना और शिक्षित करना है। आज के समय में, जब राजनीति, सत्ता और भ्रष्टाचार के खेल में हिंसा और नफ़रत बढ़ रही है, तब पत्रकारिता "बेज़ुबानों की आवाज़" बनकर उभर रही है। मीडिया सच को सामने लाकर जनता को हकीकत से रूबरू कराता है, जिससे लोग सही-गलत का फ़र्क़ समझ पाते हैं। पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण काम लोगों के नज़रिए को आकार देना भी है। यह समाज में रोज़ हो रही घटनाओं और मुद्दों पर जागरूकता फ़ैलाता है। चाहे सड़क हादसे की ख़बर हो या सरकार की नई नीति – मीडिया लोगों को हर महत्वपूर्ण जानकारी से जोड़ता है।
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में पत्रकारिता का योगदान अहम है। यह राष्ट्रीय एकता को मज़बूत करती है। अन्याय और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है। समाज में बदलाव लाने में सहायक होती है। मीडिया भ्रष्टाचार को उज़ागर कर समाज में जवाबदेही तय करने में मदद करता है। पत्रकारिता की ख़ासियत यह है कि यह जटिल और तकनीकी जानकारियों को आम लोगों की भाषा में पेश करती है। उदाहरण के लिए, जब सरकार बजट पेश करती है, तो उसमें कई जटिल आँकड़े और तकनीकी शब्द होते हैं, जिन्हें आम जनता आसानी से नहीं समझ पाती। ऐसे में पत्रकारों की ज़िम्मेदारी होती है कि वे विशेषज्ञों से बातचीत करके बजट के फ़ायदे-नुकसान को सरल भाषा में समझाएँ। पत्रकारिता केवल ख़बरें दिखाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जनता की आवाज़ को सत्ता तक पहुँचाने का काम भी करती है। सही मायनों में, पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, जो समाज को जागरूक, ज़िम्मेदार और सशक्त बनाता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र में लखनऊ से प्रकाशित उर्दू व्यंग्य साप्ताहिक 'अवध पंच', 1878 और मोबाइल चलाते व्यक्ति का स्रोत : Wikimedia. Pexels
लखनऊ के कृष्ण मंदिरों में गूंजने वाले सूर के पदों में छिपे हैं, गहरे संदेश!
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
Thought I - Religion (Myths/ Rituals )
02-05-2025 09:20 AM
Lucknow-Hindi

मैया मोहि मैं नहीं माखन खायो।
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायो।
अर्थ: इस दोहे में बालकृष्ण अपनी माता यशोदा से कहते हैं कि उन्होंने माखन नहीं खाया है। सुबह होते ही उन्हें गायों के पीछे मधुबन भेज दिया गया था। यह दोहा उनकी बाल लीलाओं और मासूमियत को दर्शाता है। लखनऊ के गोमती नगर, यूसुफ़नगर और अशोक नगर में स्थित भगवान श्री कृष्ण को समर्पित मंदिरों में आपने श्री कृष्ण को समर्पित भजनों को अवश्य सुना होगा। ये मंदिर पूरे दिन संत कवि सूरदास के मधुर भजनों से गुंजायमान रहते हैं, जिनकी धुन से पूरा वातावरण भक्तिमय हो उठता है। संत सूरदास, भक्ति मार्ग के महान संतों में से एक थे! उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से भगवान कृष्ण की लीलाओं, उनके दिव्य प्रेम और आध्यात्मिक शिक्षाओं को अमर बना दिया। हालांकि वह जन्म से ही नेत्रहीन थे, लेकिन उनके हृदय में ईश्वर का ऐसा दिव्य दर्शन समाहित था, जो आज भी करोड़ों भक्तों के लिए प्रेरणा बना हुआ है। सूरदास ने अपना पूरा जीवन श्री कृष्ण की स्तुति में समर्पित कर दिया। उनकी रचनाएँ, विशेष रूप से सूर सागर, में श्री कृष्ण के बाल लीलाओं, रासलीला और उपदेशों का भावपूर्ण चित्रण मिलता है। इन रचनाओं में भक्तों के हृदय में प्रेम और श्रद्धा का संचार करने की अद्भुत शक्ति है।
सूरदास का दर्शन हमें सिखाता है कि सच्ची दृष्टि, आँखों से नहीं बल्कि विश्वास और प्रेम से भरे हृदय से देखी जाती है। उनकी शिक्षाएँ आज भी लोगों को भक्ति, विनम्रता और ईश्वर के प्रति निश्छल प्रेम का मार्ग दिखाती हैं। उनके भजन न सिर्फ़ भक्तों के मन को शांति देते हैं, बल्कि जीवन के गहरे आध्यात्मिक सत्य को भी उजागर करते हैं। इसलिए आज उनकी जयंती के अवसर पर हम इस लेख में उनके जीवन, उनके काव्य दर्शन और भक्ति आंदोलन में उनके अद्वितीय योगदान को समझने का प्रयास करेंगे। साथ ही, हम उनकी रचनाओं में छिपे गहरे आध्यात्मिक संदेशों को भी जानेंगे! ये संदेश न सिर्फ़ भक्तों बल्कि विद्वानों को भी प्रेरित करते हैं।
संत सूरदास सोलहवीं शताब्दी के महान भक्ति कवि थे। उनका जन्म उत्तर भारत के ब्रज क्षेत्र में हुआ, जहाँ भगवान कृष्ण ने अपना बचपन बिताया था। सूरदास जन्म से ही नेत्रहीन थे, लेकिन उनकी आत्मिक दृष्टि अत्यंत दिव्य थी। बचपन में ही उन्होंने संगीत सीखना शुरू कर दिया था। उनकी मधुर आवाज़ और कृष्ण भक्ति ने उन्हें शीघ्र ही प्रसिद्ध कर दिया। सूरदास मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संतों में से एक थे। उनके गुरु महाप्रभु वल्लभाचार्य ने उन्हें कृष्ण भक्ति का मार्ग अपनाने की प्रेरणा दी। सूरदास ने ब्रज भाषा में भगवान कृष्ण के प्रति समर्पित भक्ति काव्य की रचना की। उनकी कविताएँ सरल, मधुर और हृदय को छू लेने वाली थीं। वे अपनी रचनाओं को संगीतमय रागों में गाकर प्रस्तुत करते थे, जिससे वे भक्तों के बीच और भी लोकप्रिय हो गए।
सूरदास की भक्ति इतनी गहरी थी कि इसे परा-भक्ति कहा गया, अर्थात ऐसी भक्ति, जिसमें भक्त और भगवान के बीच कोई दूरी नहीं रहती। हालाँकि वे नेत्रहीन थे, फिर भी उनकी कविताओं में भगवान कृष्ण के बचपन और बाल लीलाओं का सजीव चित्रण मिलता है। उनकी रचनाओं में वृंदावन की गोपियों और कृष्ण की प्रेममयी छवियाँ अत्यंत भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत की गई हैं।
सूरदास के भजन आज भी भक्तों द्वारा बड़े प्रेम और श्रद्धा से गाए जाते हैं। उनकी रचनाएँ न केवल भगवान के प्रति प्रेम का अनुभव कराती हैं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं को भी स्पर्श करती हैं। उनका काव्य, भक्ति रस में डूबी हुई अमर धरोहर है, जो लोगों को ईश्वर के प्रति प्रेम और आस्था से भर देती है। सूरदास उस भक्ति आंदोलन के प्रकाश स्तंभ माने जाते हैं, जो 800 से 1700 ईस्वी के बीच भारत में फ़ला-फ़ूला। इस आंदोलन का लक्ष्य कृष्ण, विष्णु या शिव जैसे ईश्वर के प्रति प्रेम और पूर्ण समर्पण का प्रचार करना था। सूरदास की रचनाएँ न केवल हिंदू समाज में पूजनीय बनीं, बल्कि सिखों की पवित्र पुस्तक गुरु ग्रंथ साहिब में भी स्थान पाकर उनकी सार्वभौमिक स्वीकार्यता को सिद्ध करती हैं।
सूरदास भले ही नेत्रहीन थे, लेकिन उनकी आंतरिक दृष्टि दिव्य थी। उनकी कविताओं में भौतिकता से परे की आध्यात्मिक झलक मिलती है। उनके शब्दों में वह दिव्यता समाई थी, जिसे सामान्य आँखें नहीं देख सकतीं। सूरदास के लिए कृष्ण केवल एक देवता नहीं, बल्कि प्रेम और करुणा के अवतार थे। उनकी रचनाओं में बाल कृष्ण की चंचलता, मासूमियत और निश्छल प्रेम जीवंत हो उठता है। सूरदास के काव्य में कृष्ण का मानवीय पक्ष प्रमुखता से उभरता है, जिससे भक्त उनसे और अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं। सूरदास हमें सिखाते हैं कि सच्ची दृष्टि आँखों की मोहताज़ नहीं होती। यह तो आत्मा की वह अनुभूति है, जो हर कण में ईश्वर का दर्शन करती है। उनकी रचनाएँ हमें भीतर झाँककर देखने और दिव्यता को महसूस करने की प्रेरणा देती हैं।
सूरदास का दर्शन यही सिखाता है कि भक्ति वह पावन सेतु है, जो मानव को ईश्वर से जोड़ती है, सीमाओं को लांघकर दिव्यता तक पहुँचाती है। उनकी कविताओं में प्रेम, करुणा और समर्पण की शक्ति झलकती है। उनकी रचनाएँ आज भी भक्तों को ईश्वर के प्रति प्रेम और आस्था का मार्ग दिखाती हैं।
आइए अब भारतीय संस्कृति में सूरदास के योगदान को समझने की कोशिश करते हैं:
- सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण: सूरदास की रचनाओं ने भारतीय सांस्कृतिक विरासत को संजोकर रखने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अपनी कविताओं के ज़रिए हिंदू पौराणिक कथाओं और परंपराओं को जीवंत बनाए रखा। ख़ासतौर पर, उनके छंदों ने भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं, रासलीला और शिक्षाओं को अमर कर दिया। उनकी कविताओं ने इन कहानियों को जन-जन तक पहुँचाया, जिससे वे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती रहीं।
- भक्ति आंदोलन को बढ़ावा: सूरदास ने भक्ति को ईश्वर से जुड़ने का साधन माना और इसे लोकप्रिय बनाया। उनकी रचनाओं में ईश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण की झलक मिलती है। उनके भावपूर्ण पदों ने अनगिनत लोगों को आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उन्होंने ईश्वर के साथ एक व्यक्तिगत और आत्मीय संबंध स्थापित करने का संदेश दिया, जिससे लाखों भक्त उनके भजन गाकर भावविभोर हो जाते हैं।
- सामाजिक और धार्मिक प्रभाव: सूरदास की कविताएँ सिर्फ़ आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का भी ज़रिया बनीं। उनकी रचनाओं ने जाति, धर्म और सामाजिक स्थिति की दीवारों को तोड़ने का काम किया। सूरदास ने भक्ति में समानता और सार्वभौमिकता पर ज़ोर दिया। उनकी कविताएँ दर्शाती हैं कि चाहे अमीर हो या ग़रीब, उच्च जाति का हो या निम्न जाति का व्यक्ति - ईश्वर के लिए सभी समान हैं। इस विचारधारा ने समाज में एकता और सद्भाव को बढ़ावा दिया।
- संगीत और कला पर गहरा प्रभाव: सूरदास का योगदान केवल साहित्य तक सीमित नहीं रहा, बल्कि संगीत और कला पर भी उन्होंने गहरी छाप छोड़ी। उनके भजन और पद शास्त्रीय संगीत का अभिन्न हिस्सा बन गए। उनकी रचनाएँ विभिन्न रागों में गाई जाती हैं, जो श्रोताओं को भावविभोर कर देती हैं। आज भी संगीतकार उनकी रचनाओं को संजोकर प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविताएँ मंचीय प्रस्तुतियों और नृत्य नाटिकाओं का भी महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
- साहित्यिक योगदान और ब्रज भाषा का उत्थान: सूरदास की रचनाएँ हिंदी साहित्य की धरोहर हैं। उनके काव्य ने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि ब्रज भाषा को भी एक साहित्यिक पहचान दिलाई। सूरदास की लोकप्रियता ने ब्रज भाषा को साहित्यिक मंच पर स्थापित किया। उनके पदों ने भाव, भाषा और शैली के नए मानक गढ़े, जिससे आने वाली पीढ़ियों के कवियों को प्रेरणा मिली।
आइए अब हम सूरदास की शिक्षाओं और जीवन के लिए प्रेरक संदेशों को समझने की कोशिश करते हैं:
- कृष्ण भक्ति: सूरदास की रचनाओं का मूल आधार ही श्री कृष्ण की भक्ति है। उन्होंने श्रीकृष्ण को सर्वोच्च ईश्वर मानकर उनकी सगुण भक्ति की। उनकी कविताएँ विशेष रूप से कृष्ण के बाल-लीला और राधा-कृष्ण के दिव्य प्रेम को दर्शाती हैं। सूरदास हमें यह सिखाते हैं कि ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण ही सच्ची भक्ति है।
- भक्ति: सूरदास ने समाज में फ़ैले कर्मकांड और जाति-व्यवस्था का विरोध किया। उन्होंने सिखाया कि ईश्वर को पाने के लिए किसी विशेष जाति या पंथ का होना ज़रूरी नहीं है। उनके अनुसार, मन की पवित्रता और सच्चा प्रेम ही ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है, न कि दिखावटी पूजा-पाठ।
- दिव्य प्रेम और भावनाएँ: सूरदास की कविताएँ ईश्वर के प्रति गहरे प्रेम और आत्मीय भावनाओं से भरी हुई हैं। उन्होंने राधा और गोपियों के प्रेम को भक्ति का सर्वोच्च रूप बताया। उनकी रचनाओं में प्रेम केवल एक सांसारिक भावना नहीं, बल्कि ईश्वर तक पहुँचने का साधन बन जाता है।
- सरलता और समर्पण की शक्ति: सूरदास ने यह संदेश दिया कि ईश्वर उन्हीं भक्तों को अधिक प्रेम करते हैं, जिनका हृदय सरल, निष्कपट और निर्मल होता है। उन्होंने राजा-महाराजाओं या विद्वानों की बज़ाय, सीधे-सादे, सच्चे भक्तों को ईश्वर का प्रिय बताया। उनका दर्शन मुख्य रूप से पुष्टिमार्ग पर आधारित था, जिसमें ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण को सर्वोपरि माना गया है।
सूरदास की शिक्षाएँ हमें सच्चे प्रेम, निश्छल भक्ति और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का मार्ग दिखाती हैं। उन्होंने दिखावे और आडंबर से दूर रहकर, सच्चे मन से भक्ति करने को ही मुक्ति का श्रेष्ठ मार्ग बताया।
संदर्भ
मुख्य चित्र में भगवान श्री कृष्ण और संत सूरदास जी का स्रोत : Wikimedia
इटली से लेकर लखनऊ के घरों तक बिसलेरी की बोतलों का ज़बरदस्त सफ़रनामा!
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
01-05-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

गर्मियां शुरू होते ही लखनऊ की आम गलियों से लेकर रिहायशी घरों तक, हर जगह ठंडे पानी की बोतलों की भरमार देखने को मिलती है। गौर से देखने पर हम पाते हैं कि आज के समय में बोतलबंद पानी सिर्फ़ एक सुविधा नहीं, बल्कि एक ज़रूरत बन चुका है। चाहे ऑफ़िस हो, स्कूल, रेस्टोरेंट या फिर सफ़र – हर जगह लोग साफ़ और सुरक्षित पानी के लिए बोतलबंद पानी पर ही भरोसा करते हैं। शुद्ध पानी को लेकर बढ़ती चिंताओं ने इस इंडस्ट्री को ज़बरदस्त रफ़्तार दी है। आज बाज़ार में मिनरल और प्यूरिफ़ाइड पानी (Purified water) के ढेरों ब्रांड मौजूद हैं, जो ग्राहकों को उनकी ज़रूरत के हिसाब से कई विकल्प देते हैं। लेकिन इस पूरी इंडस्ट्री में एक नाम सबसे ज़्यादा चर्चा में रहता है, वह नाम है: बिसलेरी! पिछले 50 सालों में बिसलेरी भारत आई, बढ़ी, और पानी का दूसरा नाम बन गई। आपको जानकर हैरानी होगी कि पैकेज्ड ड्रिंकिंग वाटर इंडस्ट्री (Packaged Drinking Water Industry) में इसकी 60% हिस्सेदारी है। इसलिए आज के इस लेख में हम जानेंगे कि भारत में बोतलबंद पानी का बाज़ार कैसे तेज़ी से बढ़ा, इसमें बिसलेरी की क्या भूमिका रही! आगे हम जानेंगे कि कैसे पारले (Parle) ने इसे एक सुपरहिट ब्रांड बना दिया। साथ ही, हम इसकी शुरुआत की दिलचस्प कहानी पर भी नज़र डालेंगे।
आइए सबसे पहले भारत में पैकेज्ड ड्रिंकिंग वाटर इंडस्ट्री (Packaged drinking water industry) की वर्तमान स्थति पर एक नज़र डालते हैं:
भारत में जब भी गर्मी बढ़ती है या सफ़र पर निकलते हैं, तो हम में से ज़्यादातर लोग सबसे पहले एक बोतल मिनरल वाटर ज़रूर खरीदते हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ये बोतलबंद पानी का कारोबार कितना बड़ा हो चुका है? संयुक्त राष्ट्र (United Nations) की एक रिपोर्ट बताती है कि 2018 से 2021 के बीच भारत में पैकेज्ड ड्रिंकिंग वाटर इंडस्ट्री, हर साल 27% की रफ़्तार से बढ़ रही है। ये ग्रोथ इतनी तेज़ है कि भारत इस मामले में दुनिया में सबसे बड़ा बाज़ार बन चुका है, जिसमें सिर्फ़ दक्षिण कोरिया ही आगे है।। अब आंकड़ों की बात करें, तो 2021 में भारत, बोतलबंद पानी के मूल्य के हिसाब से 12वां और मात्रा के हिसाब से चौथा सबसे बड़ा उपभोक्ता था। मतलब, हमारे देश में मिनरल वाटर की बोतलों का धंधा ज़बरदस्त तरीके से फल-फूल रहा है। हालांकि ये बढ़ता हुआ बाज़ार एक बड़े मौके की तरह दिखता है, लेकिन इसके पीछे की सच्चाई हमें सोचने पर भी मज़बूर कर देती है।
रिपोर्ट बताती है कि बोतलबंद पानी का बढ़ता चलन हमें दो तथ्यों से परिचित कराता है—
1. सरकारें लोगों को साफ़ और मुफ़्त पीने का पानी मुहैया कराने में असफ़ल हो रही हैं।
2. इससे प्लास्टिक वेस्ट (Plastic waster) बढ़ता जा रहा है, जो हमारे पर्यावरण के लिए नई चुनौती खड़ी कर रहा है।
आज अगर आप किसी से कहो "पानी खरीदना है?" तो जवाब मिलेगा – "बिसलेरी ले लो!" लेकिन ये सफ़र इतना आसान नहीं था।
लेकिन क्या आपको पता है कि बिसलेरी की कहानी कहाँ से शुरू हुई थी?
बिसलेरी नाम की शुरुआत भारत में नहीं, बल्कि इटली में हुई थी। इसकी बुनियाद एक इटालियन वैज्ञानिक, व्यवसायी और रसायनज्ञ सिग्नोर फ़ेलिस बिसलेरी (Signor Felice Bisleri) द्वारा रखी गई थी। 20 नवंबर 1851 को इटली के वेरोलानूवा (Verolanuova) में जन्मे बिसलेरी ने शुरुआत में इसका नाम पानी के लिए नहीं, बल्कि एक दवा के लिए रखा था! यह एक अल्कोहल-आधारित मेडिसिनल ड्रिंक (medicinal drink) थी, जिसमें सिनकोना (cinchona), जड़ी-बूटियाँ और लौह लवण होते थे। डॉ. सेसरे रॉसी (Dr. Cesare Rossi), फ़ेलिस बिसलेरी के पारिवारिक डॉक्टर और करीबी दोस्त थे। 17 सितंबर 1921 को जब फ़ेलिस बिसलेरी का निधन हुआ, तो कंपनी की कमान डॉ. रॉसी के हाथों में आ गई।
भारत में बिसलेरी कैसे आई?
डॉ. रॉसी और उनके मित्र ख़ुशरू सुंतुक ने भारत में बिसलेरी को सफ़ल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ख़ुशरू के पिता भी वकील थे। 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ, तब देश में नए व्यापार की संभावनाएं तलाशी जा रही थीं। उन्होंने देखा कि भले ही पानी आसानी से मिल जाता हो, लेकिन शुद्ध और मिनरल वॉटर के लिए लोगों को बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी। ख़ास तौर पर बड़े होटलों में ठहरने वाले विदेशी पर्यटकों और अमीर परिवारों को साफ़ पानी की भारी किल्लत झेलनी पड़ती थी।
यहीं से डॉ. रॉसी और ख़ुशरू सुंतुक के दिमाग़ में एक नया आइडिया आया—क्यों न भारत में बोतलबंद पानी बेचा जाए?
इस आइडिया को हक़ीक़त बनाने में पूरे 18 साल लगे! आख़िरकार, 1965 में मुंबई के ठाणे में भारत का पहला बिसलेरी वॉटर प्लांट स्थापित हुआ। उस समय भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में पीने के पानी की गुणवत्ता बेहद ख़राब हुआ करती थी। गरीब और मध्यम वर्ग किसी तरह उस पानी से काम चला लेते थे, लेकिन अमीरों और विदेशी पर्यटकों के लिए यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। ऐसे में बिसलेरी का पानी उन्हें किसी अमृत से कम नहीं लगा! धीरे-धीरे बिसलेरी ने भारतीय बाज़ार में अपनी पकड़ मज़बूत कर ली। आज यह सिर्फ़ एक ब्रांड नहीं, बल्कि शुद्धता और भरोसे का प्रतीक बन चुका है। 60% बाज़ार हिस्सेदारी के साथ बिसलेरी भारत के पैकेज्ड ड्रिंकिंग वाटर सेगमेंट की बेताज बादशाह है।
भारत में बिसलेरी की लोकप्रियता बढ़ने की एक और दिलचस्प कहानी है:
“बिसलेरी बिक रही है!” यह ख़बर 1969 में भारत के व्यापार जगत में आग की तरह फैली। उस वक़्त बिसलेरी मिनरल वाटर और बिसलेरी सोडा भारतीय बाज़ार में क़दम रख चुके थे, लेकिन असली खेल तब शुरू हुआ जब ये ख़बर पारले कंपनी के मास्टरमाइंड ‘चौहान ब्रदर्स’ के कानों तक पहुंची।
उस समय ख़ुशरू सुंतोक बिसलेरी के मालिक थे। लेकिन शायद उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि उनकी कंपनी सिर्फ़ 4 लाख रुपये में एक नए मुक़ाम पर पहुंचने वाली है। 1969 में, पारले के रमेश चौहान ने बिसलेरी को ख़रीद लिया, और बस यहीं से कहानी बदल गई! पारले ने बिसलेरी का अधिग्रहण कर लिया और इसे पूरे भारत में फैलाने का प्लान बनाया। पानी और सोडा के अलावा, उन्होंने धीरे-धीरे सॉफ़्ट ड्रिंक्स की दुनिया में भी क़दम रख दिया। ब्रांड इतना बड़ा हुआ कि विदेशों तक इसे ले जाने की योजना बनने लगी।
बिसलेरी ने सोडा को दो श्रेणियों में बांटने का आइडिया निकाला -
- कार्बोनेटेड (Carbonated) (जिसमें गैस होती है)
- नॉन-कार्बोनेटेड मिनरल वाटर (Non Carbonated Mineral Water)
यह प्रयोग भारत में एक नई क्रांति साबित हुआ, जिसने मिनरल वाटर इंडस्ट्री को ज़बरदस्त बूस्ट दे दिया। अब पानी सिर्फ़ पानी नहीं रहा, बल्कि एक ब्रांड बन गया!
संदर्भ
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जानिए, कैसे लखनऊ की ज़मीन बन रही है कश्मीरी मधुमक्खियों का नया घर?
तितलियाँ व कीड़े
Butterfly and Insects
30-04-2025 09:22 AM
Lucknow-Hindi

सर्दियों के मौसम में कश्मीर के सैकड़ों मधुमक्खी पालक (Beekeepers) अपने छत्तों को राजस्थान, पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे गर्म इलाकों में ले जाते हैं। ऐसा करने से उनके छत्ते हर साल स्वस्थ और उत्पादक बने रहते हैं। लखनऊ की सरसों के खेत कश्मीर से आई इन प्रवासी मधुमक्खियों के लिए काफ़ी फ़ायदेमंद साबित होते हैं, जिससे शहद का उत्पादन बढ़ता है। यहां के बाज़ार, व्यापारी और आयुर्वेदिक चिकित्सक शहद की मांग को बढ़ाते हैं, जिससे आर्थिक विकास होता है और मधुमक्खी पालन का उद्योग मज़बूत बनता है। इस तरह, यह आपसी सहयोग न सिर्फ स्थानीय व्यापार को बढ़ावा देता है, बल्कि किसानों की आमदनी भी बढ़ाता है और उत्तर प्रदेश में मधुमक्खी पालन की आर्थिक स्थिति को मज़बूत बनाता है।
तो आइए, आज हम जानते हैं कि कश्मीर में मधुमक्खी पालन उद्योग की वर्तमान स्थिति क्या है। इसके साथ ही, हम यह भी समझेंगे कि इस व्यवसाय में कमाई की कितनी संभावना है। इसके बाद, हम पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में मधुमक्खी पालकों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति के बारे में जानेंगे। फिर, भारत में सफल मधुमक्खी पालन के लिए ध्यान रखने वाली कुछ महत्वपूर्ण बातों पर चर्चा करेंगे। इसके बाद, हम अपने देश में सबसे अधिक पाली जाने वाली मधुमक्खी की प्रजातियों के बारे में जानेंगे। अंत में, हम मधुमक्खियों के सामाजिक संगठन (Social Organization) को भी समझने की कोशिश करेंगे।
कश्मीर में मधुमक्खी पालन उद्योग की वर्तमान स्थिति
कृषि विभाग, कश्मीर के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, जम्मू-कश्मीर हर साल 22,000 क्विंटल (22 लाख किलोग्राम) शहद का उत्पादन करता है। इस शहद का एक बड़ा हिस्सा दूसरे राज्यों और देशों में भेजा जाता है। जम्मू-कश्मीर में लगभग 1,10,000 मधुमक्खी कॉलोनियाँ (Bee Colonies) हैं, लेकिन यहां 2,00,000 कॉलोनियों तक बढ़ने की क्षमता है।
मधुमक्खी पालन में कमाई की संभावना
हर एक मधुमक्खी का छत्ता, मौसम के हिसाब से 10 से 15 किलोग्राम तक शहद देता है। दक्षिण कश्मीर के पुलवामा ज़िले के 45 वर्षीय मधुमक्खी पालक मोहम्मद अमीन वानी के अनुसार, लोग इस व्यवसाय से हर साल लगभग 15 से 20 लाख रुपये तक कमा सकते हैं। इसके अलावा, वे हर महीने मधुमक्खी पालन में मदद करने वाले एक सहायक को 30,000 रुपये वेतन देते हैं। सरसों के फूलों से बनने वाला शहद 400 से 500 रुपये प्रति किलोग्राम में बिकता है, जबकि शुद्ध कश्मीरी शहद की कीमत 800 से 1000 रुपये प्रति किलोग्राम तक होती है।
पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में मधुमक्खी पालकों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति
एक अध्ययन के अनुसार, आधुनिक मधुमक्खी पालकों में केवल 1 महिला (1.69%) मधुमक्खी पालन करती मिलीं, जो रामनगर ब्लॉक के मदनपुर कुर्मी गाँव की रहने वाली हैं। लेकिन पारंपरिक मधुमक्खी पालन में महिलाएँ ज़्यादा सक्रिय होती हैं।
इस अध्ययन से पता चला कि कुल मधुमक्खी पालकों में से 44.55% लोग और विशेष रूप से 70% आधुनिक मधुमक्खी पालक 20 से 49 साल की उम्र के बीच हैं और ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। कुल 101 मधुमक्खी पालकों में से 48.77% किसान हैं, 12.87% रोज़ाना मज़दूरी करते हैं, 6.93% दुकानदार या सेल्समैन हैं, 1.98% सरकारी नौकरी में हैं, और 29.70% लोग, पूरी तरह से मधुमक्खी पालन पर निर्भर हैं।
अध्ययन में यह भी पाया गया कि पारंपरिक मधुमक्खी पालन करने वाले लोग आर्थिक रूप से आधुनिक मधुमक्खी पालकों की तुलना में ज़्यादा कमज़ोर हैं। पारंपरिक मधुमक्खी पालकों में से 59.52% लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं, जबकि 40.47% लोग इसके ऊपर हैं। दूसरी ओर, आधुनिक मधुमक्खी पालकों में सिर्फ़ 16.94% लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं और 83.05% लोग गरीबी रेखा से ऊपर जीवन यापन करते हैं।
सफल मधुमक्खी पालन के लिए ज़रूरी बातें
मधुमक्खियों की आदतों की जानकारी:
मधुमक्खी पालन में सफलता पाने के लिए सबसे पहले मधुमक्खियों की आदतों और व्यवहार को समझना ज़रूरी है। जैसे – रानी मधुमक्खी (Queen bee) का काम सिर्फ़ प्रजनन करना और अंडे देना होता है। कामकाजी मधुमक्खियाँ या वर्कर बीज़ (Worker bees) शहद इकट्ठा करती हैं, लार्वा की देखभाल करती हैं और छत्ता बनाती हैं। नर मधुमक्खियों या ड्रोन (Drone) का मुख्य काम, रानी मधुमक्खी के साथ संभोग करना होता है।
उपयुक्त स्थान का चुनाव:
मधुमक्खी पालन के लिए सही जगह का चुनाव करना बहुत ज़रूरी है। मौसम के अनुसार छत्ता (Hive) ऐसी जगह पर रखना चाहिए, जहाँ मधुमक्खियाँ सुबह जल्दी बाहर निकलकर शहद इकट्ठा कर सकें। गर्म इलाकों में छत्तों को छाँव में रखना चाहिए ताकि ज़्यादा गर्मी से बचा जा सके। मधुमक्खी पालन के लिए ऐसी जगह अच्छी होती है, जहाँ जंगली झाड़ियाँ, फलदार पेड़ और खेती की फ़सलें हों, ताकि मधुमक्खियों को शहद इकट्ठा करने के लिए पर्याप्त फूल मिल सकें।
मौसम के हिसाब से छत्तों की देखभाल:
फूल केवल खास मौसम में ही खिलते हैं। इसी समय मधुमक्खियों को शहद बनाने के लिए पराग और रस मिलता है। बाकी समय, फूल कम होने की वजह से शहद बनाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में मधुमक्खी पालक (बीकीपर) मधुमक्खियों को चीनी का घोल (शुगर सिरप) खिलाते हैं ताकि उन्हें ज़रूरी पोषण मिलता रहे।
मधुमक्खियों को पकड़ना और पालना:
मधुमक्खियों के प्राकृतिक छत्तों को पकड़कर पाला जा सकता है। इसके अलावा, सरकारी या निजी संस्थानों से भी मधुमक्खियाँ खरीदी जा सकती हैं।
भारत में सबसे ज़्यादा पाली जाने वाली मधुमक्खी की प्रजातियाँ
1. एपिस डोरसाटा (Apis Dorsata): इसे चट्टानी मधुमक्खी (Rock Bee) भी कहा जाता है। यह आकार में बहुत बड़ी होती है और इनका एक छत्ता हर साल लगभग 38 से 40 किलोग्राम शहद है।
2. एपिस इंडिका (Apis Indica): इसे भारतीय मधुमक्खी भी कहते हैं। इसे पालना आसान होता है, इसलिए शहद उत्पादन के लिए सबसे ज़्यादा इसी का इस्तेमाल होता है। इसके एक छत्ते से हर साल 2 से 5 किलोग्राम शहद मिलता है।
3. एपिस फ़्लोरिया (Apis Florea): इसे छोटी मधुमक्खी कहा जाता है। यह बहुत कम काटती है, इसलिए इसके छत्ते से शहद निकालना आसान होता है। इसके एक छत्ते से हर साल लगभग 1 किलोग्राम शहद प्राप्त होता है।
4. एपिस मेलिफ़ेरा (Apis Mellifera): इसे इतालवी मधुमक्खी (Italian bee) भी कहते हैं। यह एक खास तरीके से नाचकर अपने साथियों को भोजन की मौजूदगी के बारे में बताती है। यह मधुमक्खी भारत की मूल प्रजाति नहीं है, लेकिन अधिक शहद उत्पादन की वजह से इसे बड़े पैमाने पर पाला जाता है।
मधुमक्खियों का सामाजिक संगठन समझें
1. नर मधुमक्खी (Drone bees): ये नर मधुमक्खियाँ बिना निषेचित (Unfertilized) अंडों से विकसित होती हैं। जब बिना निषेचित अंडे से लार्वा (Larvae) बनता है, तो कामकाजी मधुमक्खियाँ (Worker Bees) उसे रॉयल जेली (Royal jelly) खिलाती हैं, जिससे नर मधुमक्खियाँ पैदा होती हैं। इनका मुख्य काम रानी मधुमक्खी (Queen Bee) से संभोग करना और अंडों को निषेचित करना होता है। जब तक रानी मधुमक्खी से संभोग नहीं हो जाता, तब तक कामकाजी मधुमक्खियाँ उनकी देखभाल करती हैं।
2. रानी मधुमक्खी (Queen bees): रानी मधुमक्खियाँ छत्ते की प्रजनन योग्य मादा होती हैं। संयोग के बाद, वे छत्ते में लौटकर अंडे देने का काम करती हैं। एक रानी मधुमक्खी, दिन में लगभग 15,000 अंडे दे सकती है। हालांकि, अंडे देने की प्रक्रिया, रॉयल जेली की उपलब्धता पर निर्भर करती है। रानी मधुमक्खी लगभग 3 साल तक जीवित रह सकती है, लेकिन केवल 2 साल तक ही वह सक्रिय रूप से अंडे देती है।
3. कामकाजी मधुमक्खी (Worker bees): ये निषेचित अंडों से विकसित होने वाली बांझ (Infertile) मादाएँ होती हैं। छत्ते की ताकत और शहद उत्पादन में सफलता इनकी संख्या पर निर्भर करती है। ये आकार में रानी और नर मधुमक्खियों से छोटी होती हैं और रानी मधुमक्खी द्वारा बनाए गए फ़ेरोमोन (Pheromones) से प्रभावित रहती हैं। इनकी उम्र लगभग 6 हफ़्ते होती है। जन्म के बाद के पहले 2 हफ्ते वे छत्ते के अंदर के कामों में लगती हैं, जैसे कि छत्ते की सफ़ाई करना, लार्वा की देखभाल करना, टूटे हुए हिस्सों की मरम्मत करना, रॉयल जेली बनाना और रानी की सेवा करना।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexels
आइए जानें, कैसे शुरू कर सकते हैं आप लखनऊ में अपना मत्स्य पालन व्यवसाय
मछलियाँ व उभयचर
Fishes and Amphibian
29-04-2025 09:28 AM
Lucknow-Hindi

हम में से कई लखनऊ वाले लोग, बड़ी पसंद के साथ अपने आहार में मछली खाते हैं। आखिरकार, लखनऊ की समृद्ध पाक विरासत में ज़मीनदोज़ मछली, माही रेज़ला, अजवाइन मछली टिक्का, मछली बिरयानी और सुफ़ियानी मछली कोरमा जैसे अति सुंदर मछली व्यंजन शामिल हैं। ये मछली व्यंजन, मुगल और अवध स्वाद के साथ अत्यंत स्वादिष्ट बनते हैं। इस संदर्भ में, क्या आप जानते हैं कि, भारत का मत्स्य पालन क्षेत्र लगभग 28 मिलियन लोगों को आजीविका प्रदान करता है; जिसमें मछुआरे, मछली किसान और प्रसंस्करण व विपणन में शामिल लोग मौजूद हैं। तो आज, आइए उत्तर प्रदेश में मछली उत्पादन की वर्तमान स्थिति की खोज करते हैं। उसके बाद, हम भारत में मत्स्य क्षेत्र के विकास हेतु किए जा रहे कुछ प्रयासों का पता लगाएंगे। फिर, हम मत्स्य पालन के लिए आवश्यक, कुछ सबसे महत्वपूर्ण उपकरणों के बारे में बात करेंगे। इसके अलावा, हमें पता चलेगा कि, भारत के मत्स्य पालन क्षेत्र में प्रौद्योगिकी की स्थिति क्या है। अंत में, हम देखेंगे कि, आप लखनऊ में अपना खुद का मछली फ़ार्म कैसे शुरू कर सकते हैं।
उत्तर प्रदेश में मछली उत्पादन की वर्तमान स्थिति:
उत्तर प्रदेश में 2023 में, 9.15 लाख मेट्रिक टन मछली उत्पादन हुआ था, जो 2022 में 8.08 लाख मेट्रिक टन दर्ज किया गया था। इसी तरह, राज्य ने 2022 में 27,128 लाख मेट्रिक एवं 2023 में 36,187 लाख मेट्रिक टन मछली बीज का उत्पादन दर्ज किया है। साथ ही, विभिन्न योजनाओं के माध्यम से लाभार्थियों को 152.82 करोड़ रुपये प्रदान किए गए हैं। संबंधित अधिकारियों ने कहा हैं कि, 68 ज़िलों की नदियों में मछली फ़ार्म बनाए जा रहे हैं।
भारत में उत्तर प्रदेश को मत्स्य क्षेत्र केंद्र के रूप में स्थापित करने हेतु, किए जा रहें प्रयास:
मछुआरे दुर्घटना बीमा योजना’ (Fishermen Accident Insurance Scheme) ने राज्य में 1,16,159 मछुआरों को लाभान्वित किया है। इस योजना के अनुसार, उन मछुआरों को 5 लाख रुपये की सहायता दी जाती है, जिनकी दुर्घटनाओं में मृत्यु होती हैं; विकलांग होने वाले मछुआरों को 2.5 लाख रुपये दिए जाते हैं; एवं घायल होने वाले मछुआरों को 25,000 रुपये दिए जाते हैं।
मत्स्य क्षेत्र केंद्र के रूप में राज्य को विकसित करने के लिए, चंदौली में एक अत्यंत आधुनिक ‘मत्स्य मॉल’ निर्माणाधीन है, जिसमें 62 करोड़ रुपये का निवेश किया गया है। आदित्यनाथ योगी सरकार ने 2023 में 14,021 मछुआरों के लिए, 10,772.77 लाख रुपयों के कुल बैंक ऋण को मंजूरी दी है। इसके अलावा, विभाग ने 1500 से अधिक मछुआरों को, मछली पालन खेती में प्रशिक्षण प्रदान किया है।
मछली पालन के लिए आवश्यक कुछ सबसे महत्वपूर्ण उपकरण:
1.) पंप (Pumps):
पारंपरिक मछली किसान, एक जल स्रोत के अंदर टैंक और जाल का उपयोग करते हैं। हालांकि गर्म मौसम में, वाष्पीकरण से जल स्रोत में पानी की कमी हो सकती है। यही कारण है कि, मछलियों के लिए पर्याप्त मीठे पानी की आपूर्ति हेतु, पंप स्थापित किए जाते हैं। कई किसान, मत्स्य पालन मौसम के अंत में, स्त्रोत से पानी को बाहर निकालने के लिए भी पंप का उपयोग करते हैं।
2.) वायु संचरण उपकरण (Aeration Devices):
यह सुनिश्चित करने के लिए कि, मछलियों को पर्याप्त ऑक्सीजन आपूर्ति मिल रही है, एक वायु संचारण उपकरण का उपयोग किया जाना चाहिए। ऐसे उपकरण, आपको एक छोटी सी जगह में भी अधिक मछली रखने की अनुमति देते हैं। यह मछलियों को स्वस्थ रखने और कम अवधि में तेज़ी से बढ़ने में मदद करते है। वायु संचरण उपकरण, अशुद्धियों को हटाकर पानी को पुनर्चक्रित करने में भी मदद करते हैं।
3.) स्वचालित मछली फ़ीडर(Automatic Fish Feeder):
स्वचालित मछली फ़ीडर, एक नियोजित अंतराल पर मछलियों को अन्न खिलाता है। यह काफ़ी प्रभावी है, क्योंकि यह किसानों को, मछलियों को हाथ से खिलाने के समय और प्रयास से बचाता है। हालांकि, स्वचालित मछली फ़ीडर केवल तभी ठीक से काम कर सकता है, जब पानी को यांत्रिक रूप से पुनर्नवनीकृत किया जाता है। यदि पानी संतृप्त और अशुद्ध होने पर भी फ़ीडर मछली को अन्न खिलाना जारी रखता है, तो मछलियां मर भी सकती हैं।
4.) सीन रील(Seine Reel):
मछली पकड़ने के दौरान, पानी से मछली को इकट्ठा करने के लिए, सीन रील का उपयोग किया जाता है। सीन को झील या तालाब में फ़ेंक दिया जाता है, जहां यह नीचे तक डूब जाता है। फिर किनारे पर मौजूद एक ट्रैक्टर की मदद से, रील को सीन के किनारों पर इकट्ठा किया जाता है, जिससे जाल के अंदर मछलियां फंस जाती हैं।
भारत के मत्स्य पालन क्षेत्र को, प्रौद्योगिकी द्वारा कैसे विकसित किया जा रहा है?
तकनीकी प्रगति, भारतीय मत्स्य पालन क्षेत्र में क्रांति लाने के लिए तैयार हैं। सैटेलाइट (Satellite) आधारित मत्स्य प्रबंधन प्रणालियों, उन्नत प्रजनन तकनीकें, स्वचालित फ़ीडर, बायोफ़्लॉक प्रौद्योगिकी, एक्वापॉनिक्स (Aquaponics) और जल गुणवत्ता निगरानी प्रणाली जैसे नवाचार, मत्स्य उत्पादकता और स्थिरता को बढ़ा रहे हैं। ये प्रौद्योगिकियां, मछलियों की बेहतर निगरानी, कुशल संसाधन उपयोग, मछलियों के स्वास्थ्य में सुधार और पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने में भी मदद करती हैं।
इसके अलावा, डिजिटल उपकरण और मोबाइल विभिन्न एप्लिकेशन, किसानों को वास्तविक समय की जानकारी और सहायता प्रदान कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, भौगोलिक सूचना प्रणाली (Geographic Information Systems – जी आई एस) और रिमोट सेंसिंग(Remote sensing) प्रौद्योगिकियों का उपयोग, मछली पकड़ने वाले क्षेत्रों के सटीक मानचित्रण और जलीय वातावरण की निगरानी के लिए अनुमति देता है। मौसम के पूर्वानुमानों से लेकर, बाज़ार की कीमतों तक, ये प्रौद्योगिकियां किसानों को सूचित निर्णय लेने और सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाने के लिए सशक्त बनाती हैं।
आप लखनऊ में, अपना खुद का मछली फ़ार्म कैसे शुरू कर सकते हैं ?
•तालाब तैयार करना:
एक तालाब अस्थायी या स्थायी हो सकता है। अस्थायी तालाब का उपयोग, कुछ तेज़ी से बढ़ने वाली प्रजातियों हेतु मौसमी मछली पालन के लिए किया जाता है। तालाब में आपको पानी के इनलेट्स और आउटलेट भी स्थापित करने होंगे। साथ ही, आपको पानी के पी एच (pH) स्तर को अनुकूलित करने के लिए भी उपाय करना चाहिए। यह प्रत्येक मछली प्रजातियों के लिए अलग होगा।
•मछली की उपयुक्त नस्लों का चयन:
आपको मछली की नस्लों को चुनने से पहले, मत्स्य पालन वातावरण, बाज़ार की मांग और रखरखाव के तरीकों पर विचार करना चाहिए। आप मोनोकल्चर (Monoculture (एक प्रकार की मछली प्रजाति का पालन)) या पॉलीकल्चर (Polyculture (एक साथ विभिन्न प्रकार की मछलियों का पालन)) कर सकते हैं।
•मछली पालन वातावरण का रखरखाव:
इसमें मछलियों की देखभाल करना, पानी के पीएच स्तर को बनाए रखना, मछलियों को अन्न खिलाना, पानी को बदलना आदि शामिल हैं। आपको तालाब से किसी भी अस्वास्थ्यकर मछली को हटाने के लिए, दैनिक आधार पर ध्यान भी देना चाहिए। मछली फ़ार्म में उनकी बीमारियों के इलाज और बीमारियां रोकने के लिए उचित उपाय करना भी यहां शामिल एक महत्वपूर्ण कदम है।
•मछलियों के लिए एक बाज़ार खोजना:
आप स्थानीय बाज़ार या मछलियों का निर्यात करना भी चुन सकते हैं। एक शुरुआत के रूप में, स्थानीय बाज़ार चुनने से आपको मदद मिलेगी। एक बार जब आप अपना मछलियों का फ़ार्म स्थापित कर लेते हैं, तो आप निर्यात के बारे में सोच सकते हैं।
संदर्भ
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आइए जानें, इंडो-इस्लामिक और यूरोपीय प्रभावों के साथ कैसे विकसित हुआ हमारा लखनऊ
उपनिवेश व विश्वयुद्ध 1780 ईस्वी से 1947 ईस्वी तक
Colonization And World Wars : 1780 CE to 1947 CE
28-04-2025 09:27 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, क्या आप जानते हैं कि लगभग 1350 ईस्वी से, हमारा शहर लखनऊ शाही संस्थाओं, विशेष रूप से, दिल्ली सल्तनत, शर्की सल्तनत, मुगल साम्राज्य, अवधी नवाबों, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company), और अंततः, ब्रिटिश राज, द्वारा लगातार प्रभुत्व में रहा, प्रत्येक ने इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत पर एक अमिट छाप छोड़ी है। जब मुगल साम्राज्य ने भारत को 12 प्रांतों में विभाजित किया, तो लखनऊ अवध के सूबेदार के अधीन आ गया। 1722 में नवाब सादात खान (Saadat Ali Khan) ने सत्ता की बागडोर संभाली और अवध राजवंश की स्थापना की। 1775 में, जब आसफ़-उद-दौला (Asaf-ud-Daula), अवध के चौथे नवाब बने, तो उन्होंने अपनी राजधानी फैज़ाबाद से लखनऊ स्थानांतरित करने का फैसला किया। इसी बीच लखनऊ की वास्तुकला ने भी विभिन्न प्रभावों के साथ अपना रूप धारण किया। शहर के इमामबाड़ों, महलों, उद्यानों और आवासीय संरचनाओं जैसे वास्तुशिल्प चमत्कारों में अवधी वास्तुकला के शाही तत्व देखे जा सकते हैं। तो आइए, आज लखनऊ के अवध की राजधानी बनने के सफ़र और नवाब आसिफ़-उद-दौला के अधीन अवध के प्रशासन के विषय में जानते हैं। इसके साथ ही, हम नवाबों के शासनकाल के दौरान, लखनऊ के कुछ सबसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्मारकों जैसे बड़ा इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा और फ़रहत बख्श की वास्तुकला की विशेषताओं और अवध वास्तुकला में प्रयुक्त भवन निर्माण सामग्री के बारे में बात करेंगे। अंत में, हम लखनऊ की वास्तुकला पर इंडो-इस्लामिक और यूरोपीय प्रभावों के बारे में विस्तार से जानेंगे।
लखनऊ के अवध की राजधानी बनने की यात्रा:
1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अवध साम्राज्य पर औपचारिक रूप से कब्ज़ा करने के बाद, एक समझौता हुआ, जिसे बाद में 1857 के विद्रोह के दौरान नष्ट कर दिया गया, जिससे सभी महत्वपूर्ण रिकॉर्ड भी नष्ट हो गए। आइन-ए-अकबरी से पता चलता है कि 1580 ईसवी में, मुगल सम्राट अकबर द्वारा अवध के प्रशासनिक प्रांत की स्थापना के बाद से लखनऊ एक महत्वपूर्ण शहर के रूप में सामने आया। 1722 में शौकत जंग (1680-1739) की नवाब वज़ीर के रूप में नियुक्ति से नवाबों के राजवंश की शुरुआत हुई। हालांकि, शुरुआत में अवध की राजधानी फैज़ाबाद में स्थित थी, 1775 में नवाब आसफ़- उद-दौला ने राजधानी को लखनऊ स्थानांतरित करने का फ़ैसला लिया।
नवाब आसिफ़-उद-दौला के अधीन अवध का प्रशासन:
आसिफ़-उद-दौला ने अवध में शासन को केंद्रीकृत करने और राजस्व प्रणालियों को आधुनिक बनाने के उद्देश्य से कुछ सुधार लागू किए, जो इस प्रकार हैं:
शासन का केंद्रीकरण: नवाब आसिफ़-उद-दौला ने अपनी सत्ता को संघटित करने के उद्देश्य से शासन की अधिक केंद्रीकृत प्रणाली स्थापित करने की मांग की। इसमें स्थानीय ज़मींदारों की स्वायत्तता को कम करना और अधिक प्रशासनिक कार्यों को राज्य के सीधे नियंत्रण में लाना शामिल था।
राजस्व प्रणालियों का आधुनिकीकरण: अवध में पारंपरिक राजस्व संग्रह प्रणाली जमींदारी प्रणाली पर आधारित थी, जिसमें जमींदार सुरक्षा और प्रशासन के बदले में किसानों से राजस्व एकत्र करते थे। लेकिन, यह प्रणाली शोषणकारी और अक्षम थी। आसफ़-उद-दौला ने अधिक व्यवस्थित और मानकीकृत राजस्व संग्रह तरीकों को शुरू करने का प्रयास किया। इसमें वास्तविक उत्पादकता के आधार पर भूमि राजस्व का आकलन करना और स्थानीय ज़मींदारों द्वारा मनमाने करों को बदलने के लिए निश्चित दरें लागू करना शामिल था।
नौकरशाही की स्थापना: इन सुधारों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, नवाब आसफ़-उद-दौला ने एक संरचित नौकरशाही की स्थापना की। इस नौकरशाही में राजस्व संग्रह, कानून-व्यवस्था एवं सार्वजनिक कार्यों जैसे विभिन्न प्रशासनिक कार्यों की देखरेख के लिए नवाब द्वारा अधिकारी नियुक्त किए गए। नौकरशाही प्रणाली की स्थापना से प्रशासन को केंद्रीकृत करने और राज्य भर में शासन में एकरूपता सुनिश्चित करने में मदद मिली।
न्यायिक सुधारों का परिचय: नवाब ने न्यायिक प्रणाली में सुधार पर भी ध्यान केंद्रित किया। न्यायिक सुधारों का उद्देश्य न्याय तक बेहतर पहुंच प्रदान करना, भ्रष्टाचार को कम करना और कानूनी कार्यवाही में निष्पक्षता सुनिश्चित करना था। इसमें नियुक्त न्यायाधीशों के साथ औपचारिक अदालतें स्थापित करना, मानकीकृत कानूनी प्रक्रियाएं और न्याय प्रशासन में स्थिरता तथा निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए कानूनों का संहिताकरण शामिल था।
बुनियादी ढांचे का विकास: प्रशासनिक सुधारों के साथ-साथ, बुनियादी ढांचे के विकास के प्रयास भी किये गये। इसमें व्यापार, संचार और सुविधा के लिए सड़कों, पुलों और सार्वजनिक भवनों में निवेश किया गया। बेहतर बुनियादी ढांचे से न केवल अवध में आवागमन को बढ़ावा मिला, बल्कि आर्थिक विकास और राज्य के आधुनिकीकरण में भी योगदान मिला।
इन प्रशासनिक सुधारों का अवध समाज और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा। केंद्रीकृत शासन और आधुनिक राजस्व प्रणालियों ने राज्य के वित्त को स्थिर करने और सार्वजनिक सेवाओं में सुधार करने में मदद की। नौकरशाही की शुरूआत ने शिक्षित अभिजात वर्ग के लिए राज्य की सेवा करने के नए अवसर पैदा किए, जिससे सरकारी अधिकारियों के एक वर्ग का उदय हुआ। इसके अतिरिक्त, न्यायिक सुधारों ने आर्थिक गतिविधियों और सामाजिक स्थिरता को बढ़ावा देते हुए अधिक पूर्वानुमानित कानूनी माहौल बनाने में योगदान दिया।
नवाबों के शासनकाल के दौरान लखनऊ की वास्तुकला की विशेषताएं:
धार्मिक वास्तुकला का रूप - इमामबाड़े:
कब्रें, इमामबाड़े और मस्ज़िद जैसी विशाल इमारतें वास्तुकला के पारंपरिक तत्वों को दर्शाती हैं। धार्मिक वास्तुकला की इस शैली में, इमारतों के गुंबदों में जटिल विवरण, लंबी मीनारें, प्रवेश द्वार में सजावटी तत्व के रूप में मछली, आधार के लिए उच्च चबूतरे, मठ, मेहराब और छतरी शामिल हैं।
रूमी दरवाज़ा: यह लखनऊ में अवधी वास्तुकला के उदाहरणों में से एक है, जिसका निर्माण, 1784 में नवाब आसफ़-उद-दौला द्वारा किया गया था। रूमी दरवाज़े का वास्तुशिल्प विवरण इस तरह से है जैसे कि यह मुगलों के जीवन जीने के तरीके का प्रतिनिधित्व करता हो। उल्टा वी-धनुषाकार प्रवेश द्वार, चिकनकारी कपड़ों की स्थानीय शैली को दर्शाता है। यह दरवाज़ा, छोटे और बड़े इमामबाड़ा के बीच एक संबंध की तरह काम करता है। 60 फ़ीट ऊंचे इस दरवाज़े में मूल रूप से लाल पत्थर की संरचना है, जिसके ऊपर सजावटी मेहराबों के लिए ईंटों की परतों का उपयोग किया गया है।
फ़रहत बख्श: 1781 में एक आवासीय महल के रूप में निर्मित इस कलात्मक वास्तुशिल्प डिज़ाइन को छत्तर मंजिल के रूप में भी जाना जाता है। यह इमारत, गोमती नदी के तट पर स्थित है, जो एक अष्टकोणीय आधार पर नदी के सबसे निचले स्तर से ऊपर उठी हुई है। इस इमारत के डिज़ाइन में इंडो-मुगल और यूरोपीय तत्वों का मिश्रण देखने को मिलता है।
अवध वास्तुकला में प्रयुक्त भवन निर्माण-सामग्री:
अवध वास्तुकला शैली की विशेषता लोहे का कम उपयोग और बीम न होना है। लखौरी ईंटों, ऊंचे गुंबददार हॉल और छत की मुंडेरों के साथ, इस वास्तुकला शैली में एक यूरोपीय रंग देखने को मिलता है। लखौरी ईंटों से बनी संरचनाओं पर आमतौर पर चूने का प्लास्टर भी लगाया जाता था। सजावट के लिए, अधिकांश सामग्री दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आयात की जाती थी। संगमरमर एवं प्राकृतिक पत्थरों का प्रयोग भी आम था।
लखनऊ की वास्तुकला पर इंडो-इस्लामिक प्रभाव:
लखनऊ के नवाब, मुगल कुलीन वर्ग के ईरानी समूह से संबंधित थे और इसलिए उनका फ़ारसी विचारधाराओं से गहरा संबंध था। इस विचारधारा ने उनकी शैलीगत विशेषताओं को प्रभावित किया, जैसे, मछली जैसे पशु रूपांकनों का उपयोग। कई स्मारकों के प्रवेश द्वारों के मेहराब पर मछली के ये प्रतीक देखे जा सकते हैं। सभी मृत नवाबों के लिए एक मकबरा भी बनवाया जाता था। उस समय के घरों में मर्दाना और ज़नाना भाग अलग होते थे। घरों में भूलभुलैया जैसे रास्ते भी होते थे, जो मुख्य रूप से निवासियों द्वारा उपयोग किए जाते थे। इस वास्तुकला का रणनीतिक महत्व था, क्योंकि बाहरी लोग संकीर्ण रास्तों की जटिलता को समझने में असमर्थ होते थे और इसलिए अजनबी यहां तक नहीं पहुंच सकते थे।
यूरोपीय प्रभाव:
भारत की गर्म जलवायु ने, विशेष रूप से गर्मियों के दौरान, ब्रिटिशों को स्वदेशी घरों की तुलना में यूरोपीय घरों को प्राथमिकता देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वदेशी घरों के विपरीत, क्षेत्र में यूरोपीय घरों में बीच में आंगन नहीं होता था और घर के भीतर निजी और सार्वजनिक स्थान अलग-अलग थे। इसका एक उदाहरण लखनऊ की सबसे पुरानी यूरोपीय इमारतों में से एक दुलकुशा में प्रभावी ढंग से देखा जा सकता है। इसके अलावा, पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग स्थान नहीं थे और दरवाज़े तथा खिड़कियां बहुत बड़े होते थे। अंदर से अलंकृत स्वदेशी घरों के स्थान पर अब बाहर से अलंकरण का भव्य प्रदर्शन किया जाने लगा।
संदर्भ
लखनऊ का हार्डिंग पुल चित्र स्रोत : प्रारंग चित्र संग्रह
आइए, नज़र डालें, धीमी गति में उन चालों पर, जो घोड़ों को बनाती हैं अनोखा
व्यवहारिक
By Behaviour
27-04-2025 09:02 AM
Lucknow-Hindi

हमारे प्यारे शहर वासियों, क्या आप जानते हैं, कि घोड़े की चाल (Horse Gait), उसके चलने के एक विशिष्ट तरीके को प्रदर्शित करती है। आपने अक्सर देखा होगा कि घोड़े एक विशिष्ट लय के साथ चलते हैं। उनकी यह चालें प्राकृतिक भी हो सकतीं हैं या उन्हें प्रशिक्षण के माध्यम से ऐसे चलना सिखाया जा सकता है। प्रत्येक चाल का एक विशिष्ट पैटर्न और गति होती है। घोड़े की सबसे सामान्य प्राकृतिक चालों में आम तरीके से चलना, दुलकी चाल (trot), कैंटर (canter) या लोप (lope) और सरपट चाल (gallop) शामिल हैं। दूसरी ओर, इनकी कृत्रिम चालों के उदाहरणों में रैक (rack), धीमी चाल और फ़ॉक्स ट्रॉट (fox trot) शामिल हैं। इन जीवों को एक विशिष्ट चाल मुख्य रूप से सुविधाजनक गति देने के लिए सिखाई जाती है। घोड़ों की चाल में एक प्राकृतिक संतुलन और गति का संयोजन होता है है, जो इनको आराम से चलने से लेकर तेज़ सरपट दौड़ने तक में मदद करता है। घोड़ों की चाल की बात करें तो मारवाड़ी घोड़े की नस्ल, भारत में अपनी गति और धैर्य के लिए जानी जाती है। घोड़ों को एक विशिष्ट चाल देने के लिए उन्हें एक विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है क्योंकि कृत्रिम चाल स्वाभाविक रूप से नहीं उभरती है। कुछ नस्लें जैसे पासो फिनो (Paso Fino) या टेनेसी वॉकिंग हॉर्स (Tennessee Walking Horse) आदि आसानी से कृत्रिम चाल को अपना लेती हैं। तो चलिए, आज, हम धीमी गति में प्रस्तुत कुछ चलचित्रों के ज़रिए घोड़ों की विभिन्न चालों, चलते समय उनके अपनी गति पर नियंत्रण और उसकी शान को नज़दीक से देखेंगे। प्रत्येक वीडियो क्लिप के माध्यम से हम समझेंगे कि घोड़े की चाल उसके बल, संतुलन और लय को किस तरह दर्शाती है। एक अन्य दृश्य से हम जानेंगे कि चलते समय मारवाड़ी घोड़े की विशिष्ट शैली कैसे उभर कर सामने आती है।
संदर्भ:
स्पैन्डेक्स जैसे सिंथेटिक फ़ैब्रिकों से बने वस्त्र बदल रहे हैं लखनऊ के कपड़ा बाज़ार को !
स्पर्शः रचना व कपड़े
Touch - Textures/Textiles
26-04-2025 09:15 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ का वस्त्र बाज़ार अपनी पारंपरिक चिकनकारी कढ़ाई के लिए जाना जाता है, लेकिन अब यहाँ के बाज़ार में पॉलिएस्टर (Polyester), नायलॉन (Nylon), रेयॉन (Rayon) और स्पैन्डेक्स जैसे सिंथेटिक कपड़ों की मांग बढ़ रही है। ये कपड़े खासतौर पर खेलकूद के कपड़ों, आरामदायक पोशाकों और आधुनिक फ़ैशन में इस्तेमाल किए जाते हैं।
अगर मानव-निर्मित कपड़ों की बात करें, तो ये मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं – सिंथेटिक और सेलूलोसिक। सेलूलोसिक रेशे लकड़ी के गूदे से बनाए जाते हैं, जबकि सिंथेटिक रेशे कच्चे तेल से तैयार होते हैं।
अब अगर स्पैन्डेक्स की बात करें, तो इसे इलास्टेन (Elastane) या लाइक्रा (Lycra) भी कहा जाता है। यह एक ऐसा सिंथेटिक रेशा है, जो अपनी खिंचने और फिर से पहले जैसे आकार में लौटने की क्षमता के लिए जाना जाता है। इसी वजह से इसे खेलकूद के कपड़ों, तैराकी की पोशाकों और टाइट- फ़िटिंग वस्त्रों में इस्तेमाल किया जाता है।
आज हम भारत में बनने वाले सिंथेटिक कपड़ों के प्रकार और उनके उपयोगों के बारे में विस्तार से जानेंगे। फिर, हम स्पैन्डेक्स के इतिहास, इसके अलग-अलग नाम, इसके उपयोग, और भारत में इसके बड़े आयातकों और निर्यातकों के बारे में जानेंगे। आखिर में, हम भारत के स्पैन्डेक्स बाज़ार की वर्तमान स्थिति पर भी चर्चा करेंगे।
भारत में बनने वाले अलग-अलग तरह के सिंथेटिक फ़ैब्रिक
1. रेयॉन – यह कपास (कॉटन) या ऊन (वूल) के साथ मिलाकर बनाया जाता है। यह एक सस्ता और दोबारा इस्तेमाल होने वाला (रिन्यूएबल) पदार्थ है। रेयॉन बहुत नरम, पानी सोखने वाला और आरामदायक होता है। इसे आसानी से अलग-अलग रंगों में रंगा जा सकता है। कच्चे माल की उपलब्धता और उत्पादन तकनीकों में सुधार की वजह से इसका बाज़ार तेज़ी से बढ़ रहा है।
2. नायलॉन – इसे पानी, कोयले और हवा से बनाया जाता है। यह मज़बूत, खिंचने वाला, हल्का और रेशमी चमक वाला होता है। इसे साफ़ करना भी बहुत आसान होता है। नायलॉन का इस्तेमाल, पैंटीहोज़ (स्त्रियों और बच्चियों की) लंबी जुराब या मोज़े से जुड़ा बहुत महीन कपड़े से बना अंतःवस्त्र, रस्सियां और बाहरी पहनावे बनाने में किया जाता है। मज़बूत नायलॉन रेशों का उपयोग आउटडोर कपड़ों में भी किया जाता है।
3. पॉलिएस्टर – यह एस्टर के कई छोटे-छोटे हिस्सों से मिलकर बनता है। यह ऐसा कपड़ा है जिसे धोना आसान होता है और यह बिना सिकुड़े लंबे समय तक नया दिखता है। पॉलिएस्टर का उपयोग सिर्फ कपड़ों में ही नहीं बल्कि प्लास्टिक की बोतलें, बर्तन, फ़िल्में , तार, स्वेटर, ट्रैकसूट और जूतों व दस्तानों की परतें बनाने में भी किया जाता है।
4. ऐक्रिलिक – ऐक्रिलिक रेशे ऊन का एक सस्ता और टिकाऊ विकल्प बन चुके हैं। इसीलिए इसका इस्तेमाल हाथ से बुनाई (निटिंग) और जुराबों जैसी चीजों में ज़्यादा होने लगा है। ऐक्रिलिक ऊन जैसी दिखती है लेकिन यह ज़्यादा टिकाऊ, रंगों में चमकदार, हल्की, धोने में आसान, जल्दी ख़राब न होने वाली और धूप व पानी में टिकाऊ होती है। इसी वजह से इसका उपयोग कंबल और कालीन बनाने में भी किया जाता है।
भारत के स्पोर्ट्सवेयर उद्योग में अलग-अलग कपड़ों का इस्तेमाल
1. पॉलिएस्टर – स्पोर्ट्सवेयर और एथलीज़र (आरामदायक स्पोर्ट्स कपड़े) में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला कपड़ा पॉलिएस्टर है। इसकी खासियत यह है कि यह सस्ता, टिकाऊ और हल्का होता है। इसके अलावा, इसमें कुछ ऐसे गुण होते हैं जो इसे सक्रिय वस्त्रों (Activewear) के लिए बेहतरीन बनाते हैं। पॉलिएस्टर को अक्सर अन्य कपड़ों के साथ मिलाकर ज्यादा आरामदायक बनाया जाता है। उदाहरण के लिए, पॉलिएस्टर और स्पैन्डेक्स का मिश्रण एक ऐसा कपड़ा बनाता है जो खिंचाव वाला और जल्दी अपनी पुरानी शेप में आने वाला होता है। यही वजह है कि इस मिश्रण का इस्तेमाल लेगिंग्स, स्पोर्ट्स ब्रा और टाइट-फ़िटिंग स्पोर्ट्सवेयर में किया जाता है।
2. नायलॉन – नायलॉन को आमतौर पर स्पोर्ट्स ब्रा, साइक्लिंग शॉर्ट्स और टाइट- फ़िटिंग कपड़ों में इस्तेमाल किया जाता है क्योंकि यह शरीर को अच्छा सपोर्ट देता है। इसके अलावा, इसे अन्य कपड़ों की मज़बूती बढ़ाने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। उदाहरण के लिए, कई स्पोर्ट्स ब्रा में बाहरी परत नायलॉन की होती है और अंदरूनी परत कॉटन या पॉलिएस्टर की। अगर इसे बुने हुए कपड़ों में इस्तेमाल किया जाए, तो यह स्विमवीयर (तैराकी के कपड़ों) के लिए बेहतरीन होता है क्योंकि यह बहुत लचीला (खिंचने वाला) और शरीर पर अच्छी तरह फिट बैठता है।
3. मेरिनो ऊन – मेरिनो ऊन एक खास तरह की ऊन होती है जो मेरिनो भेड़ों से मिलती है। यह भेड़ें पहले स्पेन में पाई जाती थीं, लेकिन अब दुनिया भर में मौजूद हैं। यह ऊन बेहद मुलायम होती है और नमी सोखने की ज़बरदस्त क्षमता रखती है, जिससे यह सक्रिय वस्त्रों के लिए एक बढ़िया विकल्प बन जाती है। मेरिनो ऊन का उपयोग खासतौर पर अंदर पहने जाने वाले बेस लेयर्स और उन कपड़ों में किया जाता है जो सीधे त्वचा के संपर्क में आते हैं क्योंकि यह बहुत आरामदायक होती है।
स्पैन्डेक्स से जुड़ी कुछ ज़रूरी जानकारियां
- इतिहास: स्पैन्डेक्स, जिसे लाइक्रा भी कहा जाता है, पहली बार 1958 में जोसेफ शिवर्स नाम के वैज्ञानिक ने एक प्रयोगशाला में बनाया था। यह पुराने पारंपरिक रेशों की तुलना में अभी सिर्फ़ सात दशकों पुराना है, लेकिन इसके आने के बाद से इसकी लोकप्रियता कभी कम नहीं हुई।
- स्पैन्डेक्स के अलग-अलग नाम: यूरोप में इसे ‘इलास्टेन’ (Elastane) के नाम से जाना जाता है, जबकि भारत में ‘स्पैन्डेक्स’ और ‘लाइक्रा’ दोनों नामों का इस्तेमाल कपड़ा उद्योग में किया जाता है।
- मुख्य निर्यातक और आयातक देश: चीन स्पैन्डेक्स का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है। इसके अलावा, भारत, अमेरिका और ब्राज़ील भी स्पैन्डेक्स का उत्पादन करते हैं। वहीं, अमेरिका और यूरोप इस कपड़े के सबसे बड़े आयातक (इम्पोर्टर) हैं।
- उपयोग: लाइक्रा कपड़े का इस्तेमाल आमतौर पर स्पोर्ट्स और आरामदायक कपड़े बनाने में किया जाता है। यह स्पोर्ट्स पैंट, योगा पैंट, फ़िटिंग वाली जींस, अंडरवियर, ब्रा, मोज़े आदि बनाने के लिए सबसे ज़्यादा पसंद किया जाता है।
भारत में स्पैन्डेक्स बाज़ार की स्थिति
भारत, दुनिया के कुल स्पैन्डेक्स बाज़ार का लगभग 15.6% हिस्सा रखता है और 2023 से 2033 के बीच इसमें तेज़ी से बढ़ोतरी होने की उम्मीद है। भारत एक बड़ा कपड़ा निर्माण केंद्र बन चुका है क्योंकि यहाँ विदेशी निवेश, कच्चे माल की उपलब्धता और कम उत्पादन लागत जैसे कारक मौजूद हैं।
शहरों का तेज़ी से विकास और लोगों की जीवनशैली में सुधार के कारण स्थानीय बाज़ार में स्पैन्डेक्स की मांग बढ़ रही है। इसके अलावा, स्वास्थ्य क्षेत्र में भी नई तकनीकों के आने से स्पैन्डेक्स का उपयोग बढ़ा है।
नतीजतन, कपड़ा और स्वास्थ्य उद्योगों में स्पैन्डेक्स की मांग लगातार बढ़ रही है, जिससे भारत में इसका बाज़ार भी तेज़ी से फैल रहा है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत: pixabay
क्या होता है जापानी इंसेफ़ेलाइटिस और कैसे बच सकते हैं, लखनऊ के लोग, इस रोग से ?
कीटाणु,एक कोशीय जीव,क्रोमिस्टा, व शैवाल
Bacteria,Protozoa,Chromista, and Algae
25-04-2025 09:05 AM
Lucknow-Hindi

गर्मियों में लखनऊ की उमस भरी फ़िज़ा और घनी आबादी के बीच मच्छरों को पनपने का भरपूर मौका मिलता है। नतीजतन शहर में वेक्टर जनित बीमारियों का ख़तरा भी कई गुना बढ़ जाता है! इसकी वजह से हर साल कई ज़िंदगियां प्रभावित होती हैं। इन्हीं ख़तरनाक बीमारियों में से एक है, - "जापानी इंसेफ़ेलाइटिस (Japanese Encephalitis)"! यह मच्छर से होने वाला एक जानलेवा संक्रमण रोग होता है, जो ख़ासतौर पर एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्रों में तबाही मचाता है। यह वायरस मस्तिष्क में सूजन (एन्सेफ़ेलाइटिस) पैदा कर सकता है, जिससे तेज़ बुखार, सिरदर्द और गंभीर मामलों में दौरे, कोमा या यहां तक कि मौत भी हो सकती है।
साल 2024 में, भारत में इस वायरल रोग के 1,548 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से सबसे अधिक 925 मामले असम में पाए गए। उत्तर प्रदेश भी इस बीमारी से अछूता नहीं रहा। इसलिए आज के इस लेख में हम जानेंगे कि ये रोग फैलता कैसे है, इसके प्रमुख लक्षण क्या हैं, और इससे बचने के लिए कौन-कौन से उपाय किए जा सकते हैं। साथ ही, हम इस घातक बीमारी के इलाज और रोकथाम के तरीक़ों पर भी विस्तार से चर्चा करेंगे।
क्या है जापानी इंसेफ़ेलाइटिस ?
जापानी इंसेफ़ेलाइटिस एक वायरल रोग होता है, जो मुख्य रूप से मच्छरों (विशेष रूप से क्यूलेक्स प्रजाति) द्वारा जापानी इंसेफेलाइटिस वायरस (जे ई वी) के फैलने से होता है। यह मच्छर, संक्रमित पक्षियों या सूअरों का ख़ून चूसते हैं और फिर मनुष्यों को काटकर वायरस स्थानांतरित कर देते हैं। हालांकि, अधिकतर मामलों में संक्रमित व्यक्ति को इसका एहसास भी नहीं होता! वास्तव में 100 में से केवल 4 से भी कम लोगों में इसके लक्षण नज़र आते हैं। लेकिन अगर लक्षण विकसित होते हैं, तो यह आमतौर पर संक्रमण के 5 से 15 दिनों के भीतर दिखाई देते हैं।
गंभीर मामलों में क्या होता है ?
यह वायरस मस्तिष्क और उसके आस-पास के ऊतकों में सूजन (इंसेफ़ेलाइटिस या मेनिन्जाइटिस (meningitis)) पैदा कर सकता है, जिससे स्वास्थ्य से संबंधित गंभीर समस्याएँ पैदा हो सकती हैं।
ऐसे मामलों में निम्नलिखित लक्षण दिख सकते हैं:
तेज़ बुखार।
सिरदर्द और गर्दन में अकड़न।
उल्टी आना।
दौरे पड़ना या अनियंत्रित कंपन।
मांसपेशियों में कमज़ोरी या लकवे की स्थिति।
अत्यधिक थकान या कोमा में चले जाना।
मानसिक भ्रम और बेचैनी।
उत्तर प्रदेश में, हाल के वर्षों में, जापानी इंसेफ़ेलाइटिस के कितने मांमले सामने आए हैं ?
साल 2024 में उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य क्षेत्र ने एक महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त की! दरअसल इस साल राज्य में जापानी इंसेफ़ेलाइटिस से एक भी मौत दर्ज नहीं की गई। यह सफलता इसलिए भी ख़ास है, क्योंकि 2005 तक राज्य के हालात बेहद गंभीर थे। साल 2005 में, जापानी इंसेफ़ेलाइटिस (JE) और एक्यूट इंसेफ़ेलाइटिस सिंड्रोम (Acute Encephalitis Syndrome (AES)) के प्रकोप ने 6,000 से अधिक बच्चों को संक्रमित किया था, और इस खतरनाक बीमारी की वजह से 1,400 से ज़्यादा मासूमों की जान चली गई थी। साल 2005 में गोरखपुर इस महामारी का सबसे बड़ा केंद्र बन चुका था। हालात इतने भयावह थे कि सरकार को तत्काल कदम उठाने पड़े। लेकिन 2017 तक भी स्थिति चिंताजनक बनी रही। 2017 तक, जापानी इंसेफ़ेलाइटिस और एक्यूट इंसेफ़ेलाइटिस सिंड्रोम के कारण 50,000 से अधिक मौतें हो चुकी थीं! यह आँकड़ा बताता है कि यह बीमारी कितनी घातक थी और इससे निपटने के लिए ठोस क़दम उठाने की कितनी ज़रूरत थी।
अब सवाल यह उठता है कि इतनी गंभीर स्थिति में सुधार कैसे हुआ ?
2018 से इंसेफ़ेलाइटिस के मामलों और मौतों में नाटकीय रूप से गिरावट दर्ज की गई।
2018: ए ई एस से 149 मौतें हुईं, लेकिन 2024 तक यह आँकड़ा शून्य हो गया।
2018: जे ई से 12 मौतें दर्ज की गईं, जो 2024 तक यह आँकड़ा भी शून्य हो गया।
2018: ए ई एस के 1,472 मामले सामने आए थे, जो 2024 में घटकर सिर्फ 116 रह गए।
2018: जे ई के 174 मामले थे, जो 2024 में सिर्फ़ 5 रह गए।
इस अवधि में उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल क्षेत्र इंसेफ़ेलाइटिस से सबसे अधिक प्रभावित रहा। विशेष रूप से गोरखपुर, बस्ती, महाराजगंज, कुशीनगर, सिद्धार्थनगर और संत कबीर नगर ज़िले इस महामारी के केंद्र थे। 2005 से 2017 के बीच इन्हीं ज़िलों में 50,000 से अधिक बच्चों की जान चली गई थी। इस लिहाज़ से उत्तर प्रदेश में जेई और एईएस पर नियंत्रण पाना वाक़ई में एक सराहनीय उपलब्धि है।
जापानी इंसेफ़ेलाइटिस को फैलने से रोकने के लिए निम्नलिखित सावधानियाँ बरतें:
✔ रक्तदान से बचें: यदि किसी व्यक्ति को हाल ही में यह संक्रमण हुआ है, तो उसे 120 दिनों तक रक्त या अस्थि मज्जा दान नहीं करना चाहिए।
✔ संक्रमित जानवरों से दूरी बनाए रखें: मृत जानवरों को नंगे हाथों से न छूएँ।
✔ सुरक्षित तरीके से निपटान करें: यदि आपको किसी मृत जानवर को हटाना हो, तो दस्ताने पहनें या दो प्लास्टिक बैग की मदद से उसे कूड़ेदान में डालें।
इसका इलाज कैसे किया जाता है?
अभी तक वैज्ञानिक इस बीमारी का कोई ठोस और सीधा इलाज नहीं खोज पाए हैं। डॉक्टर सिर्फ़ लक्षणों को कम करने और मरीज़ की हालत को स्थिर रखने पर ध्यान देते हैं। इसके इलाज के दौरान बुखार को कम करने, मस्तिष्क की सूजन को नियंत्रित करने और शरीर को मज़बूत बनाए रखने पर ध्यान दिया जाता है। इसके अलावा मरीज़ को आरामदायक और सुरक्षित माहौल देना भी ज़रूरी होता है, ताकि उसका शरीर वायरस के साथ पूरी क्षमता से लड़ सके।
ठीक होने में कितना समय लगता है ?
अगर कोई व्यक्ति इस जानलेवा बीमारी से बच भी जाता है, तो उसके पूरी तरह ठीक होने में लंबा समय लग सकता है। कई मरीज़ों को कमज़ोरी दूर करने और शरीर की क्षमता वापस हासिल करने के लिए पुनर्वास (rehabilitation) की ज़रूरत पड़ती है। कुछ मामलों में यह बीमारी मरीज़ को लंबे समय तक प्रभावित कर सकती है! इस स्थिति को 'सीक्वेले (sequelae)' कहा जाता है। इसका असर पीड़ित व्यक्ति की सेहत, शिक्षा, सामाजिक जीवन और रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर पड़ सकता है। खासकर ग़रीब और मध्यम आय वाले देशों में, सही इलाज और मदद मिलना आसान नहीं होता।
अगर किसी को विकलांगता हो जाए तो क्या करें ?
लेकिन अगर आपके आसपास कोई व्यक्ति इस बीमारी के कारण किसी तरह की विकलांगता से जूझ रहा है, तो निराश न हों। दरअसल इंसेफ़ेलाइटिस से जूझ रहे मरीज़ोंकी मदद करने के लिए कई स्थानीय और राष्ट्रीय संगठन निरंतर कार्य कर रहे हैं। विकलांग व्यक्तियों के संगठन (Organizations of Disabled People (ODP)) और अन्य नेटवर्क कानूनी सहायता, इन लोगों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करने और सामाजिक जुड़ाव कायम करने में मदद कर सकते हैं। इन संसाधनों और उपायों की मदद से इंसेफ़ेलाइटिस से प्रभावित लोग भी एक बेहतर और सार्थक जीवन जी सकते हैं।
संदर्भ
मुख्य चित्र में जापानी इंसेफ़ेलाइटिस के मरीज और मच्छर का स्रोत : Wikimedia
लखनऊ के युवा कर सकते हैं, बायोटेक विनिर्माण क्षेत्र में अनुसंधान व उद्योग के प्रयत्न
नगरीकरण- शहर व शक्ति
Urbanization - Towns/Energy
24-04-2025 09:16 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के कुछ लोगों ने, ‘बायोटेक विनिर्माण (Biotech Manufacturing)’ शब्द सुना होगा। यह प्रक्रिया दवाओं, जैव ईंधन और औद्योगिक रसायनों जैसे व्यावसायिक रूप से मूल्यवान उत्पादों का उत्पादन करने हेतु, जैविक प्रणालियों (कोशिकाओं और सूक्ष्मजीवों) का उपयोग करती है। यह कहते हुए, यह जानना महत्वपूर्ण है कि, भारत का जैव-आर्थिक उद्योग, वैश्विक जैव प्रौद्योगिकी उद्योग में लगभग 3% हिस्सेदारी रखता है। हालिया अनुमानों के अनुसार, इस उद्योग का मूल्य 2021-22 में 80.12 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। तो आज, आइए, यह समझने की कोशिश करें कि, बायोटेक विनिर्माण क्या है, और यह कैसे काम करता है। फिर, हम भारत में इस उद्योग की वर्तमान स्थिति के बारे में जानेंगे। उसके बाद, हम भारत में जैव प्रौद्योगिकी के सबसे महत्वपूर्ण अनुप्रयोगों का पता लगाएंगे। अंत में, हम भारत में जैव प्रौद्योगिकी उद्योग के विकास के लिए हाल के वर्षों में किए गए, कुछ उपायों और पहलों के बारे में बात करेंगे।
बायोटेक विनिर्माण क्या है, और यह कैसे काम करता है?
बायोमैन्युफ़ैक्चरिंग अर्थात जैव प्रौद्योगिकी विनिर्माण, जीवित जीवों की शक्ति का उपयोग करके, पारंपरिक विनिर्माण प्रक्रियाओं में क्रांति लाता है। आमतौर पर खाद्य और दवाओं के उत्पादन में नियोजित बायोटेक विनिर्माण, वैकल्पिक विनिर्माण विधियों पर महत्वपूर्ण लाभ प्रदान करता है। प्राकृतिक प्रक्रियाओं का उपयोग करके, यह प्रक्रिया अधिक पर्यावरण अनुकूल है। गैर-नवीकरणीय जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करते हुए, जैव प्रौद्योगिकी विनिर्माण में कम संसाधनों और कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
इससे अपशिष्ट उत्पादों को पुनरुद्देशित किया जा सकता है, और आगे इसके पर्यावरणीय प्रभाव को कम किया जा सकता है।
भारत में जैव प्रौद्योगिकी उद्योग की वर्तमान स्थिति:
भारत डी पी टी (Diphtheria, Tetanus & Pertussis (DPT)), बी सी जी (Bacillus Calmette-Guérin (BCG)) और चेचक (Measles) टीकों का, दुनिया का शीर्ष आपूर्तिकर्ता है। 2021-22 में भारतीय जैव-आर्थिक क्षेत्र ने, भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी – GDP) में लगभग 2.6% योगदान दिया। इस उद्योग के विस्तार के कारण, देश में बायोटेक स्टार्ट-अप की संख्या पिछले दस वर्षों में, 50 से 5,300 से अधिक हो गई है। ये बायोटेक स्टार्ट-अप्स, 2025 तक 10,000 से अधिक होने का अनुमान है। 2021 में बीटी कपास (BT Cotton), बायोपेस्टीसाइड्स (Biopesticides), बायोस्टिमुलेंट्स (Biostimulants), और बायोफ़र्टिलाइज़र्स (Biofertilizers) ने देश के जैव-अर्थव्यवस्था में 10.48 बिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान दिया। भारत, जैव प्रौद्योगिकी विभाग की स्थापना करने वाले, कुछ पहले देशों में से एक था। बढ़ती आर्थिक समृद्धि, स्वास्थ्य चेतना में वृद्धि और एक अरब से अधिक जनसंख्या आधार के कारण, भारतीय बायोटेक उद्योग में काफ़ी वृद्धि होने की उम्मीद है। केंद्रीय बजट 2023-24 में, जैव प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Biotechnology (DBT)) को 1,345 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे।
भारत में जैव प्रौद्योगिकी के सबसे महत्वपूर्ण अनुप्रयोग क्या हैं ?
1.) टीका उत्पादन में उन्नति:
टीका उत्पादन में भारत के कौशल ने, इसे “फ़ार्मेसी ऑफ़ द वर्ल्ड (Pharmacy of the world)” का नाम दिलायाहै। भारत 60% वैश्विक टीका उत्पादन करता है। हमारा देश, विश्व स्वास्थ्य संगठन की डिप्थीरिया (Diphtheria), टीटेनस (Tetanus) और डी पी टी टीकों की 40-70% मांग पूरा करता है। कोविड-19 महामारी के बाद, भारत का सीरम संस्थान (Serum Institute) दुनिया का सबसे बड़ा टीका निर्माता बन गया।
2.) कृषि क्रांति 2.0:
जैव प्रौद्योगिकी जलवायु-लचीली फ़सलों से लेकर, उच्च पोषण संबंधी अन्न तक, भारत की कई कृषि चुनौतियों का समाधान प्रदान करती है। भारत की पहली आनुवंशिक रूप से संशोधित फ़सल – बीटी कपास, अब 95% कपास खेती में उगाई जाती है, जिससे पैदावार में काफ़ी वृद्धि हुई है। सुखा-प्रतिरोधी चावल की किस्मों और गोल्डन राइस (Golden rice) जैसी बायोफ़ोर्टिफ़ाइड फ़सलों (Biofortified crops) में अनुसंधान, भारत की बढ़ती आबादी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है।
3.) पर्यावरण की सुरक्षा:
प्रदूषित जगहों को साफ़ करने हेतु, बायोरिमीडीएशन (Bioremediation) तकनीक विकसित की जा रही है, जिसमें मुंबई में वर्सोवा बीच की सफ़ाई जैसी सफ़ल परियोजनाएं हैं। बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक (Biodegradable plastic) और जैव-आधारित सामग्रियों का विकास, भारत के अपशिष्ट प्रबंधन संकट को दूर करने में मदद कर सकता है। इसके अलावा, बायोटेक कार्बन कैप्चर (Carbon capture) के लिए दृष्टिकोण, भारत के महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
भारत में जैव प्रौद्योगिकी के विकास के लिए किए गए, सरकारी उपाय और पहलें:
1.राष्ट्रीय बायोफ़ार्मा मिशन (National Biopharma Mission):
यह देश में जैविक दवाओं के विकास में तेज़ी लाने के लिए, उद्योग और शिक्षाविदों के बीच एक सहयोगी मिशन है। सरकार ने इस मिशन के हिस्से के रूप में, मई 2017 में, इनोवेट इन इंडिया (Innovate in India) कार्यक्रम शुरू किया, ताकि इस क्षेत्र में उद्यमशीलता और स्वदेशी विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए एक सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र बनाया जा सके। मि इस शन को जैव प्रौद्योगिकी उद्योग अनुसंधान सहायता परिषद (Biotechnology Industry Research Assistance Council (BIRAC)) द्वारा लागू किया जाएगा।
2.बायोटेक किसान (Biotech KISAN):
जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने 2017 में, बायोटेक कृषी इनोवेशन साइंस एप्लीकेशन नेटवर्क ( Biotech-Krishi Innovation Science Application Network) नामक एक पहल शुरू की । इसका लक्ष्य कृषि स्तर पर अभिनव समाधान और प्रौद्योगिकियों को विकसित करने, और उन्हें लागू करने के लिए विज्ञान प्रयोगशालाओं और किसानों को एक साथ लाना है।
3.अटल जय अनुसंधान बायोटेक मिशन (Atal Jai Anusandhan Biotech Mission):
इसे जैव प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा लागू किया गया था, और इस मिशन का उद्देश्य मातृ और बाल स्वास्थ्य, रोगाणुरोधी प्रतिरोध, संक्रामक रोग, भोजन और पोषण के लिए टीके, और स्वच्छ प्रौद्योगिकियों की चुनौतियों का समाधान करना है।
4.एक स्वास्थ्य कंसोर्टियम (One Health Consortium):
2021 में, जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने देश में पशुजनक और ट्रांसबाउंडरी रोगजनकों (Transboundary pathogens) के महत्वपूर्ण जीवाणु, वायरल और परजीवी संक्रमणों का सर्वेक्षण करने के लिए, एक ‘एक स्वास्थ्य’ संघ की स्थापना की।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Wikimedia
परिशुद्ध कृषि के माध्यम से बेहतर फ़सल पैदावार सुनिश्चित कर सकते हैं लखनऊ के किसान
संचार एवं संचार यन्त्र
Communication and IT Gadgets
23-04-2025 09:25 AM
Lucknow-Hindi

लखनऊ के नागरिकों, परिशुद्ध कृषि और एआई-संचालित प्रौद्योगिकी के साथ कृषि एक स्मार्ट और अधिक कुशल भविष्य की ओर बढ़ रही है। पारंपरिक खेती के तरीके अक्सर अनुमान पर निर्भर होते हैं, लेकिन एआई-संचालित उपकरणों के साथ, किसान अब मिट्टी के स्वास्थ्य की निगरानी करने, मौसम के पैटर्न की भविष्यवाणी करने और फ़सल की बीमारियों का जल्द पता लगाने के लिए ड्रोन, सेंसर और स्मार्ट सिंचाई प्रणालियों का उपयोग कर सकते हैं। ये उन्नत प्रणालियाँ पानी और उर्वरक की बर्बादी को कम करने, उत्पादकता बढ़ाने और बेहतर फ़सल पैदावार सुनिश्चित करने में मदद करती हैं। तो आइए आज, परिशुद्ध कृषि के बारे में जानते हुए, परिशुद्ध कृषि में उपयोग होने वाली आवश्यक प्रौद्योगिकियों जैसे जीपीएस, सेंसर और स्वचालन आदि पर कुछ प्रकाश डालते हैं। इसके साथ ही, हम आधुनिक कृषि में एआई की भूमिका के बारे में समझेंगे। अंत में, हम परिशुद्ध कृषि के लाभों पर प्रकाश डालेंगे।
परिशुद्ध कृषि:
परिशुद्ध कृषि एक ऐसा अभिनव दृष्टिकोण है, जिसके तहत पारंपरिक कृषि तकनीकों की तुलना में अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए कृषि सामग्रियों (जैसे बीज, उर्वरक) का उपयोग सटीक मात्रा में किया जाता है।यह उच्च प्रौद्योगिकी सेंसर और विश्लेषण उपकरणों का उपयोग करके फ़सल की पैदावार में सुधार करने का विज्ञान है। परिशुद्ध कृषि में कई मापदंडों की निगरानी करने और फ़सल की वृद्धि से संबंधित जानकारी, जैसे मिट्टी की नमी, पीएच आदि एकत्र करने के लिए कई उन्नत प्रौद्योगिकियों और उपकरणों का उपयोग किया जाता है। इस जानकारी का उपयोग करके लक्ष्य प्राप्त करने के लिए उपयुक्त समायोजन किए जाते हैं। उपयुक्त समायोजन से कृषि सामग्रियों की प्रभावशीलता में सुधार लाने में मदद मिलती है, जिससे पैदावार बढ़ती है। उत्पादन बढ़ाने, श्रम समय कम करने और उर्वरकों और सिंचाई प्रक्रियाओं के प्रभावी प्रबंधन को सुनिश्चित करने जैसे लाभों के कारण, परिशुद्ध कृषि को आज दुनिया भर में अपनाया जा रहा है।
परिशुद्ध कृषि में आवश्यक कुछ प्रौद्योगिकी:
- सैटेलाइट पोजिशनिंग सिस्टम (Satellite positioning systems):यह प्रणाली किसानों को सैटेलाइटों के नेटवर्क के माध्यम से, अंतरिक्ष से पृथ्वी पर सटीक स्थान संबंधी विवरण भेजकर, फ़सल की स्थिति की निगरानी करने में सक्षम बनाती है।
- भौगोलिक सूचना प्रणाली (Geographic Information Systems (GIS): यह प्रणाली किसी विशिष्ट स्थान पर फ़सल को प्रभावित करने वाले कारकों के बीच संबंधों को समझने के लिए उपयोग किए जाने वाले डेटा मापदंडों पर जानकारी प्रदान करती है।
- सेंसर (ऑप्टिकल):ये मिट्टी के गुणों, पौधों की उर्वरता और पानी की स्थिति पर आवश्यक जानकारी प्रदान करते हैं।
- ग्रिड मृदा नमूनाकरण (Grid soil sampling): यह किसी स्थान पर विशिष्ट मृदा प्रबंधन के लिए एक विधि है।
- रिमोट सेंसिंग:यह सैटेलाइटों के माध्यम से एकत्र किया गया डेटा है, जो फ़सल स्वास्थ्य और संबंधित मापदंडों के मूल्यांकन में सहायता करता है।
- परिवर्तनीय दर प्रौद्योगिकी: यह प्रणाली भूमि पर उर्वरक, कीटनाशक, बीज और सिंचाई जैसी सामग्रियों को स्वचालित रूप से लागू करने में सहायता करती है।
- लेज़र भू-समतलीकरण यंत्र(Laser land leveller): पूरे क्षेत्र में एक निर्देशित लेज़र बीम का उपयोग करके वांछित ढलान की एक निश्चित डिग्री के भीतर एक क्षेत्र को समतल करने में सहायता करती है।
- उपज मॉनिटर के साथ कंबाइन हार्वेस्टर: इसके अनाज एलिवेटर में अनाज के प्रवाह को लगातार मापा और रिकॉर्ड किया जाता है। जब एक जीपीएस को रिसीवर के साथ जोड़ा जाता है, तो एक उपज मॉनिटर उपज मानचित्रों के लिए आवश्यक डेटा प्रस्तुत करता है।
- पत्ती के रंग का चार्ट: फसल में नाइट्रोजन (N) की कमी का त्वरित,आसान और सस्ता निदान करनके लिए यह चार्ट उपयोगी है।
- स्वचालित सिंचाई प्रणालियां: ये प्रणालियां निगरानी के अलावा न्यूनतम मानवीय हस्तक्षेप के साथ सिस्टम टाइमर, सेंसर या कंप्यूटर, या यांत्रिक उपकरणों के साथ स्वचालित होती हैं।
आधुनिक कृषि में एआई की भूमिका-
आधुनिक कृषि की सफलता के लिए एआई तकनीक के दो उदाहरण - मशीन लर्निंग और डेटा विश्लेषण महत्वपूर्ण हैं। पैटर्न और संबंध खोजने के लिए, मशीन लर्निंग एल्गोरिदम सेंसर, उपग्रहों और ड्रोन से एकत्र किए गए डेटा की भारी मात्रा को संसाधित करते हैं। इस डेटा-संचालित जानकारी से किसान अपने खेतों की विशिष्ट आवश्यकताओं को समझने और सटीक कार्रवाई करने में सक्षम हो पाते हैं।
उदाहरण के लिए, विभिन्न प्रकार के सेंसर युक्त एआई-संचालित ड्रोन खेतों की व्यापक तस्वीरें ले सकते हैं, जिनका विश्लेषण कीटों के संक्रमण, पोषण संबंधी कमी या बीमारी के प्रकोप के संकेतकों को देखने के लिए किया जा सकता है। इस प्रकार संबंधित समस्या का शीघ्र पता लगाकर, किसान प्रभावित क्षेत्रों में लक्षित उपचार लागू कर सकते हैं, कीटनाशकों और उर्वरकों की आवश्यकता को समाप्त कर सकते हैं और पर्यावरण पर किसी भी नकारात्मक प्रभाव को कम कर सकते हैं। मिट्टी में तापमान, पोषक तत्व सामग्री और नमी के स्तर को निर्धारित करने के लिए,एआई सिस्टम वहां लगाए गए सेंसर से डेटा की जांच करते हैं। किसान इस जानकारी का उपयोग करके आवश्यकता के अनुसार पानी और उर्वरक की सटीक मात्रा निर्धारित करके बर्बादी को कम कर सकते हैं और पैसे बचा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, एआई-संचालित मॉडल तापमान परिवर्तन और वर्षा पैटर्न का पूर्वानुमान लगाने के लिए ऐतिहासिक और वर्तमान मौसम डेटा दोनों का विश्लेषण करते हैं। यह सक्रिय विधि सिंचाई और रोपण कार्यों को निश्चित करने में मदद करती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि फसलों को सर्वोत्तम संभव विकास परिस्थितियाँ प्राप्त हों। एआई एल्गोरिदम, उपग्रह फ़ोटोग्राफी और मौसम पूर्वानुमान जैसे विभिन्न स्रोतों से डेटा लेकर, फ़सल की उपज क्षमता का सटीक पूर्वानुमान तैयार करता है। इस जानकारी से किसान मूल्य, वितरण और भंडारण के बारे में उचित निर्णय लेकर अपने आर्थिक जोखिम को कम कर सकते हैं।
परिशुद्ध कृषि के लाभ:
- कृषि उत्पादकता में वृद्धि: सेंसर द्वारा एकत्र किए गए डेटा के विश्लेषण के माध्यम से वैज्ञानिक रूप से निर्धारित सटीक मात्रा में कृषि सामग्रियों जैसे उर्वरक, पानी आदि देने से उत्पादन को बढ़ावा मिलता है।
- रासायनों के प्रयोग में कमी: कृषि सामग्रियों की मात्रा आवश्यकता के आधार पर निर्धारित की जाती है। उर्वरकों की आपूर्ति केवल वहीं की जाती है जहां विशिष्ट पोषक तत्वों की कमी होती है। इसी प्रकार खरपतवारनाशी का उपयोग केवल खरपतवार के स्थान पर किया जाता है। वांछित परिशुद्धता के साथ रसायनों के लक्षित उपयोग के लिए ड्रोन का उपयोग किया जाता है। इससे अनावश्यक उपयोग कम होता है और बर्बादी में कमी आती है।
- मिट्टी के क्षरण में कमी: चूंकि रसायनों के अधिक उपयोग से बचा जाता है, यह अवांछित रसायनों को मिट्टी में जाने से रोकता है, जिससे मिट्टी पर उनके हानिकारक प्रभाव को रोका जा सकता है।
- जल संसाधनों का कुशल उपयोग: फ़र्टिगेशन(Fertigation)जैसी तकनीकों के माध्यम से पानी और उर्वरकों का उपयोग आवश्यकता के आधार पर एक साथ किया जाता है।
- कृषि आय में सुधार: उत्पादकता में वृद्धि, कृषि सामग्रियों के उपयोग और बर्बादी में कमी से कृषि आय में सुधार होता है और किसानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाने में मदद मिलती है।
- रोज़गारसृजन: परिशुद्ध कृषि से रोज़गार के कई अवसर सृजित होते है, उदाहरण के लिए, ड्रोन का संचालन एक विशेष कौशल है। ग्रामीण क्षेत्रों में युवाओं को प्रमाणित ड्रोन ऑपरेटर के रूप में प्रशिक्षित और नियोजित किया जा सकता है।
संदर्भ
मुख्य चित्र स्रोत : Pexles
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