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भारत में वन जनजातियों की अपनी परंपरा, सांस्कृतिक विरासत और लोककथाएं हैं। वे अनादिकाल से इस देश में रह रहे हैं और प्रकृति के साथ सद्भाव में भी जीवन व्यतीत कर रह रहे हैं। भारत में, जनजातीय लोगों का जीवन और अर्थव्यवस्था वनों से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है। भारत में अधिकांश आदिवासी आबादी वास्तव में जंगलों के अंदर निवास करती है और उनके द्वारा मुख्य रूप से एकत्र की गई वन उपज, खाद्य जड़ों और कंदों और छोटे जानवरों का शिकार करके अपना जीवन यापन किया जाता है। ये आदिम शिकार और एकत्रित जनजातीय समुदाय जो संख्या में बहुत छोटे हैं, ज्यादातर ओडिशा, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और पूर्वोत्तर राज्यों में रहते हैं।
डब्ल्यू.एस. पेरी (W.S Perry) के अनुसार, जनजातीय समुदाय एक सामान्य समूह है जो एक सामान्य भाषा या बोली बोलते हैं और सामान्य क्षेत्र में निवास करते हैं।शब्द "आदिवासी" (मूल निवासी) भारत के स्वदेशी लोगों को संदर्भित करता है, जिनके पास विशिष्ट पहचान और संस्कृतियां होती हैं जो अक्सर कुछ क्षेत्रों से जुड़ी होती हैं। यह शब्द हिंदी शब्द "आदि" से लिया गया है जिसका अर्थ है "प्रारंभिक समय का" या "शुरुआत से" और "वासी" का अर्थ “निवासी” है, और इसे 1930 के दशक में गढ़ा गया था।
भारत के जंगलों में रह रहे जनजातियाँ समुदाय आमतौर पर शांतिप्रिय जीवन व्यतीत करते हैं। वनों ने भारत के जनजातीय लोगों के सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आदिवासी समुदाय और उनके आवास हमारे देश के बहुत महत्वपूर्ण हिस्से हैं।आदिवासी लोग देश की कुल आबादी का 8.2 प्रतिशत हैं और 2001 की जनगणना (जनजातीय मामलों के मंत्रालय 2012) के अनुसार यह 84 मिलियन से अधिक है। पूर्वोत्तर राज्यों अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड में, राज्य की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी आदिवासी है। हालांकि, असम, मणिपुर, सिक्किम और त्रिपुरा के शेष पूर्वोत्तर राज्यों में, जनजातीय लोगों की आबादी 20 से 30 प्रतिशत के बीच है। जनजातीय समुदायों के विश्वास प्रणालियों के साथ-साथ धार्मिक प्रथाओं में विविधता और जटिलता भी मौजूद है।
वन जनजातियों का अस्तित्व महुआ के फूल, साल के बीज, साल और तेंदू के पत्ते, खाद्य जड़ों, कंद, बांस और जंगली फलों आदि जैसे लघु वन उत्पादों पर निर्भर है।ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड में 80 प्रतिशत आदिवासी अपने भोजन का 25-50 प्रतिशत वनों से एकत्र करते हैं। इस प्रकार बिरहोर, कोरवा, पहाड़िया, असुर, बिरजिया, चेंचू, कादर, पलियान आदि आदिवासी समुदायों के शिकार और संग्रहण के लिए लघु वनोपज उनके जीवित रहने का प्रमुख सहारा है।भारत के उत्तरपूर्वी राज्यों में रहने वाली कई मंगोलियाई जनजातियाँ, जैसे नागा-कुकी जनजातियाँ वन क्षेत्र के भीतर झूम खेती (स्थानांतरण कृषि) का अभ्यास करके अपना जीवन यापन करते हैं।
भारत में ब्रिटिश शासन के आगमन से पहले, वनवासी और अन्य स्वदेशी समुदायों द्वारा अपनी आजीविका के लिए वनों या वन संसाधनों का मनइच्छा उपयोग कर काफी आनंद लिया जाता था। लेकिन जैसे ही ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा वनों के व्यावसायिक मूल्य को महसूस किया गया और राजस्व बढ़ाने के लिए उनका उपयोग करना शुरू किया गया, इस प्रक्रिया के दौरान उन्होंने वनवासियों और अन्य स्वदेशी लोगों के जंगलों पर अधिकारों को विनियमित करने की कोशिश की । वहीं हाल की वन नीतियों ने भारत में वनों पर अधिक प्रभाव डाला है। आधुनिक संस्कृति और बदलती आर्थिक स्थिति ने जनजातीय जीवन में एक अलग तरह का परिदृश्य बना दिया है।
स्वदेशी मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र स्थायी फोरम (United Nations Permanent Forum on Indigenous Issues) द्वारा बताया गया कि लगभग 300 से 370 मिलियन लोग दुनिया के स्वदेशी / आदिवासी समूहों से संबंधित हैं। स्वदेशी / आदिवासी लोगों द्वारा उपयोग की जाने वाली लगभग 4,000 भाषाएँ मौजूद हैं। वहीं इंटरनेशनल फंड फॉर एग्रीकल्चर डेवलपमेंट (International Fund for Agricultural Development)ने बताया कि 70 से अधिक देशों में स्वदेशी लोगों के 5,000 से अधिक विभिन्न समूह रहते हैं। विश्व के प्रत्येक क्षेत्र में स्वदेशी लोग रहते हैं, लेकिन उनमें से लगभग 70 प्रतिशत एशिया (Asia) में केंद्रित हैं। दो शताब्दियों पहले, स्वदेशी लोग दुनिया के अधिकांश हिस्सों में पाए जा सकते थे। हालाँकि, वर्तमान समय में, उनके पास ग्रह की लगभग छह प्रतिशत भूमि का उपयोग करने का कानूनी अधिकार है और कई मामलों में उनके अधिकार आंशिक या अयोग्य भी हैं।
लेकिन वर्तमान समय में भारत के कई स्वदेशी लोगों को जंगल यानि अपने निवास स्थान को छोड़ने पर मजबूर होना पड़ रहा है। जहां उत्तरी भारत में खानाबदोश वन गुर्जर, जंगल में रहने से भयभीत हो गए हैं, वहीं उनके रिश्तेदार जिन्हें शहरों में बसा दिया गया, वह रिश्तेदार वहां समायोजित होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जंगलों के संरक्षण का दावा देकर वन गुर्जरों का विस्थापन किया गया, जो एक समय में खुले प्रकृति की गोद में रह कर अपना जीवन व्यतीत करते थे, उन्हें अब एक सीमित स्थान तक बांध कर रख दिया गया है। वन अधिकारियों के मुताबिक वन गुर्जर के मवेशियों द्वारा अत्यधिक चरने के कारण वनों को काफी नुकसान होता है। वहीं वन गुर्जरों की माने तो मानवीय गतिविधियों के कारण वनों में कई बदलाव आने लगे हैं, जिस वजह से उनका वनों में रहना काफी मुश्किल होता जा रहा है। जलवायु परिवर्तन के कारण नदियों के पानी का स्तर काफी कम-सा हो गया है।
जिस वजह से उन्हें अब पानी के लिए काफी दूर तक जाना पड़ता है। साथ ही प्रकृति में बदलाव के कारण उनके मवेशियों के लिए अब मौजूदा संसाधनों में भी काफी कमी आने लगी हैं। भैंसों को चराने का उनका पुराना तरीका अब चलन में नहीं है। वे मौसम के साथ जंगल में स्थान बदलकर मवेशी चराते थे, जो कि अब संभव नहीं है। क्योंकि भूमि के कानूनी अधिकारों के बावजूद उन्हें उत्पीड़न सहना पड़ता है, हालांकि वन गुर्जर को अधिकार है कि वन क्षेत्र, संरक्षित क्षेत्र में अपने मवेशियों को चरा सकें। कानून में यह स्पष्ट किया गया है कि उन समुदायों को जो पारंपरिक तौर पर घूम-घूमकर चरवाही करते रहे हैं, उन्हें चरवाही के मौसम में यह अधिकार मिलता रहेगा। लेकिन वास्तविकता यह है कि इन्हें इसकी इजाजत नहीं दी जाती है। वे बताते हैं कि मवेशियों को चराने के लिए वन विभाग के अधिकारियों द्वारा उनसे पैसे मांगे जाते हैं। यदि वे मना करते हैं तो उनके द्वारा उन्हें काफी परेशान भी किया जाता है, जिस वजह से वे भी सरकार द्वारा शहर में बसाए जाने का इंतजार कर रहे हैं।
संदर्भ :-
https://bit.ly/3hV1LQS
https://bit.ly/3AsLJUy
चित्र संदर्भ
1. जंगल में अपने बच्चे के साथ खड़ी महिला को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. एक जनजातीय समुदाय दर्शाता एक चित्रण (flickr)
3. आदिवासी बच्चों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. पहाड़ी चरवाहों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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