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शिक्षा ने इस्लाम में धर्म की शुरुआत से ही एक केंद्रीय भूमिका निभाई है! इस्लामी शिक्षा के
उद्देश्य विविध थे, तथा धर्म के साथ वे घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे। इस्लाम में शिक्षा प्राप्त करना
और देना हमेशा से ही एक धार्मिक कर्तव्य माना जाता था। शिक्षा से संबंधित अन्य शासकों की
तुलना में मुग़ल सम्राटों अकबर और औरंगजेब के उद्देश्य भी काफी भिन्न थे। जहाँ अकबर का
उद्देश्य शिक्षा की एक नई प्रणाली के कार्यान्वयन के माध्यम से राष्ट्र को संगठित करना था, वहीं
इसके विपरीत औरंगजेब का एकमात्र उद्देश्य हिंदू संस्कृति और शिक्षा को नष्ट करके, इस्लामी
शिक्षा और संस्कृति का प्रसार करना था।
आधुनिक युग से पूर्व, इस्लाम में शिक्षा कम उम्र में ही अरबी और कुरान के अध्ययन के साथ शुरू
हो जाती थी। इस्लाम की पहली कुछ शताब्दियों में शैक्षिक व्यवस्था पूरी तरह से अनौपचारिक थीं,
लेकिन 11 वीं और 12 वीं शताब्दी की शुरुआत से, शासक अभिजात वर्ग ने उलेमा (धार्मिक) के
समर्थन और सहयोग को सुरक्षित करने के प्रयास में उच्च धार्मिक शिक्षण संस्थान अर्थात मदरसों
को स्थापित करना शुरू कर दिया।
जल्द ही इस्लामी दुनिया में मदरसों की संख्या काफी बढ़ गई,
जिससे इस्लामी शिक्षा को शहरी केंद्रों से परे फैलाने तथा एक साझा सांस्कृतिक परियोजना में
विविध इस्लामी समुदायों को एकजुट करने में मदद मिली। मदरसे मुख्य रूप से इस्लामी कानून
के अध्ययन के लिए समर्पित होते थे, लेकिन उन्होंने धर्मशास्त्र, चिकित्सा और गणित जैसे अन्य
विषयों पर भी विशेष ध्यान दिया! मुसलमानों ने ऐतिहासिक रूप से पूर्व-इस्लामी सभ्यताओं, जैसे
दर्शन और चिकित्सा से विरासत में प्राप्त विषयों को प्रतिष्ठित किया, जिसे उन्होंने इस्लामी
धार्मिक विज्ञानों से "पूर्वजों के विज्ञान" या "तर्कसंगत विज्ञान" कहकर संबोधित किया।
अरबी में शिक्षा के लिए तीन शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इनमें सबसे आम शब्द “तालीम” है,
मूल 'अलीमा' से लिया गया है, जिसका अर्थ जानना, जागरूक होना, समझना और सीखना होता है।
शिक्षा के लिए दूसरा शब्द “तरबियाह” है, जिसका अर्थ ईश्वर की इच्छा के आधार पर आध्यात्मिक
और नैतिक विकास होता है! तीसरा शब्द “अडूबा” है, जिसका अर्थ सुसंस्कृत होना या सामाजिक
व्यवहार में सटीक होना होता है।
धर्मग्रंथ की केंद्रीयता और इस्लामी परंपरा में इसके अध्ययन ने इस्लाम के इतिहास में शिक्षा को
लगभग हर समय और स्थानों पर धर्म का एक केंद्रीय स्तंभ बनाने में मदद की। इस्लामी परंपरा में
सीखने का महत्व मुहम्मद को समर्पित कई हदीसों में परिलक्षित होता है।
ग्यारहवीं शताब्दी में भारत पर मुस्लिम आक्रमण ने न केवल देश के सामाजिक और राजनीतिक
जीवन में, बल्कि शिक्षा और सीखने के क्षेत्र में भी बड़े परिवर्तनों की शुरुआत की। मध्ययुगीन काल
में शिक्षा को सामाजिक कर्तव्य या राज्य का कार्य नहीं माना जाता था, तब यह केवल एक
व्यक्तिगत या पारिवारिक दायरे में ही सीमित थी। उच्च मुस्लिम शिक्षा अरबी और फारसी के
माध्यम से दी जाती थी। दरबार की भाषा होने के कारण फारसी भाषा का सम्मानजनक स्थान बना
रहा।
शिक्षा की मांग मुख्य रूप से उस अल्पसंख्यक आबादी तक ही सीमित थी, जिसने इस्लाम धर्म को
अपनाया था। चूंकि फारसी राजभाषा थी, इसलिए उस भाषा में शिक्षा की मांग काफी बढ़ गई।
लेकिन राज्य के धर्म तथा भाषा में बदलाव के कारण हिंदी सीखने की मांग में काफी कमी आ गई।
इस्लामी शिक्षा के उद्देश्य विविध थे, और धर्म के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे। शिक्षा प्राप्त
करना और देना एक धार्मिक कर्तव्य माना जाता था। शिक्षा के उद्देश्य विभिन्न शासकों के साथ
भिन्न-भिन्न रहे थे। इस्लामी शिक्षा का अन्य मुख्य उद्देश्य ज्ञान का प्रकाश फैलाना था। पैगंबर
के आदेशों में वर्णित है की "पाले से कब्र तक ज्ञान की तलाश करें" और "ज्ञान प्राप्त करें, भले ही वह
चीन में ही क्यों न हो"। "ज्ञान अमृत है और इसके बिना मोक्ष असंभव है।" उन्होंने ज्ञान के
अधिग्रहण को सर्वोच्च महत्व दिया। पैगंबर मोहम्मद ने लोगों को उपदेश दिया कि आवश्यक
कर्तव्य और गलत कार्य, धर्म तथा अधर्म के बीच का अंतर केवल ज्ञान के द्वारा ही पूरा किया जा
सकता है! इसलिए मुसलमानों ने हमेशा शिक्षा और विद्वता को उच्च सम्मान दिया है, तथा अपने
विद्वानों और विद्वान पुरुषों के प्रति सम्मान दिखाया है।
इस्लामी शिक्षा का उद्देश्य महान धार्मिक हस्तियों के आदेशों का पालन करके इस्लाम धर्म का
प्रचार करना भी था। इस्लाम के प्रसार को धार्मिक कर्तव्य माना जाता था। इसलिए, शिक्षा के
माध्यम से भारत में इस्लाम का भी प्रसार हुआ। शैक्षणिक संस्थान मस्जिदों से जुड़े हुए थे और
अकादमिक करियर की शुरुआत से ही छात्र इस्लाम के मूल सिद्धांतों एवं कुरान के अध्ययन से
परिचित हो जाते थे। मदरसों में इस्लामी धर्म के सिद्धांतों को दर्शन, साहित्य और इतिहास के रूप
में पढ़ाया जाता था।
धार्मिक भावनाओं से प्रेरित होकर भारत में मुस्लिम शासकों ने शिक्षा को संरक्षण दिया। मुसलमान
सामान्य शिक्षा को इस्लामी शिक्षा का अभिन्न अंग मानते थे। लेकिन कट्टरता से प्रेरित होकर
उन्होंने हिंदू संस्थानों को भी नष्ट कर दिया और उनके खंडहरों पर मस्जिदें, मदरसे बनवाए।
पैगंबर के अनुयायी विद्वान की स्याही को शहीद के खून से ज्यादा पवित्र मानते थे।
इस्लामी शिक्षा में नैतिकता पर आधारित एक विशेष प्रणाली विकसित की गई। शिक्षको ने छात्रों में
नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के समावेश पर जोर दिया। यह उनकी सोच और रहन-सहन में
झलकता था। आचरण के नियमों के पालन में कठोर अभ्यास प्रदान किये गए। मुसलमान भी
शिक्षा के माध्यम से भौतिकवादी समृद्धि प्राप्त करना चाहते थे। ऊँचे पद पाने के लिए 'जागीरों' के
सम्मानित पद, पदक, अनुदान आदि ने लोगों को इस्लामी शिक्षा के लिए प्रेरित किया गया।
शिक्षितों को उच्च सम्मान दिया जाता था, तथा राजाओं और सम्राटों ने विद्वानों को सेना के
कमांडर, काज़ी (न्यायाधीश) वज़ीर (मंत्री) और कई अन्य आकर्षक पदों के रूप में नियुक्त करके
प्रोत्साहित भी किया। इन लाभों को प्राप्त करने की दृष्टि से कई हिंदुओं को भी इस्लामी शिक्षा
प्राप्त करने की अनुमति दी गई।
इस्लामी शिक्षा के उद्देश्य कुछ हद तक राजनीतिक उद्देश्यों और हितों से भी जुड़े थे। शिक्षा के
प्रबंधन और प्रशासन में मुस्लिम शासकों का बहुत बड़ा हाथ था। इसलिए शिक्षा के माध्यम से वे
अपनी राजनीतिक व्यवस्था को मजबूत एवं विकसित करना चाहते थे। मुस्लिम काल में शैक्षिक
प्रक्रिया धार्मिक स्थलों पर संपन्न होती थी, जो आमतौर पर मस्जिद से जुड़ी होती थीं। शिक्षा मुफ्त
और सटीक प्रदान की गई थी तथा इसमें पुरस्कार और दंड दोनों प्रचलित थे। उस समय के शासकों
द्वारा शिक्षकों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था। उन्हें बहुत ऊंचा दर्जा दिया जाता था।
शिक्षा मौखिक रूप से दी जाती थी। पाठ्यक्रम क्वारनिक केंद्रित था और बच्चों को पवित्र कुरान को
याद कराया जाता था। इस प्रथा ने पुस्तक को उसके मूल रूप में संरक्षित रखा है, यह मुस्लिम शिक्षा
की अनूठी विशेषता थी।
कुल मिलाकर, भारत में मुस्लिम काल के दौरान शिक्षा, प्रकृति में अधिक धार्मिक थी। मुस्लिम
काल में यह माना जाता था कि दान में सोना देने की अपेक्षा अपने बच्चे को शिक्षित करना बेहतर
है। मुसलमानों के अनुसार शिक्षा प्राप्त करना आशीर्वाद है और इसे प्रदान करना एक नेक काम था।
ज्ञान को मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र माना जाता था। सामान्यतया विद्यार्थी आत्म-अनुशासित
होते थे और शिक्षक-शिक्षित संबंध सौहार्दपूर्ण एवं घनिष्ठ होते थे। समय-समय पर परीक्षण
आयोजित किए जाते थे तथा परीक्षाएं मौखिक और लिखित दोनों होती थीं। लेकिन महिला शिक्षा
के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं किया गया था। हालांकि, लड़कियों को प्राथमिक शिक्षा प्राप्त
करने के लिए मकतब जाने की अनुमति थी, किंतु उन्हें उच्च शिक्षा के लिए मदरसा जाने की
अनुमति नहीं थी।
जिन छात्रों ने कुरान, हदीस और फ़िक़्ह का विशेष ज्ञान प्राप्त किया, उन्हें "आलिम" की उपाधि दी
गई, जबकि तर्क की शिक्षा पूरी करने वाले छात्रों को "फ़ाज़िल" की उपाधि प्रदान की गई। मुस्लिम
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य भारत में इस्लाम का प्रचार और प्रसार था। चरित्र निर्माण भी मुस्लिम
शिक्षा का मुख्य फोकस था। मुस्लिम शिक्षा ने लोगों, विद्यार्थियों और विद्वानों को सभी प्रकार के
विशेषाधिकार, उच्च पद, मेधावी छात्रों के लिए पदक, सम्मानजनक रैंक और छात्रों के बीच रुचि
बनाए रखने के लिए शैक्षणिक संस्थानों को अनुदान प्रदान करके सम्मानित किया। मुस्लिम शिक्षा
प्रणाली ने संस्कृति के संरक्षण और प्रसारण के लिए भी काम किया।
संदर्भ
https://bit.ly/3vn2Kgi
https://bit.ly/3Qigam7
https://bit.ly/3JfaU0e
चित्र संदर्भ
1. एक विद्यालय में ध्वजारोहण समारोह को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. इस्लामी धार्मिक पुस्तकों को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
3. दिल्ली इस्लाम स्कूल को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. पवित्र कुरान के पाठ को दर्शाता एक चित्रण (Rawpixel)
5. तराइन के युद्ध को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
6. मुस्लिम छात्राओं को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
7. कुरान का पाठ करती बालिकाओं को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
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