वातावरण से छेड़खानी, करे कोई और, भरे कोई और

जौनपुर

 09-02-2023 10:45 AM
समुद्र

वर्तमान समय में, मानवीय गतिविधियों और क्रिया-कलापों के कारण विश्वभर में निरंतर तापमान बढ़ता जा रहा है, जिससे तेजी से जलवायु परिवर्तित हो रही है। यह भविष्य में मानव जीवन के लिए एक खतरे का संकेत है। वैज्ञानिकों के अनुसार निरंतर बढ़ रही ग्लोबल वार्मिंग (Global warming) के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन से महासागरों पर अत्यधिक दुष्प्रभाव पड़ रहा है। हाल ही में, शोधकर्ताओं के एक अध्ययन से पता चला है कि बड़े पैमाने पर ग्लेशियरों( Glaciers) से बर्फ के पिघलने से जहां एक तरफ इंडोनेशिया में बाढ़ आ सकती है, वही दूसरी तरफ पूर्वी अफ्रीका अत्यधिक सूखा पड़ सकता है। एक नए अध्ययन का विश्लेषण करते हुए ब्राउन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं का कहना है कि बड़े लंबे समय से प्राप्त हो रहे जलवायु आंकड़ों के बाद अब उन्हें इस बात की बेहतर समझ है कि जलवायु परिवर्तन किस प्रकार हिन्द महासागर के एक तरफ के पानी के तापमान को दूसरी तरफ के पानी के तापमान की तुलना में अधिक गर्म एवं ठंडा होने की घटना को प्रभावित कर रहा है और इसका कारणबनता जा रहा है।
यह जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही एक ऐसी घटना है, जिसके कारण बदलते मौसम के घातक प्रहार को देखा जा सकता है, जिसमें एक तरफ तो पूर्वी अफ्रीका (East Africa) में बहुत अत्यधिक मात्रा में सूखा पड़ रहा है और इंडोनेशिया (Indonesia) में गम्भीर बाढ़ आ रही है। सूखा एवं बाढ़ दोनों ही भिन्न-भिन्न स्थानों में देखने को मिल रहे हैं। एक पक्ष को औसत से अधिक वर्षा और दूसरे को व्यापक सूखे के लिए महासागर को प्रेरित करने वाली इस घटना को द्विध्रुवीय (Dipole) के रूप में जाना जाता है। राष्ट्रीय समुद्रीय और वायुमंडलीय प्रशासन (National Oceanic and Atmospheric Administration (NOAA) द्वारा किए गए एक अध्ययन में बताया गया है कि समुद्र के पानी की सतह का वार्षिक औसत तापमान 20वीं शताब्दी (1900- 1999) के औसत तापमान से 1980 के दशक के बाद से अत्यधिक अस्थिर है। अध्ययन में यह भी बताया गया है कि 2022 में विश्व के सभी महासागरों के पानी की सतह का तापमान 20वीं सदी के औसत से 0.69 डिग्री सेल्शियस अधिक था। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप ग्लेशियरों के पिघलने के कारण विश्व के समुद्री जल स्तर का औसत 21वीं शताब्दी के अंत तक 9 से 88 सेंटीमीटर तक बढ़ने की संभावना है, जिससे दुनिया की आधी से अधिक आबादी, जो समुद्र से 60 किलोमीटर की दूरी पर रहती है, पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा । समुद्र का जल स्तर बढ़ने से मीठे जल के स्रोत दूषित होगें, परिणामस्वरूप पीने के पानी की समस्या उत्पन्न होगी। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव समुद्र में पाए जाने वाली जैव विविधता सम्पन्न प्रवाल भित्तियों पर भी पड़ेगा, जिन्हें महासागरों का उष्णकटिबंधीय वर्षावन कहा जाता है। समुद्री जल में उष्णता के परिणाम स्वरूप शैवालों ( सूक्ष्मजीवी वनस्पतियों ) पर विपरीत प्रभाव पड़ता है,जो प्रवाल भित्तियों को भोजन प्रदान करते है। जहां एक तरफ समुद्र का निरंतर बढ़ता तापमानमौसम को प्रभावित कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन समुद्र के तापमान को बढ़ा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने से समुद्री तापमान के कारण मौसम की आवृत्ति, स्थानिक सीमा और अवधि में परिवर्तन हो रहा है। पृथ्वी के वातावरण की अधिकांश गर्मी समुद्र द्वारा अवशोषित हो जाती है। गर्म समुद्री सतह के तापमान के कारण तूफान का बनना आसान हो जाता है। किंतु मानव जनित ग्लोबल वार्मिंग के कारण यह आशंका जताई जाती है कि तूफान से वर्षा की दर बढ़ेगी, तूफान की तीव्रता बढ़ जाएगी और श्रेणी 4 या 5 के स्तर तक पहुँचने वाले तूफानों का अनुपात भी बढ़ जाएगा। आपको बता दें कि पृथ्वी के सभी महासागर अद्वितीय कार्बन भंडारगृह है। दुनिया की सतह के 70.8% हिस्से को घेरने वाले , महासागरों में वातावरण की तुलना में लगभग 50 गुना अधिक कार्बन और भूमि पर मिट्टी के प्रत्येक पौधे और भूखंड की तुलना में लगभग 20 गुना अधिक कार्बन का भंडार है। अकेले इसी कारण से, कई वैज्ञानिक समुद्र को जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध एक उपकरण के रूप में देख रहे हैं। उदाहरण के लिए, समुद्र में पाए जाने वाला ओलिविन, वातावरण में व्याप्त अतिरिक्त कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide) को अवशोषित करने में सहायता करता है। ओलिविन समुद्र के तल पर पाया जाता है जो लगातार विघटित होता रहता है एवं जिसके कारण इसमें रासायनिक परिवर्तन होता है। ओलिविन के विघटन के कारण समुद्र का वह हिस्सा थोड़ा अधिक क्षारीय हो जाता है और कार्बन डाइऑक्साइड को विघटित कर कार्बोनेट और बाइकार्बोनेट अणुओं में परिवर्तित कर देता है । यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो कार्बन को सैकड़ों हजारों वर्षों तक संग्रहीत करती है। फिर समुद्री जल संग्रहित कार्बन को विघटित करने के लिए हवा से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करता है। वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को ‘महासागर क्षारीयता वृद्धि’ (Ocean Alkalinity Enhancement (OAE) कहते है। वैज्ञानिकों का मानना ​​है कि यह 1.5 ट्रिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड को नीचे खींचने और सुरक्षित रूप से संग्रहीत करने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण हो सकता है । अतः यदि शीघ्र ही जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित नहीं किया गया, तो इसका दुष्प्रभाव महासागरों पर पड़ना निश्चित है। जहां एक तरफ ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के तापमान और जल स्तर में वृद्धि होगी, वहीं दूसरी तरफ इसकी कार्बन शोषण की क्षमता भी कम होगी।

सन्दर्भ
https://bit.ly/40kE1Ht
https://bit.ly/3HMbEKZ
https://bit.ly/3Hv8E4g

चित्र संदर्भ
1. अंटार्कटिका में टूटती बर्फ को संदर्भित करता एक चित्रण (cloudsandclimate)
2. ध्रुवीय भालू को संदर्भित करता एक चित्रण (Rawpixel)
3. अर्जेंटीना में पेरिटो मोरेनो ग्लेशियर पर स्थित एक ग्लेशियर गुफा को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. स्रोत के अनुसार CO2 उत्सर्जन (कोयला, तेल, गैस, सीमेंट, फ्लेयरिंग) 2018 को दर्शाता करता एक चित्रण (wikimedia)
5. मृत पड़ी मछलियों को संदर्भित करता एक चित्रण (wikimedia)



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