कोल्हू को ना ही कृषी से जोड़ा जाता परन्तु इसको साथ ही साथ अध्यात्म के साथ जोड़ कर देखा जाता है। जौनपुर में शायद ही कोई ऐसा गाँव होगा जहाँ पर कोल्हू ना पाया जाता होगा। ये कोल्हू अब तो कार्य नही करते परन्तु इनको लोग अपने घरों के आगे जमीन में गाड़ कर रखते हैं तथा विशिष्ट समय व मौको पर इनको पूजते हैं। आज से करीब 5०-6० वर्ष पहले तक कोल्हू का प्रचलन खूब था। कई पुरानी चलचित्रों मे कोल्हू को दिखाया गया है। समय के साथ-साथ व विज्ञान में हुई प्रगतियों के कारण मशीनों द्वारा कोल्हू का स्थान ग्रहण कर लिया गया तथा इनको प्रयोग नगण्य हो गया। कोल्हू मुख्यत: पत्थर या लकड़ी के बनाये जाते थे, जिन्हे सरसो का तेल निकालने हेतु प्रयोग मे लाया जाता था तथा इन्हे बैलों के द्वारा चलाया जाता था (कोल्हू का बैल शब्द यहीं से आया है)। जौनपुर में करीब 25-26 प्रकार के विभिन्न तरीके के कोल्हू पाया जाता है। विभिन्न कोल्हू में मुख्य बदलाव कोल्हू के उपर बनाया गया चित्र तथा साज सज्जा हैं (उकेर के बनाया गया)। अब प्रश्न यह है की कोल्हू करीब 200 कुन्तल के करीब होते हैं कुछ छोटे भी होते हैं परन्तु वो भी 100 कुन्तल से कम तो नही होते लाये कहाँ से व कैसे जाते थे? इस से सम्बन्धित कई लोक कथायें है तथा इनमें से एक महत्वपूर्ण कथा है जिसमें कहा जाता है की जौनपुर मे 100% कोल्हू विन्ध्याँचल व चुनार से लाया जाता था। यह गौर करने वाली बात है की उनका निर्माण वहीं मिर्जापुर में ही हो जाता था, बनने के बाद ये बेलनकार हो जाते थे अब इन्हे गड़ारी की तरह चलाया जा सकता था। जो कोल्हू लेने जाते थे उनका पूरा झुंड रहता था तथा वो बस कोल्हू को एक गाँव के सरहद पर पहुँचा देते थे तथा जब किसी गाँव मे कोल्हू पहुँच जाता था तो उस गाँव वाले मिल के कोल्हू को अपने गाँव के बाहर पहुँचा आते थे तथा उसके एवज मे उन्हे गुड़ चना आदि खरमेटाव (खाने हेतु) मे मिलता था। इसी प्रक्रिया से कोल्हू अपने गंतव्य पर पहुचते थे। कोल्हुओं पर मुख्यतः किसी ना किसी पुजा पाठ का अंकन होता है जो की पुरापाषाण कालीन भित्ति चित्र की तरह दिखाई देते हैं, जो कि इस बात का घोतक है की पाषाण कालीन जीवन यापन की छाप लंबे समय तक रहा है, गावों मे इन कोल्हुओं की पूजा बहोत श्रद्धा व भक्ती के साथ किया जाता है, वर्तमान मे मशीनीकरण होने के वजह से ये सारी प्राचीन विधियाँ समाप्त होने लगी हैं।
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