जौनपुर का योगदान भारत के प्रथम स्वतंत्रता की लड़ाई में महत्वपूर्ण था इसका उदाहरण उस वक्त के लिखे पुस्तकों व आज भी जौनपुर के गावों से मिल जाती है। वाकया है कि जब बनारस में 1857 की क्रान्ति अपना विकराल रूप ले रही थी उस वक्त बनारस से निकले सारे सिपाही मंजिल-दर-मंजिल जौनपुर बढते आ रहे थें यह समाचार सुनते ही जौनपुर में अंग्रेजों ने सिख टुकड़ी को राजनिष्ठा पर व्याख्यान देना चाहा पर अब बहुत देर हो चुकी थी। जौनपुर में थोड़े ही सिख सिपाही थे वे सब बनारस की सिख रेजीमेंट से थे जैसे की सिखों ने बनारस में क्रान्ती का बिगुल फूँका था तो जौनपुर के सिख सिपाही विद्रोहियों से मिल गयें और सारा जौनपुर विद्रोह की ज्वाला में जलने लगा। यह सब देखकर ज्वाइंट मजिस्ट्रेट क्युपेज फिर से एक बार सभी को राजनिष्ठा का पाठ पढाने के लिये खड़ा हुआ पर क्रान्ति अपने चरम पर थी और समर बिगुल भी बज गया था। अब इन मस्तानों को रोकने वाला कौन था? जैसे ही राजनिष्ठा का वाचन करने हेतु ज्वाइंट मजिस्ट्रेट साहेब उठें वैसे ही एक गोली उनके कलेजे को भेदते हुये निकली और क्युपेज साहब जमीन पर मृत पड़े हुये थे। कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेन्ट मारा भी गोली लग कर गिरा। यह देखते ही विद्रोहियों ने खजाने पर हमला कर दिया और युरोपियनों को जौनपुर छोड़ देने का आदेश दिया। अब तक बनारस के घुड़सवार भी जौनपुर में आ चुके थे। एक-एक युरोपियन को चुन-चुन के मारने की कठोर प्रतिज्ञां ली गयी। कलेक्टर से लेकर सभी युरोपीय जौनपुर से इस प्रकार भाग रहे थे जैसे की उनको जीव दान मिला हो। युरोपीय जौनपुर से बनारस जाने के लिये नौकायें की लेकिन मल्लाहों ने भी उन्हे लूट कर उनको आधे रास्ते पर छोड़ दिया। जौनपुर में हर स्थान पर दीन-दीन का नारा लगने लगा सारा शहर सड़क पर था युरोपियों के घरों को आग लगा दिया गया और चारो तरफ मात्र रक्त ही रक्त फैला था मानो काली यहाँ की सड़कों पर ताँडव कर के गयी थीं। यहाँ से विद्रोही अवध की तरफ निकले सबने दिल्ली के बादशाह का आभार व्यक्त किया। इस तरह 3 जून को आजमगढ, 4 जून बनारस और 5 जून को जौनपुर के उठते ही बनारस का सारा प्रान्त क्रान्ति की रणभेरी बजा चुका था। जो जौनपुर अंग्रेजों के लिये सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी साबित हो रही थी जिससे प्राप्त होने वाले धन व वैभव के बारे में विभिन्न अंग्रेज अपनी यात्रा वृत्तों व किताबों में लिखे थे आज वही जौनपुर अपनी आजादी को उठ खड़ा हुआ था। जौनपुर के कई विर सपूतों को इस क्रान्ती में अपनी जान देनी पड़ी जिसमें माता बदल चौहान व अन्य कई जिनकों अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था। जौनपुर के गाँवों ने भी इस क्रान्ति में अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया जैसे नेवढिया गांव के संग्राम सिंह ने अंग्रेजो को अनेक बार परास्त किया और इस क्रान्ति में एक प्रमुख भुमिका निभाई। बदलापुर के जमींदार बाबू सल्तनत बहादुर सिंह को अंग्रेज झुका न सकें। सल्तनत बहादुर सिंह के पुत्र संग्राम सिंह ने अनेक बार अंग्रेजों से लोहा लिया। बाद में अंग्रेजो ने उन्हे पेड़ में बांध कर गोली मार दी। अमर सिंह ने अपने चार पुत्रों के साथ करंजा के नील गोदाम पर धावा बोल कर उसको लूट लिया। अंग्रेजों ने उनके गांव आदमपुर पर चढ़ाई की जिसमें वे छल पूर्वक मारे गये। वाराणसी, डोभी, आजमगढ़ मार्ग पर डोभी के लोगों ने अंग्रेजों और उनके साथ देने वालों से कड़ा मुकाबला किया। डोभी में विद्रोहियों ने पेशवा के नील गोदाम के अंग्रेजो को मौत के घाट उतार दिया। सेनापुर नामक गांव को अर्ध रात्रि को सोते समय अंग्रेजो ने घेर कर 23 लोगों को आम के पेड़ में लटका कर फासी दे दी। हरिपाल सिंह, भीखा सिंह और जगत सिंह आदि पर अंग्रेजो ने मुकदमा चलाने का नाटक करके फासी की सजा दे दी। रामसुन्दर पाठक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में बहादुरी के लिए जाने जाते है। ऐसा माना जाता है कि 1857 के आजादी के प्रथम लड़ाई में में जौनपुर के लगभग दस हजार लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी। कालांतर में अंग्रेजों ने गुरखा सेना बुलाकर जौनपुर में अपनी सत्ता को बनाने में सफलता प्राप्त की, परन्तु 1857 की उस क्रान्ति ने पूरे जौनपुर को एक सूत्र में बाँध दिया था क्या जाति क्या धर्म सभी मातृभूमि की आजादी के लिये अपने प्राणों की आहुति देने को तैयार थें। 1. हिस्ट्री ऑफ द इंडियन म्युटनी ऑफ 1857-58, वाल्यूम 6, कर्नल जॉर्ज ब्रूस मालेसन 2. 1857 का स्वतंत्रता समर, विनायक दामोदर सावरकर
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