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जीवाश्मों के विषय में हमारी प्राचीन धारणाओं को तोड़ रही हैं, आधुनिक तकनीकें

जौनपुर

 02-01-2023 10:41 AM
रेंगने वाले जीव

आधुनिक तकनीक की सहायता से गड़े मुर्दे उखाड़ना अर्थात हमारी धरती पर मौजूद करोड़ों वर्ष पुराने जीवश्मों की खोज और अध्ययन करना काफी आसान हो गया है। आपको जानकर यह आश्चर्य होगा कि नई तकनीकों की सहायता से किये गए कुछ हालिया जीवाश्म अध्ययनों ने जीव विकास के अतीत से जुड़ी हमारी धारणाओं को बदल कर रख दिया है।
लंदन में प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय (Natural History Museum) से प्राप्त एक नमूने से यह ज्ञात हुआ है कि “आधुनिक छिपकलियों की उत्पत्ति ट्राइसिक काल (Triassic period) के आखिरी चरण में हुई थी।” हालांकि पहले इनकी उत्पत्ति, मध्य जुरासिक काल (Middle Jurassic Period) में मानी जाती थी। हालांकि, मॉनिटर छिपकलियों (Monitor Lizards), गिला मॉन्स्टर (Gila Monster) और स्लो वार्म (Slow Warm) जैसी जीवित छिपकलियों के इस जीवाश्म रिश्तेदार ( जिसे भूविज्ञानवादियो ने क्रिप्टोवारानोइड्स माइक्रोलेनियस (Cryptovaranoides microlanius नाम दिया है) को 1950 के दशक में ही प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के संग्रह में खोजा जा चुका था, लेकिन तब इसकी समकालीन विशेषताओं को उजागर करने वाली आधुनिक तकनीक मौजूद नहीं थी।
क्रिप्टोवारानोइड्स माइक्रोलेनियस से जुड़ी नई खोज, छिपकलियों और सांपों की उत्पत्ति के सभी अनुमानों को प्रभावित कर रही है। यह खोज मध्य जुरासिक काल (Jurassic) से लेकर ट्राइसिक काल के आखिरी चरण तक सरीसृपों के एक पूरे समूह की उत्पत्ति और विविधीकरण की धारणा को बदल रही है। ब्रिस्टल स्कूल ऑफ अर्थ साइंसेज (Bristol’s School of Earth Sciences) के डॉ डेविड व्हाइटसाइड (Dr David Whiteside) के अनुसार “मैंने पहली बार लंदन में प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के स्टोर रूम में क्लेवीसेरस जीवाश्मों (Clavicerus fossils) से भरी एक अलमारी में यह नमूना देखा। यह एक आम पर्याप्त जीवाश्म सरीसृप था, जो न्यूजीलैंड टुआटारा (New Zealand Tuatara) का एक करीबी रिश्तेदार था। न्यूजीलैंड टुआटारा राइनकोसेफेलिया (Rhinocephalia) समूह का एकमात्र उत्तरजीवी था, जो 240 मिलियन वर्ष पहले स्क्वमाटा (Squamates) समूह से अलग हो गया था। स्क्वमाटा प्राणियों का वह गण है जिसके सदस्य सारे शल्क-वाले सरीसृप हैं। सारे साँप व छिपकलियाँ इसी गण में शामिल हैं। डेविड व्हाइटसाइड के नेतृत्व वाले शोध दल का मानना ​​है कि क्रिप्टोवारानोइड्स ब्रिस्टल शहर के आसपास छोटे द्वीपों पर चूना पत्थर की दरारों में रहते थे और मुख्य रूप से मांसाहारी भोजन करते थे। क्रिप्टोवारानोइड्स माइक्रोलेनियस (Cryptovaranoides Microlanius) के तेज, ब्लेड जैसे दांतों और जबड़े ने संभवतः इसे 200 मिलियन वर्ष पहले इसके साथ रहने वाले कीड़े, मकड़ियों और छोटे रीढ़ों को पकड़ने और उनका उपभोग करने की अनुमति दी होगी। इसके जीवाश्म इंग्लैंड के दक्षिण ग्लॉस्टरशायर (South Gloucestershire) खदान में तब तक दबे रहे, जब तक कि उन्हें 1953 में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन (University College London) की एक टीम द्वारा खोजा नहीं गया। इसके शरीर के अधिकांश हिस्से के चट्टान में दबे रहने के कारण दशकों तक इसकी असली पहचान अज्ञात थी, लेकिन स्कैनिंग तकनीक (Scanning Techniques) में प्रगति के कारण, पहली बार इसका असली रूप और वास्तविक इतिहास सबके सामने प्रकट हो गए ।
विशेषज्ञों का दावा है कि यह जीवाश्म स्क्वामेट्स की उत्पत्ति और विविधीकरण को मध्य जुरासिक से वापस ट्राइसिक काल के आखिरी चरण में धकेल रहा है, जब कछुओं तथा मगरमच्छों जैसे आधुनिक समूहों के प्राथमिक और स्तनधारी सदस्य पैदा हुए थे' एक्स-रे कंप्यूटेड टोमोग्राफी (X-ray Computed Tomography) के उपयोग ने जीवाश्म विज्ञानियों (Paleontologists) की डायनासोर के जीवाश्मों की आकृति विज्ञान (morphology) का अध्ययन करने की क्षमता में काफी हद तक सुधार कर दिया है। अब, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence (AI)) से परिपूर्ण इन मशीनों की सहायता से डायनासोर जीवाश्मों का अधिक तेज़ी और सटीकता से विश्लेषण किया जा सकता है। डायनासोर का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के लिए ये जीवाश्म नमूने, डायनासोर अवशेषों की आकृति, उनके आकार और रूप आदि से संबंधित जानकारी प्राप्त करने का एक प्रमुख स्रोत है। लेकिन इन नमूनों के विश्लेषण के पारंपरिक तरीके अक्सर मूल नमूने को नष्ट कर देते हैं। यहीं पर एक्स-रे कंप्यूटेड टोमोग्राफी (X-ray Computed Tomography (CT) जैसी उच्च-रिज़ॉल्यूशन स्कैनिंग (High-Resolution Scanning) तकनीकों ने, शोधकर्ताओं को विकिरण और डिजिटल सॉफ्टवेयर (Digital Software) का उपयोग करके तीन आयामों (3D) में नमूनों की आंतरिक संरचनाओं को बिना नुकसान पहुंचाए उनका पुनर्निर्माण करने की अनुमति देकर इस क्षेत्र में क्रांति ला दी है। यह निर्धारित करने के लिए, कि क्या कृत्रिम बुद्धिमत्ता जीवाश्म नमूनों को सटीक रूप से वर्गीकृत करने में सक्षम है, शोधकर्ताओं ने गहरे तंत्रिका नेटवर्क (Deep Neural Networks “एक प्रकार का एआई नमूना जो मानव मस्तिष्क का अनुकरण करता है।”) का उपयोग करके एक अध्ययन किया। इस दौरान प्रोटोसेराटोप्स (Protoceratops) (ट्राइसेराटॉप्स “Triceratops” के एक रिश्तेदार) की खोपड़ी के 10,000 से अधिक सीटी स्कैन नमूनों का उपयोग एआई प्रणाली को प्रशिक्षित करने के लिए किया गया था। अध्ययन से पता चलता है कि एआई के भीतर छवि विभाजन कार्यों को करने में लगने वाले समय को काफी कम करने की क्षमता है, जिससे यह जीवाश्म विज्ञान में काफी सहायक साबित होते हैं। अमेरिकन म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री (American Museum of Natural History) के पीएचडी छात्र कांग्यू यू (Congyu Yu) द्वारा किये गए एक शोध के अनुसार, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), तेजी से इमेजिंग प्रसंस्करण (Imaging Processing) और अनुसंधान मानकों को स्थापित करके जीवाश्म विज्ञान अनुसंधान में काफी सुधार कर सकता है।

संदर्भ
https://bit.ly/3Ie114t
https://bit.ly/3CbTgIf
https://bit.ly/3PXkM1Z

चित्र संदर्भ
1. जीवाश्मों की स्कैनिंग को संदर्भित करता एक चित्रण (Flickr)
2. विविध प्रकार की छिपकलियों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. क्रिप्टोवारानोइड्स माइक्रोलेनियस को दर्शाता एक चित्रण (youtube)
4. इंग्लैंड के दक्षिण ग्लॉस्टरशायर (South Gloucestershire) खदान को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. एक्स-रे कंप्यूटेड टोमोग्राफी को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. जीवाश्मों की स्कैनिंग को दर्शाता एक चित्रण (Flickr)
7. प्रोटोसेराटोप्स (Protoceratops) को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)



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