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विकिपीडिया (Wikipedia) पर मौजूद आंकड़ों के अनुसार, भारत में तकरीबन 27,080,016 ईसाई जन (Christians) रहते हैं, जो कुल मिलाकर, 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की जनसंख्या में 2.3% का योगदान देते हैं। भारत में ईसाई धर्म का प्रसार करने में एक प्रसिद्ध अमेरिकी मिशनरी (American Missionary) और धर्मशास्त्री ई. स्टेनली जोन्स (E. Stanley Jones) का अहम् योगदान रहा है, जिन्हें अंतर्धार्मिक संवाद और समझ को बढ़ावा देने के साथ-साथ भारत में ईसाई आश्रमों की स्थापना करने का श्रेय भी दिया जाता है!
ई. स्टेनली जोन्स एक अमेरिकी मिशनरी, ईसाई धर्म प्रचारक और लेखक थे। उनका जन्म 1884 में संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of America) के मैरीलैंड (Maryland) राज्य के क्लार्क्सविले (Clarksville) शहर में हुआ था। 17 साल की उम्र में ही वे धर्म परिवर्तित कर ईसाई हो गए थे। 1906 में उन्होंने ऎस्बरी कॉलेज (Asbury College) से कानून का अध्ययन किया और स्नातक की उपाधि प्राप्त की ।
कॉलेज खत्म करने के बाद, 1907 में वे ‘जोन्स मेथोडिस्ट एपिस्कोपल चर्च’ (Jones Methodist Episcopal Church) के मिशन बोर्ड के तहत काम करने के लिए भारत आ गए । वह भारत में लखनऊ में एक पादरी बन गए और उन्होंने कई लोगों को ईसाई धर्म के बारे में जानने और समझने में मदद की। वह एक मिशनरी अधीक्षक भी बने और पूरे भारत में कई जगहों पर ईसाई धर्म का प्रचार किया।
जोन्स, भारत में शिक्षित लोगों को ईसाई धर्म से अवगत कराने में बहुत अधिक रुचि रखते थे। अपने जीवनकाल के दौरान उन्होंने कई सार्वजनिक मंचों पर भाषण दिए और लोगों के सवालों के जवाब दिए। उन्होंने ईसाई धर्म के बारे में कई प्रभावशाली किताबें भी लिखी जिन्हें बहुत से लोगों ने पढ़ा। उन्होंने चर्चों की विश्व परिषद के गोलमेज सम्मेलनों में भी भाग लिया और अपने संवादों को प्रभावशाली रूप से व्यक्त किया । 1930 में उन्होंने हिमालय में सात ताल में एक ईसाई आश्रम, या धार्मिक समुदाय और बाद में एक अंतरराष्ट्रीय आश्रम आंदोलन की भी स्थापना की । उन्होंने लोगों के मानसिक स्वास्थ्य की भी परवाह की और लखनऊ में एक मनोरोग केंद्र शुरू करने में मदद की।
1930 के दशक में, जोन्स ने लोगों को ईसाई धर्म के बारे में बताने के लिए पूरी दुनिया की यात्रा की। उन्होंने कई बार जापान (Japan) का दौरा किया और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान के बीच शांति स्थापित करने के लिए काम किया। उन्होंने अपनी किताबों के माध्यम से जो भी पैसा कमाया, वह चर्च को स्कॉलरशिप (Scholarship) और ईसाई धर्म के प्रचार के लिए दे दिया।
जोन्स ईसाई समुदाय में बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति माने जाते थे और उन्होंने विश्वविद्यालयों से कई मानद उपाधियाँ प्राप्त कीं। उन्हें 1961 में ‘गांधी शांति पुरस्कार’ (Gandhi Peace Prize) मिला और दो बार ‘नोबेल शांति पुरस्कार’ (Nobel Peace Prize) के लिए नामांकित भी किया गया था। 1973 में उनकी मृत्यु के बाद भी उनके काम ने लोगों को एक साथ लाने और विभिन्न धर्मों के बीच शांति और समझ को बढ़ावा देने में काफी मदद की।
स्टेनली मानते थे कि उनका जन्म ही दूसरों के साथ अपने विश्वास को साझा करने और उन्हें मसीह (Christ) के अनुयायी बनने में मदद करने के लिए हुआ है। उन्होंने देखा कि इस काम को करने वाले बहुत से लोग खुद पर और अपनी सफलता पर बहुत अधिक केंद्रित हो गए थे और दूसरों की ज़रूरतों पर ध्यान देना बंद कर दिया था ।
किंतु उनका मानना था कि ऐसे लोगों का एक समूह होना महत्वपूर्ण था जो एक-दूसरे को जवाबदेह ठहरा सकें। उन्होंने यह भी महसूस किया कि एक ऐसा स्थान होना चाहिए जहां लोग अपने विश्वास के बारे में अपनी समझ को प्रतिबिंबित करने और गहरा करने के लिए समय निकाल सकें।
ऐसी जगह को बनाने के लिए उन्होंने ईसाई आश्रम शब्द का प्रयोग किया। यह लोगों का एक ऐसा समूह था जो अध्ययन करने और अपने विश्वास पर चिंतन करने के लिए एक साथ आते थे, और अपनी आध्यात्मिक यात्रा में एक दूसरे का समर्थन करते थे। वह यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि यह समूह भारतीय संस्कृति पर आधारित हो। जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जोन्स संयुक्त राज्य अमेरिका में फंसे हुए थे, तो उन्होंने ईसाई आश्रम की जड़ॆं संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में भी जमा दी , जहां यह एक मजबूत आध्यात्मिक विकास मंत्रालय बन गया। एक ईसाई आश्रम लोगों को मसीह के अनुयायी होने के लिए प्रेरित करता है।
ईसाई आश्रम आंदोलन का विचार भारत से शुरू होकर अंततः दुनिया के अन्य हिस्सों में फैल गया। धीरे-धीरे यह लोगों के लिए एक साथ आने और आध्यात्मिक रूप से बढ़ने का एक तरीका बन गया। ईसाई आश्रम से जुड़े हुए लोग, सभी ईसाई त्यौहारों को बड़ी ही धूमधाम के साथ मनाते हैं, पाम संडे या पाम रविवार (Palm Sunday) भी ऐसा ही एक लोकप्रिय ईसाई त्यौहार है।
ईसाइयों के लिए, पाम रविवार वर्ष के सबसे पवित्र सप्ताह की शुरुआत माना जाता है, जिसे कहा भी पवित्र सप्ताह (Holy Week) ही जाता है। इस साल पवित्र सप्ताह की शुरुआत 02 अप्रैल 2023 के दिन पाम रविवार के साथ हुई । यह यीशु के जीवन की उन महत्वपूर्ण घटनाओं को याद करने का समय होता है, जिनमें सूली (cross) पर उनकी पीड़ा तथा मृत्य, और उनके पुनरुत्थान की घटनाएं शामिल है। मान्यता है की पाम रविवार के दिन, यीशु ने एक गधे (जिसको विनम्रता का प्रतीक माना जाता है) पर सवार होकर येरूशलेम (Jerusalem) में प्रवेश किया और वहां के लोगों ने उनका स्वागत करने के लिए पाम के पत्ते लहराए थे। यही कारण है कि इस दिन की याद में हर साल पाम रविवार मनाया जाता है। यीशु को सलीब पर चढ़ाए जाने से पहले उनका स्वागत किया जाता है। आज भी पाम रविवार के दिन, ताड़ के पत्तों को पवित्र कर ईसाइयों में वितरित किया जाता है, जो तब पाम के पत्तों को लहराते हुए चर्च जाते हैं। पवित्र ताड़ के पत्तों को कचरे के रूप में नहीं छोड़ा जा सकता है, इसलिए कैथलिक चर्च द्वारा अगले वर्ष ऐश बुधवार के अनुष्ठानों के दौरान माथे पर लगाने हेतु राख बनाने के लिए उन्हें भस्म कर दिया जाता है । जबकि भारतीय रूढ़िवादी चर्च में इन पत्तों को क्रिसमस तक रखा जाता है, जिस दिन इन्हें प्रतीकात्मक अलाव के रूप में जलाया जाता है।
संदर्भ
https://bit.ly/3zwT8kW
https://bit.ly/3ZC2nuF
https://bit.ly/3UnAGoF
चित्र संदर्भ
1. ई.स्टेनली जोन्स को संदर्भित करता एक चित्रण (flickr)
2. ई.स्टेनली जोन्स को दर्शाता एक चित्रण (bu.edu)
3. सातताल में ईसाई आश्रम का एक चित्रण (nainital.org)
4. ई. स्टेनली जोंस द्वारा लिखी गयी पुस्तकों के आवरण पृष्ठ का एक चित्रण (Prarang)
5. जेरूसलम में ईसा मसीह का प्रवेश, पाम संडे को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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