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जौनपुर की सड़कों का पहले से ही हाल काफी खराब है, लेकिन बरसात होने के बाद स्थिति ज्यादा
खराब हो चुकी है। जिसको देखते हुए शासन द्वारा जौनपुर में अन्तर्ग्रथन, नाला निर्माण और सड़कों
की मरम्मत तथा खुले मैनहोल (Manholes) को आवृत करने का कार्य करवाए जाने पर विचार किया
जा रहा है।इन मरम्मत और उन्नयन पर नगर पालिका 85 लाख रुपये खर्च करने की योजना बना
रहे हैं। इसके लिए टेंडर (Tender) पहले से ही चल रहा है। कई मोहल्लों में जल निकासी की व्यवस्था
नहीं होने के कारण थोड़ी सी भी बारिश से भी सड़कें जलमग्न हो जाती हैं तथा बारिश का पानी लोगों
के घरों में भी घुसने लग जाता है।
मिनोअन (Minoan), सिंधु, फारसी (Persian) और मेसोपोटामिया (Mesopotamia) की सभ्यताओं
सहित 5,000 साल से अधिक पुराने प्राचीन शहरों में जल निकासी प्रणाली को देखा गया है। ये जल
निकासी प्रणाली ज्यादातर स्थानीय बाढ़ और अपशिष्ट जल से होने वाले उपद्रव को कम करने पर
केंद्रित थीं। वहीं ईंट या पत्थर की नालियों से बनी अल्पविकसित प्रणालियाँ सदियों से शहरी जल
निकासी प्रौद्योगिकियों की सीमा का गठन करती रहीं। प्राचीन रोम (Rome) के शहरों द्वारा निचले
इलाकों को अतिरिक्त वर्षा से बचाने के लिए जल निकासी व्यवस्था का इस्तेमाल किया था। जब
निर्माणकर्ताओं ने शहरों में ताजा पानी आयात करने के लिए कृत्रिम जल प्रणाली का निर्माण शुरू
किया, तो शहरी जल निकासी प्रणाली पहली बार एकीकृत शहरी जल चक्र के रूप में जल आपूर्ति
बुनियादी ढांचे में एकीकृत हो गई।
पश्चिमी यूरोप में 19वीं शताब्दी तक आधुनिक जल निकासी प्रणालियां दिखाई नहीं दीं, हालांकि इनमें
से अधिकांश प्रणालियां मुख्य रूप से तेजी से शहरीकरण से उठने वाले मल के मुद्दों से निपटने के
लिए बनाई गई थीं।ऐसा ही एक उदाहरण लंदन सीवरेज सिस्टम (London sewerage system) का है,
जिसका निर्माण टेम्स (Thames) नदी के बड़े पैमाने पर प्रदूषण से निपटने के लिए किया गया था।उस
समय, टेम्स नदी लंदन की जल निकासी व्यवस्था का प्राथमिक घटक था, जिसमें मानव अपशिष्ट
घनी आबादी वाले शहरी केंद्र के आस-पास के पानी में केंद्रित हुआ करता था। नतीजतन, कई
महामारियों ने लंदन के निवासियों और यहां तक कि संसद के सदस्यों को त्रस्त कर दिया, जिसमें
1854 ब्रॉड स्ट्रीट हैजा (Broad Street cholera) के प्रकोप और 1858 के ग्रेट स्टिंक (Great Stink) के रूप
में जानी जाने वाली घटनाएं शामिल थीं।
सार्वजनिक स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता की चिंता ने कई पहल शुरू की, जिसके कारण अंततः
लंदन की आधुनिक सीवरेज प्रणाली का निर्माण हुआ, जिसे जोसेफ बाज़लगेट (Joseph Bazalgette)
द्वारा डिज़ाइन किया गया था। इस नई प्रणाली का स्पष्ट रूप से उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि
जलजनित रोगजनकों के खतरे को कम करने के लिए अपशिष्ट जल को जल आपूर्ति स्रोतों से
यथासंभव दूर पुनर्निर्देशित किया जाए। तब से, अधिकांश शहरी जल निकासी प्रणालियों ने सार्वजनिक
स्वास्थ्य संकटों को रोकने के समान लक्ष्यों को बनाए रखा है।
पिछले दशकों के भीतर, जैसा कि जलवायु परिवर्तन और शहरी बाढ़ तेजी से एक गंभीर चुनौतियों का
रूप ले रही हैं, विशेष रूप से पर्यावरणीय स्थिरता के लिए डिज़ाइन की गई जल निकासी प्रणाली
शैक्षणिक और अभ्यास दोनों में अधिक लोकप्रिय हो गई है। साथ ही पारंपरिक शहरी जल निकासी
प्रणाली विभिन्न कारकों से सीमित होती है, जिसमें मात्रा क्षमता, मलबे से क्षति या रुकावट और पीने
के पानी का संदूषण शामिल है। इनमें से कई मुद्दों को पारंपरिक जल निकासी प्रणालियों को पूरी
तरह से दरकिनार करके और जितनी जल्दी हो सके प्राकृतिक जल स्रोतों या धाराओं में वर्षा जल
लौटाकर एसयूडीएस (Sustainable Drainage Systems)(SuDS) प्रणाली द्वारा संबोधित किया
जाता है। वहीं बढ़ते शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के कारण अचानक हुई बारिश के बाद आने
वाली अचानक बाढ़ की समस्या भी काफी अधिक बढ़ गई है। चूंकि वनस्पति के क्षेत्रों को बजरी,
डामर, या छत वाली संरचनाओं द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है, इससे अभेद्य सतह उत्पन्न होते
हैं और वे क्षेत्र बारिश के पानी को अवशोषित करने की अपनी क्षमता को खो देते हैं। और उस बारिश
के पानी को सतही जल निकासी प्रणालियों में छोड़ दिया जाता है, जिससे वर्षा का जल उस जल
निकासी प्रणाली को अक्सर अधिभारित कर देता है, जो बाढ़ का कारण बन जाता है।
इसलिए सभी स्थायी जल निकासी प्रणालियों का लक्ष्य किसी दिए गए स्थल के जल स्रोतों को दुबारा
भरने के लिए वर्षा का उपयोग करना होता है। ये जल स्रोत अक्सर जल तालिका, आस-पास की
धाराओं, झीलों, या अन्य समान मीठे पानी के स्रोतों के नीचे होते हैं।उदाहरण के लिए, यदि कोई
स्थल एक समेकित जलभृत के ऊपर है, तो एसयूडीएस का लक्ष्य सतह की परत पर गिरने वाली
सभी वर्षा को जितनी जल्दी हो सके भूमिगत जलभृत में छोड़ना होता है। इसे पूरा करने के लिए,
एसयूडीएस यह सुनिश्चित करने के लिए पारगम्य परतों के विभिन्न रूपों का उपयोग करता है ताकि
पानी किसी अन्य स्थान पर पुनर्निर्देशित न हो सकें। अक्सर इन परतों में मिट्टी और वनस्पति का
उपयोग किया जाता है, लेकिन वे कोई कृत्रिम सामग्री भी हो सकते हैं। एसयूडीएस समाधानों की
रूपावाली प्रबंधन में आसान होनी चाहिए, जिसमें कम या कोई ऊर्जा की आवश्यकता न हो
(पर्यावरणीय स्रोतों जैसे सूरज की रोशनी, आदि को छोड़कर), उपयोग करने के लिए लचीला, और
पर्यावरण के साथ-साथ सौंदर्य की दृष्टि से आकर्षक हो। इस प्रकार की प्रणाली के उदाहरण हैं
जलाशय (उथले भू-दृश्य गड्ढे जो अधिकांश समय सूखे रहते हैं जब तक बारिश नहीं होती है),वर्षा
उद्यान (झाड़ी या जड़ी-बूटियों के रोपण के साथ उथले परिदृश्य गड्ढे), स्वेल्स (Swales - उथले
सामान्य रूप से सूखे, चौड़ी खाई), फिल्टर (Filter) नाली (बजरी से भरी खाई की नाली), और अन्य
आर्द्रभूमि आवास जो वन्यजीवों के लिए आवास प्रदान करने के साथ-साथ गंदे पानी को इकट्ठा,
संग्रहीत और फिल्टर करते हैं।
वहीं भारत में बरसात पर जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्रभाव कृषि पर भारी जोखिम डाल रहा है,
और यह भविष्य के लिए भी खतरा बना हुआ है, जिस वजह से यह भारत को और भी अधिक
असुरक्षित बना रहा है। तथा भारत की जनसंख्या जल आपूर्ति में परिवर्तन और अपशिष्ट जल की
समस्याओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। क्योंकि देश की 60% से अधिक आबादी आजीविका के
लिए कृषि पर निर्भर है और लगभग दो-तिहाई खेती योग्य भूमि वर्षा पर निर्भर है। इसके ऊपर से
सरकार द्वारा 'स्मार्ट सिटी मिशन' और 'मेक इन इंडिया' अभियान जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रम शुरू
किए हैं जिनकी पानी और पर्यावरण की दिशा से देखते हुए समीक्षा करने की आवश्यकता है। वर्तमान
में हम सैकड़ों किलोमीटर से पानी का परिवहन कर अधिकांश शहरों की मांगों को पूरा कर रहे हैं। यह
अक्षम और ऊर्जा गहन दोनों है। इस प्रकार स्थायी जल प्रबंधन के लिए स्थानीय स्तर का समाधान
आवश्यक है। जल सुरक्षा प्राप्त करने के लिए उपचारित अपशिष्ट जल के पुन: उपयोग जैसी प्रथाएं
अत्यधिक महत्व की होंगी। वहीं लगभग 80% जल आपूर्ति अपशिष्ट जल के रूप में पारिस्थितिकी
तंत्र में वापस प्रवाहित कर दी जाती है।यदि इसका ठीक से उपचारण न किया जाए तो यह एक गंभीर
पर्यावरणीय और स्वास्थ्य के लिए खतरा बन सकता है, लेकिन इसका उचित प्रबंधन जल प्रबंधकों को
शहर की पानी की मांग को पूरा करने में मदद कर सकता है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 2015 के विवरण के अनुसार, वर्तमान में, भारत में लगभग 61,754
मिलियन लीटर प्रति दिन के दैनिक मल उत्पादन के मुकाबले अपने अपशिष्ट जल का लगभग 37%,
या 22,963 मिलियन लीटर प्रति दिन का उपचार करने की क्षमता है।इसके अलावा, अधिकांश मल
उपचार संयंत्र अधिकतम क्षमता पर कार्य नहीं करते हैं और निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं हैं।शहरों
में, उद्योग और वाणिज्यिक क्षेत्र पानी के लिए उच्च शुल्क का भुगतान करते हैं, लेकिन उनके पास
आपूर्ति का आश्वासन मौजूद नहीं है।
पानी की कमी से कोयला कंपनी के राजस्व को खतरा होता है,
2016 के पहले पांच महीनों में ताप विद्युत संयंत्रों में ठंडा करने के लिए पानी की कमी के कारण
24 अरब रुपये के अनुमानित संभावित राजस्व के साथ लगभग 7 बिलियन यूनिट कोयला बिजली
का नुकसान हुआ। जल आपूर्ति में वृद्धि के अलावा, अपशिष्ट जल उपचार ऊर्जा और उर्वरक वसूली
के लिए नए आर्थिक अवसर प्रदान करता है।इसलिए अंतर्निहित सामाजिक, राजनीतिक, तकनीकी और
वित्तीय कारकों को समझना महत्वपूर्ण है जो भारत में अपशिष्ट जल प्रबंधन के हस्तक्षेप को बढ़ावा
देंगे, सुविधा प्रदान करेंगे और बनाए रखेंगे।
संदर्भ :-
https://bit.ly/3S1sPuy
https://bit.ly/3eDxELT
https://bit.ly/3eF3kRb
चित्र संदर्भ
1. सड़क में यात्रियों को हो रही असुविधा को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. लोथल में जल निकासी व्यवस्था को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3. अपशिष्ट जल को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. आदर्श जल निकासी व्यवस्था को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
5. जलमग्न सड़क को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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