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जलवायु परिवर्तन ने, न केवल हमारे शहरों में गर्मी को असहनीय स्तर तक बढ़ा दिया है, बल्कि सुदूर पहाड़ों
में भी इसके गंभीर परिणाम सामने आ रहे हैं! जहां हजारों वर्षों से जमे हिमखंड या ग्लेशियर अभूतपूर्व तेज़ी
के साथ पिघल रहे हैं।
दरअसल ग्लेशियर (Glacier) बर्फ़ से ढका हुआ बहुत बड़ा हिमालयी क्षेत्र होता है, जिसे हिमखंड या हिमनद
भी कहते हैं। इन हिमखंडों से पानी बहुत धीमी गति से लेकिन निरंतर बहता रहता है। यह ऐसे स्थानों में
बनते हैं, जहां बर्फ गिरती रहती है, लेकिन पिघल नहीं पाती! ग्लेशियर पानी के जलाशय के रूप में कार्य
करते हैं, और गर्मियों के दौरान पानी की आपूर्ति करते रहते हैं। ग्लेशियरों से लगातार पिघलने वाली बर्फ से,
गर्मियों के महीनों में पारिस्थितिकी तंत्र में पानी की आपूर्ति होती रहती है, जिससे बारहमासी धारा निवास,
पौधों और जानवरों के लिए जल स्रोत बन जाते है। हिमनदों से निकलने वाला ठंडा अपवाह नीचे के पानी के
तापमान को भी प्रभावित करता है। पहाड़ी वातावरण में कई जलीय प्रजातियों को जीवित रहने के लिए
पानी के ठंडे तापमान की आवश्यकता होती है। कुछ जलीय कीड़े विशेष रूप से धारा के तापमान के प्रति
संवेदनशील होते हैं और ग्लेशियर पिघले पानी के शीतलन प्रभाव (cooling effect) के बिना जीवित नहीं
रह सकते हैं। पृथ्वी के कुल जल का लगभग 2.1% हिस्सा हिमनदों में जमा है। पृथ्वी के मीठे पानी का
लगभग तीन-चौथाई हिस्सा ग्लेशियरों में जमा है।
दुर्भाग्य से पिछली एक सदी में ही जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी के तापमान में इतनी तेज़ी से वृद्धि
हुई है की इन ग्लेशियरों के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है! तापमान बढ़ने और जलवायु परिवर्तन से
दुनिया भर में हिमालयी क्षेत्र के अधिकांश ग्लेशियर पिघल रहे हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि, यह
घटना देश के नौ प्रमुख ग्लेशियरों में देखी जा रही है, जो अलग-अलग दरों में तेज़ी से पिघल रहे हैं।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, नेशनल सेंटर फॉर पोलर एंड
ओशन रिसर्च, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, स्पेस एप्लीकेशन सेंटर और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ
साइंस (Geological Survey of India, Wadia Institute of Himalayan Geology, National
Center for Polar and Ocean Research, National Institute of Hydrology, Space
Applications Center and Indian Institute of Science) के नेतृत्व में किए गए अध्ययनों में पाया
गया की हिमालय के ग्लेशियरों में अभूतपूर्व विषम द्रव्यमान हानि (anomalous mass loss) देखी गई है।
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार हिंदू कुश हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की औसत दर 14.9-15.1
मीटर प्रति वर्ष , सिंधु में 12.7-13.2 मीटर प्रति वर्ष, गंगा में 15.5-14.4 मीटर प्रति वर्ष और ब्रह्मपुत्र नदी
घाटियों में 20.2-19.7 मीटर प्रति वर्ष है। 2019 के एक अध्ययन के अनुसार, 21वीं सदी की शुरुआत के बाद
से हिमालय के ग्लेशियरों का पिघलना दोगुना हो गया है। जो की संभावित रूप से भारत सहित विभिन्न
देशों में रहने वाले , करोड़ों लोगों के लिए पानी की आपूर्ति को बाधित करने वाला एक बड़ा खतरा है।
भारत, चीन, नेपाल और भूटान में 40 वर्षों के उपग्रह अवलोकनों के विश्लेषण से संकेत मिलता है कि,
जलवायु परिवर्तन हिमालय के ग्लेशियरों को खा रहा है। जून 2019 में साइंस एडवांसेज (Science
Advances) नामक पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन से पता चलता है कि, ग्लेशियर वर्ष 2000 से हर साल
आधे से अधिक बर्फ को खो रहे हैं , जो 1975 से 2000 तक पिघलने की मात्रा से दोगुनी दर है।
लगभग 800 मिलियन लोग सिंचाई, जल विद्युत और पीने के पानी के लिए हिमालय के ग्लेशियरों से
मौसमी अपवाह (seasonal runoff) पर निर्भर हैं। लेकिन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह आनेवाले
दशकों के भीतर काफी कम हो जाएगा, क्योंकि ग्लेशियर बड़े पैमाने पर अपना अस्तित्व खो देंगे। इससे
अंततः पानी की भारी कमी हो जाएगी।
ग्लेशियरों को अक्सर दुनिया के "वाटर टावर्स (Water Towers)" के रूप में जाना जाता है, जिसमें आधी
मानवता अपनी पानी की जरूरतों के लिए इन पहाड़ों पर निर्भर करती है। अकेले तिब्बती पठार एशिया की
10 सबसे बड़ी नदियों का स्रोत है, और 1.35 अरब लोगों, या दुनिया की 20 प्रतिशत आबादी को पानी प्रदान
करते है।
हिमालय में ग्लेशियरों का पिघलना, चिंता का एक प्रमुख कारण इसलिए भी है, क्योंकि इससे इन ग्लेशियरों
पर निर्भर नदियों के लिए पानी की आपूर्ति पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा। ग्लेशियर झीलों की संख्या और मात्रा
में वृद्धि के कारण ग्लेशियर के खतरों से संबंधित जोखिम में वृद्धि, त्वरित बाढ़ और ग्लेशियल झील के
फटने से बाढ़, जबकि उच्च हिमालयी क्षेत्र में कृषि प्रथाओं पर भी प्रभाव पड़ सकता है। इसके दुष्परिणाम
आज से ही सामने आने लगे हैं। हिमालयी राज्य उत्तराखंड में पिछले साल एक ग्लेशियर के टूटने और घाटी
में गिरने के कारण भयानक बाढ़ आई थी, जिससे पानी का बहाव नीचे की ओर बढ़ गया था, तथा इसने एक
जलविद्युत संयंत्र सहित गांवों और श्रमिकों को भी अपनी चपेट में ले लिया था। आंकड़े बताते हैं कि आने
वाले वर्षों में, ग्लोबल वार्मिंग के कारण पर्वतों का तापमान वैश्विक औसत से दोगुनी तेजी के साथ बढ़ेगा,
जिससे ग्लेशियर और अधिक तेज़ी के साथ पिघलेंगे तथा हिमालय और आगे के क्षेत्रों में समुदायों के लिए
बड़ा खतरा उत्पन्न हो सकता है।
संदर्भ
https://on.doi.gov/37unmu3
https://bit.ly/3O1gy88
https://bit.ly/3xg6Rwt
https://bit.ly/3jqSMEc
चित्र संदर्भ
1. ब्रिक्सडल्सब्रीन (द ब्रिक्सडल ग्लेशियर) के दो दृश्य लगभग एक ही स्थान से लिए गए हैं। बाईं ओर की तस्वीर जुलाई के अंत में वर्ष 2003 में ली गई है और दाईं ओर दूसरी तस्वीर 4 अगस्त 2008 को ली गई है। ग्लेशियर कम हो गया है जबकि नीचे की झील बढ़ गई है। जिसको दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. हिमालय श्वेता ग्लेशियर से कालिंदी बेस उत्तराखंड को दर्शाता एक अन्य चित्रण (wikimedia)
3. ग्लेशियर से निकलते हुए पानी को दर्शाता एक अन्य चित्रण (pixabay)
4. 1987 से 2003 तक बोल्डर ग्लेशियर 450 मीटर (1,480 फीट) पीछे हट गया, जिसको दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
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