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उत्तर प्रदेश में लखनऊ के बाद हमारे जौनपुर में निभाए जाने वाले मुहर्रम के रिवाज़ सबसे अधिक ख़ास माने जाते हैं। मुगलकाल से ही हमारे जौनपुर के शाहपंजा में भी इस दिन विशेष परम्पराएं आयोजित की जाती हैं। मुहर्रम में “पंजा या फातिमा के हाथ” का भी विशेष महत्व होता है। जिसके बारे में हम आज के इस लेख में विस्तार से जानेंगे।
फातिमा का हाथ इब्राहीम धर्मों, विशेषकर शिया इस्लाम में पाया जाने वाला एक विशेष प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि यह हाथ बुराई और दुर्भाग्य से इंसान की रक्षा करता है। हिब्रू में, इसे "हम्सा" कहा जाता है, और अरबी में, इसे "खम्सा" कहा जाता है। यह प्रतीक दाहिनी हथेली जैसा दिखता है, जिसमें सभी उंगलियां एक साथ रहती हैं और ऊपर की ओर इशारा करती हैं। अंगूठा और सबसे छोटी उंगली थोड़ी दूर की ओर मुड़ी हुई हैं, जिससे यह सममित हो जाता है।
फातिमा के हाथ की उत्पत्ति ईसा पूर्व दूसरी सहस्राब्दी में कार्थेज (Carthage) नामक एक प्राचीन शहर में हुई थी, जो अब ट्यूनीशिया (Tunisia) में है। प्रारंभ में, यह हाथ फोनेशियन (Phoenicians) की देवी टैनिट (Tanit) का प्रतिनिधित्व करता था। बाद में यह यहूदी और ईसाई प्रतीकों का हिस्सा बन गया। इस्लामी परंपरा में, इसका नाम पैगंबर मोहम्मद की बेटी फातिमा के नाम पर रखा गया था और इसकी पांच उंगलियां पैगंबर के परिवार के महत्वपूर्ण सदस्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं। शिया मुसलमान, (जो पैगंबर के परिवार को बहुत सम्मान देते हैं) इस प्रतीक का अधिक बार उपयोग करते हैं।
हालांकि, कुरान में प्रतीकों और अंधविश्वासों के उपयोग को वर्जित किया गया है, लेकिन फिर भी मुस्लिम समाज में फातिमा के हाथ का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। इसे आमतौर पर धातु की शीट से बनाया जाता है, और कभी-कभी इसका डिज़ाइन बहुत जटिल भी हो सकता है। इसका उपयोग सुन्नी सेनाओं में और कुछ देशों के राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में भी किया जाता था।
भारत में, आपको दक्कन क्षेत्र में फातिमा के हाथ के उल्लेखनीय उदाहरण देखने को मिल जायेंगे, जहां औपनिवेशिक काल से पहले शिया सल्तनतों का शासन हुआ करता था। अठारहवीं शताब्दी का एक सुंदर ढंग से तैयार किया गया, सोने -चांदी का हाथ अवध में भी देखा गया है। ये हाथ प्रायः बहुमूल्य रत्नों और मोतियों से सुशोभित होते थे। मुस्लिम घरों में आज भी फातिमा का हाथ एक सुरक्षात्मक ताबीज के रूप में उपयोग किया जाता है। इसे मुद्रित सुलेख, रेखाचित्र, या साधारण डिजाइन वाली धातु की प्लेटों के रूप में देखा जा सकता है। कई बार इसमें आशीर्वाद के लिए आयत अल-कुर्सी जैसी कुरान की आयतों को वर्णित किया जाता है। अल-कुर्सी या आयतुल कुर्सी कुरान की सब से अज़ीम तरीन आयत मानी जाती है। हदीस में रसूल स.अ. ने इसको सभी आयतों में सबसे अहम् आयत फ़रमाया है।
आयत कुछ इस प्रकार है:
اللَّـهُ لَا إِلَـٰهَ إِلَّا هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ ۚ لَا تَأْخُذُهُ سِنَةٌ وَلَا نَوْمٌ ۚ لَّهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ ۗ مَن ذَا الَّذِي يَشْفَعُ عِندَهُ إِلَّا بِإِذْنِهِ ۚ يَعْلَمُ مَا بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَمَا خَلْفَهُمْ ۖ وَلَا يُحِيطُونَ بِشَيْءٍ مِّنْ عِلْمِهِ إِلَّا بِمَا شَاءَ ۚ وَسِعَ كُرْسِيُّهُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ ۖ وَلَا يَئُودُهُ حِفْظُهُمَا ۚ وَهُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيمُ
इसका हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार है:
अल्लाह, जिसके सिवा कोई माबूद नहीं।
वही हमेशा जिंदा और बाकी रहने वाला है।
न उसको ऊंघ आती है न नींद।
जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है सब उसी का है।
कौन है, जो बगैर उसकी इजाज़त के उसकी सिफारिश कर सके।
वो उसे भी जानता है, जो मख्लूकात के सामने है और उसे भी जो उन से ओझल है।
बन्दे उसके इल्म का ज़रा भी इहाता नहीं कर सकते,सिवाए उन बातों के इल्म के जो खुद अल्लाह देना चाहे।
उसकी ( हुकूमत ) की कुर्सी ज़मीन और असमान को घेरे हुए है।
ज़मीनों आसमान की हिफाज़त उसपर दुश्वार नहीं।
वह बहुत बलंद और अज़ीम ज़ात है।
मुहर्रम की सुबह के जुलूस के दौरान इस पंजे का प्रयोग "अलम" के रूप में किया जाता है। "अलम" मुहर्रम की सुबह के जुलूस के दौरान इस्तेमाल की जाने वाली एक महत्वपूर्ण धार्मिक वस्तु होती है। ये अलम विभिन्न आकारों में होते हैं, लेकिन, इनमें अलम का आकार "पंजा" या सुरक्षात्मक हाथ सबसे पवित्र माना जाता है। हर साल मोहर्रम के मौके पर हमारे जौनपुर में भी नौचंदी जुमेरात पर, अज़ादार (शोक करने वाले) शाहपंजा में शोक मनाने के लिए एकत्र होते हैं और शबीह-ए-ताबूत (इमाम हुसैन के ताबूत की प्रतिकृति) और अलम (एक पवित्र मानक) के साथ अंगारों में चलकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
हमारे जौनपुर को अज़ादारी के लिए दूसरे महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में जाना जाता है। जौनपुर में मुहर्रम के पहले से दसवें दिन तक, यौम-ए-आशूरा सहित, कई पारंपरिक और ऐतिहासिक जुलूस निकलते हैं। इन सभी में भव्य मजलिस (धार्मिक सभा) के साथ-साथ नौहाख्वानी (शोक पाठ करना) और सीना जानी (शोक अनुष्ठान) का आयोजन किया जाता है। शाह का पंजा (जौनपुर का एक स्थान) बाबूपुर में, मुहर्रम का सातवां दिन प्राचीन और ऐतिहासिक महत्व रखता है। यहां पर मुगल काल से ही अज़ादारी मनाई जाती रही है और दूर-दूर से इस्लामी अनुयायीहजरत अली के प्रतीकात्मक जुलूस में हिस्सा लेने आते हैं। गत वर्षों में भी मोहर्रम की सातवीं तारीख को जिले भर में इमाम हुसैन और उनके 71 साथियों की याद में मातमी जुलूस निकाला गया। अंजुमनों (धार्मिक संगठनों) ने नौहे (शोक) पढ़े, जंजीरों और चाकुओं से मातम किया और नज़रानअकीदत (श्रद्धांजलि) पेश की। मजलिस के दौरान कई लोगों ने अंगारों पर मातम भी किया।
संदर्भ
https://tinyurl.com/2z2u6zz2
https://tinyurl.com/4es3p8kd
https://tinyurl.com/4m9bmsm7
https://tinyurl.com/57wpzb9t
चित्र संदर्भ
1. मुहर्रम के दृश्य को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. फातिमा का हाथ इब्राहीम धर्मों, विशेषकर शिया इस्लाम में पाया जाने वाला एक विशेष प्रतीक है। को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. फातिमा के हाथ के निर्माण को दर्शाता चित्रण (Youtube)
4. अज़ादारी को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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