लखनऊ - नवाबों का शहर
कैसे साधारण चना, लखनऊ...
कैसे लखनऊ की रसोई में...
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लखनऊवासियो, जानिए दिवा...
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लखनऊ की साँसें और हमार...
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लखनऊवासियो, आइए जानें...
कैसे साधारण चना, लखनऊ की नवाबी तहज़ीब और दुनिया के खाने को जोड़ता है?
शरीर के अनुसार वर्गीकरण
23-10-2025 09:15 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊवासियो, आपने अपने शहर की शाही तहज़ीब और नवाबी दावतों की चर्चाएँ ज़रूर सुनी होंगी। यहाँ का हर ज़ायका - चाहे वो शीरमाल हो, गलावटी कबाब हो या शामी कबाब - अपनी अलग ही पहचान रखता है। इन व्यंजनों में जो गहराई और मुलायमियत मिलती है, उसका एक बड़ा रहस्य छुपा है चने में। जी हाँ, यही साधारण-सा दिखने वाला अनाज, जो हमारी रोज़ की दाल-सब्ज़ी से लेकर कबाबों तक का हिस्सा है, लखनऊ की रसोई का एक गुप्त नायक है। लेकिन चना केवल लखनऊ के खाने तक सीमित नहीं है। इसकी कहानी कहीं ज़्यादा बड़ी और दिलचस्प है। यह अनाज हज़ारों सालों से हमारी संस्कृति, त्योहारों और खानपान का हिस्सा रहा है और आज वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान को मजबूत करता है। सोचिए, एक छोटा-सा दाना किस तरह सभ्यता के इतिहास, सेहत और स्वाद तीनों में अपनी खास जगह बनाए हुए है। लेकिन चने की कहानी केवल लखनऊ के नवाबी खाने तक सीमित नहीं है। इसकी यात्रा कहीं ज़्यादा लंबी और रोचक है। यह अनाज हज़ारों सालों से इंसानी सभ्यताओं का साथी रहा है - मध्य पूर्व की पुरानी सभ्यताओं से लेकर भारत के छोटे-छोटे गाँवों तक इसकी मौजूदगी दर्ज है। त्योहारों की थालियों से लेकर फिल्मों के गीतों तक, चना हमारे सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा है। और आज, यह वही अनाज है जिसने भारत को वैश्विक स्तर पर सबसे बड़ा उत्पादक और आपूर्तिकर्ता बना दिया है। सोचिए, यह छोटा-सा दाना न केवल लखनऊ की शाही दावतों में रौनक लाता है, बल्कि पूरी दुनिया की रसोई और सेहत में भी अपनी अहमियत दर्ज कराता है।
इस लेख में हम सबसे पहले जानेंगे कि भारतीय संस्कृति और वैश्विक स्तर पर चना इतना लोकप्रिय क्यों है। इसके बाद हम इसके उत्पत्ति, इतिहास और प्राचीन महत्व पर नज़र डालेंगे। फिर हम देखेंगे कि देसी और काबुली चने की विविधता और विशेषताएँ क्या हैं और इनका उपयोग कहाँ-कहाँ होता है। इसके बाद हम चने से बने व्यंजनों और खासतौर पर लखनऊ के शाही कबाबों में इसकी भूमिका को समझेंगे। अंत में, हम चने के पोषण, स्वास्थ्य लाभ और उससे जुड़ी वैश्विक चुनौतियों के बारे में चर्चा करेंगे।
भारतीय संस्कृति और वैश्विक स्तर पर चने की लोकप्रियता
भारत के हर छोटे-बड़े बाज़ार में छोले-भटूरे, छोले-कुलचे या समोसे के साथ चटपटे छोले लोगों को आकर्षित करते हैं। इतना ही नहीं, चने की लोकप्रियता फ़िल्मी दुनिया तक पहुँची, जहाँ 1981 की सुपरहिट फ़िल्म क्रांति में “चना जोर गरम” जैसा गीत इसी पर समर्पित था। यह गीत आज भी दर्शाता है कि चना सिर्फ़ भोजन नहीं, बल्कि मनोरंजन और सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है। 2019 के आँकड़ों के अनुसार, वैश्विक चना उत्पादन का लगभग 70% अकेले भारत में हुआ, जो इसे दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक और आपूर्तिकर्ता बनाता है। भारतीय समाज में चना त्योहारों, मेलों और धार्मिक आयोजनों तक में प्रसाद और नाश्ते के रूप में दिया जाता है। विदेशों में बसे भारतीय समुदायों के भोजन में भी चना एक अहम जगह बनाए हुए है। उत्तर भारत में छोले-भटूरे की लोकप्रियता जितनी है, दक्षिण भारत में बेसन से बनी पकौड़ियों और मिठाइयों का स्वाद उतना ही प्रसिद्ध है। इस तरह चना भारतीय जीवन शैली और वैश्विक खाद्य परंपराओं का साझा प्रतीक है।

चना: उत्पत्ति, इतिहास और प्राचीन महत्व
चना (Cicer arietinum — सिसर एरिएटिनम) का इतिहास बेहद प्राचीन है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इसकी पहली खेती लगभग 7000 ईसा पूर्व दक्षिण-पूर्वी तुर्की में हुई थी। वहाँ उगने वाला सिसर रेटिकुलैटम (Cicer reticulatum) इसका जंगली पूर्वज माना जाता है। भारत में इसके अवशेष लगभग 3000 ईसा पूर्व के आसपास मिलते हैं, जिससे यह साबित होता है कि हमारी सभ्यता के आरंभिक दौर में ही इसका प्रयोग शुरू हो चुका था। फ्रांस (France) और ग्रीस (Greece) की मेसोलिथिक (Mesolithic) और नवपाषाण परतों में भी चने के अवशेष मिले हैं। 800 ईस्वी में कैरोलिंगियन (Carolingian) शासक शारलेमेन (Charlemagne) ने अपने शाही बागानों में इसे उगाने का आदेश दिया, जो इसकी सामाजिक महत्ता को दर्शाता है। मध्ययुगीन वैज्ञानिक अल्बर्ट मैग्नस (Albert Magnus) ने इसकी लाल, सफेद और काली किस्मों का ज़िक्र किया था। 17वीं सदी में निकोलस कल्पेपर (Nicholas Culpeper) ने इसे मटर से ज़्यादा पौष्टिक बताया। इतना ही नहीं, 1793 में यूरोप में इसे कॉफी का विकल्प मानकर भूनकर प्रयोग किया जाने लगा। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने बड़े पैमाने पर भुने चनों को कॉफी के स्थान पर उपयोग किया। इससे स्पष्ट है कि चना केवल भोजन का साधन नहीं, बल्कि आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन का भी हिस्सा रहा।
काबुली और देसी चने: विविधता और विशेषताएँ
चना मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है - देसी (काला) और काबुली (सफेद)। देसी चना छोटा, खुरदरी सतह वाला और गहरे रंग का होता है। यह भारत, इथियोपिया (Ethiopia), ईरान (Iran) और मैक्सिको (Mexico) जैसे देशों में उगाया जाता है। इसमें फाइबर (Fiber) की मात्रा अधिक होती है और इसका स्वाद गाढ़ा व मिट्टी जैसा होता है। दूसरी ओर, काबुली चना बड़ा, चिकना और हल्के रंग का होता है। इसका नाम “काबुल” से जुड़ा है क्योंकि माना जाता है कि यह अफगानिस्तान से भारत आया और 18वीं शताब्दी में धीरे-धीरे लोकप्रिय हुआ। इसमें प्रोटीन (Protein) और कार्बोहाइड्रेट (Carbohyderate) की मात्रा अधिक होती है और इसका स्वाद अपेक्षाकृत हल्का व मुलायम होता है। देसी चना मुख्यतः दाल, सब्ज़ी और बेसन के लिए प्रयोग होता है, जिससे पकौड़ी, मिठाइयाँ और अन्य व्यंजन बनाए जाते हैं। वहीं काबुली चना छोले, सलाद और अंतर्राष्ट्रीय व्यंजनों में अधिक इस्तेमाल किया जाता है। यह भी दिलचस्प है कि देसी चना किसानों के लिए अधिक टिकाऊ है क्योंकि यह कठोर परिस्थितियों में उग सकता है, जबकि काबुली चना अपेक्षाकृत संवेदनशील होता है। दोनों किस्में भारतीय पाक परंपरा और वैश्विक भोजन का आधार बनी हुई हैं।

चने से बने पकवान और लखनऊ के शाही कबाबों में भूमिका
चना भारतीय रसोई का अभिन्न हिस्सा है। इससे बनी सब्ज़ियाँ, दालें, मिठाइयाँ, नाश्ते और बेसन से बने पकवान लगभग हर भारतीय घर में मिलते हैं। बेसन से हलवा, लड्डू, मैसूर पाक और बर्फी जैसी लज़ीज़ मिठाइयाँ तैयार होती हैं। वहीं, कच्चे चनों का सलाद में और उबले हुए चनों का सब्ज़ी व नाश्तों में उपयोग आम है। भुना हुआ चना सबसे सस्ता और स्वास्थ्यवर्धक नाश्ता माना जाता है। लखनऊ के नवाबी दौर में बने शाही कबाबों में चने का महत्व और बढ़ जाता है। शामी कबाब की असली पहचान ही यही है कि उसमें मेमने के मांस को उबले हुए चनों के साथ पीसकर एक मुलायम, रसीला और स्वादिष्ट मिश्रण बनाया जाता है। यही कारण है कि यह कबाब आज भी लखनऊ की शान है। इसी तरह राजस्थान के पट्टोड़े कबाब में काले चनों का उपयोग होता है, जिससे उसमें पौष्टिकता और अलग स्वाद जुड़ जाता है। इन उदाहरणों से साफ़ होता है कि भारतीय व्यंजनों की विविधता और खासकर कबाब संस्कृति में चना सिर्फ़ एक सामग्री नहीं, बल्कि स्वाद का गुप्त आधार है।

पोषण, स्वास्थ्य लाभ और वैश्विक चुनौतियाँ
चना पोषण का खज़ाना है। इसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, फोलेट (Folate), आयरन (Iron) और फॉस्फोरस (Phosphorous) जैसे पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। यही वजह है कि इसे शाकाहारियों के लिए प्रोटीन का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है। यह न केवल मानव भोजन बल्कि पशुओं के चारे में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। चना पाचन सुधारने, ऊर्जा प्रदान करने और रक्त में शर्करा का स्तर संतुलित रखने में सहायक है। परंतु इसके सामने चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। जलवायु परिवर्तन, आनुवंशिक विविधता की कमी और रोगजनकों का हमला इसकी पैदावार को प्रभावित कर रहे हैं। कई बार रोगजनक फसल को 90% तक नुकसान पहुँचा देते हैं। वैज्ञानिक अब इसके जीनोम (Genome) अनुक्रमण पर काम कर रहे हैं ताकि ऐसी समस्याओं का समाधान निकाला जा सके।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/5985yjd2
कैसे लखनऊ की रसोई में खमीर ने नान, कुलचे और ब्रेड को बनाया ख़ास?
फफूंदी और मशरूम
22-10-2025 09:14 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊवासियो, आपने कभी गौर किया है कि जब आपकी थाली में गरमा-गरम नान, कुलचा या मुलायम ब्रेड रखी जाती है, तो उसका स्वाद और बनावट कितनी अनोखी होती है? इस जादू के पीछे छिपा है एक छोटा-सा जीव, जिसे हम "खमीर" कहते हैं। खमीर कोई साधारण चीज़ नहीं, बल्कि यह इंसानी खानपान और पाक-कला की सदियों पुरानी परंपरा का अहम हिस्सा है। प्राचीन मिस्र के दौर से लेकर मुग़लिया रसोई और आज की बेकरी तक, खमीर ने हमेशा खाने को और भी लज़ीज़ व हल्का बनाने में खास भूमिका निभाई है। लखनऊ जैसे शहर, जो अपनी तहज़ीब और नवाबी ज़ायके के लिए मशहूर है, वहाँ खमीर से बनी नान और कुलचे की महक आज भी पुराने बाज़ारों और रसोईघरों में महसूस की जा सकती है।
इस लेख में हम खमीर के बारे में चार पहलुओं को आसान भाषा में समझेंगे। सबसे पहले, जानेंगे खमीर की शुरुआत और प्राचीन मिस्र में इसके उपयोग की कहानी। फिर देखेंगे कि 19वीं शताब्दी में कैसे नई तकनीकों और चार्ल्स फ्लेशमैन (Charles Fleischmann) जैसे लोगों ने खमीर को लोकप्रिय बनाया। इसके बाद, खमीर के अलग-अलग प्रकार और उनके काम को समझेंगे। अंत में, भारत में खमीर से जुड़े व्यंजनों की यात्रा देखेंगे - जहाँ चपाती से लेकर नान और अमृतसरी कुलचे तक हमारी थाली को स्वाद और ख़ासियत मिली।

खमीर की उत्पत्ति और प्राचीन इतिहास
खमीर कवक की श्रेणी का एक अद्वितीय जीव है, जो एकल कोशिकाओं के रूप में विकसित होता है। अन्य कवकों की तरह यह हाइफे (Hyphae) के रूप में विकसित नहीं होता, बल्कि छोटी-छोटी कोशिकाओं से बढ़ता है। यह आटे में मौजूद शर्करा को कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide) और इथेनॉल (Ethanol) में परिवर्तित कर आटे को फुला देता है और ब्रेड को हल्का, मुलायम और स्वादिष्ट बनाता है। इसका पहला प्रमाण प्राचीन मिस्र से मिलता है। माना जाता है कि जब आटे और पानी का मिश्रण अधिक समय तक गर्म वातावरण में रखा गया, तो आटे में स्वाभाविक रूप से मौजूद खमीर ने उसे किण्वित कर दिया। परिणामस्वरूप बनी ब्रेड सख़्त फ्लैटब्रेड (flatbread) की तुलना में कहीं अधिक स्वादिष्ट और मुलायम रही। शुरुआती बेकर शायद इस प्रक्रिया को पूरी तरह समझ नहीं पाते थे, लेकिन वे व्यवहारिक तौर पर जानते थे कि अगर पहले से खमीरे आटे का थोड़ा हिस्सा नए आटे में मिला दिया जाए, तो वही खमीर उस आटे को भी फुला देगा। कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि शुरुआती दौर में बीयर (Beer) बनाने की प्रक्रिया से भी खमीर प्राप्त किया गया और वही बेकिंग में प्रयोग हुआ। इस तरह, खमीर की खोज और इसका उपयोग मानव सभ्यता के भोजन इतिहास में एक क्रांतिकारी कदम साबित हुआ।

19वीं शताब्दी में खमीर निर्माण की आधुनिक विधियाँ
औद्योगिक युग में खमीर उत्पादन ने नई ऊँचाइयाँ हासिल कीं। 19वीं शताब्दी में सबसे पहले बेकर्स बीयर बनाने वाले किण्वक से खमीर निकालकर मीठी-किण्वित ब्रेड बनाते थे। यह तकनीक “डच प्रक्रिया” (Dutch Process) के नाम से जानी गई क्योंकि डच आसवकों ने खमीर को पहली बार व्यावसायिक रूप से बेचना शुरू किया। 1825 में टेबेन्हॉफ (Tebenhof) ने खमीर को नमी निकालकर "क्यूब केक" (Cube Cake) के रूप में संरक्षित करने की नई पद्धति विकसित की। इससे खमीर का संग्रहण और परिवहन आसान हो गया। इसके बाद 1867 में राइमिंगहॉस (Reimminghaus) ने "फिल्टर दबयंत्र" का प्रयोग किया और बेकर के खमीर के औद्योगिक उत्पादन को और अधिक प्रभावी बनाया। इस प्रक्रिया को "विएन्नीज़ प्रक्रिया" (Viennese Process) कहा गया और यह जल्दी ही फ्रांस और यूरोप के अन्य बाज़ारों में फैल गई। इस बीच, चार्ल्स फ्लेशमैन ने अमेरिका में खमीर निर्माण की नई विधियाँ शुरू कीं। उन्होंने अपने शुरुआती प्रशिक्षण के दौरान सीखा था कि खमीर बीयर आसवन का एक उप-उत्पाद है, और इस ज्ञान को उन्होंने व्यावसायिक स्तर पर विकसित किया। उनके प्रयासों ने अमेरिका में बेकिंग उद्योग को एक नई दिशा दी और खमीर की उपयोगिता को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बना दिया।
खमीर के विभिन्न प्रकार और उनकी विशेषताएँ
आज खमीर अनेक रूपों और प्रकारों में उपलब्ध है, और हर प्रकार की अपनी विशेषताएँ हैं।
- क्रीम खमीर: यह 19वीं सदी का सबसे पुराना रूप है। इसमें खमीर कोशिकाएँ तरल में निलंबित होती हैं। इसका उपयोग बड़े औद्योगिक बेकिंग प्लांट्स (baking plants) में किया जाता है, लेकिन घरेलू उपयोग के लिए यह उपयुक्त नहीं माना जाता।
- कम्प्रेस्ड खमीर: क्रीम खमीर में से अधिकांश जल निकालकर इसे ठोस रूप दिया जाता है। यह खमीर घरेलू और औद्योगिक दोनों उपयोगों के लिए आसान और लोकप्रिय है।
- सक्रिय शुष्क खमीर: यह छोटे-छोटे दानेदार रूप में होता है और इसमें मृत कोशिकाओं का एक मोटा आवरण होता है। उपयोग से पहले इसे पानी में घोलना पड़ता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसकी लंबी शेल्फ-लाइफ़ है - यह कमरे के तापमान पर एक साल और जमे हुए रूप में दस साल तक सुरक्षित रह सकता है।
- तत्काल खमीर: यह सक्रिय शुष्क खमीर जैसा ही है, लेकिन इसके दाने और भी छोटे होते हैं। इसे सीधे आटे में मिलाया जा सकता है, और यह घरेलू उपयोग के लिए बहुत सुविधाजनक है।
- तेज़ी से फूलने वाला खमीर: इसका उपयोग अक्सर ब्रेड मशीनों में किया जाता है क्योंकि यह अन्य प्रकार की तुलना में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड पैदा करता है और आटे को जल्दी फुला देता है।
- ओस्मोटोलरेंट (Osmotolerant) खमीर: मीठे आटे जैसे दालचीनी रोल्स या पेस्ट्री के लिए यह सबसे अच्छा विकल्प है। मीठे आटे में सामान्य खमीर अच्छी तरह काम नहीं करता, लेकिन यह विशेष खमीर उन्हें भी फुला देता है।
- पौष्टिक खमीर: यह सक्रिय खमीर नहीं होता। इसे बेकिंग के लिए नहीं, बल्कि स्वास्थ्य अनुपूरक के रूप में प्रयोग किया जाता है। यह विटामिन बी से भरपूर होता है और भोजन के पोषण मूल्य को बढ़ाता है।

भारत में ब्रेड और खमीर आधारित व्यंजनों का विकास
भारत में खमीर आधारित ब्रेड का इतिहास अपेक्षाकृत नया है। प्राचीन काल में यहाँ मुख्य रूप से चपाती और मोटी रोटियाँ खाई जाती थीं, जो कई दिनों तक सुरक्षित रहती थीं। हड़प्पा सभ्यता के दौरान गेहूँ की खेती के साथ यह परंपरा विकसित हुई थी। लेकिन तंदूर आधारित किण्वित ब्रेड धीरे-धीरे सभ्यता के साथ आई। 1300 ईस्वी के आसपास, भारत-फ़ारसी कवि अमीर खुसरो के लेखों में "नान" का उल्लेख मिलता है। दिल्ली के शाही दरबार में “नान-ए-तुनुक” और "नान-ए-तनुरी" नाम से दो तरह की नान बनाई जाती थीं। बाद में मुग़ल काल में नान की लोकप्रियता बढ़ी और यह कबाब और कीमे जैसे व्यंजनों के साथ शाही भोजन का हिस्सा बन गया। नान से प्रेरणा लेकर आगे चलकर "कुलचा" का विकास हुआ। यह स्वयं फूलने वाले आटे से बनाया जाने लगा और बेकिंग सोडा जैसे घटकों के प्रयोग से और भी हल्का व स्वादिष्ट बना। अमृतसर में बना "अमृतसरी कुलचा" तो आज भी पूरे भारत में प्रसिद्ध है, जिसमें मसालेदार आलू और अन्य भरावन का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा, कश्मीरी और पेशावरी नान में फलों, सूखे मेवों और मांस का भरावन डालकर उन्हें विशेष स्वाद दिया जाता था। इस तरह, भारतीय व्यंजनों में खमीर ने न केवल रोटी को नया रूप दिया, बल्कि शाही और आम दोनों के खानपान में अपनी जगह बना ली।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2embub77
कैसे लखनऊ की इत्र और फूलों की परंपरा, आज भी इसकी नवाबी पहचान को ज़िंदा रखती है?
गंध - सुगंध/परफ्यूम
21-10-2025 09:06 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊ, जिसे तहज़ीब और नवाबी शान का शहर कहा जाता है, उतना ही प्रसिद्ध अपनी ख़ुशबूदार फ़िज़ाओं और फूलों की परंपरा के लिए भी है। यहाँ की हवाओं में घुला इत्र का नशा और ताज़े फूलों की महक आज भी लोगों के दिलों को छू जाती है। यह केवल एक शहर की पहचान भर नहीं, बल्कि सदियों से चली आ रही उस जीवनशैली का हिस्सा है जिसने लखनऊ को “मेहमाननवाज़ी और नफ़ासत” का प्रतीक बना दिया। नवाबी दौर में इत्र और सुगंध का प्रयोग केवल विलासिता का साधन नहीं था, बल्कि यह शाही संस्कृति, सामाजिक जीवन और धार्मिक परंपराओं का अहम हिस्सा हुआ करता था। इत्र की हर बूँद नवाबों की शान और दरबारों की रौनक को बयान करती थी, वहीं तवायफ़ संस्कृति में इसकी महक ने कला और संगीत को एक नई गहराई दी। दूसरी ओर, फूलों ने इस शहर को हमेशा ताज़गी और खूबसूरती से भर दिया। चौक की सदियों पुरानी फूल मंडी से लेकर आज तक, यहाँ की गलियों और बाज़ारों में फूलों की महक लोगों को अपनी ओर खींचती है। यह मंडी न केवल व्यापार का केंद्र रही, बल्कि लखनऊ की सांस्कृतिक धरोहर का अहम हिस्सा भी बनी रही, जिसने इस शहर की पहचान को और भी मज़बूत किया। बाग़-बगीचों में खिले सदाबहार, गुड़हल, चमेली और रुक्मिणी जैसे फूल न केवल घरों को सजाते हैं बल्कि लोगों के उत्सवों, धार्मिक अनुष्ठानों और रोज़मर्रा की ज़िंदगी को भी रंगों और सुगंध से भर देते हैं। यही कारण है कि लखनऊ की संस्कृति में इत्र और फूल दोनों का स्थान केवल सजावट या विलासिता तक सीमित नहीं है। यह जीवन के हर उत्सव और हर अनुष्ठान को पूर्णता प्रदान करते हैं। यहाँ की महकती फ़िज़ाओं में नवाबी शान और प्राकृतिक सौंदर्य का ऐसा संगम है, जो लखनऊ को अन्य शहरों से अलग और ख़ास बनाता है।
इस लेख में हम पहले जानेंगे कि नवाबी दौर में इत्र और सुगंध का क्या महत्व था और गंधियों की क्या भूमिका रही। इसके बाद हम लखनऊ की पारंपरिक फूल मंडी के इतिहास और उसकी पहचान को समझेंगे। फिर हम फूलों की विविधता और उनके व्यापार की ख़ासियतों की चर्चा करेंगे। अंत में, हम यह देखेंगे कि लखनऊ के बगीचों और घरों में कौन से फूल सबसे अधिक लोकप्रिय हैं और क्यों।
नवाबी दौर में इत्र और सुगंध की परंपरा
अवध के नवाब इत्र और सुगंधित पदार्थों के बड़े शौक़ीन थे। यह केवल उनके विलासिता का हिस्सा नहीं था, बल्कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का भी अभिन्न अंग बन चुका था। 17वीं और 18वीं शताब्दी में इत्र का उपयोग न केवल शाही दरबारों में शान और वैभव के प्रतीक के रूप में होता था, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों और तवायफ़ संस्कृति का भी अहम हिस्सा था। नवाब ग़ाज़ी-उद-दीन हैदर शाह ने अपने महल में इत्र के फ़व्वारे तक बनवाए थे, ताकि वातावरण हमेशा महकता रहे। वहीं, नवाब वाजिद अली शाह ने मेहंदी के इत्र को लोकप्रिय बनाया और इसे आम जनता से लेकर तवायफ़ संस्कृति तक में फैलाया। गंधियों यानी इत्र बनाने वालों को नवाबों ने ज़मीन और विशेष संरक्षण दिया, जिससे उनका हुनर और भी निखर सका। यही कारण है कि समय के साथ इत्र बनाने की पारंपरिक तकनीकें आधुनिक हुईं और भाप आसवन जैसी विधियाँ इत्र निर्माण का मुख्य आधार बनीं, जो आज भी कन्नौज जैसे क्षेत्रों में प्रचलित हैं। इस तरह इत्र केवल खुशबू ही नहीं, बल्कि नवाबी दौर की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान बन गया।
लखनऊ की पारंपरिक फूल मंडी का इतिहास और पहचान
लखनऊ की चौक स्थित 200 साल पुरानी फूल मंडी शहर की सबसे अहम सांस्कृतिक धरोहरों में गिनी जाती है। माना जाता है कि इस मंडी की शुरुआत नवाब आसफ़-उद-दौला के शासनकाल में हुई और धीरे-धीरे यह शहर की पहचान का अहम हिस्सा बन गई। प्रारंभिक दौर में इसे "फूल वाली गली" के नाम से जाना जाता था, जहाँ मुख्य रूप से गजरे और चमेली के फूल बिकते थे। इन फूलों का उपयोग न केवल शाही दरबारों और नवाबी उत्सवों में होता था, बल्कि धार्मिक अनुष्ठानों और स्थानीय त्योहारों में भी इनकी माँग रहती थी। समय के साथ इस मंडी ने आकार लिया और आज यह न केवल लखनऊ, बल्कि पूरे उत्तर भारत के लिए फूलों की आपूर्ति का प्रमुख केंद्र बन चुकी है। चौक की इस मंडी में महज़ फूलों का व्यापार नहीं होता, बल्कि यह शहर की नवाबी तहज़ीब और परंपराओं की झलक भी दिखाती है। यही कारण है कि जब इस मंडी के स्थानांतरण की चर्चा होती है, तो स्थानीय लोग इसे लखनऊ की सांस्कृतिक पहचान के एक अहम अध्याय के खो जाने जैसा मानते हैं।
फूलों की विविधता और व्यापार की खासियत
लखनऊ की फूल मंडी और इसके बाग़-बगीचे फूलों की विविधता और गुणवत्ता के लिए प्रसिद्ध हैं। शुरुआती दौर में जहाँ गजरे और चमेली की ख़ुशबू ही इस मंडी की पहचान हुआ करती थी, वहीं समय के साथ इसमें गुलाब, ग्लैडियोलस और रजनीगंधा जैसे फूल भी शामिल हो गए। यहाँ की सबसे बड़ी ख़ासियत इन फूलों की ताज़गी और टिकाऊपन है। स्थानीय व्यापारियों के अनुसार, लखनऊ में उगाए जाने वाले ग्लैडियोलस (Gladiolus) की ताज़गी 8 से 10 दिनों तक बनी रहती है, जबकि दिल्ली या मुंबई के फूल केवल 4 से 5 दिनों तक ही टिकते हैं। यह गुण लखनऊ की मिट्टी और मौसम की विशेषताओं से आता है, जिसने यहाँ फूलों की गुणवत्ता को हमेशा उच्च बनाए रखा है। यही वजह है कि इस मंडी के फूल स्थानीय धार्मिक स्थलों, त्योहारों और शादियों के अलावा देशभर के कई हिस्सों में भी भेजे जाते हैं। फूलों की यह विविधता और उत्कृष्ट गुणवत्ता न केवल व्यापार को बढ़ाती है, बल्कि लखनऊ की पहचान को और भी विशिष्ट बनाती है।
लखनऊ के बगीचों और घरों में लोकप्रिय फूल
आज भी लखनऊ की हवाओं में खिले फूल अपनी रंगत और ख़ुशबू से जीवन को सुंदर बना रहे हैं। यहाँ के बगीचों और घरों में सदाबहार का विशेष स्थान है, जो पूरे साल खिलता रहता है और अपनी कम देखभाल की आवश्यकता के कारण लोगों का पसंदीदा है। गुड़हल, जिसे चाइनीज़ हिबिस्कस भी कहा जाता है, न केवल अपनी सुंदरता बल्कि धार्मिक महत्व के कारण भी लोकप्रिय है। कनेर, अपने गुलाबी फूलों और गहरे हरे पत्तों के कारण बेहद आकर्षक दिखता है, हालाँकि इसकी विषाक्तता के कारण इसे बच्चों और पालतू जानवरों से दूर रखने की सलाह दी जाती है। चमेली, अपने सफ़ेद और लौंग जैसी सुगंध वाले फूलों के साथ पूरे साल घरों और बगीचों को महकाती रहती है। वहीं, रुक्मिणी यानी फ़्लेम ऑफ़ द वुड्स अपने चमकदार लाल फूलों से बगीचों में ऊर्जा और सौंदर्य दोनों भर देती है। ये सभी फूल केवल देखने भर के लिए नहीं, बल्कि लखनऊ की सांस्कृतिक और प्राकृतिक धरोहर का हिस्सा हैं, जो शहर की नवाबी शान और आज की आधुनिक जीवनशैली दोनों को जोड़ते हैं।
संदर्भ-
https://shorturl.at/fdQ21
लखनऊवासियो, जानिए दिवाली के भोग और खील-बताशा का अनोखा सांस्कृतिक महत्व
विचार I - धर्म (मिथक/अनुष्ठान)
20-10-2025 09:08 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊवासियो, दीपावली का पर्व जब अपने पूरे वैभव और रौनक के साथ आता है, तो शहर की गलियों और चौक-चौराहों पर फैली मिठास और खुशबू हर दिल को छू जाती है। नवाबों के इस शहर की पहचान सिर्फ़ तहज़ीब और अदब में ही नहीं, बल्कि इसके पारंपरिक व्यंजनों और त्योहारों की झलक में भी नज़र आती है। दिवाली की रात जब घर-घर दीपकों की रोशनी जगमगाती है, तो उसी समय रसोई से आती लड्डू, बर्फ़ी और खासकर खील-बताशे की सुगंध इस त्योहार को और भी पवित्र और खास बना देती है। खील-बताशा, जो दिवाली पर देवी लक्ष्मी को अर्पित किया जाने वाला प्रमुख प्रसाद है, केवल मिठास का प्रतीक नहीं बल्कि हमारी कृषि संस्कृति, धार्मिक आस्था और स्वास्थ्य का भी दर्पण है। यह पर्व हमें याद दिलाता है कि दीपावली की चमक सिर्फ़ दीपों और सजावट तक सीमित नहीं है, बल्कि भोजन और भोग भी इस उत्सव को आत्मीय और पूर्ण बनाते हैं।
आज हम सबसे पहले समझेंगे कि दिवाली में भोग और प्रसाद का सांस्कृतिक महत्व क्यों है और यह हमारी परंपराओं से कैसे जुड़ा हुआ है। इसके बाद हम खील-बताशा के प्रतीकात्मक अर्थ और स्वास्थ्य से इसके संबंध को विस्तार से जानेंगे। फिर हम देखेंगे कि बंगाल में दिवाली काली पूजा के रूप में कैसे मनाई जाती है और वहाँ विशेष भोग की क्या अहमियत होती है। अंत में, हम भारत की क्षेत्रीय विविधताओं और दिवाली की पाक परंपराओं पर नज़र डालेंगे, जिससे हमें पता चलेगा कि एक ही पर्व अलग-अलग हिस्सों में कितनी अनोखी तरह से मनाया जाता है।![]()
दिवाली में भोग और प्रसाद का सांस्कृतिक महत्व
भारत में हर त्योहार की पहचान उसके भोजन और प्रसाद से होती है। दीपावली में जहां घर-घर दीपक जगमगाते हैं और सजावट मन मोह लेती है, वहीं मिठाइयों और पारंपरिक भोग का महत्व इस पर्व को और भी खास बना देता है। दिवाली पर परिवारजन और अतिथि एक साथ बैठकर पकवानों का आनंद लेते हैं, जिससे आपसी स्नेह और अपनापन गहरा होता है। विशेष रूप से खील बताशा, जो इस पर्व का प्रमुख प्रसाद है, देवी लक्ष्मी को अर्पित किया जाता है। यह केवल धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि हमारी कृषि जीवनशैली का भी प्रतीक है। चूंकि दिवाली के समय धान की नई फसल काटी जाती है, इसलिए ताज़े चावल से बनी खील इस मौसम का स्वाभाविक हिस्सा बन जाती है। इस प्रकार, दिवाली का प्रसाद हमारी आस्था, कृषि और सामाजिक जीवन को एक सूत्र में पिरोता है।
खील बताशा का प्रतीकात्मक अर्थ और स्वास्थ्य से जुड़ाव
खील बताशा केवल चीनी और चावल का साधारण मेल नहीं, बल्कि समृद्धि, स्वास्थ्य और संतुलन का प्रतीक है। इसे देवी लक्ष्मी के प्रति आभार और श्रद्धा के रूप में अर्पित किया जाता है। धार्मिक दृष्टि से यह प्रसाद संपन्नता और मंगलकामना का संकेत है। साथ ही, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी खील बताशा का अपना महत्व है। दिवाली के दौरान जहाँ घर-घर भारी मिठाइयाँ, तैलीय पकवान और नमकीन व्यंजन बनाए जाते हैं, वहीं खील बताशा हल्का और पचने में आसान भोजन प्रदान करता है। यह पाचन को सामान्य बनाए रखने में मदद करता है और त्यौहार की व्यस्तताओं के बीच शरीर को आवश्यक संतुलन देता है। यही कारण है कि खील बताशा सिर्फ धार्मिक प्रसाद नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक और स्वास्थ्यकर परंपरा भी है।
बंगाल में दिवाली और काली पूजा का विशेष भोग
भारत के पूर्वी हिस्से, विशेषकर बंगाल में, दिवाली काली पूजा के रूप में एक अनोखे स्वरूप में मनाई जाती है। यहां पूजा आधी रात को होती है और इसमें विस्तृत भोग अर्पित किया जाता है। पूजा की थाली में खिचड़ी, पाँच मौसमी सब्जियाँ, चटनी, पायेश, सूजी हलवा और लुची जैसे विविध व्यंजन शामिल होते हैं। इसके साथ ही 108 प्रकार के फल और अनगिनत पकवान नैवेद्य के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। बंगाल की सबसे खास परंपरा है “शाकाहारी मटन”, जिसे प्याज़ और लहसुन के बिना तैयार किया जाता है। यह व्यंजन भले ही नाम से मटन कहलाता हो, लेकिन इसे पूरी तरह शाकाहारी सामग्री से बनाया जाता है और यह काली पूजा का अहम हिस्सा है। इस तरह बंगाल में दिवाली केवल रोशनी का पर्व नहीं, बल्कि अर्पण, परंपरा और विशेष पाक विधाओं का अद्भुत संगम बन जाती है।

भारत की क्षेत्रीय विविधताएँ और पाक परंपराएँ
भारत की विविधता उसके हर त्योहार और भोजन में झलकती है, और दिवाली इसका सबसे सुंदर उदाहरण है। पूर्वी बंगाल में इस दिन देवी को “जोरा इलिश” (Zora Eilish - हिलसा मछली) अर्पित करने की परंपरा है, जो स्थानीय संस्कृति और आस्था का प्रतीक है। वहीं, देश के अलग-अलग हिस्सों में भिन्न-भिन्न व्यंजन दिवाली के भोग में शामिल किए जाते हैं। कहीं नरु, मोया, मुर्की और खोई प्रमुख होते हैं तो कहीं निमकी, लुची और पांच प्रकार की मौसमी सब्जियाँ पूजा की थाली को सजाती हैं। उत्तर भारत में लड्डू और बर्फी जैसे पारंपरिक पकवान बनते हैं, जबकि बंगाल में पायेश और खीर-मिष्टी विशेष महत्व रखते हैं। इन क्षेत्रीय विविधताओं से यह साफ दिखाई देता है कि एक ही पर्व अलग-अलग संस्कृतियों और परंपराओं में कितनी अनोखी छाप छोड़ता है। भोजन ही वह कड़ी है जो पूरे भारत को इस त्योहार पर जोड़ता है और हर घर में मिठास और उत्साह का संचार करता है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/FbsDL
कैसे धनतेरस, लखनऊ वासियों के लिए, भगवान धनवंतरी और आयुर्वेद की महत्ता दर्शाता है?
विचार I - धर्म (मिथक/अनुष्ठान)
19-10-2025 09:08 AM
Lucknow-Hindi
धनतेरस, दिवाली के प्रमुख त्योहारों में से पहला दिन, हिंदू पंचांग के अनुसार अश्विन माह के कृष्ण पक्ष की तेरहवीं तिथि को मनाया जाता है। यह पर्व विशेष रूप से भगवान धनवंतरी से जुड़ा हुआ है, जिन्हें आयुर्वेद का देवता और भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। भगवान धनवंतरी ने मानव जाति की भलाई के लिए आयुर्वेद का ज्ञान प्रदान किया और रोगों से छुटकारा दिलाने में मदद की। पुराणों में वर्णित है कि समुद्र मंथन के समय उन्होंने अमृत कलश के साथ प्रकट होकर देवताओं को अमृत प्रदान किया। धनवंतरी को स्वास्थ्य, लंबी उम्र और समग्र कल्याण का प्रतीक माना जाता है। उनके हाथों में आमतौर पर अमृत कलश और कमंडल दर्शाए जाते हैं, जबकि प्राचीन समय में उनकी छवि में जोंक भी दिखाया जाता था, जिसका प्रयोग रक्त से अशुद्धियों को दूर करने के लिए किया जाता था। श्रीरंगम मंदिर (तमिलनाडु) में उनके लिए विशेष रूप से एक मंदिर स्थापित है, जो उनके चिकित्सा और आयुर्वेदिक ज्ञान के सम्मान में ऊंचाई पर बनाया गया था।
आधुनिक समय में, धनतेरस के अवसर पर भारत में राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य आयुर्वेद को मुख्यधारा में लाना, इसके उपचार सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करना और समाज में स्वास्थ्य और रोग रोकथाम के प्रति जागरूकता बढ़ाना है। आयुर्वेद का समग्र दृष्टिकोण रोगों की रोकथाम और स्वास्थ्य संवर्धन पर केंद्रित है, और इसे आज भी सबसे प्राचीन, प्रभावी और वैज्ञानिक चिकित्सा प्रणाली माना जाता है। धनतेरस न केवल धन और समृद्धि का प्रतीक है, बल्कि यह हमारे जीवन में स्वास्थ्य, आयुर्वेद और समग्र कल्याण को भी याद दिलाने वाला पावन अवसर है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/yuzn3xk9
https://tinyurl.com/3vmpd7zz
https://tinyurl.com/2ehm9y4f
https://tinyurl.com/9u59j78j
लखनऊ की साँसें और हमारे भीतर की सूक्ष्म दुनिया - दोनों को चाहिए साफ़ और संतुलित हवा!
बैक्टीरिया, प्रोटोज़ोआ, क्रोमिस्टा और शैवाल
18-10-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊवासियो, जब भी हम वायु प्रदूषण की चर्चा करते हैं तो हमारी नज़र अक्सर सिर्फ सांस लेने में कठिनाई, खांसी, अस्थमा या दिल की बीमारियों तक ही जाती है। लेकिन सच्चाई इससे कहीं आगे है। प्रदूषित हवा का असर सिर्फ हमारे फेफड़ों या दिल तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह हमारे भीतर की उस अदृश्य दुनिया को भी प्रभावित करता है, जिसे हम माइक्रोबायोटा (microbiota) कहते हैं। माइक्रोबायोटा वे खरबों सूक्ष्मजीव हैं, जो हमारे शरीर के अलग-अलग हिस्सों - आंतों, त्वचा, श्वसन तंत्र और यहां तक कि गर्भाशय के ऊतकों - में मौजूद रहते हैं। यही अदृश्य साथी हमारे पाचन को दुरुस्त रखते हैं, प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत बनाते हैं, हार्मोन का संतुलन संभालते हैं और यहां तक कि हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डालते हैं। लेकिन जब यह संतुलन बिगड़ता है, तो शरीर कमजोर हो जाता है और कई गंभीर बीमारियों की चपेट में आ जाता है। लखनऊ जैसी तेज़ी से बढ़ती शहरी आबादी वाले शहरों में, जहां हवा में प्रदूषकों की मात्रा लगातार बढ़ रही है, वहां माइक्रोबायोटा का असंतुलन एक छिपा हुआ खतरा बन चुका है। इसलिए यह समझना बेहद ज़रूरी है कि वायु प्रदूषण हमारे भीतर की इस अदृश्य परत को कैसे बदल देता है और इसके नतीजे कितने व्यापक हो सकते हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले समझेंगे कि माइक्रोबायोटा क्या है और इसकी हमारे शरीर में क्या भूमिका है। फिर देखेंगे कि वायु प्रदूषण किस तरह माइक्रोबायोटा के संतुलन को बिगाड़ देता है। इसके बाद जानेंगे कि यह असंतुलन अलग-अलग अंगों और स्वास्थ्य पर क्या असर डालता है। अगले भाग में नज़र डालेंगे कि विश्व और भारत में यह समस्या कितनी गंभीर है। और अंत में समझेंगे कि पीएम10 (PM10)और पीएम2.5 (PM2.5) जैसे सूक्ष्म कण किस तरह सबसे बड़े खतरे बन चुके हैं, खासकर बच्चों और बुज़ुर्गों के लिए।
माइक्रोबायोटा क्या है और इसकी भूमिका
हम अक्सर सोचते हैं कि हमारा शरीर सिर्फ हमारी कोशिकाओं से बना है, लेकिन हकीकत इससे कहीं आगे है। मानव शरीर खरबों सूक्ष्मजीवों का घर है - जिनमें बैक्टीरिया, वायरस (virus), आर्किया (Archaea) और प्रोटिस्ट (Protist) शामिल हैं। इन सबको मिलाकर माइक्रोबायोटा कहा जाता है। ये अदृश्य साथी हमारे शरीर के हर हिस्से में मौजूद होते हैं - आंतों में, त्वचा पर, श्वसन तंत्र में और यहां तक कि गर्भाशय के ऊतकों तक में। यही सूक्ष्मजीव हमारी सेहत का आधार हैं। ये न सिर्फ हमारे भोजन को पचाने में मदद करते हैं बल्कि प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत रखते हैं, हार्मोन (hormone) का संतुलन बनाए रखते हैं और मानसिक स्वास्थ्य तक को प्रभावित करते हैं। माइक्रोबायोटा का संतुलन बिगड़ जाए तो शरीर कमजोर हो जाता है और रोगजनक जीवाणुओं का हमला ज्यादा असरदार हो जाता है। इस तरह, यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारी सेहत की जड़ें हमारी नंगी आंखों से न दिखने वाली इस अदृश्य दुनिया में छिपी हैं।
वायु प्रदूषण और माइक्रोबायोटा का असंतुलन
जब हम सांस लेते हैं तो हर श्वास के साथ सिर्फ ऑक्सीजन (Oxygen) ही नहीं, बल्कि हवा में मौजूद प्रदूषक भी हमारे भीतर जाते हैं। यही प्रदूषक धीरे-धीरे माइक्रोबायोटा की संरचना को बदल देते हैं। वैज्ञानिक भाषा में इस बदलाव को डिस्बायोसिस (Dysbiosis) कहा जाता है। इसका अर्थ है कि शरीर में अच्छे और बुरे सूक्ष्मजीवों का संतुलन बिगड़ जाता है। खास बात यह है कि यह असर सिर्फ लंबे समय तक रहने से नहीं होता, बल्कि वायु प्रदूषकों के अल्पकालिक संपर्क से भी सूक्ष्मजीवों की परस्पर क्रियाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। जब यह संतुलन टूटता है, तो शरीर संक्रमणों के प्रति ज्यादा असुरक्षित हो जाता है। यही कारण है कि तपेदिक (tuberculosis), मेनिनजाइटिस (meningitis) और कोविड-19 (Covid-19) जैसी बीमारियां प्रदूषण से प्रभावित वातावरण में ज्यादा आसानी से फैलती हैं और गंभीर रूप ले लेती हैं।
स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण के बहु-अंग प्रभाव
माइक्रोबायोटा का असंतुलन सिर्फ पाचन या आंत तक सीमित नहीं रहता, इसका असर पूरे शरीर पर दिखाई देता है। आंतों में यह असंतुलन सूजन आंत्र रोगों (Inflammatory bowel diseases) जैसे अल्सरेटिव कोलाइटिस (ulcerative colitis) और क्रोहन डिजीज (Crohn's disease) को जन्म देता है। इसके अलावा, वायु प्रदूषण के कारण श्वसन संबंधी रोग जैसे अस्थमा और ब्रोंकाइटिस (bronchitis) बढ़ जाते हैं। यह समस्या सिर्फ सांस तक नहीं रहती - न्यूरोलॉजिकल विकार (neurological disorders), डायबिटीज (diabetes) और यहां तक कि कैंसर (cancer) तक का खतरा बढ़ा देती है। गर्भवती महिलाओं के लिए प्रदूषित हवा विशेष रूप से खतरनाक है क्योंकि इसका सीधा असर भ्रूण पर पड़ता है और नवजात शिशु का स्वास्थ्य लंबे समय तक प्रभावित हो सकता है। वास्तव में, वायु प्रदूषण हमारे शरीर की कोशिकाओं में सूजन और ऑक्सीडेटिव (oxidative) तनाव बढ़ाता है, जिससे अंग-प्रत्यंग धीरे-धीरे कमजोर हो जाते हैं।
वैश्विक व क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य
यह समस्या सिर्फ भारत या हमारे आसपास के शहरों तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया इससे जूझ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया की लगभग 99% आबादी प्रदूषित हवा में सांस ले रही है। यूरोप और उत्तरी अमेरिका जैसे विकसित देशों में सूजन आंत्र रोगों के मामले सबसे अधिक पाए गए हैं। वहीं एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका जैसे नवऔद्योगीकृत देशों में भी ऐसे रोग तेजी से बढ़ रहे हैं। भारत जैसे देश में दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर पहले से ही इस संकट की चपेट में हैं। ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी इलाकों में वायु प्रदूषण कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हो रहा है और इसकी वजह से जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां और संक्रमण दोनों बढ़ रहे हैं।
पार्टिकुलेट मैटर (PM10 और PM2.5) का खतरा
वायु प्रदूषण का सबसे गंभीर पहलू है पार्टिकुलेट मैटर (Particulate Matter) यानी पीएम10 और पीएम2.5। ये सूक्ष्म कण इतने छोटे होते हैं कि हमारी सांस के जरिए सीधे फेफड़ों और फिर रक्तप्रवाह तक पहुंच जाते हैं। वहां जाकर ये कोशिकाओं में सूजन, ऑक्सीडेटिव तनाव और यहां तक कि डीएनए (DNA) में बदलाव यानी उत्परिवर्तन पैदा कर सकते हैं। इस वजह से हृदय रोग और कैंसर तक का खतरा बढ़ जाता है। खासतौर पर बच्चे और बुजुर्ग इस जोखिम के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील होते हैं। बच्चे वयस्कों की तुलना में ज्यादा सांस लेते हैं और उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली भी पूरी तरह विकसित नहीं होती। इसलिए, पीएम10 और पीएम2.5 का असर उन पर ज्यादा गहरा पड़ता है। यही वजह है कि आज वायु प्रदूषण को कैंसर और समय से पहले मृत्यु के सबसे बड़े कारणों में गिना जा रहा है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/nXs9Y
कैसे नीम और शतावरी, लखनऊवासियों की सेहत और परंपरा की हैं अमूल्य धरोहर
वृक्ष, झाड़ियाँ और बेलें
17-10-2025 09:14 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊवासियो, हमारी तहज़ीब और संस्कृति हमेशा से प्रकृति से गहराई से जुड़ी रही है। कभी दादी-नानी की रसोई में रखे घरेलू नुस्ख़े हों या पुराने मोहल्लों में लगे नीम के घने पेड़ - यह शहर औषधीय पौधों की उपयोगिता को अपनी परंपराओं में सहेजकर आगे बढ़ाता रहा है। यही कारण है कि यहाँ की गलियों और आँगनों में नीम की छाँव केवल ठंडक ही नहीं देती थी, बल्कि घर के हर सदस्य के स्वास्थ्य की सुरक्षा भी करती थी। इसी तरह, शतावरी का नाम भी भारतीय जीवन से जुड़ा हुआ है। आयुर्वेद में इसे महिलाओं की सेहत का अभिन्न साथी और तनाव से राहत देने वाली जड़ी-बूटी माना गया है। आज जब आधुनिक विज्ञान भी इन पौधों के औषधीय गुणों की पुष्टि कर रहा है, तब यह समझना और भी ज़रूरी हो जाता है कि नीम और शतावरी हमारे जीवन में कितनी अहम भूमिका निभा सकते हैं। लखनऊ जैसे शहर में, जो परंपरा और आधुनिकता दोनों का संगम है, ये दोनों जड़ी-बूटियां न केवल हमारी विरासत की याद दिलाती हैं, बल्कि भविष्य में स्वस्थ जीवन की दिशा भी दिखाती हैं।
इस लेख में हम इन दोनों के बारे में क्रमवार जानेंगे। पहले, नीम का ऐतिहासिक और औषधीय महत्व समझेंगे। फिर देखेंगे कि नीम के विभिन्न भागों - पत्ते, बीज, छाल, जड़, फल और फूल - किस तरह उपयोगी हैं। इसके बाद, नीम के औषधीय गुण और आधुनिक शोधों पर चर्चा करेंगे। आगे, शतावरी का परिचय, उसका पारंपरिक उपयोग और औषधीय महत्व समझेंगे। और अंत में, शतावरी के प्रमुख स्वास्थ्य लाभों की विस्तार से जानकारी लेंगे।
नीम का ऐतिहासिक और औषधीय महत्व
नीम (Azadirachta indica) भारतीय जीवन का हिस्सा सदियों से रहा है और हमारे सांस्कृतिक व औषधीय इतिहास में इसकी खास जगह है। आयुर्वेद में नीम को “प्रकृति की संपूर्ण औषधि” कहा गया है, क्योंकि यह अनगिनत बीमारियों के उपचार में कारगर है। इसकी महत्ता इतनी है कि इसे “सभी औषधीय जड़ी-बूटियों का राजा” की उपाधि मिली और संयुक्त राष्ट्र ने इसे “21वीं सदी का वृक्ष” घोषित किया। 1992 में यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस (US National Academy of Science) ने भी नीम को “वैश्विक समस्याओं को हल करने वाला पेड़” करार दिया। भारत में परंपरागत रूप से हर घर के पास नीम का पेड़ लगाया जाता रहा है, क्योंकि यह शुद्धता, स्वास्थ्य और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है।
नीम के विभिन्न भागों का औषधीय उपयोग
नीम का कोई भी हिस्सा व्यर्थ नहीं जाता; इसकी हर पत्ती, बीज, छाल, जड़, फल और फूल स्वास्थ्य का खज़ाना हैं।
- पत्तियां: नीम की पत्तियां त्वचा संबंधी रोगों, घावों और संक्रमणों में अत्यंत लाभकारी हैं। इन्हें पानी में उबालकर स्नान के लिए उपयोग किया जाता है, जिससे खुजली और फंगल संक्रमण में आराम मिलता है। साथ ही, इनका लेप त्वचा को मुलायम और साफ़ बनाए रखता है। नीम की पत्तियां मच्छर और अन्य कीटों को दूर भगाने में भी कारगर हैं, इसीलिए इन्हें घर की सफ़ाई और सुरक्षा के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
- बीज: नीम के बीज आंतों के कीड़ों और परजीवियों को खत्म करने के लिए पारंपरिक रूप से जाने जाते हैं। बीज का रस आंतों को साफ़ करने और पेट की तकलीफ़ों को दूर करने में सहायक माना जाता है। ग्रामीण इलाकों में आज भी इसका उपयोग घरेलू दवा के रूप में किया जाता है।
- छाल: नीम की छाल दांतों और मसूड़ों के रोगों में बहुत लाभकारी है। परंपरा में लोग नीम की दातुन करते थे, जिससे दांत मजबूत रहते और मुंह के कीटाणु नष्ट हो जाते। इसकी कसैली और एंटीसेप्टिक (antiseptic) प्रकृति मौखिक स्वास्थ्य के लिए विशेष रूप से उपयोगी है।
- जड़ें: नीम की जड़ों में शुद्धिकरण और एंटीऑक्सिडेंट (antioxidant) गुण होते हैं। इनके अर्क का उपयोग शरीर से विषैले तत्वों को बाहर निकालने और रक्त को शुद्ध करने में किया जाता है। आधुनिक शोधों ने भी इसकी उच्च एंटीऑक्सिडेंट गतिविधि को प्रमाणित किया है।
- फल और तेल: नीम के फलों से निकाला गया तेल बालों की रूसी दूर करने में बेहद कारगर है। इसे खोपड़ी पर लगाने से बाल स्वस्थ और मजबूत होते हैं। यही तेल मच्छर निरोधक के रूप में भी प्रभावी है और कई प्राकृतिक उत्पादों में शामिल किया जाता है।
- फूल: नीम के फूलों में एंटीसेप्टिक गुण होते हैं और इन्हें भोजन में भी औषधीय उपयोग के लिए शामिल किया जाता है। दक्षिण भारत में पारंपरिक व्यंजन ‘उगादी पचड़ी’ में नीम के फूलों का प्रयोग होता है, जो शरीर को शुद्ध करने और गर्मियों में ठंडक देने में मदद करता है।
नीम के औषधीय गुण और आधुनिक शोध
नीम केवल पारंपरिक मान्यताओं का हिस्सा नहीं, बल्कि आधुनिक विज्ञान ने भी इसकी महत्ता को सिद्ध किया है। नीम में जीवाणुरोधी, एंटीवाइरल (antiviral) और एंटी-इंफ़्लेमेटरी (anti-inflammatory) तत्व मौजूद हैं, जो शरीर को संक्रमण से बचाने में सक्षम हैं। कैंसर प्रबंधन में भी नीम का योगदान देखा गया है, क्योंकि यह कोशिका संकेतन मार्गों को नियंत्रित कर असामान्य कोशिकाओं के प्रसार को रोकता है। इसके अलावा, सूजन कम करने और दर्द से राहत देने में भी यह उपयोगी है। त्वचा पर इसका नियमित उपयोग न केवल मुंहासों और दाग-धब्बों को कम करता है, बल्कि त्वचा को भीतर से शुद्ध करता है। प्रतिरक्षा प्रणाली पर इसका सकारात्मक प्रभाव शरीर को बीमारियों से बचाने में मदद करता है। यही कारण है कि नीम आज भी पारंपरिक और आधुनिक चिकित्सा दोनों में एक महत्वपूर्ण औषधि है।
शतावरी का परिचय और पारंपरिक उपयोग
शतावरी (Asparagus racemosus), जिसे सतावर भी कहा जाता है, भारतीय आयुर्वेद में महिला स्वास्थ्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह पौधा एक एडाप्टोजेनिक (adaptogenic) जड़ी-बूटी है, यानी यह शरीर की विभिन्न प्रणालियों को संतुलित करता है और मानसिक व शारीरिक तनाव से निपटने की क्षमता को बढ़ाता है। आयुर्वेद में शतावरी को “महिलाओं की सबसे अच्छी मित्र” कहा गया है, क्योंकि यह हार्मोन (hormone) को संतुलित करती है और प्रजनन क्षमता को बढ़ाने में मदद करती है। भारत में इसकी खेती बड़े पैमाने पर की जाती है और हर साल औषधियों के निर्माण में सैकड़ों टन जड़ों का उपयोग किया जाता है।

शतावरी के औषधीय लाभ
शतावरी को स्वास्थ्य के लिए बेहद बहुमूल्य माना जाता है।
- एंटीऑक्सिडेंट और प्रतिरक्षा शक्ति: शतावरी में पाए जाने वाले सैपोनिन तत्व शक्तिशाली एंटीऑक्सिडेंट हैं, जो शरीर को मुक्त कणों से होने वाले नुकसान से बचाते हैं और प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत बनाते हैं। इससे शरीर संक्रमणों के खिलाफ अधिक सक्षम हो जाता है।
- पाचन स्वास्थ्य: शतावरी पाचन एंज़ाइमों (Enzymes) जैसे लाइपेज़ (Lipase) और एमाइलेज़ (Amylase) की गतिविधि को बढ़ाती है। यह वसा और कार्बोहाइड्रेट (Carbohyderate) दोनों के पाचन में मदद करती है, जिससे अपच और गैस जैसी समस्याओं से राहत मिलती है।
- श्वसन रोगों में राहत: पारंपरिक चिकित्सा में शतावरी की जड़ का रस खांसी और श्वसन रोगों में उपयोग किया जाता है। शोधों ने भी यह साबित किया है कि यह प्राकृतिक खांसी की दवा जितनी प्रभावी हो सकती है।
- रक्त शर्करा नियंत्रण: टाइप 2 मधुमेह के रोगियों के लिए शतावरी बेहद उपयोगी है। यह शरीर में इंसुलिन (insulin) स्तर को नियंत्रित करने और रक्त शर्करा को संतुलित बनाए रखने में मदद करती है।
- यौन स्वास्थ्य और कामोत्तेजक गुण: शतावरी को एक प्राकृतिक कामोत्तेजक माना गया है। यह महिलाओं में प्रजनन स्वास्थ्य सुधारने और पुरुषों में टेस्टोस्टेरोन (Testosterone) स्तर तथा शुक्राणु उत्पादन बढ़ाने में मदद करती है। इससे यह संपूर्ण यौन स्वास्थ्य के लिए लाभकारी बनती है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/kp8j5
क्यों लखनऊवासियों के लिए चक्की का आटा, पैकेज्ड आटे से कहीं बेहतर विकल्प है?
वास्तुकला II - कार्यालय/कार्य उपकरण
16-10-2025 09:14 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊवासियो, आपने अपनी थाली में गरमागरम रोटियों का स्वाद जरूर चखा होगा। कभी घर की चक्की से पिसे मोटे आटे की सुगंधित रोटियाँ हों या कभी पैकेज्ड आटे से बनी नरम और हल्की रोटियाँ - दोनों ही हमारी रसोई का हिस्सा हैं। लेकिन क्या आपने कभी ठहरकर सोचा है कि इन दोनों में से आपके स्वास्थ्य, स्वाद और परिवार की भलाई के लिए सही विकल्प कौन-सा है? लखनऊ, जिसे तहज़ीब और परंपरा का शहर कहा जाता है, आज भी अपने खानपान की जड़ों से गहराई से जुड़ा हुआ है। यहाँ के लोग गेहूँ से बने व्यंजनों के शौकीन हैं - सुबह के नाश्ते में गरमागरम पराठे, दोपहर की थाली में नरम रोटियाँ और त्योहारों पर बनाई जाने वाली पूरियाँ - ये सब हर घर की दिनचर्या और संस्कृति का हिस्सा हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय बदल रहा है, वैसे-वैसे हमारे खाने के तौर-तरीके भी बदल रहे हैं। पहले जहाँ घर-घर में चक्की पिसवाने का रिवाज़ था, वहीं अब ज़्यादातर लोग सुविधा और समय बचाने के लिए पैकेज्ड आटे पर निर्भर हो रहे हैं। ऐसे में यह सवाल और भी अहम हो जाता है कि क्या हम आधुनिकता के नाम पर पोषण और स्वाद से समझौता कर रहे हैं? क्योंकि आटे की गुणवत्ता ही यह तय करती है कि हमारी रोटियाँ सिर्फ़ पेट भरेंगी या शरीर को सही मायनों में ताक़त और सेहत भी देंगी।
आज के इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि उत्तर प्रदेश में गेहूँ की खपत और इसकी आहारिक महत्ता क्या है। इसके बाद हम जानेंगे कि आटा मिलों में डैम्पेनिंग (Dampening - नमी देने) की प्रमुख तकनीकें कौन-कौन सी हैं और वे आटे की गुणवत्ता को कैसे प्रभावित करती हैं। फिर हम तुलना करेंगे किपारंपरिक चक्की का आटा और पैकेज्ड आटे में असली फर्क क्या है और दोनों के फायदे-नुकसान क्या हैं। इसके साथ ही, हम यह भी देखेंगे कि आधुनिक व्यावसायिक आटा चक्कियों की चुनौतियाँ क्या हैं और उनसे सेहत पर क्या असर पड़ता है। अंत में, हम आपको बताएंगे कि उत्तर प्रदेश के प्रमुख गेहूँ आटा निर्माता कौन-कौन हैं और वे किस तरह स्थानीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक अपनी पहचान बनाए हुए हैं।
उत्तर प्रदेश में गेहूँ की खपत और आहारिक महत्ता
उत्तर प्रदेश में गेहूँ केवल एक अनाज नहीं, बल्कि लोगों की संस्कृति और जीवनशैली का अहम हिस्सा है। यहाँ के ग्रामीण इलाकों में हर व्यक्ति औसतन 4.288 किलोग्राम गेहूँ प्रति माह खाता है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह आँकड़ा 4.011 किलोग्राम तक पहुँचता है। यह आँकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश के लोग पूरे देश के औसत से कहीं अधिक गेहूँ का सेवन करते हैं। रोटियाँ, पराठे, पूरी और अन्य पारंपरिक व्यंजन यहाँ की थाली का हिस्सा हैं। यही वजह है कि गेहूँ से बना आटा सीधे-सीधे लोगों की सेहत और पोषण से जुड़ा हुआ है। इस आटे की गुणवत्ता, चाहे वह घर की चक्की से पिसा हो या पैकेज्ड मिल आटा हो, परिवार के स्वास्थ्य पर गहरा असर डालती है।

आटा मिलों में डैम्पेनिंग (नमी देने) की प्रमुख तकनीकें
गेहूँ को आटे में बदलने से पहले उसमें नमी मिलाना एक आवश्यक प्रक्रिया है, जिसे डैम्पेनिंग या कंडीशनिंग (conditioning) कहा जाता है। इस प्रक्रिया का उद्देश्य गेहूँ के दानों को मुलायम बनाना और उन्हें पीसने योग्य स्थिति में लाना होता है। आज भारत की आटा मिलों में अलग-अलग तकनीकें अपनाई जाती हैं।
- ठंडे पानी में भिगोना (Conventional Dampening): इस पारंपरिक विधि में गेहूँ को कमरे के तापमान पर 24 से 72 घंटे तक भिगोया जाता है। इसमें गेहूँ के दाने धीरे-धीरे पानी सोखते हैं, लेकिन पूरे अनाज में नमी समान रूप से फैलने में समय लगता है।
- गर्म पानी में भिगोना (Warm/Hot Dampening): इस विधि में गेहूँ को 30°C से 46°C तापमान वाले पानी में रखा जाता है। इससे नमी तेजी से दानों में समा जाती है और केवल 1–1.5 घंटे में प्रक्रिया पूरी हो जाती है। इसके बाद, गेहूँ को 24 घंटे तक छोड़ देने से उसके गुण और भी बेहतर हो जाते हैं।
- वाष्प नम करना (Steam Dampening): यह आधुनिक तकनीक जर्मनी में शुरू हुई और अब अमेरिका व कनाडा में भी लोकप्रिय है। इसमें पानी को वाष्प के रूप में गेहूँ में मिलाया जाता है। इस विधि से दानों में समान रूप से नमी मिलती है और यह प्रक्रिया केवल 20–30 सेकंड में पूरी हो जाती है।
- माइक्रोवेव तकनीक: खाद्य उद्योग में माइक्रोवेव का उपयोग अब नमी प्रदान करने के लिए भी होने लगा है। यह तकनीक तेजी से नमी देने और अनाज की गुणवत्ता बनाए रखने में सहायक होती है।
इन सभी विधियों से गेहूँ पिसाई के लिए बेहतर ढंग से तैयार होता है और इससे बने आटे की गुणवत्ता में भी सुधार आता है।

पारंपरिक चक्की का आटा बनाम पैकेज्ड आटा
जब आटे की बात आती है, तो लोग अक्सर यह सोचते हैं कि चक्की का आटा बेहतर है या पैकेज्ड आटा। पारंपरिक चक्की से पिसा आटा पोषण से भरपूर होता है क्योंकि इसमें गेहूँ का चोकर, बीज और एंडोस्पर्म (Endosperm) सुरक्षित रहते हैं। इसमें फाइबर (Fiber), विटामिन (Vitamin) और खनिज पर्याप्त मात्रा में होते हैं। पत्थर से पिसाई की वजह से गेहूँ के प्राकृतिक तेल भी सुरक्षित रहते हैं, जिससे आटे में स्वाद और सुगंध बनी रहती है। यही कारण है कि चक्की के आटे से बनी रोटियाँ न सिर्फ स्वादिष्ट होती हैं बल्कि सेहतमंद भी होती हैं। दूसरी ओर, पैकेज्ड आटा सुविधा का प्रतीक है। यह बाज़ार में आसानी से उपलब्ध होता है और बारीक पिसा हुआ होने के कारण इसे गूँथना भी सरल होता है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि आधुनिक मशीनों से प्रोसेसिंग (processing) के दौरान गेहूँ की चोकर और परतें हटा दी जाती हैं, जिनमें अधिकतर पोषक तत्व मौजूद होते हैं। इस वजह से पैकेज्ड आटे का पोषण स्तर घट जाता है। इस प्रकार, यदि आप स्वास्थ्य और स्वाद को महत्व देते हैं तो चक्की का आटा बेहतर विकल्प है, लेकिन यदि सुविधा प्राथमिकता है तो पैकेज्ड आटा भी एक विकल्प हो सकता है।

आधुनिक व्यावसायिक आटा चक्कियों की चुनौतियाँ
आज के दौर में व्यावसायिक आटा चक्कियाँ बड़े पैमाने पर पैकेज्ड आटा तैयार करती हैं। हालांकि यह आटा आसानी से उपलब्ध होता है, लेकिन इसके पीछे कई गंभीर समस्याएँ छिपी हैं। सबसे पहले, मशीनों से प्रोसेसिंग के दौरान गेहूँ का चोकर और फाइबर निकाल दिया जाता है, जिससे आटा पोषक तत्वों से खाली होकर मैदा जैसा बन जाता है। इसके अलावा, पैकेज्ड आटा लंबे समय तक स्टोर (store) किया जाता है और इसे सुरक्षित रखने के लिए रसायनों और संरक्षकों का इस्तेमाल किया जाता है। इस वजह से आटे की ताज़गी कम हो जाती है। पैकेजिंग में लंबे समय तक बंद रहने से इसमें संदूषण की संभावना भी बढ़ जाती है। एक और समस्या यह है कि आधुनिक मिलों में स्टील और एमरी पत्थरों से पिसाई की जाती है। कई बार ये पत्थर आटे में हानिकारक पदार्थ छोड़ सकते हैं। इतना ही नहीं, आटे को सफेद बनाने और परिष्कृत करने के लिए रसायनों का उपयोग किया जाता है, जिससे विटामिन और फाइबर का लगभग 70% तक नष्ट हो जाता है। इन सभी कारणों से व्यावसायिक आटा भले ही सुविधा प्रदान करता हो, लेकिन सेहत के लिहाज से यह नुकसानदायक साबित हो सकता है।

उत्तर प्रदेश के प्रमुख गेहूँ आटा निर्माता
उत्तर प्रदेश गेहूँ उत्पादन और आटा मिलिंग के क्षेत्र में अग्रणी राज्यों में से एक है। यहाँ कई बड़े और प्रसिद्ध आटा निर्माता सक्रिय हैं, जो न केवल स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करते हैं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी निर्यात करते हैं।
- आयशा एक्सपोर्ट्स, मुरादाबाद: यह कंपनी 10 टन प्रति सप्ताह की आपूर्ति क्षमता रखती है और पश्चिमी यूरोप, एशिया, अमेरिका और मध्य पूर्व तक आटा निर्यात करती है।
- मैकी गोल्ड, अमरोहा: यह कंपनी बिना संरक्षक और ग्लूटेन-मुक्त (gluten-free) साबुत गेहूँ का आटा बनाती है, जो स्वास्थ्य के प्रति सजग उपभोक्ताओं के लिए उपयुक्त है।
- श्री पारसनाथ ट्रेडिंग कंपनी, मुज़फ़्फरनगर: "कनक" ब्रांड के नाम से यह कंपनी 5 किलो पैक में साबुत गेहूँ का आटा उपलब्ध कराती है। इसकी कीमत और गुणवत्ता दोनों ही उपभोक्ताओं के लिए आकर्षक हैं।
- वैभव शक्ति भोग फ़ूड्स, बागपत: यह कंपनी सफेद प्राकृतिक गेहूँ का आटा बनाती है, जिसकी ग्रेडिंग (grading) खाद्य मानकों के अनुरूप होती है।
इन सभी निर्माताओं की उपस्थिति उत्तर प्रदेश को आटा उद्योग का एक महत्वपूर्ण केंद्र बनाती है। वे स्थानीय उपभोक्ताओं के साथ-साथ वैश्विक बाजार में भी अपनी पहचान बनाए हुए हैं।
संदर्भ-
https://shorturl.at/K1Hiu
कैसे लखनऊ की वनस्पति और पेड़-पौधे, हमारी सेहत और संस्कृति के आधार बनते हैं?
शरीर के अनुसार वर्गीकरण
15-10-2025 09:21 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊवासियो, हमारे शहर की पहचान सिर्फ़ नवाबी तहज़ीब और अदब से नहीं, बल्कि पेड़ों की उसी ठंडी छाँव से भी है जो पीढ़ियों से हमारी गलियों को हरियाली देती आई है। मलीहाबाद की दशहरी बाग़ानियाँ जब पकती महक से हवा भर देती हैं, तो लगता है जैसे लखनऊ का दिल ही धड़क उठा हो। मोहल्लों के मोड़ों पर खड़े नीम - पीपल, सड़क किनारे सजे अशोक - शीशम, और आँगनों में झूमते महुआ - ढाक व गूलर - ये सब मिलकर हमारी साँसों को हल्का, मौसम को सधा और यादों को हरा-भरा रखते हैं। सच तो यह है कि जहाँ बड़े वन क्षेत्र कम हैं, वहाँ यही स्थानीय पेड़ - पौधे हमारी सेहत, मिट्टी और मौसम के सच्चे रखवाले बन जाते हैं। इस लेख में हम इसी अपनी लखनऊई हरियाली को थोड़ी नज़दीक से, अपने ही अंदाज़ में समझेंगे - ताकि कल के लिए हम आज बेहतर फ़ैसले ले सकें। आज हम पहले समझेंगे कि लखनऊ की वनस्पति और यहाँ की प्रमुख खेती - जैसे गेहूँ, धान, सरसों, आलू और मलीहाबाद का दशहरी आम - हमारे जीवन और अर्थव्यवस्था के लिए क्यों अहम हैं। इसके बाद, आसान भाषा में जानेंगे कि पौधों का महत्व और उनका वर्गीकरण किन आधारों - संरचना, पोषण और प्रजनन - पर किया जाता है। फिर, चरणबद्ध ढंग से समझेंगे जीवनचक्र के आधार पर वर्गीकरण - वार्षिक, द्विवार्षिक और बारहमासी पौधे क्या होते हैं और इनकी उपयोगिता क्या है। अंत में, देखेंगे कि लखनऊ और आसपास उगाए जाने योग्य देशी पेड़ - बरगद, नीम, पीपल, शीशम और जामुन - हमारे पर्यावरण, संस्कृति और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कैसे ठोस लाभ पहुँचाते हैं।
इस लेख में हम सबसे पहले लखनऊ की वनस्पति और यहाँ की प्रमुख खेती के बारे में विस्तार से जानेंगे, जहाँ दशहरी आम से लेकर गेहूँ, धान और सब्ज़ियों तक की विविधता पाई जाती है। इसके बाद हम पौधों के महत्व और उनके वैज्ञानिक वर्गीकरण को समझेंगे, जिससे यह पता चलेगा कि पौधे केवल पर्यावरण ही नहीं बल्कि हमारी संस्कृति और स्वास्थ्य के लिए भी कितने अहम हैं। फिर हम पौधों के वर्गीकरण की प्रणाली पर चर्चा करेंगे, जिसमें उनकी संरचना, पोषण की विधि और प्रजनन की प्रक्रिया जैसे पहलुओं को सरल भाषा में समझाया जाएगा। अंत में हम यह देखेंगे कि लखनऊ और उसके आसपास कौन-कौन से देशी पेड़, जैसे बरगद, नीम, पीपल और शीशम, हमारी मिट्टी, जलवायु और समाज के लिए विशेष महत्व रखते हैं।

लखनऊ की वनस्पति और प्रमुख खेती
लखनऊ में भले ही बड़े घने जंगल नहीं हैं, लेकिन यहाँ की मिट्टी और जलवायु ने अलग-अलग किस्म के पेड़ों और फसलों को पनपने का अवसर दिया है। शीशम, महुआ, ढाक, नीम, पीपल, अशोक और गूलर जैसे पेड़ इस क्षेत्र के परिदृश्य को जीवंत बनाते हैं और लोगों के जीवन से गहराई से जुड़े हुए हैं। खासकर मलीहाबाद ब्लॉक की दशहरी आम की बाग़ानियाँ तो पूरे देश में मशहूर हैं। इन बाग़ों से निकलने वाले दशहरी आम न केवल लखनऊ की पहचान बने हैं, बल्कि विदेशों तक निर्यात होकर शहर की शान भी बढ़ाते हैं। यहाँ की मुख्य फसलें गेहूँ, धान, गन्ना, सरसों और आलू हैं, जो हर किसान के खेतों की रीढ़ हैं। इसके साथ ही, फूलगोभी, पत्तागोभी, टमाटर और बैंगन जैसी सब्ज़ियाँ भी किसानों की रोज़मर्रा की कमाई में अहम योगदान देती हैं। यही नहीं, सूरजमुखी, गुलाब और गेंदा जैसे फूल बड़े पैमाने पर उगाए जाते हैं, जो शहर की सुंदरता और बाज़ार की मांग दोनों को पूरा करते हैं।

पौधों का महत्व और उनका वर्गीकरण
पौधे केवल हरियाली का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि हमारे पर्यावरण का आधार हैं। ये हमें ऑक्सीजन (Oxygen) देकर जीवन बनाए रखते हैं, भोजन और दवाओं का स्रोत बनते हैं, और छाया देकर हमारी थकान मिटाते हैं। यही कारण है कि पौधे मानव जीवन के लिए अनमोल धरोहर माने जाते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से इन्हें प्लांटे (Plantae) साम्राज्य का हिस्सा माना गया है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता प्रकाश संश्लेषण की वह अद्भुत क्षमता है, जिसके जरिए वे सूर्य के प्रकाश से अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं। इस प्रक्रिया ने पौधों को पृथ्वी पर सबसे महत्वपूर्ण जीवों की श्रेणी में रखा है। पौधों का वर्गीकरण उनकी संरचना, प्रजनन और पोषण के आधार पर किया जाता है। यह वर्गीकरण हमें न केवल वैज्ञानिक अध्ययन करने में मदद करता है, बल्कि अलग-अलग प्रजातियों के संरक्षण की राह भी दिखाता है।

पौधों के वर्गीकरण की प्रणाली: संरचना, पोषण और प्रजनन
पौधों का वर्गीकरण कई पहलुओं पर आधारित होता है।
- कोशिकीय संरचना: शैवाल जैसे पौधों की संरचना सरल होती है और इनमें कोशिकाओं का संगठन बुनियादी स्तर पर होता है। इसके विपरीत, बड़े पेड़ और फूल वाले पौधों में जटिल कोशिकीय संगठन पाया जाता है, जो उन्हें विशिष्ट और मजबूत बनाता है।
- पोषण का तरीका: अधिकांश पौधे प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए स्वयं भोजन बनाते हैं और इस प्रक्रिया से पूरी पृथ्वी का पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखते हैं। कुछ पौधे, जैसे मशरूम, पर्यावरण से पोषण प्राप्त करते हैं और इस आधार पर वे अन्य पौधों से अलग वर्गीकृत किए जाते हैं।
- प्रजनन: कुछ पौधे बीजाणुओं के ज़रिए अपना वंश बढ़ाते हैं, जबकि कुछ बीजों से विकसित होते हैं। फूलों की उपस्थिति या अनुपस्थिति भी उनके वर्गीकरण में अहम भूमिका निभाती है। इस तरह, संरचना, पोषण और प्रजनन की यह विविधता हमें पौधों की दुनिया को गहराई से समझने का अवसर देती है।

जीवनचक्र के आधार पर पौधों का वर्गीकरण
पौधों को उनके जीवनचक्र के आधार पर तीन समूहों में बाँटा जाता है।
- वार्षिक पौधे: ये ऐसे पौधे होते हैं जो केवल एक ही मौसम में अपना पूरा जीवन चक्र पूरा कर लेते हैं। ये अधिकतर शाकीय (herbaceous) पौधे होते हैं जिनमें वास्तविक लकड़ी के ऊतक नहीं पाए जाते। गेहूँ, धान और मक्का इसके प्रमुख उदाहरण हैं, जिनकी हर साल खेती होती है और जो हमारे भोजन की ज़रूरतों को पूरा करते हैं।
- द्विवार्षिक पौधे: इनका जीवन दो साल तक चलता है। पहले वर्ष में ये पौधे जड़ों और पत्तियों को विकसित करते हैं और दूसरे वर्ष में इनमें फूल और बीज आते हैं। गाजर, प्याज और गोभी जैसे पौधे इसके बेहतरीन उदाहरण हैं, जो हमारे खाने में स्वाद और पोषण दोनों जोड़ते हैं।
- बारहमासी पौधे: ये लंबे समय तक जीवित रहते हैं और हर साल फूल व फल देते हैं। गुलाब, लिली (Lily) और लैवेंडर (Lavender) इसके प्रमुख उदाहरण हैं। ये पौधे न केवल हमारे बगीचों को सुंदर बनाते हैं, बल्कि कई बार औषधीय और आर्थिक महत्व भी रखते हैं।
लखनऊ और आसपास उगाए जाने योग्य देशी पेड़
लखनऊ की जलवायु और मिट्टी कई देशी पेड़ों के लिए बेहद अनुकूल है।
- बरगद: यह पेड़ अपनी विशाल छाया और हवा में लटकती जड़ों के लिए प्रसिद्ध है। यह न सिर्फ़ छाया देता है बल्कि स्थानीय वन्यजीवों का भी सहारा बनता है।
- नीम: अपने औषधीय गुणों और कीट-प्रतिरोधक क्षमता के कारण नीम लखनऊ के पर्यावरण को स्वच्छ रखने में मदद करता है। इसके पत्ते और छाल आयुर्वेद में विशेष स्थान रखते हैं।
- पीपल: यह धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। गर्मियों में इसकी घनी छाया राहगीरों के लिए राहत देती है और इसकी आध्यात्मिक महत्ता भी गहरी है।
- शीशम: यह पेड़ मज़बूत लकड़ी प्रदान करता है और मिट्टी को स्थिर रखने में मदद करता है। इसकी उपस्थिति लखनऊ के परिदृश्य को और सुंदर बनाती है।
- जामुन: इसका फल पौष्टिक होता है और स्थानीय पक्षियों व जानवरों के लिए भी भोजन का स्रोत है। यह पेड़ स्वाद और स्वास्थ्य दोनों का उपहार देता है।

पर्यावरण और सांस्कृतिक दृष्टि से पौधों का महत्व
पौधे सिर्फ़ पर्यावरणीय दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण हैं। बरगद और पीपल जैसे पेड़ भारत की परंपराओं और आस्थाओं में गहराई से जुड़े हैं। नीम स्वास्थ्य और औषधीय गुणों के लिए पूजनीय है। वहीं, जामुन और शीशम जैसे पेड़ किसानों की आजीविका को सहारा देते हैं। ये पेड़ मिट्टी को कटाव से बचाते हैं, हवा को स्वच्छ रखते हैं और स्थानीय जीव-जंतुओं को सुरक्षित आश्रय प्रदान करते हैं। यही कारण है कि लखनऊ की वनस्पति को बचाना और उसका संवर्धन करना हर नागरिक की ज़िम्मेदारी है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी उसी तरह हरियाली और प्राकृतिक धरोहर का आनंद ले सकें, जैसा हम आज लेते हैं।
संदर्भ-
कैसे ऊँट का ऊन और दूध, लखनऊवासियों की सेहत और रोज़गार दोनों को नया सहारा दे सकते हैं?
स्तनधारी
14-10-2025 09:10 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊवासियो, आपने अक्सर चौक, हज़रतगंज या इमामबाड़ों की गलियों में लगने वाले मेलों और जुलूसों में ऊँटों को सजधज कर चलते ज़रूर देखा होगा। शादियों में बारात की शान बढ़ाते ये ऊँट हमारे लिए हमेशा आकर्षण का केंद्र रहे हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ऊँट सिर्फ़ सवारी या दिखावे का साधन नहीं है, बल्कि उसका ऊन और दूध हमारी ज़िंदगी को कई तरीक़ों से संवार सकता है? भारत के कई राज्यों में ऊँट पालन से लोग रोज़गार कमा रहे हैं, उनके परिवार की आर्थिक हालत सुधर रही है और स्थानीय व्यापार को नया आधार मिल रहा है। खास बात यह है कि ऊँटनी का दूध औषधीय गुणों से भरपूर होता है - यह न केवल पोषण देता है, बल्कि कई गंभीर बीमारियों में भी लाभकारी माना जाता है। आज जब हर परिवार बेहतर स्वास्थ्य और सुरक्षित कमाई की तलाश में है, तब ऊँट से जुड़ा यह परंपरागत लेकिन आधुनिक रूप लेता उद्योग हमारे लिए नई संभावनाओं और भविष्य की उम्मीदों का रास्ता खोलता है।
इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कि भारत में ऊँट के ऊन से जुड़ी आजीविका और संभावनाएँ कितनी व्यापक हैं। फिर हम देखेंगे कि ऊँट पालन किस तरह परंपरा से निकलकर अब व्यवसाय का नया रूप ले रहा है। इसके बाद, हम ऊँट के दूध के पोषण और स्वास्थ्य लाभों पर चर्चा करेंगे, जिससे यह समझ पाएंगे कि यह दूध आम लोगों के लिए क्यों विशेष है। अंत में, हम ऊँट उद्योग की वर्तमान स्थिति और इसके विकास के लिए आवश्यक कदमों पर नज़र डालेंगे, ताकि भविष्य में यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए और भी मज़बूत स्तंभ बन सके।
भारत में ऊँट के ऊन से जुड़ी आजीविका और संभावनाएँ
भारत में ऊँट का ऊन एक अनूठा प्राकृतिक संसाधन है, जो सदियों से स्थानीय कारीगरों और बुनकरों की आजीविका का हिस्सा रहा है। ऊन को हर साल एक विशेष मौसम में ऊँट की कतराई और संवारने की प्रक्रिया से प्राप्त किया जाता है। एक वयस्क मादा ऊँट सालाना लगभग 3.5 किलो ऊन देती है, जबकि नर ऊँट से 7 किलो तक ऊन प्राप्त हो सकता है। कच्छ क्षेत्र के खराई ऊँट, जो अपनी जल और खारे वातावरण की सहनशीलता के लिए मशहूर हैं, सालाना 300 ग्राम से 5 किलो तक ऊन दे सकते हैं। इस ऊन की सबसे महंगी किस्म बैक्ट्रियन (Bactrian) ऊँटों से प्राप्त होती है। यह ऊन बेहद मुलायम, हल्का और गर्म होता है, जिसे मोहायर और कश्मीरी ऊन जैसी लक्ज़री श्रेणी में रखा जाता है। इसकी अंतरराष्ट्रीय कीमत 9 से 24 अमेरिकी डॉलर प्रति किलो तक पहुँच सकती है, जबकि भारत में यह लगभग 1000 रुपये प्रति किलो बिकता है। यह अंतर इस बात का संकेत है कि यदि ऊँट ऊन उद्योग को सही दिशा में संगठित किया जाए, तो ग्रामीण समुदायों के लिए यह आय का एक बहुत बड़ा साधन बन सकता है। आज के समय में ऊँट ऊन का उपयोग उच्च गुणवत्ता वाले शॉल, कालीन, जैकेट और सजावटी वस्त्र बनाने में किया जाता है। अगर इसे आधुनिक तकनीक और बाज़ार से जोड़ा जाए, तो यह ग्रामीण महिलाओं के लिए आत्मनिर्भरता और हस्तशिल्प के विकास का मार्ग भी खोल सकता है।

ऊँट पालन: परंपरा से व्यवसाय तक
भारत में ऊँट पालन केवल एक सांस्कृतिक परंपरा भर नहीं, बल्कि आजीविका का अहम हिस्सा है। राजस्थान, गुजरात और हरियाणा जैसे राज्यों में ऊँट को लंबे समय से “रेगिस्तान का जहाज़” कहा जाता है, क्योंकि यह परिवहन, बोझ ढोने और दैनिक जीवन के कई कार्यों में सहायक रहा है। लेकिन अब ऊँट पालन का महत्व केवल परंपराओं तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि यह एक व्यवसायिक संभावना भी बनता जा रहा है। आज कई समुदाय ऊँटनी के दूध और ऊन से आय अर्जित कर रहे हैं। ऊँट पालन को व्यवसाय के रूप में अपनाने के लिए पूँजी निवेश, पशुपालन के ज्ञान और एक ठोस बिज़नेस मॉडल (business model) की आवश्यकता होती है। सरकार की मुद्रा लोन जैसी योजनाएँ इस क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए मददगार साबित हो सकती हैं। ऊँटनी के दूध की ऊँची कीमत - राजस्थान में 3,500 रुपये प्रति लीटर तक - यह साबित करती है कि यह उद्योग आर्थिक दृष्टि से बहुत लाभकारी हो सकता है। यदि ऊँट पालन को आधुनिक उद्यमशीलता से जोड़ा जाए, तो यह केवल परंपरा का हिस्सा नहीं, बल्कि ग्रामीण युवाओं और किसानों के लिए एक नया करियर विकल्प बन सकता है।
ऊँट के दूध के पोषण और स्वास्थ्य लाभ
ऊँट का दूध, सेहत और पोषण के लिहाज़ से बेहद अनमोल है। इसमें गाय के दूध की तुलना में लगभग समान प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट (carbohydrate) होते हैं, लेकिन इसकी सबसे खास बात यह है कि इसमें वसा कम और विटामिन सी (Vitamin C), कैल्शियम (Calcium), आयरन (Iron) और पोटैशियम (Potassium) की मात्रा अधिक होती है। यही कारण है कि यह दूध शारीरिक विकास, हड्डियों की मज़बूती और रोगों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाने में बेहद कारगर माना जाता है।
- लैक्टोज (Lactose) असहिष्णु लोगों के लिए सहायक: कई लोग गाय या भैंस का दूध पचाने में सक्षम नहीं होते, क्योंकि उनमें लैक्टोज असहिष्णुता होती है। ऊँट के दूध में लैक्टोज की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है, जिससे यह उन लोगों के लिए भी एक बेहतर विकल्प है।
- मधुमेह रोगियों के लिए लाभकारी: इसमें मौजूद विशेष प्रकार के प्रोटीन शरीर में इंसुलिन के कार्य को सक्रिय करते हैं और रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करने में मदद करते हैं।
- रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है: इसमें लैक्टोफ़ेरिन (Lactoferrin) और इम्युनोग्लोबुलिन (Immunoglobulin) जैसे प्रोटीन पाए जाते हैं, जो शरीर को बैक्टीरिया, वायरस और फंगल संक्रमण से बचाते हैं।

भारत में ऊँट के दूध के बाज़ार की स्थिति और संभावनाएँ
वर्तमान समय में भारत में ऊँट के दूध का बाज़ार अभी सीमित है और मुख्य रूप से कुछ राज्यों तक ही सिमटा हुआ है। इसकी आपूर्ति और प्रसंस्करण (processing) अभी व्यवस्थित नहीं है, लेकिन इसमें अपार संभावनाएँ छिपी हुई हैं। सिर्फ कच्चा दूध बेचने की बजाय यदि इससे पनीर, घी, छाछ, आइसक्रीम और अन्य डेयरी उत्पाद बनाए जाएँ, तो इसका बाज़ार और बड़ा हो सकता है। पहले से ही गाय और भैंस के दूध से बने उत्पादों ने यह साबित कर दिया है कि उपभोक्ता विविधता को पसंद करते हैं। ऊँटनी के दूध की ऊँची कीमत और स्वास्थ्य लाभ को देखते हुए इसका बाज़ार भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी तेजी से बढ़ सकता है। इसके लिए केवल उत्पादन ही नहीं, बल्कि उचित पैकेजिंग, गुणवत्ता नियंत्रण और मार्केटिंग की रणनीतियाँ अपनाना ज़रूरी है।

ऊँट उद्योग के विकास के लिए आवश्यक कदम
ऊँट पालन और उससे जुड़ी अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने के लिए कई कदम उठाने की ज़रूरत है:
- सामूहिक संगठन: ऊँट पालकों को सहकारी समितियों में संगठित करना बेहद ज़रूरी है। इससे वे बिचौलियों पर निर्भर नहीं रहेंगे और अपने उत्पाद की सही कीमत पा सकेंगे।
- उत्पाद विविधता और नवाचार: केवल दूध बेचने की बजाय यदि इससे पनीर, आइसक्रीम या दही जैसे उत्पाद बनाए जाएँ, तो अधिक ग्राहक आकर्षित होंगे और मुनाफ़ा भी बढ़ेगा।
- सरकारी योजनाओं से जुड़ाव: मिड-डे मील (Mid-Day Meal) या अन्य पोषण योजनाओं में ऊँट के दूध को शामिल करने से बच्चों और महिलाओं को बेहतर पोषण मिलेगा और ऊँट पालन को स्थायी बाज़ार भी मिलेगा।
- जागरूकता और प्रचार: उपभोक्ताओं तक ऊँट के दूध और ऊन के लाभ पहुँचाने के लिए जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है।
संदर्भ-
https://shorturl.at/4FLpa
लखनऊवासियो, जानिए क्यों मोडल फ़ैब्रिक ने बदल दिया शहर के फैशन और टेक्सटाइल का नक्शा
स्पर्श - बनावट/वस्त्र
13-10-2025 09:18 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊवासियो, आपने अक्सर देखा होगा कि हमारे शहर और आसपास के कारीगर नई-नई टेक्सटाइल (textile) तकनीकों के प्रति हमेशा उत्सुक रहते हैं और अपने कला कौशल को नवीनता के साथ जोड़ते हैं। पिछले कुछ वर्षों में लखनऊ में मोडल फ़ैब्रिक (Modal Fabric) की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है। यह फ़ैब्रिक (fabric) न केवल मुलायम और आरामदायक है, बल्कि टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल भी है, जिससे यह फैशन उद्योग और घरेलू उपयोग दोनों के लिए एक बेहतरीन विकल्प बन गया है। मोडल फ़ैब्रिक (Modal Fabric) का उपयोग लखनऊ में साड़ियों, ड्रेस, अंतर्वस्त्र, स्पोर्ट्सवेयर (sportswear) और लाउंजवियर (loungewear) में बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। इसके अलावा, होम टेक्सटाइल्स जैसे बेड लिनेन (bed linen), तकियों के खोल, तौलिये और प्रीमियम बिस्तर बनाने में भी यह फ़ैब्रिक तेजी से अपनाया जा रहा है। इसकी खासियत यह है कि यह पसीना जल्दी अवशोषित करता है, सांस लेने योग्य है और लंबे समय तक अपने आकार और मुलायमता को बनाए रखता है। मोडल फ़ैब्रिक के निर्माण में कम रसायन और कम ऊर्जा का उपयोग किया जाता है, जिससे यह पर्यावरण के लिए भी सुरक्षित है। इसके उत्पादन की प्रक्रिया में कम पानी और ऊर्जा की खपत होती है और इसमें विषैले कचरे (toxic waste) का स्तर बहुत कम होता है। यही वजह है कि यह फ़ैब्रिक केवल फैशन उद्योग के लिए ही नहीं, बल्कि सतत और पर्यावरण मित्र उत्पादों के रूप में भी महत्वपूर्ण माना जाता है। लखनऊ के कारीगर और फैशन डिजाइनर इस फ़ैब्रिक का इस्तेमाल कर अपने उत्पादों को न केवल सुंदर और टिकाऊ बना रहे हैं, बल्कि पर्यावरण की दृष्टि से भी जिम्मेदार विकल्प पेश कर रहे हैं। यह तकनीक शहर की पारंपरिक शिल्प कला और आधुनिक फैशन की मिलन बिंदु बन गई है, जिससे लखनऊ का टेक्सटाइल उद्योग नए स्तर पर पहुंच रहा है और ग्राहकों को उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद प्रदान कर रहा है।
आज हम इस लेख में मोडल फ़ैब्रिक को कई हिस्सों में समझेंगे। सबसे पहले जानेंगे कि मोडल फ़ैब्रिक क्या है और इसका इतिहास क्या रहा है। इसके बाद हम इसके प्रमुख गुण और फायदे देखेंगे, जैसे नर्मी, सांस लेने की क्षमता, टिकाऊपन और पर्यावरण अनुकूलता। आगे भारत में इसकी निर्माण प्रक्रिया समझेंगे, जिसमें सेल्यूलोज़ (Cellulose) के निष्कर्षण और फैब्रिक बनाने के चरण शामिल हैं। फिर हम इसके उपयोग पर ध्यान देंगे - फैशन इंडस्ट्री (Fashion Industry) और होम टेक्सटाइल्स (Home Textiles) में कैसे इस्तेमाल होता है। इसके अलावा मोडल फ़ैब्रिक से बने कपड़ों की देखभाल और रखरखाव के आसान तरीकों पर चर्चा करेंगे। अंत में, हम यह समझेंगे कि क्यों लखनऊ के कारीगर और उद्योग इस फ़ैब्रिक को अपना रहे हैं।

मोडल फ़ैब्रिक क्या है और इसका इतिहास
मोडल फ़ैब्रिक एक विशेष प्रकार का सेल्यूलोज़ आधारित टेक्सटाइल फ़ाइबर है। इसे बीच (Beech) के पेड़ की लकड़ी से निकाले गए सेल्यूलोज़ से बनाया जाता है। यह फ़ैब्रिक 1950 के दशक में जापान में विकसित किया गया था, ताकि विस्कोस रेयान का बेहतर और टिकाऊ विकल्प तैयार किया जा सके। हाल के वर्षों में इसकी मुलायमता, टिकाऊपन और पर्यावरण के अनुकूल गुणों के कारण यह भारतीय कपड़ा उद्योग में बेहद लोकप्रिय हो गया है। खासकर फैशन डिजाइनर और स्थानीय कारीगर अब मोडल फ़ैब्रिक का इस्तेमाल अनोखी, टिकाऊ और स्टाइलिश (stylish) साड़ियों, ड्रेस और अन्य आधुनिक कपड़ों में कर रहे हैं। इस फ़ैब्रिक की लोकप्रियता इस तथ्य से भी समझी जा सकती है कि यह फैशन और रोज़मर्रा के पहनावे दोनों में आराम, स्टाइल और गुणवत्ता का संतुलन प्रदान करता है।
मोडल फ़ैब्रिक की विशेषताएँ और फायदे
मोडल फ़ैब्रिक को सबसे पहले इसके आराम और खिंचाव क्षमता के लिए जाना जाता है। यह बहुत लचीला और मुलायम होता है, जिससे टी-शर्ट (T-Shirt), खेलकूद के कपड़े और लाउंजवियर के लिए आदर्श साबित होता है। यह सांस लेने योग्य फ़ैब्रिक है, यानी शरीर से पसीना जल्दी अवशोषित करता है और शरीर को ठंडा तथा सूखा रखता है। इसकी मजबूती और टिकाऊपन इसे रोज़मर्रा के कपड़ों और होम टेक्सटाइल्स जैसे बेड लिनेन, तौलिये और तकियों के लिए भी आदर्श बनाता है। पर्यावरण के दृष्टिकोण से यह फ़ैब्रिक सुरक्षित है क्योंकि इसमें कम रसायनों का उपयोग होता है और उत्पादन प्रक्रिया में कम ऊर्जा खर्च होती है। साथ ही, मोडल फ़ैब्रिक पिलिंग (Modal Fabric Pilling) नहीं करता और धोने पर सिकुड़ता भी नहीं है। इसका चिकना फिनिश और लंबे समय तक टिकाऊपन इसे रोज़मर्रा के उपयोग के लिए और भी बेहतर विकल्प बनाते हैं।
भारत में मोडल फ़ैब्रिक का निर्माण प्रक्रिया
मोडल फ़ैब्रिक का निर्माण लकड़ी से सेल्यूलोज़ निकालने से शुरू होता है। बीच के पेड़ की लकड़ी को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता है, जो आकार में लगभग डाक टिकट के बराबर होते हैं। इन टुकड़ों को कारखाने में लाकर शुद्ध किया जाता है, जिससे केवल सेल्यूलोज़ बचता है और बाकी लकड़ी हटा दी जाती है। इसके बाद इसे चादरों के रूप में ढाला जाता है और सोडियम हाइड्रॉक्साइड (Sodium Hydroxide) के घोल में डुबोया जाता है। मोडल फ़ैब्रिक की यह प्रक्रिया विस्कोस रेज़न (Viscose Rayon) की तुलना में कम रसायनों का उपयोग करती है, जिससे पर्यावरण पर दबाव कम पड़ता है। इस सुरक्षित और कुशल उत्पादन प्रक्रिया के कारण फ़ैब्रिक की गुणवत्ता, मजबूती और टिकाऊपन भी बढ़ जाता है।
मोडल फ़ैब्रिक के उपयोग
मोडल फ़ैब्रिक फैशन इंडस्ट्री और होम टेक्सटाइल्स दोनों में बेहद लोकप्रिय है। फैशन के क्षेत्र में इसका उपयोग अंतर्वस्त्र, लॉन्जरी (Lingerie), स्पोर्ट्सवेयर, टी-शर्ट, ड्रेस और लाउंजवियर बनाने में किया जाता है। इसकी मुलायमता और हल्कापन इसे रोज़मर्रा के पहनावे के लिए आदर्श बनाते हैं। होम टेक्सटाइल्स में यह बेड लिनेन, तकियों के खोल, तौलिये और प्रीमियम बिस्तर के लिए इस्तेमाल होता है। इसकी उच्च नमी सोखने की क्षमता और मुलायमता इसे फैशन और घरेलू उपयोग दोनों के लिए उपयुक्त बनाती है। साथ ही, पर्यावरण के अनुकूल होने के कारण यह फ़ैब्रिक आधुनिक उपभोक्ताओं में और भी लोकप्रिय हो रहा है।

मोडल फ़ैब्रिक से बने कपड़ों की देखभाल और रखरखाव
मोडल फ़ैब्रिक के कपड़े मुलायम और टिकाऊ होते हैं, लेकिन उनकी लंबी उम्र और गुणवत्ता बनाए रखने के लिए उचित देखभाल ज़रूरी है। इसे ठंडे पानी में हल्के मोड पर धोना सबसे बेहतर होता है। हल्के डिटर्जेंट (Detergent) और ऑक्सीजन-बेस्ड ब्लीच (Oxygen-based bleach) का उपयोग करना चाहिए, क्योंकि क्लोरीन-बेस्ड ब्लीच (Chlorine-based bleach) कपड़े के लिए कठोर हो सकता है। नाज़ुक कपड़ों को मेश बैग (mesh bag) में धोना और सुखाने के लिए मध्यम तापमान का इस्तेमाल करना सही रहता है। कपड़ों को हल्का गीला रहने पर ही ड्रायर (dryer) से निकालें, ताकि सिलवटें न पड़ें। इस तरह की देखभाल से कपड़े लंबे समय तक मुलायम, टिकाऊ और आकर्षक बने रहते हैं।
लखनऊ में मोडल फ़ैब्रिक की लोकप्रियता
लखनऊ के कारीगर और फैशन डिजाइनर अब मोडल फ़ैब्रिक को अपनाकर नए, टिकाऊ और स्टाइलिश कपड़े बना रहे हैं। इसकी मुलायमता, टिकाऊपन और पर्यावरण अनुकूलता ने इसे स्थानीय उद्योग में प्राथमिक विकल्प बना दिया है। शहर के फैशन उद्योग और ग्राहकों में इसकी मांग लगातार बढ़ रही है। इस फ़ैब्रिक की वजह से लखनऊ के कारीगर अपनी कला और व्यवसाय को नई ऊँचाइयों तक ले जा रहे हैं। मोडल फ़ैब्रिक ने लखनऊ में आधुनिक और टिकाऊ टेक्सटाइल उत्पादों की पहचान मजबूत की है और स्थानीय फैशन उद्योग को वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार किया है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/2fvn73ra
लखनऊवासियो, आइए जानें अपने शहर की विरासत, स्मारक और स्वादिष्ट व्यंजनों की कहानी
दृष्टि III - कला/सौंदर्य
12-10-2025 09:24 AM
Lucknow-Hindi
लखनऊवासियो, आप सभी जानते हैं कि हमारा शहर कभी नवाबों की सत्ता का केंद्र रहा है। उस दौर ने लखनऊ को परिष्कृत शिष्टाचार, भव्य वास्तुकला, ललित कला और स्वादिष्ट व्यंजनों का शहर बना दिया, जो आज हमारी सांस्कृतिक विरासत का अहम हिस्सा हैं। आज लखनऊ प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक तत्वों का अनोखा मिश्रण प्रस्तुत करता है, जो इसे और भी खास बनाता है।
यहाँ मुगल और ब्रिटिश काल (British Period) की इमारतें और मकबरे आज भी अपनी भव्यता के साथ मौजूद हैं। रेज़ीडेंसी (residency), बड़ा इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा और ज़ामा मस्जिद जैसे ऐतिहासिक स्थल शहर की शान बढ़ाते हैं। भूल भुलैया, अपनी रहस्यमयी संरचना के कारण, आश्चर्य और उत्सुकता का केंद्र बनी हुई है। सैकड़ों छोटी-छोटी सीढ़ियों का यह चक्रव्यूह कभी आक्रमणकारियों को भ्रमित करने के लिए बनाया गया था। वहीं, छोटा इमामबाड़ा तक की तांगा सवारी, लखनऊ के सांस्कृतिक अनुभव को और भी जीवंत बना देती है।
लखनऊ की चिकनकारी, भारतीय संस्कृति का अनमोल हिस्सा रही है। शहर की समृद्ध संस्कृति, ऐतिहासिक छटा और पारंपरिक खुशबू यहां की आत्मा में बसती है। लखनऊवासी अक्सर कहते हैं कि "यहाँ सब नवाब हैं!" और सचमुच, यही बात शहर की भावना और आत्मा को सबसे अच्छे तरीके से व्यक्त करती है। हर लखनऊवासी, अपने आतिथ्य और सम्मान के साथ, हर आगंतुक का स्वागत नवाबी अंदाज़ में करता है।
संदर्भ-
https://tinyurl.com/34jtn2z2
https://tinyurl.com/4fbnvwpu
https://tinyurl.com/3fv87azz
https://tinyurl.com/hp3suewj
प्रकृति 756
