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संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के जनसंख्या विभाग द्वारा अनुमान लगाया गया था कि चीन को पीछे छोड़ कर भारत 2025 में दुनिया का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा, किंतु भारत में जनसंख्या की वृद्धि अनुमानों से भी अधिक तीव्र गति से हुई और जनवरी 2023 में ही भारत दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन गया। जनसंख्या वृद्धि की इतनी तीव्र दर के साथ, एक बड़ा सवाल उत्पन्न होता है कि क्या हम बढ़ती जनसंख्या को पर्याप्त भोजन और पोषण सेवा प्रदान करने के लिए तैयार हैं? जिस दिन भारत विश्व में सबसे अधिक आबादी वाला देश बना, उसी दिन भारतीय राज्य महाराष्ट्र, पोषण संकट के लिए सुर्खियों में था। उस समय राज्य को प्रतिदिन 1 करोड़ से अधिक अंडों की कमी का सामना करना पड़ा था। हालांकि, दुनिया के कई अन्य देशों में भी पिछले दो वर्षों में इसी तरह से अंडों की कमी का सामना किया गया है, जिसका एक प्रमुख कारण काफी हद तक, पक्षियों तथा मुर्गियों को होने वाले संक्रामक एवियन इन्फ्लूएंजा (Avian Influenza) रोग के कारण, बड़े पैमाने पर मुर्गियों के मरने से और साथ ही महामारी के कारण आपूर्ति श्रृंखला का बाधित होना भी है ।
अंडों की इस कमी को प्रोटीन (Protein) की कमी के साथ-साथ कुपोषण की भी शुरुआत माना जा सकता है, क्योंकि अंडे प्रोटीन का जाना माना स्त्रोत होते हैं । 2050 तक संपूर्ण मानव आबादी के 9.7 बिलियन तक बढ़ने की उम्मीद के साथ, यह समस्या और भी बदतर होने की संभावना है। हालांकि, चीन (China) और संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America) के बाद भारत दुनिया के सबसे बड़े अंडा उत्पादक देशों में से एक है, फिर भी, भारत के राज्य वर्तमान समय में अंडों की भारी कमी का सामना कर रहे हैं। कमी के कारण अंडों की कीमतें भी लगातार बढ़ रही है जो कि एक चिंतनीय विषय है क्योंकि, अंडे कई लोगों के लिए प्रोटीन का एक प्राथमिक स्रोत हैं। ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ की 2019-2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 74% भारतीय परिवार अंडो का सेवन करते हैं। पिछले एक साल में ही भारत में अंडों के थोक मूल्यों में लगभग 25% की वृद्धि हुई है। अतः मूल्य मुद्रास्फीति और आपूर्ति में कमी के मौजूदा स्तरों के साथ, देश में पोषण सुरक्षा चिंता का विषय बन गई है।
हालांकि, अन्य प्रोटीन स्रोत जैसे मांस, मछली और पौधों से प्राप्त प्रोटीन उपलब्ध तो हैं, किंतु वे आम आदमी के लिए अंडे की तरह सुलभ नहीं हैं।
अंडों की मौजूदा कमी एवियन फ्लू के प्रकोप के साथ-साथ, हाल ही में हुई भारी बारिश और बाढ़ एवं सूखे जैसे अन्य कारकों के संयोजन के कारण बढ़ती जा रही है। कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि बढ़ता हुआ तापमान, वर्षा और आर्द्रता में परिवर्तन से एक ऐसा वातावरण निर्मित होता है जो एवियन इन्फ्लूएंजा वायरस के प्रसार के लिए अधिक अनुकूल होता है। मौसम के पैटर्न में ये बदलाव जंगली पक्षियों के वितरण और प्रवास के स्वरुप को भी प्रभावित कर सकते हैं, जिससे एवियन इन्फ्लूएंजा वायरस और अन्य बीमारियों के नए क्षेत्रों में फैलने की संभावना बढ़ सकती है। महाराष्ट्र भारत में प्रमुख अंडा उत्पादक राज्यों में से एक है और यहां अंडों की कमी का देश के अन्य हिस्सों में भी अंडे की कीमतों पर असर पड़ सकता है।
अंडों की कमी का समाज के गरीब वर्गों पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है। अगर अंडों की उपलब्धता घटती जाती है और उनकी कीमतें बढ़ जाती हैं, तो ऐसी स्थिति में जो परिवार प्रोटीन के प्राथमिक स्रोत के रूप में अंडों पर निर्भर होते हैं, उनके लिए अपनी पोषण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अंडे खरीदना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। लोग वैकल्पिक भोजन विकल्पों की भी तलाश करने के लिए मजबूर हो सकते हैं, जो उनकी आहार संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कम पौष्टिक होते हैं। गांव के घरों में बड़ी संख्या में अंडे घर में पलने वाली मुर्गियों से आते हैं, जो पोषण का एक मूल्यवान स्रोत प्रदान करते हैं, खासकर बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए। किंतु अंडों की कीमतें बढ़ने पर ये ग्रामीण लोग अतिरिक्त पैसा कमाने के लिए अपने अंडे बेचने के लिए दबाव महसूस कर सकते हैं, जिससे बच्चों में कुपोषण की समस्या और भी गंभीर हो सकती है। कुक्कुट पालक भी इस कमी से प्रभावित हो सकते हैं, क्योंकि उन्हें बिना किसी लाभ के मुर्गियों को पालना पड़ सकता है जिससे कुक्कुट पालकों की आय कम हो सकती है।
अंडों की कमी होने पर लोगों के पास केवल दो ही विकल्प रह जाते हैं या तो लोगों को इनकी खपत कम करनी होगी या इनके स्थान पर वैकल्पिक खाद्य सामग्री ढूंढनी होगी। इसके लिए पारंपरिक प्रोटीन के वैकल्पिक स्रोतों की ओर देखने की तत्काल आवश्यकता है। प्रोटीन की कमी को पूरा करने के लिए एक वैकल्पिक सामग्री के रूप में आज कीटों की तरफ भी खाद्य संगठनों का ध्यान आकर्षित हो रहा है । इसे देखते हुए, संयुक्त राष्ट्र के ‘खाद्य और कृषि संगठन’ (The Food and Agriculture Organization (FAO) द्वारा 2013 से ही कीटों को प्रोटीन के स्रोत के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है। जहां 50 ग्राम अंडे से 13 ग्राम प्रोटीन मिलता है, जबकि उतनी ही मात्रा में क्रिकेट पाउडर (Cricket powder) से 35 ग्राम प्रोटीन मिलता है। क्रिकेट पाउडर झींगुर कीड़े से बनाया जाता है। आमतौर पर कीट सूक्ष्म पोषक तत्वों एवं खनिजों से भी भरपूर होते हैं। पारंपरिक प्रोटीन स्रोतों की तुलना में कीटों के कई अन्य फायदे भी है। न्यूनतम संसाधन आवश्यकताओं, न्यूनतम ग्रीन हाउस गैस (Greenhouse gas) उत्सर्जन और तेज भोज रुपांतरण अनुपात (feed conversion ratio) के साथ कीट पारंपरिक पशु प्रोटीन के लिए एक स्थायी विकल्प हैं। भोज रुपांतरण अनुपात एक दर माप है जिसके साथ पशु शरीर, पशु आहार को वांछित उत्पादन में परिवर्तित करते हैं। इसके अतिरिक्त कीटों को पालना भी कुक्कुट पालन की तुलना में अधिक आसान है।
कीटों में प्रोटीन के निर्माण के लिए आवश्यक अमीनो एसिड (Amino Acid) की एक विस्तृत विविधता होती है । इसके अलावा, वे वसा और खनिजों का भी एक अच्छा स्रोत हैं, जिनकी अक्सर पौधों पर आधारित आहार में कमी होती है। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि कीट पालन अभी भी एक नवजात उद्योग है जो कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। इसके अलावा, कुछ व्यक्तियों के लिए कीटों को भोजन के रूप में स्वीकार करने के लिए सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक बाधाओं को दूर करना भी आसान नहीं है ।
हालांकि एक कम ज्ञात और कम चर्चित व्यवसाय होने के बावजूद कीटों की खेती भारत और दुनिया भर में एक फलता-फूलता उद्योग है। आज, संभवतः कीटों की खेती का सबसे प्रमुख उपयोग पशुओं के लिए भोजन और चारा पैदा करने के लिए है। हालांकि कीट पालन में मानव उपभोग के लिए खाद्य कीटों जैसे झींगुर आदि का पालन भी शामिल है, किंतु हमारे देश में समग्र जनमत कीटों को खाने की अवधारणा के खिलाफ है। भारत के ज्यादातर राज्यों में, उपभोक्ताओं की अस्वीकृति या जागरूकता की कमी खाद्य कीटों से बने आहार को अपनाने की दिशा में एक प्रमुख बाधा के रूप में बनी हुई है। साथ ही अक्सर इसे घृणा की भावना के साथ अनिश्चित एवं आदिम जीवन शैली से जोड़ा जाता है। भारत में कीट पालन के साथ जुड़े अन्य प्रमुख मुद्दों में पशुओं को कीड़े खिलाने से जुड़ी चिंताएं भी शामिल हैं; जैसे कि संभावित एलर्जी (Allergy) एवं उसके परिणाम और संक्रामक रोगों के प्रति भेद्यता। इसके अलावा भारत में कीट पालन से जुड़े नियामक कानून भी पूर्ण और अच्छी तरह से परिभाषित नहीं हैं, जो बदले में कीट कृषि क्षेत्र में कई स्टार्टअप (Startups) और कंपनियों को कीट-आधारित उत्पादों को औद्योगिक स्तर तक बढ़ने और साथ ही वैश्विक बाजारों में खड़े होने से रोक रहे हैं ।
हालांकि, अब हमारे देश में कुछ स्टार्टअप कीट पालन की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। अंकित बागरिया और उनके दोस्त अभि गवरी ने ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’, रुड़की से स्नातक होने के तुरंत बाद 2019 में कीट जैव प्रौद्योगिकी, क्षेत्र में एक अवसर के तौर पर लूपवॉर्म (Loopworm) नाम से एक स्टार्टअप शुरू किया। वे अपने इस स्टार्टअप के द्वारा कीट-आधारित प्रोटीन उत्पाद विकसित कर रहे हैं जो पशुधन, मुर्गी पालन और जलीय कृषि सहित पशु आहार में प्रयुक्त किए जा सकते हैं। वे पालतू प्राणियों के लिए कीट प्रोटीन पर आधारित एक पौष्टिक खाद्य उत्पाद भी विकसित कर रहे हैं। बागरिया और गवरी ने अपने स्टार्टअप के लिए प्रमुख निवेशकों से 3.4 दशलक्ष डॉलर भी जुटाए हैं। उन्होंने बेंगलुरु में अपना अनुसंधान और विकास केंद्र भी स्थापित किया है।उन्हें कीटों को पालने में बड़ी संख्या में किसानों के साथ साझेदारी करने की उम्मीद भी है ।
एक रिपोर्ट के अनुसार, वैश्विक कीट प्रोटीन उद्योग का मूल्य 2030 तक 7.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर होने का अनुमान है, जबकि यह 27 प्रतिशत से अधिक की दर से बढ़ रहा है। हालांकि, भारत में अभी यह उद्योग अपनी शुरुआत में है फिर भी इसका आकार और दायरा तीव्र गति से बढ़ रहा है और उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में इस उद्योग का बढ़ना जारी रहेगा ।
संदर्भ
https://bit.ly/3JVX3wr
https://bit.ly/3KmquJG
https://bit.ly/3JWBOuz
चित्र संदर्भ
1. क्रिकेट पाउडर को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia, Max Pixel)
2. अंडे के पोषण मूल्य को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. अंडे को दर्शाता एक चित्रण (Max Pixel)
4. क्रिकेट पाउडर को संदर्भित करता एक चित्रण (Pixabay)
5. भोजन के रूप में कीटों को दर्शाता चित्रण (Wallpaper Flare)
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