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पूरी दुनिया के लगभग 20 प्रतिशत मवेशी
, अकेले भारत में रहते हैं। लेकिन इसकी तुलना में भारत के पास पूरी दुनिया का केवल 2.3% भूमि क्षेत्र ही अधिकृत है। साथ ही इस छोटे से भू-भाग में, इस पशुधन के साथ दुनिया की 17 प्रतिशत मानव आबादी (भारतीय) भी रहती है। ऐसी स्थिति में इन बेजुबान जानवरों को पेट भरने के लिए पर्याप्त चारा भी नहीं मिल पा रहा है।
पूरे भारत में चारे का उत्पादन बहुत भिन्न होता है, साथ ही इस चारे का उपयोग फसल के पैटर्न, जलवायु, सामाजिक आर्थिक स्थितियों और मवेशियों के प्रकार द्वारा निर्धारित किया जाता है। पालतू मवेशियों को अक्सर खेतों से चारा खिलाया जाता है। किसान कई क्षेत्रों में हाइब्रिड नेपियर, गिनी ग्रास, पारा ग्रास, वेलवेट बीन, स्टाइलो (Hybrid Napier, Guinea Grass, Para Grass, Velvet Bean, Stylo) आदि सहित कई अन्य प्रकार की घास और फलियां उगाते हैं। छोटे किसान, चारे की कमी के दौरान विशेष रूप से, पेड़ के शीर्ष वाले चारे को चुनते हैं।
लेकिन चिंता की बात यह है की, अत्यधिक चराई के कारण खेतों और चरागाहों की उत्पादकता तथा उपलब्धतता भी गिर रही है। परिणाम स्वरूप वर्तमान में भारत में 35.6% हरे चारे और 10.95% सूखे चारे की शुद्ध कमी है। विभिन्न राज्य अलग-अलग तरीकों से कमी से प्रभावित हो रहे हैं। एक तरफ, पंजाब और हरियाणा में जहां कुल कृषि योग्य भूमि के लगभग 8% चारे को समर्पित है, वहां पर चारे की कमी मामूली है, वहीँ बुंदेलखंड जैसे शुष्क क्षेत्रों में यह कमी काफी गंभीर है, क्यों की वहां चारा कृषि योग्य भूमि के 2% से भी कम हिस्से पर उगाया जाता है। यहां पर उपलब्ध चारे की गुणवत्ता भी खराब हैं, जिसमें पर्याप्त ऊर्जा, प्रोटीन और खनिजों की भारी कमी है। इसलिए किसान कम उत्पादकता की भरपाई के लिए पशुओं को विशाल झुंडों में पालते हैं, जिससे चारे और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर भारी दबाव पड़ता है। अनुचित प्रबंधन और इन संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण भूमि और जल संसाधन भी दिन-ब-दिन बिगड़ते जा रहे हैं, जिससे उत्पादकता कम होती है।
चारे के उत्पादन में आनेवाली प्रमुख बाधाओं में जंगली तथा आवारा पशुओं, कीड़ों, कीटों और बीमारियों का हमला, चारे की कीमत, और खराब गुणवत्ता वाले बीज भी शामिल है। चारे की फसल के उच्च गुणवत्ता वाले बीजों की कमी भी दुनिया भर के विकासशील देशों में एक प्रमुख मुद्दा रहा है।
चारा फसलों की मुख्य विशेषताएं:
(i) कम विकास अवधि में उगाई जा सकती हैं।
(ii) उच्च बीज दर के साथ निकट दूरी में भी उगाई जा सकती हैं।
(iii) खरपतवारों को दबाने और मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए घने स्टैंड बन सकते हैं।
(iv) चारे के रूप में उच्च मात्रा में कार्बनिक पदार्थों को मिलाकर मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार किया जा सकता है।
(v) फसल की अवधि को समायोजित किया जा सकता है।
(vi) चारे की उच्च दृढ़ता और पुनर्जनन क्षमता, बार-बार बुवाई और जुताई की आवश्यकता को कम करती है।
चारा फसलों की अच्छी उत्पादकता के लिए, विश्वसनीय आपूर्तिकर्ताओं से अच्छी गुणवत्ता वाले बीजों के साथ-साथ, उपजाऊ भूमि, अच्छी गुणवत्ता वाले सिंचाई के पानी का एक सुनिश्चित स्रोत, उर्वरकों की अधिक मात्रा और नियमित रखरखाव की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही इन फसलों को नियमित रूप से कटाई, दैनिक आधार पर बड़े कार्यबल की भी आवश्यकता होती है।
मल्टीपल क्रॉपिंग (Multiple Cropping) में एक कैलेंडर वर्ष में 3-4 उपयुक्त वार्षिक चारा फसलों को उगाया जाता है, ताकि चारे की गुणवत्ता में सुधार हो सके और प्रति इकाई क्षेत्र में चारा उत्पादकता में वृद्धि हो सके। मल्टीपल क्रॉपिंग लंबे समय तक मिट्टी की उर्वरता को बनाए रखने में भी मदद करती है, क्योंकि इसमें जड़ कार्बनिक पदार्थ शामिल होते हैं।
चारे की उपज बढ़ाने में आनेवाली प्रमुख समस्याएं - समय पर उर्वरक और सिंचाई जैसे कृषि आदानों की अनुपलब्धता, साथ ही चारे की फसलों के लिए खेती योग्य भूमि की सीमित उपलब्धता शामिल हैं। साथ ही कुशल संरक्षण और भंडारण तकनीक का अभाव भी चारे की बर्बादी का प्रमुख कारण बन रहा रहा है।
पिछले कुछ दशकों में दूध उत्पादन में भी नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है, और भारत दुनिया का सबसे बड़ा (2018-19 में 187.7 मिलियन टन) दूध उत्पादक बनने के साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका से भी आगे निकल गया है। दुग्ध उत्पादन में इस वृद्धि को मुख्य रूप से मवेशियों की संख्या में वृद्धि के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है, क्योंकि प्रमुख दुग्ध उत्पादक देशों की तुलना में हमारे पशुधन की उत्पादकता बेहद कम रही है। एक ओर जहां दुनिया भर में और यूरोप में मवेशियों की औसत दुग्ध उपज क्रमशः लगभग 2238 और 4250 किग्रा प्रति दुग्धपान है; वहीँ भारतीय मवेशियों की औसत उपज केवल लगभग 1538 किलोग्राम प्रति दुग्धपान है। मांग और आपूर्ति में व्यापक असमानता के कारण होने वाला कुपोषण हमारे पशुधन की कम उत्पादकता का मुख्य कारण है।
विशेष रूप से गर्मियों के महीनों के दौरान हरे चारे की कमी के कारण, दुग्ध उत्पादन को बनाए रखने के लिए डेयरी किसान अपने पशुओं को अधिक मात्रा में सांद्रण (Concentration) खिला रहे हैं। 2018 में आर्काइव्स ऑफ एनिमल न्यूट्रीशन (Archives of Animal Nutrition) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, 'दुधारू पशुओं की पोषण संबंधी आवश्यकता को पूरा करने के लिए केवल प्रारंभिक स्तनपान अवधि के दौरान ही कंसंट्रेट्स को खिलाने की आवश्यकता होती है।
इसके बजाय हरा चारा ऊर्जा के साथ-साथ विटामिन और खनिज प्रदान करता है, तथा पाचन में भी सुधार करता है। यह पाया गया है कि हरे चारे पर आधारित भोजन प्रणाली को उन्नत करके भी दूध उत्पादन की लागत को बहुत कम किया जा सकता है। चारा फसलों को फलियों के साथ उगाने से भी चारे की स्वादिष्टता और पाचन शक्ति में सुधार की संभावना होती है। चारा फसलों की गैर-व्यावसायिक प्रकृति के कारण किसान भी चारे के उत्पादन में बहुत रुचि नहीं रखते हैं। बहुधा निम्नीकृत और सीमांत भूमि का उपयोग न्यूनतम उर्वरक, पानी और मानव संसाधन निवेश के साथ चारा उत्पादन के लिए किया जाता है। इसलिए, कृषि पशुओं की कम उत्पादकता और हरे चारे की मांग तथा आपूर्ति में भारी अंतर को देखते हुए, भारत में चारा उत्पादन बढ़ाकर पशुधन क्षेत्र में एक बड़ा सुधार किया जा सकता है।
संदर्भ
https://bit.ly/3tRR3xa
https://bit.ly/3ETxsDa
चित्र संदर्भ
1. घास चरती गायों को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. चारे के लदान को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
3. झुण्ड में गायों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. मल्टीपल क्रॉपिंग को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. दूध डेयरी को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
6. घास के साथ महिला को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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