जौनपुर उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में आता है, यह जिला पुरातात्विक व धरोहरों के क्षेत्र में अत्यन्त ही अनूठा है। यहाँ पर प्राचीन सभ्यताओं के अवशेषों से लेकर मध्यकालीन इतिहास तक के साक्ष्य मिलते हैं। यह जिला सम्भवतः प्रारम्भिक ऐतिहासिक काल में कोशल और वत्स महाजनपदों में विभाजित था। कालान्तर में यह मगध साम्राज्य का भाग बन गया। इसके बाद जौनपुर का इतिहास मगध साम्राज्य के इतिहास से संयुक्त जान पड़ता है जो मगध के अधीन मौर्य, कुषाण, गुप्त, मौखरी, कलचुरी, पाल, प्रतिहार तदोपरान्त कन्नौज, मुस्लिम तथा शर्की राजवंश के अधीन रहा। जौनपुर जनपद में स्थित वर्तमान कस्बों मछलीशहर व केराकत की पहचान बौद्ध साहित्य में वर्णित मच्छिका सण्ड तथा कीटागिरि से की जाती है, जहां कभी गौतम बुद्ध का आगमन हुआ था। सम्भवतः वाराणसी से श्रावस्ती तथा कौशाम्बी से श्रावस्ती जाने वाले प्राचीन पथ इन स्थलों से होकर जाते थे। मछली शहर तहसील के घिसवा परगना में स्थित कोटवां गांव से कन्नौज नरेश हरि चन्द्रदेव का विक्रम सम्वत् 1253 का एक ताम्रपत्र भी प्राप्त हुआ है। संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि में अंकित इस ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि यह भूभाग कभी गाहड़वाल राजाओं के अधीन भी रहा होगा। इस जिले में स्थान दर स्थान पर प्रतिहार कालीन मंदिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं, यहाँ पर गुप्त कालीन मूर्तियाँ भी पायी गयी हैं। बड़ी संख्या में मूर्तियों आदि की प्राप्ति यह सिद्ध करता है कि यहाँ पर कई मंदिरों का निर्माण भी हुआ था। वर्तमान काल में कुछ एक ही मंदिर अपने पूर्ण स्वरूप में बची हुई हैं बाकी के समय के साथ काल के गाल में कवलित हो चुकी हैं परन्तु इनके अवशेष अब भी मिलते हैं। महराजगंज थाना के पास बने कुछ मंदिर जो की हलाँकी मध्ययुगीन हैं पर उत्तर भारतीय मंदिर निर्माण कला व जौनपुर के मंदिरों का एक उदाहरण देते हैं (चित्र देखें)। लखौंआ के पास राष्ट्रीय राज्यमार्ग 56 पर बना मंदिर व बदलापुर बाजार में बना मंदिर यहाँ के मंदिर निर्माण शैली को दर्शाते हैं। यहाँ पर पाये जाने वाले मंदिर नागर शैली के बने हुये हैं जो कि प्रमुख रूप से उत्तर भारत में पाये जाते हैं। उत्तर भारतीय मंदिर वास्तुकला का जन्म यदि देखा जाये तो गुप्तकाल मे हुआ था। मंदिरों के विभिन्न प्रकार व उनके नये आयाम समय के साथ-साथ जुड़ते गये, यही कारण है कि उत्तर भारत मे अनेकोनेक प्रकार के मंदिर देखने को मिलते हैं। वेद, पुराणो व अन्य ग्रन्थों मे विभिन्न प्रकार के यज्ञ व हवनों कि बात वर्णित है तथा कई प्रकार के पूजा स्थलों का भी वर्णन दिया गया है, जिससे इस बात का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि गुप्तकाल से भी पहले मंदिर या पूजा स्थली कि धारणा समाज मे उपस्थित थी। प्राचीन मंदिर नीर्माण शैली बौद्ध वास्तु से प्रेरित थी, इसका प्रमाण प्राचीनतम मंदिरों के निर्माण मे मंदिर कि छतों से मिल जाता है जो कि आकृति मे सपाट होती थी तथा इनमे एक गर्भगृह का भी निर्माण होता था सांची मंदिर संख्या 17 से इसके प्रबल प्रमाण मिलते हैं। सुरूआती दौर के मंदिरों मे टिगवा, ऐरण, भुमरा, नाचना, दशावतार मंदिर देवघर, भितरगाँव आदि प्रमुख हैं। वास्तु-विधा के विकास के साथ ही साधारण मंदिर के आकार-प्रकार का विकास हुआ तथा धीरे-धीरे गर्भगृह, अंतराल, मंडप के साथ सभा मंडप, अर्धमंडप, मुखमण्डप, शिखर भागों को संयोजित किया गया। मंदिर के मंडप अलंकृत होते गये तथा उसके सतम्भों, मित्रि-स्तम्भों, वितान तथा बीमों को विभिन्न अलंकरणों से सुसज्जित किया गया। मंदिर के शिखर को उनके उभार दिये गये, विशेष रूप से उत्तरी भारत के मंदिरों को। प्रतिहार व चंदेल काल मे नागर मंदिर शैली मे अभूतपूर्व ऊँचाइयाँ देखने को मिलती हैं, जैसे खजुराहो, महाकालेश्वर, मुक्तेश्वर आदि नागरशैली के प्रमुख उदाहरणों मे से हैं। 1. प्रागधारा 24, सुभाष चन्द्र यादव, सम्पादक प्रहलाद कुमार सिंह, राकेश कुमार श्रीवास्तव, राजीव कुमार त्रिवेदी, उत्तर प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग, 2015 2. आर्कियोलॉजिकल रिमेन्स मोन्युमेन्ट्स एण्ड म्युजियम्स भाग 1। 3. हिस्ट्री ऑफ इंडियन आर्किटेक्चर- फर्ग्युसन। 4. इंडिया एण्ड साउथ ईस्ट एसिया, क्रिस्टोफर टाडजेल। 5. भारतीय कला वी.एस. अग्रवाल।
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