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क्या आप जानते हैं कि संस्कृत के बाद सीधे हिंदी या मराठी जैसी भाषाओं का विकास नहीं हुआ था। वास्तव में 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास वैदिक संस्कृत के बाद सबसे पहले "प्राकृत" और फिर उसकी उत्तराधिकारिणी भाषा "अपभ्रंश" विकसित हुई थी। अपभ्रंश, छठी और 13वीं शताब्दी ईस्वी के बीच उत्तर भारत में बोली जाने वाली भाषाओं का एक समूह था। आगे चलकर यही अपभ्रंश बोलियाँ, हिंदी, उर्दू और मराठी जैसी आधुनिक इंडो-आर्यन भाषाओं में बदल गईं।
जिस प्रकार रामधारी सिंह 'दिनकर', हिंदी भाषा के प्रमुख कवियों में से एक माने जाते हैं, उसी प्रकार "स्वयंभू देव (सत्यभूदेव)" को अपभ्रंश के प्रबंधात्मक साहित्य के प्रमुख प्रतिनिधि कवि के रूप में जाना जाता है। स्वयंभू देव, जैन धर्म के अनुयाई थे, जिनका जन्म लगभग साढ़े आठ सौ वर्ष पूर्व, बरार प्रांत में हुआ था। स्वयंभू को अपभ्रंश भाषा का महाकवि माना जाता है। उनके द्वारा रचित रचनाओं से अभी तक इतना ही पता लगाया जा सका है कि "उनके पिता का नाम मारुतदेव और माता का पद्मिनी था।" स्वयंभू को अपने पिता का सबसे छोटा पुत्र माना जाता है। पुष्पदन्त नामक एक बाद के कवि ने स्वयंभू का उल्लेख ने अपने महापुराण में किया है, जिसकी रचना सन् 965 ईसा पूर्व में हुई थी। स्वयंभू ने अपनी रचनाओं में अपने प्रदेश या जन्मस्थान ने नाम का भी स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है।
अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'पउम चरिउ' और 'रिट्ठिनेमि चरिउ' में स्वम्भू ने, "रविषेणाचार्य" जैसे अपने पूर्ववर्ती कवियों तथा उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है। रविषेणाचार्य द्वारा 'पद्म चरित' का लेखन काल, विक्रम सम्वत 734 का बताया जाता है। अत: इस आधार पर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि “स्वयंभू देव संभवतः सम्वत 734 के आसपास या इसके बाद में जन्में थे।” स्वयंभू देव का उल्लेख सर्वप्रथम महाकवि 'पुष्पदंत' ने अपने महापुराण में किया है, जिसका लेखन उन्होंने संभवतः 1016 में किया था। अतः इस आधार पर भी हम यह कह सकते हैं कि स्वयंभू देव, विक्रम की आठवीं शताब्दी में इस पृथ्वी पर मौजूद थे।
स्वयंभू द्वारा अभी तक रचित, तीन ही रचनाओं का पता लगाया जा सका है, जिनके नाम क्रमशः “पउमचरिउ (पद्मचरित), रिट्ठणेमिचरिउ (अरिष्ट नेमिचरित या हरिवंश पुराण) और स्वयंभू छंदस्” हैं”। अभी तक अपभ्रंश में लिखित ज्ञात प्रबंध काव्यों में स्वयंभू की केवल यही दो रचनाएँ (पउमचरिउ (पद्मचरित) और रिट्ठणेमिचरिउ) ही सर्वप्राचीन, उत्कृष्ट और विशाल मानी जाती हैं। संभवतः यही कारण है कि स्वयंभू को अपभ्रंश का आदि महाकवि भी कहा जाता है।
स्वम्भू को "अपभ्रंश के वाल्मिकी" की संज्ञा दी जाती है। हिन्दी से पहले के जैन कवियों में सबसे पहला नाम स्वयंभू देव का ही आता है। यद्दपि स्वम्भू को अपभ्रंश भाषा का महाकवि माना जाता है, किंतु उन्होंने 'पउम चरिउ' (पद्म चरित्र - जैन रामायण) नामक अपने ग्रंथ में ऐसी अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया है, जिसमें हिन्दी का प्राचीन रूप झलकता है। "पउमचरिउ" या 'पद्म चरित' को प्रभु श्री राम की कथा पर आधारित अपभ्रंश का एक महाकाव्य माना जाता है। जैन धर्म में राजा राम के लिए 'पद्म' शब्द का प्रयोग किया जाता है, इसलिए स्वयंभू की रामायण को (पउम चरिउ) कहा गया। इसे पूरी तरह से लिखने में छह वर्ष तीन मास ग्यारह दिन का समय लगा था। मूलरूप से इस रामायण में कुल 92 सर्ग थे, जिनमें स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने अपनी ओर से 16 सर्ग अतिरिक्त सर्ग और जोड़े। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 'रामचरित मानस' में भी महाकवि स्वयंभू रचित 'पउम चरिउ' का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। पउम चरिउ' में बारह हज़ार श्लोक दिए गए हैं।
सभी श्लोकों में कुल नब्बे संधियाँ हैं, जिनका विवरण निम्नवत दिया गया है -
विद्याधर काण्ड: 20 संधि
अयोध्या काण्ड: 22 संधि
सुन्दर काण्ड: 14 संधि
युद्ध काण्ड: 21 संधि
उत्तर काण्ड: 13 संधि
कुल 5 काण्ड: 90 संधियाँ
उक्त सभी संधियों में स्वयंभू देव द्वारा 83 संधियाँ और त्रिभुवन द्वारा 7 संधियाँ रची गई हैं, हालांकि अंतिम सात संधियों के बिना भी 'पउम चरिउ' को एक पूर्ण ग्रंथ माना जाता है। स्वयंभू "पउमचरिउ" को केवल धर्म ग्रंथ न बनाकर एक विशुद्ध साहित्यिक कोटि का काव्य बनाना चाहते थे। उन्होंने अपने काव्य को माता सीता की दीक्षा के साथ ही विराम दिया है, जिससे उनका सन्तुलित व्यक्तित्व प्रदर्शित होता है। इस ग्रंथ को पढ़कर यही प्रतीत होता है कि प्रभु श्री राम का क्षमा भाव धारण करना तथा माता सीता का राग भाव से निवृत्त होना ही स्वयंभू को पर्याप्त लगा था। पउम चरिउ' में स्वयंभू द्वारा विलाप और युद्ध का वर्णन विशेष तौर पर सराहनीय है। स्वयंभू देव ने इस ग्रंथ में नारी विलाप, बन्धु विलाप, दशरथ विलाप, राम विलाप, भरत विलाप, रावण विलाप, विभीषण विलाप आदि को बड़े सुन्दर ढंग से वर्णित किया है। इसके अलावा युद्ध में उन्होंने योद्धाओं की उमंग, रण यात्रा, मेघवाहन युद्ध, हनुमान युद्ध, कुम्भकर्ण युद्ध, लक्ष्मण युद्ध को भी वीर रस के साथ बड़ी ही स्पष्टता से वर्णित किया है। साथ ही उन्होंने अपने इस ग्रंथ में प्रकृति वर्णन, नगर वर्णन और वस्तु वर्णन को बड़े विस्तार और स्वाभाविक ढंग से लिखा है।
चलिए अंत में उनके ग्रंथ से रावण की मृत्यु पर मन्दोदरी विलाप (करुण रस) पर नजर डालते हुए चलते हैं:
आएहिं सोआरियहि, अट्ठारह हिव जुवह सहासेहिं।
णव घण माला डंबरेहि, छाइउ विज्जु जेम चउपासेहिं॥
रोवइ लंकापुर परमेसिर। हा रावण। तिहुयण जण केसरि॥
पइ विणु समर तुरु कहों वज्जइ। पइ विणु बालकील कहो छज्जइ॥
पइ विणु णवगह एक्कीकरणउ। को परिहेसइ कंठाहरणउ॥
पइविणु को विज्जा आराहइ। पइ विणु चन्द्रहासु को साहइ॥
को गंधव्व वापि आडोहइ। कण्णहों छवि सहासु संखोहइ॥
पण विणु को कुवेर भंजेसइ। तिजग विहुसणु कहों वसें होसइ॥
पण विणु को जमु विणवारेसई। को कइलासु द्धरण करेसई॥
सहस किरणु णल कुब्वर सक्कहु। को अरि होसइ ससि वरुणक्कहु॥
को णिहाण रयणइ पालेसइ। को वहुरूविणि विज्जां लएसइ॥
घत्ता - सामिय पइँ भविएण विणु, पुफ्फ विमापों चडवि गुरुभत्तिएँ।
मेरु सिहरें जिण मंदिरइँ, को मइ णेसइ वंदण हत्तिए।
संदर्भ
https://tinyurl.com/43ss8m27
https://tinyurl.com/c4py97tx
https://tinyurl.com/4scp2cc7
https://tinyurl.com/ykhryy53
चित्र संदर्भ
1. पउमचरिउ (प्रकाशित संस्करण की झलक) को दर्शाता एक चित्रण (Wikimedia)
2. अपभ्रंश लेखन को दर्शाता एक चित्रण (prarang)
3. मयूरसरमन, ब्राह्मी, प्राकृत और संस्कृत में चौथी शताब्दी के चंद्रावल्ली शिलालेख को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. अपभ्रंश व्याकरण की पुस्तक को दर्शाता एक चित्रण (Flipkart)
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