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मनुष्य की तीन मौलिक आवश्यकताओं में रोटी, कपड़ा और मकान शामिल हैं। देश की लगातार बढ़ती हुई जनसंख्या तीसरी
आवश्यकता को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर रही है। अधिक जनसंख्या के कारण संसाधनों की अधिक खपत होती है और ऐसा ही
चलता रहा तो आने वाली पीढ़ी के लिए रहने लायक उपयुक्त भूमि का अभाव होने की संभावना है। इस समस्या के समाधान हेतु
केंद्रीय सरकार समय-समय पर विभिन्न योजनाएँ लागू करती रहती है। ताकि सभी उच्च और निम्न आय वाले व्यक्तियों को
आवश्यकतानुसार भूमि उपलब्ध कराई जा सके। 1960 के दशक में भारत के 21 राज्यों द्वारा भारत में मौजूद भूमि स्वामित्व की
असमानता को दूर करने के लिए भूमि सुधार कानून बनाया गया। इस कानून के अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति या निगम द्वारा अधिग्रहितभूमि की एक निश्चित सीमा निर्धारित की गई। जिसे भूमि सीलिंग (Land Ceiling) के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा यह
कानून सरकार को यह अधिकार भी देता है कि वह अतिरिक्त भूमि का पुनर्वितरण भूमिहीनों को कर सके।
वर्ष 2013 में राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति के तहत राज्यों को भूमि की सीमा को कम करने का आदेश दिया गया। ताकि अधिशेष
भूमि को भूमिहीन गरीबों में वितरित किया जा सके। किंतु यह नीति सफल नहीं हो पाई। इसका कारण यह था कि क्योंकि यह
राज्य भूमि का विषय था इसलिए राज्य सरकारें केंद्र सरकार के आदेशों को मानने के लिए बाध्य नहीं थी। 2014 से पहले तक
केवल 3 राज्यों ने ही अपने अधिनियम में संशोधन किया था। वर्ष 2009 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना ने उद्योगों को अधिकतम
भूमि की बिक्री की अनुमति प्रदान की है। इसके बाद वर्ष 2010 में राजस्थान ने किसी भी व्यक्ति को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए
अधिशेष भूमि सहित कृषि भूमि का अधिग्रहण करने की अनुमति प्रदान की। वर्ष 2011 में हरियाणा ने भी शहरी और औद्योगिक
क्षेत्रों में गैर-कृषि भूमि के स्वामित्व की सीमा को हटाने के उद्देश्य से अपने भूमि अधिग्रहण पर सीलिंग अधिनियम 1972, में
संशोधन किया। वर्ष 2014 के बाद इन संशोधनों की गति तीव्र होती चली गई। इन संशोधनों का उद्देश्य भूमि को गैर कृषि कार्यों
और उद्योगों के लिए इस्तेमाल करना था। वर्ष 2011-2020 में 11 राज्यों द्वारा दशकों पुराने भूमि सुधार कानूनों में संशोधन
किया गया। इस राज्य भूमि सीमा कानूनों में हुए संशोधन को निम्नलिखित तालिका के माध्यम से समझा जा सकता है:
राज्य भूमि सीमा कानूनों में संशोधन, 2011-2020
यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में कृषि भूमि सीमा कानून किसानों के हित में नहीं है। इसके अलावा यह कृषि क्षेत्र मेंनिवेश को भी बाधित करते हैं। वर्ष 2013 में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की पहल पर बनाए गये राष्ट्रीय कार्यबल ने राष्ट्रीय
भूमि सुधार नीति का ड्राफ्ट (Draft) तैयार करने में सहायता की, जिसमें राज्यों को कृषि भूमि की गुणवत्ता और उत्पादकता के
आधार पर 5 से 15 एकड़ की एक समान सीमा तय करने का सुझाव दिया गया। इसके अतिरिक्त, राज्य सरकारों से सिफारिश की
कि भूमिहीनों को भूमि आवंटित करने के लिए व्यापक नीतियाँ तैयार करें। तमिलनाडु के उपजाऊ कावेरी डेल्टा क्षेत्र में, कई
जमींदारों ने अवैध रूप से अपनी अधिशेष भूमि को दलितों को वितरित करने के लिए सरकार को सौंपने के बजाय निजी पार्टियों
को बेच दिया। ऐसा ही मामले कई अन्य राज्यों में भी देखे गए। यदि ऐसा ही चलता रहा तो कृषि के लिए भूमि का एक छोटा सा
हिस्सा ही रह जाएगा। जो कि पूरे देश के लिए एक चिंता का विषय है। इसके अलावा जब भी उद्योग स्थापित किए जाते हैं तो
आमतौर पर वहाँ गैर-स्थानीय और कुशल लोगों को ही रोजगार प्रदान किया जाता है। स्थानीय गरीब तबके के लोगों को या तो
काम पर नहीं रखा जाता है या बहुत कम वेतन पर शारीरिक मजदूरी के कार्य में लगा दिया जाता है। इस असमानता को दूर
करने के लिए कुछ विशेष और ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3JNh0F6
https://bit.ly/3bWhqfQ
चित्र संदर्भ
1. अपने खेत को सींचती महिला किसान को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
2. अपने खेत में खड़े भावुक किसान को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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