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प्रौद्योगिकी के विकास के साथ ही तेजी से बदलती इस दुनिया में, अनेक पारंपरिक उपयोगितावादी वस्तुएं या कला के कई सुंदर रूप, गुजरते समय के साथ धीरे-धीरे हमारे दैनिक जीवन से गायब होते जा रहे हैं। इसके कुछ यादगार उदाहरणों में कैलेंडर और टेप रिकॉर्डर (Calendar & Tape Recorder) आदि, जो कभी उपयोगिता और सामाजिक स्थिति दोनों की दृष्टि से हर घर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करते थे, अब हमारी आधुनिक जीवन शैली की होड़ में गायब होते जा रहे हैं। भारतीय संस्कृति के इतिहास में कैलेंडरों के महत्व का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि आज आपके मस्तिष्क में भगवान शिव या माँ काली के जिन विभिन्न रूपों की छवि बैठी है, उनके निर्माण में इन कैलेंडरों की बेहद अहम भूमिका रही है।
भारत में, कैलेंडर कला (Calendar Art) को, आधुनिक कला के जनक माने जाने वाले चित्रकार राजा रवि वर्मा की पहल के बाद काफी लोकप्रियता प्राप्त हुई। उन्होंने भारत में सबसे पहले लिथोग्राफिक प्रेस (Lithographic Press) की स्थापना का बीड़ा उठाया। राजा रवि वर्मा ने भारत में देवी-देवताओं की छवियों को न केवल लोकप्रिय बनाया, बल्कि उन्होंने इसे नितांत वास्तविक बना दिया। जैसे-जैसे कैलेंडर सामान्य आबादी के लिए सस्ते होते गए, वैसे-वैसे मुद्रक भी समाज में प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए समय-समय पर अपने विषयों में विविधता लाने लगे।
जिस तेज़ी से स्वतंत्रता आंदोलन ने गति पकड़ी, उसी गति से कैलेंडर के माध्यम से स्वतंत्रता प्रतीकों से संबंधित रूपक, कल्पना और एक स्वतंत्र भारतीय राष्ट्र के विचार को पूरे देश में सार्वभौमिक बना दिया गया। इसने राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक अखंडता की भावना फ़ैलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
समय के साथ कैलेंडर एक व्यक्ति/परिवार की धार्मिक संबद्धता या विश्वास प्रणाली का एक सामाजिक प्रतीक बन गया। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में हिंदू देवी-देवताओं, पौराणिक कथाओं, राष्ट्रवादी नेताओं के चित्र और कलाकारों द्वारा बनाए गए परिदृश्य जैसी लोकप्रिय छवियों की संस्कृति में अचानक वृद्धि देखी गई। देश की आजादी प्राप्ति के साथ जैसे-जैसे विविधता में एकता का मार्ग प्रशस्त हो रहा था, वैसे-वैसे कैलेंडर प्रिंटिंग प्रेसों (Calendar Printing Presses) ने अपना दायरा और बढ़ा लिया। इन कैलेंडरों द्वारा हिंदुओं के अलावा, सभी प्रकार के मिथकों, लोक संस्कृति और विभिन्न धर्मों से संबंधित कहानियों का प्रतिनिधित्व किया गया था।
इसकेअतिरिक्त , औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक भारत में, भक्ति सौंदर्यशास्त्र तेजी से राजनीतिक स्तर पर हावी हो गया। भक्ति और राजनीतिक भावनाओं के बीच की सीमाएँ एक दूसरे में विलीन हो गईं क्योंकि राष्ट्र का प्रतिनिधित्व धार्मिक दृष्टि से किया गया। जनता को एकत्र करने के लिए यह एक प्रमुख राजनीतिक उपकरण बन गया। कैलेंडरों ने राष्ट्र के प्रतिनिधित्व के रूप में भारत माता और गौ माता आदि के प्रतीकवाद को जनता के मन में उकेरा।
हालाँकि, जैसे-जैसे भारत ने वैश्वीकृत दुनिया में कदम रखा, वैसे-वैसे नए कैलेंडर विषय भी सामने आए । एक ओर, जहां भारत भर से एकत्र किए गए लोक नृत्यों, लोक उत्सवों, लोकप्रिय स्थानो, और दृश्यावली के प्रकारों को कैलेंडर पर मुद्रित कर संस्कृति को सुरक्षित रखने का प्रयास किया जा रहा था, तो वही दूसरी ओर, इस समय तक बाजार में बड़ी कंपनियां आ चुकी थीं जिन्होंने अपने स्वयं के उत्पादों का प्रचार करने वाले कैलेंडर बाज़ार में पेश किए। कंपनियों द्वारा कैलेंडर को जनता के लिए अधिक आकर्षक बनाने के लिए निश्चित मॉडल नियोजित किए गए । निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों द्वारा कर्मचारियों को कैलेंडर वितरित किए गए। समाज में कैलेंडर की एक और महत्वपूर्ण उपयोगितावादी भूमिका थी। छुट्टियां, त्यौहार आदि इन्हीं के द्वारा निर्धारित किए जाते थे। इतनी बड़ी संख्या में विभिन्न दिनांकप्रणालियों और युगों के अस्तित्व के आलोक में यह एक अत्यंत कठिन कार्य था।
आज कैलेंडर बहुत कम दिखाई देते हैं। वह केवल सीमित घरों में एक कार्यात्मक उपयोग के साथरसोई या कार्यालयों में कुछ डेस्क कैलेंडर के रूप तक ही सीमित हो गए है। नई संरचनाओं और इंटीरियर डिजाइनिंग (Interior Designing) जैसे कांच की खिड़कियां, जगह की कमी, आदि के साथ-साथ तकनीकी प्रगति (मोबाइल), डिजिटल कैलेंडर, विवश विपणन बजट, आदि ने कैलेंडर को निम्नतम स्तर पर वैकल्पिक बना दिया है।
1900 के दशक से लेकर 2000 के दशक तक कैलेंडर कला में दर्शाए गए चार व्यापक विषय धार्मिक, देशभक्ति, फिल्म और परिदृश्य थे। कैलेंडर कला उस समय अधिक लोकप्रिय हो गई जब परिभाषित आकृतियों और रेखाओं को चित्रित करने की पश्चिमी शैली कर्षण प्राप्त कर रही थी।
राजा रवि वर्मा की छपाई और कलाकृतियों केकारण भगवान भी आम आदमी के लिए सुलभ हो गए, जिसके परिणामस्वरूप महाभारत और रामायण जैसी कहानियों ने बहुत ही सजावटी चित्रों के माध्यम से लोकप्रियता प्राप्त की। अन्य भारतीय कैलेंडर कला चित्रकारों में एस. एम. पंडित, हेम चंदर भार्गव, बी.जी. शर्मा, योगेंद्र रस्तोगी और जे.पी. सिंघल, जिनकी कृतियों ने बाद की अवधि में कैलेंडर कला में अत्यधिक लोकप्रियता हासिल की, सम्मिलित है ।
कैलेंडर कला के लिए उपयोग की जाने वाली कुछ छवियां अत्यधिक राजनीतिक हो गईं, इसलिए कई बार भारतीय कैलेंडर कला का उपयोग ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के लिए, जनता को प्रभावित करने और भड़काने के लिए भी किया गया था। कैलेंडर कला अपनी छवियों के माध्यम से अचेतन संदेशों को बाहर निकालने का एक बड़ा माध्यम भी थी, उदाहरण के लिए, एक पिंजरे में बंद तोते को एक महिला द्वारा छोड़ा जा रहा था जो औपनिवेशिक शासन से मुक्ति का प्रतीक था।
हालांकि लिथोग्राफी के उपयोग ने दृश्य प्रिंट संस्कृति (Visual Print Culture) में क्रांति ला दी, लेकिन यह अपनी समस्याओं और पतन के साथ आया। समय के साथ कलाकारों की स्थिति गंभीर रूप से प्रभावित हुई क्योंकि बड़े पैमाने पर सस्ते रंग के प्रिंट बाजार में आने लगे। यहां तक कि राजा रवि वर्मा, जिन्हें कैलेंडर कला का अग्रदूत माना जाता है, को भी प्रिंट के अति उत्पादन का खामियाजा भुगतना पड़ा।
सस्ते लिथोग्राफिक प्रतिकृतियों के माध्यम से बेहद लोकप्रिय कैलेंडर कला शैली भी अब तेजी से लुप्त होती नज़र आ रही है। चमकदार, फोटोग्राफिक पुनर्मुद्रणों (Photographic Reprints) से आगे निकलकर, आज कैलेंडर कला, युग का एक भ्रम बन गई है। कुल मिलाकर, भारतीय कैलेंडर कला की यात्रा दिलचस्प है; रंगीन प्रिंटों के बड़े पैमाने पर उत्पादन से प्रभावित होने के बावजूद, कैलेंडर कला अभी भी प्रमुख कला संग्राहकों, नीलामियों, कला के प्रति उत्साही, आदि के घर में अपना रास्ता तलाशती है।
संदर्भ
https://bit.ly/3HDdez4
https://bit.ly/3FSQZnI
https://bit.ly/3hpXXar
चित्र संदर्भ
1. श्री गणेश एवं माता लक्ष्मी के कैलेंडर को दर्शाता एक चित्रण (Public Domain Pictures)
2. आधुनिक कला के जनक माने जाने वाले चित्रकार राजा रवि वर्माको दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. आज़ादी के प्रतीकवाद कैलेंडर को दर्शाता एक चित्रण (twitter)
4. एक रिक्त कमरे को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. एक आधुनिक प्रिंटर को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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