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उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में थारू जनजाति की अनोखी संस्कृति को दुनिया के समक्ष लाने के लिए एक योजना शुरू की है। इस योजना का उद्देश्य थारू जनजाति से जुड़े गांवों को पर्यटन मानचित्र पर लाना, रोजगार को बढ़ावा देना और आदिवासी लोगों के लिए आर्थिक स्वतंत्रता स्थापित करना है। उत्तर प्रदेश सरकार नेपाल देश की सीमा के निकट स्थित बलरामपुर, बहराइच, लखीमपुर और पीलीभीत जिलों से थारू गांवों को जोड़ने के लिए काम कर रही है, जिससे उनकी अनोखी संस्कृति को स्थायी रूप से बढ़ाया जा सकेगा।
‘कला और शिल्प’ हमारे अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विषय है क्योंकि वे उन्हें बनाने वाले लोगों को प्रतिबिंबित करने के लिए एक दर्पण के रूप में कार्य करते हैं। हमेशा से ही कला मानवता की अनिवार्य आवश्यकता रही है और आज भी है। यह प्रत्येक समुदाय की कला ही तो होती है, जो उस समुदाय को विशिष्ट चरित्र और लय प्रदान करती है। चूंकि किसी भी समुदाय का सांस्कृतिक सांचा और अर्थ उस समुदाय की कला के तल पर ही स्थित है; कला, परंपरा और सांस्कृतिक विरासत के प्रतिनिधि के रूप में भी कार्य करती है। इस प्रकार, हमारा जीवन और कला परस्पर अविभाज्य रूप से जुड़े हुए हैं। दोनों में बस एक फ़र्क है कि जीवन बीत जाता है परंतुकला हमेशा के लिए बनी रहती है।
‘थारू जनजाति’ उत्तर प्रदेश के विभाजन के पहले यहां की पांच अनुसूचित जनजातियों में सबसे बड़ी थी। वर्तमान में राज्य से उत्तरांचल को अलग करने के बाद, यह जनजाति केवल एक ही शेष हैं। थारू लोग भारत एवं नेपाल की सीमा पर एक विशाल क्षेत्र में फैले हुए हैं और राज्य के लखीमपुर-खीरी, गोंडा, बहराइच और गोरखपुर जिलों में रहते हैं। साथ ही वे उत्तरांचल, बिहार, बंगाल, असम और नेपाल के कुछ हिस्सों में भी पाए जाते हैं। 1991 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में इनकी कुल जनसंख्या केवल 1,18,558 थी।
थारू लोगों के लिए कला, उनके जीवन का एक हिस्सा है । कला और सुंदरता के लिए उनके प्रेम को इस तथ्य से आसानी से समझा जा सकता है कि उनके दैनिक इस्तेमाल की बहुतांश वस्तुएं सौंदर्यीकरण के विभिन्न रूपों से भरपूर हैं। इस प्रकार कला, थारू लोगों के जीवन के लगभग हर पहलू में बंधी हुई है। अगर हम थारू गांव में कदम रखते है, तो सबसे पहले हमारी नजर सुंदर थारू झोपड़ियों या थारूहाट(tharuhat) पर ही टिकी रहती है। स्वयं आदिवासियों द्वारा निर्मित, ये झोपड़ियाँ लकड़ी, ईख के पौधे, बांस, घास-फूस और मिट्टी आदि से बनी होती हैं, जो आसपास के वन क्षेत्र से प्राप्त किए जाते हैं। इन झोपड़ियों की दीवारों को तरह-तरह से सजाया जाता है। कुछ थारू घरों में तो विभिन्न आकृतियों के खुले दरवाजों को खूबसूरती से बनाया गया है जो खिड़कियों के रूप में कार्य करते हैं और घर को सुशोभित भी करते हैं। सामने की दीवारों पर सजावट के लिए मिट्टी के चौखटे बने होते हैं और उनमें चित्र, नक्काशी या उभारदार नक्क़ाशी की जाती है। इनकी सुंदरता को और बढ़ाने के लिए कभी-कभी इन चौखटों पर विभिन्न आकृतियों के कांच/दर्पण के टुकड़े चिपकाए जाते हैं। सूख जाने के बाद, ये आकृतियां प्राकृतिक या रासायनिक रंगों से रंगे जाते हैं। भित्ति–चित्रों के लिए सामान्य रूप-रेखाएं ज्यामितीय और पुष्प रूप-रेखाएं होती हैं, हालांकि पशु, पक्षी और मानवीय आकृतियां भी इसमें शामिल हैं।
थारू लोगों द्वारा मिट्टी का एक और महत्वपूर्ण उपयोग, विभिन्न वस्तुओं जैसे कि विशाल अनाज के डिब्बे, पात्र, चूल्हे, खिलौने आदि बनाने में होता है। इन सभी वस्तुओं को हाथ से बनाया जाता है और धूप में सुखाया जाता है। इन मिट्टी की वस्तुओं को उत्कीर्णन और उभार कर सुशोभित भी किया जाता है। आकृतियों में कुछ रूपांकनों जैसे त्रिकोण, फूल और कुछ पक्षियों को शुभ माना जाता है। थारू जनजाति के मिट्टी के कार्य के बारे में एक तथ्य यह है कि ये लोग अपने बर्तनों को हाथों से ही यथार्थ आकार देते हैं। वे न केवल किसी मापन उपकरण के उपयोग के बिना ही बर्तनों को एक आदर्श रूप देते हैं, बल्कि वे इन वस्तुओं को इस तरह से भी आकार देते हैं कि उन्हें सौंदर्य के साथ-साथ उपयोगितावादी मूल्य की वस्तु भी बना दे ।
अगर थारू जनजाति के शिल्प कौशल की बात की जाए तो वे बड़ी सफाई और सटीकता के साथ विभिन्न प्रकार के मछली पकड़ने के जाल, चटाइयां, रंगीन और सजी हुई टोकरियां, हाथ के पंखे, थैले आदि बनाते हैं। थारू लोग टोकरी बनाने की कला और उससे संबंधित शिल्पों में उत्कृष्ट होते हैं। उन्होंने ऐसे शिल्प बनाने और उन्हे सजाने में तो महारत ही हासिल की है। अगर हम उन तैयार टोकरियों और हाथ के पंखों को देखते है, तो इसकी बनावट की नियमितता, चिकनाई और साफ-सफाई से अवश्य प्रभावित हो जायेंगे, जिसमें नाजुक हस्तकला के सभी बेहतरीन गुण हैं।
थारू महिलाओं की पोशाक को व्यापक रूप से विभिन्न प्रकार के कपड़ो की टुकड़ों की रूप-रेखाओं पर कढ़ाई के अधिरोपण और सिले हुए टुकड़ों के काम के संयोजन से सजाया जाता है, जिनमें से सभी की अपनी विशिष्ट शैली होती है। इस कला में कसीदा (Kasida) साटन सिलाई(Satin stitch) के समान कढ़ाई की एक पारंपरिक शैली है। पहले, इसके लिए रेशमी या सूती धागों का उपयोग किया जाता था, हालाँकि अब चमकीले रंग के ऊनी धागों का उपयोग हो रहा हैं। थारू पोशाक की सुंदरता दर्पण के टुकड़ों, मोतियों, गोले, चमकीले रंग की ऊनी गेंदों और अन्य सुशोभन की वस्तुओं से और बढ़ जाती है।
हालांकि, थारू जनजाति की प्रदर्शन कला तकनीकी रूप से उच्च स्तर की नहीं है, लेकिन वे सादे थारू हृदय की अंतरतम भावनाओं की अभिव्यक्ति में समृद्ध हैं। गीत, नृत्य और संगीत अक्सर एक दूसरे को पुष्ट करने के लिए संयुक्त होते हैं। जाति में हर अवसर के लिए उपयुक्त गीत मौजूद हैं, चाहे वह शोक हो या उत्सव। संगीत में नृत्य और गायन के संगत के रूप में वाद्य यंत्रों का भी प्रयोग होता है । प्रदर्शन के समय महिलाए चमकदार बहुरंगी पोशाक और भारी आभूषण पहनती हैं।
इस प्रकार हमने उत्तर प्रदेश में पाई जाने वाली थारू जनजाति की अनूठी कला के बारे में जाना। और यह भी देखा कि कैसे उनकी कला के विभिन्न पहलू उनके जीवन के अनुभवों से संबंधित हैं। वैसे तो थारू लोगों का जीवन सरल है परंतु उनकी यह अनूठी कला उनके जीवन को चार चांद लगा देती है।और आज हमें जरूरत है उनकी इस कला को जानना तथा उस कला की सराहना करना।
संदर्भ-
https://bit.ly/3BI7Gzw
https://bit.ly/3BGMdak
https://bit.ly/3HDdM8l
चित्र संदर्भ
1. नृत्य करती थारू महिलाओं को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. थारु महिला को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. थारू को नेपाल और भारत की सरकारों के माध्यम से एक वैध राष्ट्रीयता के रूप में मान्यता प्राप्त है, जिनके विस्तार को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. पारंपरिक वेशभूषा में थारू जनजाति के लोगों को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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