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यदि कोई देश अपने इतिहास से सबक लेकर आगे बढ़े, तो उसके लिए तरक्की करना निश्चित तौर पर
आसान हो जायेगा। आम लोगों तक देश के इतिहास को पहुँचाने का फिल्मों से बेहतर जरिया भला क्या हो
सकता है! आज जिस प्रकार भारत में फिल्म निर्माता बेबाकी और पूरी पारदर्शिता के साथ ऐतिहासिकतथ्यों को फिल्मों के माध्यम से आम जनता तक पहुंचा रहे हैं, वह निश्चित रूप से सराहनीय है! इस क्रम में
एक बेहद दुखद किंतु बेहद आवश्यक प्रक्रण जिसे जनता के सामने पहुंचाया जाना अभी भी बाकी है वह हैं,
"भारत से विदेशों में पलायित किये गए गरिमिटियों की कहानियाँ”
गिरमिटिया मज़दूरों और बंधुआ मज़दूरों का प्रवासन भारतीय इतिहास में सबसे कम चर्चित विषय रहा है।
लेकिन इसके बारे में जानना आज बेहद जरूरी है।
दरअसल ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान गिरमिटिया, एक प्रकार की अनुबंध प्रणाली थी। जिसके
अंतर्गत अंग्रेज़ों ने भारतीय मजदूरों को पांच वर्षों के एक अनुबंध पर हस्ताक्षर करवाएं, जिसमें उन
गिरमिटिया मजदूरों को चीनी, कपास और चाय के बागानों और वेस्ट इंडीज, अफ्रीका और दक्षिण पूर्व
एशिया में ब्रिटिश उपनिवेशों में रेल निर्माण परियोजनाओं पर काम करने के लिए भर्ती किया गया था। जहाँ
मुख्य रूप से बागान श्रमिकों के रूप में लगभग 1.2 मिलियन भारतीय, अंग्रेजों की सेवा कर रहे थे।
गिरमिटिया श्रम प्रणाली, वर्ष 1834 से 1917 तक चली। इसी क्रम में एक ब्रिटिश उपनिवेश, फिजी (Fiji) देश
के गन्ना बागानों में काम करने के लिए 60,965 भारतीय गिरमिटिया मजदूरों को भर्ती किया गया था।
श्रमिकों की भर्ती में संयुक्त प्रांत और बिहार के गोंडा, बस्ती, फैजाबाद, सुल्तानपुर, आजमगढ़, गोरखपुर,
इलाहाबाद, जौनपुर, शाहाबाद और रायबरेली जिलों को चुना गया था। इन जिलों को अक्सर सूखा, बाढ़ और
अकाल के रूप में प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता था। ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरमिटिया
मज़दूरों को उनके कार्य की प्रकृति, वेतन, रहने का स्थान और स्थिति आदि के बारे में झूठ बोलकर गुमराह
किया जाता था। गिरमिटिया मज़दूरी की शर्तों में लिखित रूप से दर्शाया जाता था, कि कोई भी पुरुष अपनी
मज़दूरी की 5 या 10 वर्षीय अवधि को पूरा करने के बाद, अपने देश वापस लौट सकता है, किन्तु इससे
ब्रिटिश व्यापार प्रणाली पर बुरा प्रभाव पड़ता था, इसलिए ब्रिटिश नहीं चाहते थे कि, कोई भी मज़दूर वापस
लौटे। हालांकि अपनी मज़दूरी की शर्तों को पूरा करने के बाद कुछ गिरमिटिया मज़दूर वापस भारत लौट
आए, जबकि अधिकतर लोग वहीं रह गए।
वर्तमान में अंग्रेज़ों द्वारा किये गए फरेब और झूठ का शिकार रहे हजारों गिरमिटिया मजदूरों की अपनी-
अपनी कहानियां हैं। आज इन कहानियों को फिल्मों के माध्यम से जनता तक पहुंचाने पर काम चल रहा है।
इस क्रम में गिरमिटिया फिल्म निर्माता डॉ सतीश राय, इस विषय पर एक फिल्म बनाने के लिए पूरी तरह
तैयार हैं। उनके द्वारा 'आवाज़ - द गिरमिट कॉन्सपिरेसी' (Awaaz - The Girmit Conspiracy') नाम की
अपनी तरह की पहली फिल्म को पहले ही यूपी सरकार से मंजूरी मिल चुकी है। सतीश राय सिडनी
(Sydney, Australia) स्थित फिल्म निर्माता, शिक्षाविद, राजनेता और सामुदायिक विकास कार्यकर्ता हैं,
जो गिरमिटिया से संबंधित मुद्दों पर यूपी सरकार के साथ बातचीत कर रहे हैं। फिल्म का एक बड़ा हिस्सा
यूपी में फिल्माया जाएगा, जो भयानक इंडेंट्योर सिस्टम (indenture system) (1828 से 1916) के दौरान
सबसे बुरी तरह प्रभावित राज्य था, जिसके तहत लाखों भारतीयों को गन्ना बागानों में बंधुआ मजदूर के रूप
में काम करने के लिए ब्रिटिश उपनिवेशों में भेज दिया गया था।
सतीश स्वयं एक गिरमिटिया वंश से संबंध रखते हैं, उनका जन्म फिजी में हुआ था, जहां उन्होंने अपनी
प्राथमिक, माध्यमिक और अपनी तृतीयक शिक्षा (यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ पैसिफिक एंड फिजी स्कूल ऑफ
मेडिसिन (University of South Pacific and Fiji School of Medicine) में हासिल की। 1980 में वह
यूके (United Kingdom) चले गए और पांच साल तक मेट्रोपॉलिटन पुलिस अधिकारी के रूप में काम
करने के बाद, (1982-1987) तक उन्होंने समाजशास्त्र में अपनी बीए (ऑनर्स) की डिग्री पूरी करने के लिए
सेवानिवृत्त हुए, जिस दौरान उन्होंने नस्ल समानता के मुद्दों में भी पढ़ाई की। वे एक राजनेता (ग्रीनविच के
लंदन बरो में निर्वाचित पार्षद, 1990-94), एक सामुदायिक विकास अधिकारी और प्रिंसिपल रेस इक्वेलिटी
(Principal Race Equity) भी बन गए। लंदन बरो काउंसिल के अधिकारी डॉ. राय ने गोल्डस्मिथ्स कॉलेज,
लंदन विश्वविद्यालय के सामाजिक नीति और प्रशासन में एमए की डिग्री भी काफी हद तक पूरी की। 2011
में, उन्होंने उसी विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ क्रिएटिव आर्ट्स (Doctor of Creative Arts) की डिग्री
(फिल्म निर्माण में) पूरी की।
स्वयं गिरमिटिया के वंशज माने जाने वाले राय की पहली भारत यात्रा 1994 में हुई थी। यहां हमारे
उत्तरप्रदेश के जौनपुर के निकट बस्ती जिले के एक गाव में उन्हें उनके चचेरे भाई मिले थे। यहां आकर उन्हें
बताया गया की वह एक भूमिहार ब्राह्मण हैं, और उन्हें नहीं पता था कि इसका क्या मतलब होता है। अपनी
पहली यात्रा में उन्हें थोड़ी जमीन मिली। वर्ष 2001 के बाद उन्होंने अपने चचेरे भाई के साथ अपने मूल
परिवार की खोज शुरू कर दी। फिर एक दिन उन्हें एक व्यक्ति का एक ईमेल मिला, जिसमें बताया गया था
कि उनके मूल परिवार का पता लगा लिया गया है।
सतीश राय अपने चचेरे भाई जिन्हे लोग नईम राय के नाम से जानते थे। "यह एक मुस्लिम नाम था।
लेकिन उन्हें पहले से ही पता था कि उनकी दादी एक हिंदू थीं। इसलिए सतीश राय के अनुसार यह उनका
सही परिवार नहीं हो सकता था। लेकिन बाद में उन्हें पता चला की एक दुखद फरमान के कारण उनकी दादी
को मुस्लिम धर्म में परिवर्तित होना पड़ा। हालाँकि, उनका राय नामक पारिवारिक नाम उनके साथ बना
रहा। सतीश राय के लिए, उनका चचेरा भाई अपने परिवार की उनकी खोज में अंतिम लापता व्यक्ति था।
एक सदी के बाद फिजी से अपने घर जाने के बाद, सतीश ने अपने चचेरे भाई नईम को गले लगाया और
अपनी घर वापसी का जश्न मनाया!
सतीश की कहानी को सारांश में समझें तो, सतीश भारतीय गिरमिटिया मूल से संबंध रखते थे ,और फिजी
में द्वीप में ही पैदा भी हुए थे। भारत में अपने परिवार की जड़ों का पता लगाने के कई वर्षों के अनेक प्रयासों
के बाद, आखिरकार वह सफल हुए और उन्होंने अपने रिश्तेदारों को बस्ती जिले के एक गाँव में पाया, जो
हमारे जौनपुर से अधिक दूर नहीं था। उनके सभी रिश्तेदार इस्लाम में परिवर्तित हो गए थे, लेकिन उन्होंने
अपना उपनाम राय बरकरार रखा था। यह भारत में संयुक्त हिंदू-मुस्लिम एकता की एक आकर्षक कहानी
है, जिसे सतीश अब एक फिल्म में बदल रहे हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/3NNPCZx
https://bit.ly/3LrBVNG
https://bit.ly/3wUrePS
https://en.wikipedia.org/wiki/Girmityas
चित्र संदर्भ
1. मॉरीशस पहुंचने वाले पहले गिरमिटिया भारतीय मजदूरों की दृश्य कला और सतीश राय को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia, amazon)
2. महिला कुली एक चित्रण (wikimedia)
3. जमैका में पहुंचे भारतीय गिरमिटिया मजदूरों को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia) को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
4. सतीश राय को दर्शाता एक चित्रण (amazon)
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