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आज का जौनपुर भले ही उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर तक सीमित हो गया हो, परन्तु 1394 ईस्वी से 1479 ईस्वी के बीच यही जौनपुर इतना शक्तिशाली राज्य हुआ करता था कि, यहां के शासकों ने दिल्ली जैसी विशाल सल्तनत को भी चुनौती दे डाली थी। जौनपुर सल्तनत उत्तरी भारत में एक मुस्लिम साम्राज्य था, जिस पर शर्की राजवंश, शासन करता था। जौनपुर सल्तनत की स्थापना 1394 में दिल्ली सल्तनत के तुगलक वंश के विघटन दौरान, “ख्वाजा-ए-जहाँ मलिक सरवर” द्वारा की गई थी। मलिक सरवर एक किन्नर गुलाम थे, जो सुल्तान नसीरुद्दीन मुहम्मद शाह चतुर्थ तुगलक के मंत्री के रूप में कार्य करते थे।
दिल्ली सल्तनत के पतन के दौरान जौनपुर सल्तनत की सत्ता उनके हाथों में आ गई। बाद में उन्होंने अवध क्षेत्र और गंगा-यमुना दोआब के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर भी नियंत्रण कर लिया। कहा जाता है कि जौनपुर के सुल्तान इब्राहिम शाह (1402–1440) के शासनकाल के दौरान, जौनपुर सल्तनत उन्नति के चरम पर पहुंच गई। इस दौरान राज्य के भीतर इस्लामी शिक्षा के विकास में काफी बढ़ोतरी देखी गई। हालाँकि, 1479 में जौनपुर के आखिरी सुल्तान “हुसैन शर्की” दिल्ली सल्तनत के लोदी वंश के शासक “बहलोल लोदी” की सेना के हाथों मिली हार के बाद जौनपुर सल्तनत को भी गवां बैठे थे। इस हार के साथ ही जौनपुर सल्तनत का अंत हो गया, और इसका फिर से दिल्ली सल्तनत के साथ विलय हो गया।
हुसैन शर्की ने 1458 से 1479 तक जौनपुर सल्तनत पर शासन किया। उनके शासनकाल के दौरान दिल्ली और जौनपुर के बीच कई छोटी-बड़ी झड़पें हुई थी। लेकिन अधिकांश मामलों में दोंनो राज्यों की आपस में संधि हो जाती थी। दोनों सल्तनतों के शासकों द्वारा हस्ताक्षरित कई युद्धविराम और संधियों से पता चलता है कि, “दोनों पक्ष एक दूसरे को हराने को लेकर अपनी क्षमता के बारे में अनिश्चित थे।” दोनों ही शासक पूर्ण पैमाने पर युद्ध छेड़ने और हार का जोखिम उठाने से झिझक रहे थे। दोनों का मानना था कि भारी युद्ध के परिणामस्वरूप उनकी प्रतिष्ठा और क्षेत्र दोनों की हानि हो सकती है। हालाँकि, यह बात भी सही है कि दोनों ही सुल्तान दूसरे राज्य को जीतने की प्रबल आकांक्षा रखते थे, लेकिन कोई भी इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए खुद को पर्याप्त रूप से शक्तिशाली नहीं मानता था।
एक ओर जहां दिल्ली के लोदी वंश के प्रथम सुलतान, बहलोल खान लोदी, वापस से दिल्ली की पुरानी सल्तनत को पाने के इच्छुक थे, तो वहीँ दूसरी ओर जौनपुर सल्तनत के शासक, हुसैन शर्की ने दिल्ली सल्तनत के सिंहासन पर काबिज होने की महत्वाकांक्षा पाल रखी थी।
बहलोल लोदी के साथ एक ऐसे ही युद्धविराम के बाद, हुसैन शर्की अपना शिविर और सामान युद्धक्षेत्र में ही छोड़कर वापस जौनपुर लौट आए थे। लेकिन इसी अवसर का लाभ उठाते हुए, घात लगाये दिल्ली के शासक बहलोल लोदी ने युद्धविराम तोड़ दिया और पीछे हट रही जौनपुर सेना द्वारा छोड़े गए सामान और शर्की सल्तनत की रानी मलिका जहाँ को पकड़ लिया। हालाँकि इसके बावजूद उल्लेखनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए बहलोल ने जौनपुर की रानी को सम्मान के साथ जौनपुर वापस भेज दिया।
इसके बाद एक बार फिर से दोनों पक्षों के बीच एक और समझौते पर बातचीत हुई, लेकिन इस बार जौनपुर सल्तनत के शासक हुसैन शर्की ने संधि का उल्लंघन कर दिया। हुसैन ने बहलूल पर आक्रमण करने की घोषणा कर दी। हालांकि शुरूआती लड़ाई में ही हुसैन को, ज़बरदस्त हार का सामना करना पड़ा और जल्दबाजी में पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। इसके बाद हर गुज़रते दिन के साथ ही जौनपुर सल्तनत की सेना की दुर्गति होती जा रही थी। युद्ध से पीछे हटने के दौरान ही ख़तरनाक यमुना नदी को पार करते समय, जौनपुर सल्तनत के कई अधिकारी और उनके सैनिक, उनकी पत्नियाँ और बच्चे पानी में डूबकर भी मारे गए। इस विपत्ति ने पहले से ही कमज़ोर पड़ चुकी जौनपुर की सेना को और अधिक कमज़ोर कर दिया।
अपनी सिमटती ताकतों से मजबूर होकर, हुसैन शर्की ने ग्वालियर के राजा से मदद मांगी। ग्वालियर के राजा ने न केवल हुसैन को आश्रय दिया, बल्कि उनकी सेना को सुदृढ़ीकरण भी प्रदान किया। उन्होंने हुसैन शर्की को खुद से ग्वालियर क्षेत्र की सीमा पर स्थित कालपी तक पहुंचाया। इस बीच, बहलोल ने, शर्की द्वारा नियुक्त गवर्नर को हटाकर पूरे इटावा पर कब्ज़ा कर लिया था। इसके बाद फिर से बहलोल ने हुसैन से एक बार फिर लड़ाई लड़ने के निश्चय के साथ कालपी की ओर प्रस्थान किया। अबकी बार दोनों सुल्तनतों की सेनाएँ काली नदी के तट पर भिड़ पड़ी। यहां पर हुसैन शर्की पूरी तरह से पराजित हो गए और वापस जौनपुर चले आये। लेकिन इसके कुछ ही समय बाद बहलोल लोदी ने एक बार फिर से भारी सेना इकट्ठा करके, जौनपुर पर बड़े पैमाने पर हमले की तैयारी कर दी। आखिरकार दिल्ली की सेना ने पूरा ज़ोर लगाकर जौनपुर पर हमला कर दिया, जिसके बाद हुसैन को मजबूरन बहराइच भागने पर विवश होना पड़ा। अंततः वह बंगाल भाग गए, जहां उन्हें सुल्तान अलाउद्दीन हुसैन शाह ने शरण दी! अपने जीवन के अंतिम दिन उन्होंने वहीं बिताए। वहीं दूसरी ओर बहलोल ने एक बार फिर से जौनपुर सल्तनत पर पूरी तरह से नियंत्रण हासिल कर लिया और उसका दिल्ली सल्तनत के साथ विलय कर दिया। लगभग एक शताब्दी के स्वतंत्र शासन के बाद, जौनपुर एक बार फिर सल्तनत से घटकर एक प्रांत में सिमट गया।
बहलोल लोदी ने जौनपुर के प्रशासन के लिए आवश्यक व्यवस्था करने के बाद इटावा छोड़ दिया। हालांकि वह इटावा ज़िले के साकेत से लगभग 15 मील की दूरी पर स्थित “भदौली” नामक स्थान पर बीमार पड़ गए, जिसे अब मिलौली के नाम से जाना जाता है। इसके बाद 80 वर्ष की आयु में बहलोल लोदी का निधन हो गया। कुछ वृत्तान्तों में उनकी मृत्यु का कारण "अत्यधिक गर्मी" को बताया जाता है।
बहलोल का शासनकाल प्रभावशाली 39 वर्षों तक चला। आज देश की राजधानी दिल्ली में बहलोल लोदी का मकबरा, दिल्ली सल्तनत के सम्राट और लोदी वंश के विस्तार तथा लोदी वास्तुकला के विकास के एक प्रमाण के रूप में खड़ा है। चिराग दिल्ली की ऐतिहासिक बस्ती के भीतर स्थित, यह मकबरा एक उल्लेखनीय युग का गवाह है। बहलोल लोदी के बेटे और उत्तराधिकारी सिकंदर लोदी ने जुलाई 1489 ई. में अपने पिता के निधन के बाद इस मकबरे का निर्माण कार्य शुरू कराया था। आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा इस मकबरे का संरक्षण किया जाता है। 2005 में इसकी मरम्मत और जीर्णोद्धार भी किया गया था।
संदर्भ
https://tinyurl.com/3m6dce2r
https://tinyurl.com/3m6dce2r
https://tinyurl.com/6k3awufa
https://tinyurl.com/nhcnpmhr
चित्र संदर्भ
1. जौनपुर सल्तनत को दर्शाता एक चित्रण (Prarang)
2. जौनपुर के एक दृश्य को दर्शाता एक चित्रण (Prarang)
3. दिल्ली सल्तनत के दायरे को प्रदर्शित करता एक चित्रण (wikipedia)
4. शर्क़ी साम्राज्य के दायरे को दर्शाता एक चित्रण (Prarang)
5. जौनपुर की झांझरी मस्जिद को दर्शाता एक चित्रण (Prarang)
6. युद्ध क्षेत्र को दर्शाता एक चित्रण (picryl)
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