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मौसम पूर्वानुमान संस्था ‘स्काईमेट वेदर’ (Skymet Weather) ने हाल ही में कहा है कि भारत में इस वर्ष मॉनसून ऋतु में सामान्य से कम वर्षा होने की संभावना है। भारतीय मॉनसून के लिए जिम्मेदार मौसम की ला नीना (La Nina) स्थिति की समाप्ति और एल नीनो (El Nino) के हावी रहने के कारण सूखे की 20% संभावना है । ला नीना स्थितियाँ जो दक्षिण अमेरिका के पास प्रशांत महासागर में पानी के ठंडे होने के कारण उत्पन्न होती है भारतीय मॉनसून के लिए अनुकूल होती है। किंतु प्रमुख समुद्री और वायुमंडलीय चर (variables), एल नीनो-दक्षिणी दोलन (El Niño-Southern Oscillation (ENSO) जैसी तटस्थ स्थितियों के अनुरूप हैं। जबकि, एल नीनो की संभावना बढ़ रही है, एल नीनो की वापसी इस वर्ष कम वर्षा का कारण बन सकती है। मॉनसून के मौसम में पिछले लगातार चार वर्षों की सामान्य और सामान्य से अधिक बारिश के बाद, यह पूर्वानुमान कृषि क्षेत्र के लिए चिंता का विषय बन गया है। स्काईमेट के अनुसार, इस वर्ष देश में अधिक बारिश की कोई संभावना नहीं है। जबकि, सामान्य से अधिक बारिश की 15% संभावना, सामान्य बारिश की 25% संभावना और सामान्य से कम बारिश की 40% संभावना तथा सूखे की 20 प्रतिशत संभावना है।
स्काईमेट ने अनुमान लगाया है कि इस वर्ष जून से सितंबर तक चार महीनों की अवधि के लिए मानसूनी वर्षा 868.6 मिलीमीटर की लंबी अवधि के औसत (Long-period Average (LPA) का लगभग 94% ही होगी। संस्था का अनुमान है कि देश के उत्तरी और मध्य क्षेत्रों में बारिश की कमी देखी जा सकती है। साथ ही, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र राज्यों में जुलाई और अगस्त के मुख्य मानसून के महीनों के दौरान अपर्याप्त बारिश ही होने की उम्मीद है। इसके अलावा, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में मानसून के आखिरी महीनों के दौरान सामान्य से कम बारिश होने की संभावना है।
स्काईमेट ने यह भी कहा है कि हिंद महासागर द्विध्रुवीय स्थिति (Indian Ocean Dipole (IOD) अगर मजबूत हो गई, तो यह मानसून को नियंत्रित कर सकती है और एल नीनो के दुष्प्रभावों को मिटा सकती है। हालांकि वर्तमान में, हिंद महासागर द्विध्रुवीय स्थिति तटस्थ है और मानसून की शुरुआत में इसके मामूली सकारात्मक होने की उम्मीद है। एल नीनो और द्विध्रुवीय स्थिति अपनी अवस्था से बाहर हो सकती हैं, और इससे मासिक वर्षा के वितरण में परिवर्तन हो सकता है। इसके साथ ही, वर्षा ऋतु के आखिरी महीनों में ये स्थितियां अधिक विचलित होने की संभावना है।
नेचर वॉटर (Nature Water) पत्रिका में हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, पिछले 20 वर्षों में अत्यधिक सूखे और वर्षा की आवृत्ति में काफ़ी वृद्धि हुई है। शोधकर्ताओं का कहना है कि जीवाश्म ईंधन जलने और ग्रीनहाउस गैसों (Greenhouse Gases) के उत्सर्जन जैसी अन्य मानवीय गतिविधियों के कारण भी वर्षा और सूखे की आवृत्ति तथा तीव्रता बढ़ रही है। ’ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट’ (Gravity Recovery and Climate Experiment) नामक उपग्रहों (Satellites) द्वारा प्राप्त आंकड़ों का उपयोग भूजल, सतही जल, बर्फ़ तथा हिमपात के रुप में, पृथ्वी के जल भंडारण में परिवर्तन को मापने के लिए किया जाता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि उपग्रहों से प्राप्त आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि जीवाश्म ईंधन जलाने और ग्रीनहाउस गैसों को छोड़ने वाली अन्य मानवीय गतिविधियों के कारण वर्षा और सूखे की आवृत्ति और तीव्रता दोनों बढ़ रही है।
इस संदर्भ में यह भी पाया गया कि वैश्विक तीव्रता और वैश्विक औसत तापमान भी परस्पर संबंधित हैं। इसका मतलब है कि निरंतर ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) के कारण चरम सूखे और बारिश की घटनाओं में अधिक बदलाव होगा, जो कई मायनों में बदतर साबित होगा।
2011-2012 के दौरान ऑस्ट्रेलिया (Australia) में और 2018-2021 के दौरान मध्य और पूर्वी उत्तरी अमेरिका (North America) में अत्यधिक वर्षा हुई। इसी तरह दिसंबर 2021 के अंत तक, दक्षिण अफ्रीका (South Africa) में अत्यधिक बारिश हुई। । वर्ष 2015-2016 में पूर्वोत्तर दक्षिण अमेरिका (South America) में सबसे तीव्र सूखे ने रिकॉर्ड तोड़ दिया था। 2019 में ब्राज़ील (Brazil) में शुरू हुआ सूखा तो आज भी चल रहा है। इसके अलावा, दक्षिण-पश्चिम अमेरिका में चल रहे सूखे के कारण अमेरिका के दो सबसे बड़े जलाशयों ‘लेक मीड’ (Lake Mead) और ‘लेक पॉवेल’ (Lake Powell) में जल स्तर बहुत कम हो गया है। इस वर्ष, भारी बारिश के बावजूद भी जलस्तर में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है। और तो और सूखे की घटनाओं की संख्या भारी बारिश की घटनाओं से 10% अधिक हैं।
अमेरिका में चरम मौसम की घटनाओं से होने वाले वार्षिक आर्थिक नुकसान का 20% नुकसान बाढ़ और सूखे के कारण होता है। अत्यधिक सूखे और बाढ़ के बीच का उतार-चढ़ाव, कुछ क्षेत्रों में आज आम होता जा रहा है। यह जल तनाव गरीब तथा वंचित समुदायों के साथ-साथ अल्प वित्तपोषित और शोषित पारिस्थितिक तंत्रों को भी प्रभावित कर रहा है। उदाहरण के लिए, लद्दाख के कई समुदाय पूरी तरह से हिमालय पर निर्भर हैं जबकि जलवायु परिवर्तन में उनका योगदान नगण्य है।
1950 के दशक की तुलना में आज, विश्व के कई क्षेत्रों में भारी वर्षा बढ़ गई है। साथ ही, वैश्विक स्तर पर लगभग 700 मिलियन से अधिक लोग अत्यधिक वर्षा एवं सूखे की स्थिति का सामना कर रहे हैं।
‘संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय बाल आपातकालीन कोष’ (The United Nations International Children’s Emergency Fund (UNICEF) के अनुसार, 2001 से 2018 के बीच घटित होने वाली लगभग 74% प्राकृतिक आपदाएँ जल से संबंधित थीं। इसके अलावा, ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (World Health Organisation (WHO) के अनुसार, दुनिया की लगभग 80% बीमारियों के लिए जल ही ज़िम्मेदार है। चूंकि, जल जीवन का आधार है, इसलिए जल चक्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, समाज के सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक घटकों को भी प्रभावित कर रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में, कृषि के लिए पानी की उपलब्धता में 20% गिरावट, 2050 तक चावल के उत्पादन को 30% तक प्रभावित कर सकती है।
मानवजनित गतिविधियों के कारण दक्षिण एशियाई क्षेत्र में गर्मी की लहरों में वृद्धि हुई है। पहले से पृथ्वी का तापमान 1.2˚C प्रतिवर्ष बढ़ रहा है और इसके बाद स्थिति हमारे हाथ से बाहर हो जाएगी क्योंकि अनुकूलन की भी अपनी सीमाएँ होती हैं। अगर मार्च महीने में ही तापमान 50° सेल्सियस होजाएगा, तो गेहूं की फसल भी प्रभावित होगी। अधिक तापमान बढ़ने का मतलब बाढ़ का अधिक खतरा भी है और इससे विशेष रूप से तटीय आबादी गंभीर रूप से प्रभावित होगी। भारतीय समुद्र तट बढ़ते चक्रवात, अत्यधिक वर्षा, तूफ़ान और समुद्र के स्तर में वृद्धि के खतरे का भी सामना करेंगे।
अच्छी बात यह है कि भारत में जलवायु परिवर्तन के बारे में पश्चिमी देशों के तुलना में अधिक स्वीकार्यता है और लोग तथा नीति निर्माता भी, इस स्थिति में सुधार के लिए समाधान और अनुकूलन उपायों के बारे में सोच रहे हैं। कृषि में फसल के स्वरूप में बदलाव, सही सिंचाई तथा पानी और मिट्टी की नमी के संरक्षण के तरीके भी देश में अपनाए जा रहे है। हालांकि, हमें हमारे कार्बन उत्सर्जन में कटौती पर भी ध्यान देना होगा। साथ ही, शहरी बाढ़ का पूर्वानुमान भी एक उचित प्रबंधन तरीका हो सकता है। इसके अलावा, इन घटनाओं के समाधान के लिए, घटते भूजल एवं जल स्त्रोतों को फिर से भरने के लिए बाढ़ के पानी का उपयोग करना और कृषि भूमि के स्वास्थ्य में सुधार करना जैसे उपायों को अपनाया जा सकता है। इससे, भूमि में पानी को बेहतर ढंग से अवशोषित किया जा सकता है। इन तरीकों से गर्म होती दुनिया में हम पानी के लचीलेपन में सुधार कर सकते हैं।
संदर्भ
https://rb.gy/olrq5
https://rb.gy/7nzhc
https://rb.gy/a6ll5
चित्र संदर्भ
1. बारिश में छाता लिए बच्चों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
2. ला नीना (La Nina) स्थिति को दर्शाता चित्रण (Picryl)
3. दक्षिणी दोलन सूचकांक समय श्रृंखला 1876 -2017 को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
4. ला नीना , अल नीनो और सामान्य मौसमी स्थिति को दर्शाता चित्रण (Store norske leksikon)
5. खेत में बैठे किसान को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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