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छोटे द्वीपों पर महाद्वीपीय प्रजातियों की तुलना में जानवरों और पक्षियों की प्रजातियों का इंसानों द्वारा विलुप्त होना आम बात है। यूरोपीय लोगों के संपर्क में आने के कारण, दुनिया भर में विलुप्त हो चुकी पक्षियों की कुल 94 प्रजातियों में से केवल 9 प्रजातियां ही महाद्वीपीय थी, अर्थात, 85 पक्षी प्रजातियां छोटे-छोटे द्वीपों से संबंधित थी। द्वीपों पर इनकी विलुप्ति के लिए ज़िम्मेदार कुछ कारण वनों की कटाई, वनों में आग, चरने वाले स्तनधारियों का वन भ्रमण, खेती और खरपतवार पौधों का बढ़ना आदि हैं। इसके अलावा, द्वीपीय प्रजातियां मानव उपनिवेशीकरण से पहले भी अपनी कम आबादी, प्रतिबंधित आनुवंशिक विविधता तथा संकीर्ण सीमाओं के कारण भी विलुप्त होने की उच्च दर का सामना करती रही हैं। साथ ही, मानव–जनित भूमि परिवर्तन इन प्रजातियों के महत्वपूर्ण आवासों को नष्ट कर देते हैं, जिससे दुनिया भर में द्वीपीय प्रजातियों को भारी नुकसान पहुंचता है।
वर्ष 1600 के आसपास पहली बार डच (Dutch) सैनिकों को हिंद महासागर के एक द्वीप पर डोडो (Dodo) पक्षी दिखा था। हालांकि, इसके बाद 80 साल से भी कम समय के भीतर ही वनों की व्यापक कटाई, शिकार और डच लोगों द्वारा द्वीप पर लाए गए पक्षियों के घोंसलों को नष्ट करने के कारण यह पक्षी विलुप्त हो गया। कुछ वैज्ञानिक मानते है कि डोडो उड़ान भरने में सक्षम था। और उनकी एक प्रजाति इस द्वीप समूह के पार मॉरीशस (Mauritius) तक भी पाई जाती थी। हालांकि, 17 वीं शताब्दी में द्वीप समूह पर यूरोपीय निवासियों के आगमन के बाद यह तेजी से विलुप्त हो गया।
इसका वजन लगभग 20 किलोग्राम के आसपास होता था। उड़ने में असमर्थ डोडो एक बुद्धिमान, स्वाभाविक रूप से जिज्ञासु और मिलनसार पक्षी माना जाता था। आकार में बड़ा और मोटा, यह पक्षी तीन फुट से थोड़ा अधिक लंबा होता था, इसकी चोंच रंगीन और पंख घने होते थे । 16वीं शताब्दी में जब यूरोपीय लोगों ने मॉरीशस में बसना शुरू किया, तो नाविकों और उनके द्वारा लाई गई आक्रामक प्रजातियों ने डोडो के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डाला। मनुष्य के वहां आने से पहले, डोडो द्वीपों पर आकर्षक जीवन जीते थे, जहां भोजन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था और शिकारी अनुपस्थित थे। लेकिन नाविकों तथा उनके जानवरों ने भोजन के लिए इनका शिकार किया, अंडों के लिए इनके घोंसलों पर हमला किया और इनके आवास को नष्ट कर दिया।
इन कारणों के अलावा यह भी माना जाता है कि, द्वीप पर पाए जाने वाले चूहों, बिल्लियों और सूअरों सहित अन्य प्रजातियों ने भी उनके अंडों का उपभोग किया था। चुंकि, डोडो जमीन पर घोंसला बनाते थे, संभावित शिकारियों और अंडों के उपभोक्ताओं के लिए उनके घोंसलों तक पहुंच आसान थी। और यह उनके लिए विनाशकारी साबित हुआ।
क्या आप जानते हैं कि मुगल शासक जहांगीर के पास अपने प्राणी संग्रह में डोडो की एक जीवित जोड़ी थी। इस बात की पुष्टि रूस (Russia) के सेंट पीटर्सबर्ग (St Petersburg) के हरमिटेज संग्रहालय (Hermitage Museum) में रखी एक पेंटिंग से होती है। मुगल काल के प्रसिद्ध अंग्रेज यात्री पीटर मुंडी (Peter Mundy) ने भी अपने अभिलेखों में, नाविकों द्वारा सूरत शहर में लाए गए दो डोडो पक्षियों का जिक्र किया है। माना जाता है कि इन डोडो को सूरत से पुर्तगाली-नियंत्रित गोवा के माध्यम से जहांगीर के दरबार में लाया गया था।
सम्राट जहांगीर के दरबार के डोडो को उनके दरबारी चित्रकार उस्ताद मंसूर ने अमर कर दिया, जिन्होंने 1627 के आसपास इस पक्षी का रंगीन चित्र बनाया था। यह डोडो का पहला रंगीन चित्र था। जहांगीर हमेशा से ही प्राकृतिक दुनिया में रुचि रखते थे और दुनिया भर से विभिन्न प्रकार के विदेशी जानवरों को अपने प्राणी संग्रहालय में एकत्र करते थे।
जबकि, अब कुछ वैज्ञानिक एक साहसिक पहल में डोडो को वापस लाना चाहते हैं। अभी पिछले वर्ष 2022 में, कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (California University) के जीनोमिक्स इंस्टीट्यूट (Genomics Institute) में एक वैज्ञानिक ने डोडो के जीनोम के अनुक्रमण की घोषणा की। इस प्रक्रिया में प्राचीन डीएनए अनुक्रमण (DNA sequencing), जीन संपादन तकनीक (Gene editing technology) और कृत्रिम जीव विज्ञान की तकनीकें शामिल थी । वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि यह परियोजना पक्षी संरक्षण के लिए हमारे सामने नई तकनीकें प्रस्तुत करेगी। डेनमार्क (Denmark) में डोडो के अवशेषों से निकाली गई आनुवंशिक सामग्री के आधार पर प्राचीन डीएनए से डोडो के उपरोक्त जीनोम (Genome) को पूरी तरह से अनुक्रमित किया गया है, जो इस परियोजना का पहला चरण है।
इस परियोजना के अगले चरण में कबूतर परिवार में, डोडो के निकटतम पक्षी संबंधी के साथ इस आनुवंशिक जानकारी का तुलनात्मक अध्ययन करना शामिल है। क्योंकि, डोडो पक्षी कबूतरों से संबंधित हैं। इसके कुछ संबंधी निकोबार कबूतर तथा विलुप्त रोड्रिग्स सॉलिटेयर (Rodrigues solitaire) कबूतर थे, जो कभी मॉरीशस के करीब एक द्वीप पर पाए जाते थे तथा उड़ान में असमर्थ थे। हालांकि, फिलहाल डोडो पक्षी को वापस जीवन में लाने के लिए, कई तकनीकी चुनौतियां मौजूद हैं, जिन्हें हल करने की आवश्यकता है।
इसके अलावा, हमारे देश भारत में पाया जाने वाला, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (Great Indian Bustard) आज केवल 150 की वैश्विक आबादी के साथ, गंभीर रूप से लुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध है। एक समय में, यह पक्षी पश्चिम में पाकिस्तान से लेकर पश्चिम बंगाल और दक्षिण में तमिलनाडु तक, भारतीय उपमहाद्वीप में फैली सूखी झाड़ियों और घास के मैदानों में पाया जाता था। लेकिन, अब इसकी ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक सीमा के 97% हिस्से से इसका सफाया हो गया है। यहां तक कि, इसकी सुरक्षा के लिए बनाए गए अभयारण्यों, जैसे कि, गुजरात में गागा-भाटिया, कर्नाटक में रानीबेनूर, राजस्थान में सोरसन, मध्य प्रदेश में सोन चिरैया (करेरा) और घाटीगांव में भी इसका आवास एवं आबादी नष्ट हो रही हैं। इंडियन बस्टर्ड की सबसे अधिक आबादी(100) राजस्थान के मरुस्थल राष्ट्रीय उद्यान में पाई जाती है, जबकि कच्छ में नलिया में इनकी संख्या लगभग 30 है। इसके अलावा, पूर्ववर्ती आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक के कुछ अन्य हिस्सों में इनकी संख्या न के बराबर है।
ग्रेट इंडियन बस्टर्ड लंबे तथा चार फुट तक ऊंचे होते हैं। वे उड़ने वाले पक्षियों में सबसे भारी होते हैं, और इसलिए कम ऊंचाई पर उड़ते हैं। इनकी दृष्टि अपेक्षाकृत कम होती है जिसके कारण इन्हें वस्तुओं से टकराने का अधिक खतरा होता है। पिछले दशक में, बिजली की लाइनों से टकराने या करंट लगने के परिणामस्वरूप कई बस्टर्ड पक्षियों की मौत हो गई है।
अतः यह जरूरी है कि, बस्टर्ड क्षेत्रों से कम से कम 10 किलोमीटर और उसके आसपास की बिजली लाइनों को भूमिगत कर दिया जाए।
ऐतिहासिक रूप से, व्यापक शिकार, खेल और भोजन के लिए, तथा दूरदराज के इलाकों में भी वाहनों की पहुंच से बस्टर्ड की आबादी में तेजी से गिरावट हुई है। लेकिन, इनके लगभग विलुप्त होने का मुख्य कारण, इनके निवास स्थान – घास के मैदानों का लगातार विनाश है।
आधिकारिक तौर पर, घास के मैदानों को बंजर भूमि नामित किया गया है। इसलिए, अचल संपत्ति, उद्योग, सड़कों, खनन, नहरों, कृषि के लिए इन्हें नष्ट किया जाता है। विदेशी पेड़ लगाकर रेगिस्तानों को ‘हरा-भरा’ करने और थार मरुस्थल में इंदिरा गांधी नहर जैसी योजनाओं ने इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी को बदल दिया है, जिससे इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी इसकी जैव विविधता के लिए प्रतिकूल हो गई है। कीटनाशकों और फसल के बदलते स्वरूप तथा मशीनीकृत खेती और नकदी फसलों की ओर बदलाव ने भी इन्हें नुकसान पहुंचाया है। बस्टर्ड ज़मीन पर घोंसला बनाने वाले पक्षी हैं, और इसलिए शिकारियों और किसी भी अन्य गड़बड़ी के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं।
इन पक्षियों के लिए, एक अपेक्षाकृत नया ख़तरा पवन चक्कियों के रूप में सामने आया है। पवन चक्कियों ने थार और कच्छ दोनों क्षेत्रों में, बस्टर्ड के आवास के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है। इसके अलावा, चक्कियों से टकराने से भी इनकी मृत्यु की खबरें सामने आई हैं।
अतः डोडो के समान इस प्रजाति के भी विलुप्त होने से पहले एक संरक्षण रणनीति के साथ, अच्छी तरह से संरक्षित मुख्य प्रजनन क्षेत्रों तथा आवासीय क्षेत्रों को नामित करने से, इन पक्षियों की कम तीव्रता वाली आजीविका संबंधी चिंताओं को दूर किया जा सकता है। इसमें स्थानीय समुदायों और अन्य संबंधित विभागों का समर्थन भी प्राप्त किया जा सकता हैं। बस्टर्ड प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में हानिकारक बुनियादी ढांचे और अन्य परियोजनाओं पर अंकुश लगाकर, घास के मैदानों का संरक्षण करने से भी फायदा होगा। भूमि उपयोग और ‘बस्टर्ड-अनुकूल चराई’ तथा फसल नीतियों को प्राथमिकता देने के संबंध में नीति में बदलाव करके भी यह उद्देश्य प्राप्त किया जा सकता है।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2zvmyf9s
https://tinyurl.com/yh8saydn
https://tinyurl.com/339zhe28
https://tinyurl.com/mvctv2vy
https://tinyurl.com/bdanxhk2
https://tinyurl.com/4sskdbea
चित्र संदर्भ
1. चित्रकार उस्ताद मंसूर द्वारा जहाँगीर के हाथ में बाज और 1627 के आसपास बनाए गए डोडो पक्षी के रंगीन चित्र को दर्शाता एक चित्रण (rawpixel, wikimedia)
2. क्षेत्रीय प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय, भोपाल में विलुप्त डोडो पक्षी की प्रदर्शनी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. डोडो पक्षी के चित्र को दर्शाता एक चित्रण (Rawpixel)
4. एक बाज़ की जांच करते हुए अकबर और जहांगीर की पेंटिंग को दर्शाता एक चित्रण (lookandlearn)
5. डोडो पक्षी के जोड़े को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
6. डोडो पक्षी के अवशेष को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
7. ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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