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विभिन्न धर्मों में अंतिम संस्कार की प्रथाएं भी अलग-अलग होती हैं। जैसे सनातन धर्म में मृतक की देह को अग्नि (आग) को समर्पित किया जाता है। तथा इस्लाम एवं ईसाई समाज में यह प्रक्रिया दफ़नाकर पूरी की जाती हैं। किंतु भारत में पारसी समुदाय, तिब्बत तथा कुछ चीनी प्रांतों में अंतिम संस्कार के तौर पर मृतक के शव को मांसाहारी पक्षियों को खिलाया जाता है, जिसे आकाश दफन (Sky burial) के नाम से जाना जाता है।
संक्षेप में समझें तो स्काई बरियल या आकाश दफ़न तिब्बत , किंघई , सिचुआन और इनर मंगोलिया (Qinghai, Sichuan and Inner Mongolia) के स्वायत्त क्षेत्रों तथा कुछ चीनी प्रांतों में प्रचलित अंतिम संस्कार की प्रक्रिया है, जिसमें मानव देह या लाश को किसी पर्वत चोटी पर रखा जाता है, तथा शव की पूजा करने के पश्चात् उसे शिकारी पक्षियों विशेष रूप से गिद्धों के द्वारा नोचकर खाया जाता है। यह एक विशिष्ट प्रकार की प्रत्यर्पण प्रथा है, जो चीनी प्रांतों के साथ ही मंगोलिया , भूटान और भारत के कुछ हिस्सों जैसे सिक्किम, तिब्बत और ज़ांस्कर में भी प्रचलित है। वज्रयान बौद्ध परंपराओं में तैयारी और स्काई बरियल के स्थानों को चारनेल मैदान (Charnel Ground) के रूप में जाना जाता है।
धार्मिक हाशिए पर रहने, शहरीकरण और गिद्धों की आबादी के क्षय के बावजूद आज भी कुछ ऐसे स्थान हैं, जहां यह प्रक्रिया अभी भी सुचारु है।
अधिकांश तिब्बती लोग और कई मंगोल वज्रयान बौद्ध धर्म इस प्रकिया का पालन करते हैं, जो आत्माओं के स्थानांतरण की संदेश भी देते है। उनके अनुसार शरीर को संरक्षित करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह अब एक खाली बर्तन है। पक्षी इसे खा सकते हैं या प्रकृति इसे विघटित कर सकती है। साथ ही तिब्बत और किंघई के अधिकांश हिस्सों में, कब्र खोदने के नजरिये से जमीन बहुत कठिन और पथरीली है। साथ ही ईंधन और लकड़ी की कमी के कारण तथा अंतिम संस्कार के पारंपरिक बौद्ध अभ्यास की तुलना में स्काई बरियल आमतौर पर अधिक व्यावहारिक था। तिब्बत का अधिकांश भाग वृक्ष रेखा से ऊपर है, और लकड़ी की कमी के कारण दाह संस्कार आर्थिक रूप से असंभव हो जाता है। पहले इस प्रकार से दाह संस्कार केवल उच्च लामाओं और कुछ अन्य गणमान्य व्यक्ति तक ही सीमित था, लेकिन आधुनिक तकनीक और स्काई बरियल की कठिनाइयों ने आम लोगों द्वारा दाह संस्कार का उपयोग बढ़ा दिया गया है।
अन्य राष्ट्र जो लगभग इसी प्रकार से हवाई दफन करते थे, वे जॉर्जियाई , अब्खाज़ियन और अदिघे लोगों के काकेशस राष्ट्र (Caucasus nations of Georgian, Abkhazian and Adyghe people) थे, जिसमें उन्होंने लाश को एक खोखले पेड़ के तने में रखा था।
माना जाता है कि तिब्बती आकाश-दफन लाशों को विक्षेपित करने की प्राचीन प्रथाओं से विकसित हुए हैं। इन प्रथाओं की सबसे अधिक संभावना गोबेकली टेप (gobekli tape) (वर्तमान से 11,500 साल पहले) में पाए गए संदिग्ध आकाश दफन साक्ष्य के समान अधिक औपचारिक प्रथाओं से भी संबंधित हो सकती हैं।
इस प्रकार के रीति-रिवाजों को पहली बार 12 वीं शताब्दी के एक स्वदेशी बौद्ध ग्रंथ में दर्ज किया गया है, जिसे बोलचाल की भाषा में बुक ऑफ द डेड ( बार्डो थोडोल ) the Book of the Dead (Bardo Thodol) के रूप में जाना जाता है।
स्काई बरियल को शुरू में पीआरसी (PRC – People’s Republic of China) और मंगोलिया (Mongolia) दोनों की कम्युनिस्ट सरकारों द्वारा एक आदिम अंधविश्वास और स्वच्छता संबंधी चिंता के रूप में माना जाता था। और परिमाण स्वरूप दोनों राज्यों ने कई मंदिरों को बंद कर दिया। साथ ही चीन ने भी 1960 के दशक के अंत से 1980 के दशक तक इस प्रथा पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया। इन नीतियों के परिणामस्वरूप, कई लाशों को बस दफन कर दिया गया या नदियों में फेंक दिया गया। कई परिवारों का मानना था कि इन लोगों की आत्माएं शुद्धिकरण से नहीं बच पाई और भूत बन गईं। अतः फिर भी ग्रामीण इलाकों में स्काई दफन का अभ्यास जारी रहा, और हाल के वर्षों में इसे आधिकारिक सुरक्षा भी मिली है। हालांकि, शहरी क्षेत्रों के पास इसके अभ्यास पर प्रतिबंध और ग्रामीण जिलों में गिद्धों की घटती संख्या सहित कई कारणों से यह प्रथा कम होती जा रही है। तिब्बती बौद्धों के लिए, आकाश दफन और दाह संस्कार जीवन की अस्थिरता पर निर्देशात्मक शिक्षण के नमूने माने जाते हैं।
इस प्रक्रिया को मृतक की ओर से उदारता का कार्य माना जाता है, क्योंकि मृतक और उनके जीवित रिश्तेदार जीवित प्राणियों को बनाए रखने के लिए भोजन उपलब्ध करा रहे हैं। सभी प्राणियों के लिए ऐसी उदारता और करुणा बौद्ध धर्म में महत्वपूर्ण गुण मानी गई हैं।
लाशों को गिद्दों को खिलाने की प्रक्रिया ऊँचे पहाड़ की चोटी पर की जाती है, जहाँ आमतौर पर गिद्धों को पूरा शरीर दिया जाता है। फिर, जब केवल हड्डियां रह जाती हैं, तो इन्हें टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है, त्सम्पा (चाय और याक के मक्खन, या दूध के साथ जौ का आटा) के साथ उन कौवे और बाजों को दिया जाता है जो गिद्धों के जाने का इंतजार कर रहे होते हैं।
इस अनुष्ठान में योगदान देने वाली प्रजातियां आमतौर पर ग्रिफॉन और हिमालयी गिद्ध (Griffon and Himalayan Vulture) हैं। यदि गिद्ध खाने के लिए कम संख्या में आते हैं, या गिद्धों के उड़ने के बाद शरीर के कुछ हिस्से रह जाते हैं, या शरीर को पूरी तरह से अछूता छोड़ दिया जाता है, तो इसे बौद्ध मान्यताओं में एक अपशगुन माना जाता है। इन मामलों में, बौद्ध मान्यता के अनुसार, व्यक्ति या व्यक्ति के परिवार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
जिन स्थानों पर कम शव चढ़ाए जाते हैं, वहां गिद्ध अधिक उत्सुक होते हैं, और कभी-कभी प्रारंभिक तैयारी के दौरान उन्हें लाठी से मारकर उड़ाना पड़ता है। अक्सर इसकी एक सीमा होती है की एक निश्चित दफन स्थल (burial site) पर कितनी लाशों का सेवन किया जा सकता है। ऐसा माना जाता है कि यदि किसी निश्चित स्थान में बहुत अधिक लाशों का निपटान किया जाता है, तो वहां भूत प्रकट हो सकते हैं।
गिद्धों की घटती हुई संख्या ने मुंबई में रहने वाली पारसी जनसंख्या को भी गहन चिंता में डाल दिया हैं। क्यों की विलुप्त हो रही गिद्धों की आबादी के बीच मुंबई में रहने वाले पारसी समुदाय के मृतकों को "आकाश दफन" देने की 3,000 साल पुरानी परंपरा प्रभावित हुई है। दरअसल मुंबई को देश की वित्तीय राजधानी के रूप में देखते हुए पारसीयों ने 1931 में, मालाबार पहाड़ियों के जंगल में एक दखमा -टॉवर ऑफ साइलेंस (Tower of Silence) का निर्माण किया था। जहाँ सफ़ेद दुम वाले और लंबी चोंच वाले गिद्ध कुछ ही क्षणों में पूरी लाश का सेवन कर लिया करते थे। लेकिन मुंबई और पूरे महाराष्ट्र राज्य में गिद्धों की आबादी में भारी गिरावट के कारण आज यह प्रकिया दुखद रूप से प्रभावित हो रही है। दुनिया में बचे कुल 138,000 जोरास्ट्रियन (Zoroastrians) में से लगभग 69,000 भारत में रहते हैं। अकेले मुंबई में करीब 40,000 पारसी हैं जो संपन्न इलाकों में बसे घरों में रहते हैं। चूंकि आज यहां गिद्धों का आभाव है, अतः लाशों को यदि यूं ही खुला छोड़ दिया जाए तो वह हफ़्तों यू ही पड़ी रहती हैं। जो की निश्चित रूप अशुभ माना जाता है, तथा यह दृश्य भी विस्मित कर देता है। अतः इसके उपाय के तौर पर यहां सोलर की सहायता से एक लाश पर 110 डिग्री सेल्सियस पर प्रकाश और गर्मी डालकर उसे मुक्त किया जाता है। लेकिन सर्दियों और बारिश में यह प्रक्रिया भी प्रभावित हो जाती है। गिद्धों के चले जाने से यह रस्म भी विलुप्त होने के कगार पर है।
गिद्ध न केवल आकाशीय दफन के लिए बल्कि इसके आवास की पारिस्थितिकी के लिए भी एक महत्वपूर्ण पहलू हैं। वे शवों को विघटित करने तथा पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण में अहम् योगदान करते हैं। लेकिन दुखद रूप से भारत में गिद्धों की आबादी में 1980 के दशक के बाद से 99.95% की कमी देखी गई है। 1980 के दशक में, भारत में लगभग 40 मिलियन गिद्ध थे, जो मुख्य रूप से तीन प्रजातियों से संबंधित थे - सफेद पीठ वाले गिद्ध, लंबे चोंच वाले गिद्ध और पतले बिल वाले गिद्ध। 2017 तक, यह संख्या घटकर केवल 19,000 रह गई है। ये तीन प्रजातियां देश में बहुत आम थीं, जिनकी अनुमानित आबादी अस्सी के दशक में 40 मिलियन थी। वर्ष 2015 में किए गए नवीनतम सर्वेक्षण और 2017 में प्रकाशित परिणामों के आधार पर, सफेद पीठ वाले गिद्ध लगभग 6000, लंबी-चोंच वाले गिद्ध 12000 और पतले-बिल वाले गिद्ध केवल 1000 रह गए हैं। गिद्धों की मृत्यु का प्रमुख कारण पशु चिकित्सा गैर-स्टेरायडल विरोधी दवा 'डिक्लोफेनाक' (Non-steroidal anti-inflammatory drug 'Diclofenac') का होना पाया गया, जो उन मवेशियों को दर्द और सूजन में दी जाती थी, जिन्हे गिद्ध खाते थे।
"डिक्लोफेनाक गिद्धों के लिए बेहद जहरीला होता है और उनके गुर्दे की विफलता का कारण बनता है। भारत सरकार ने 2006 में दवा के पशु चिकित्सा उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिसे 2008 में राजपत्रित किया गया था।
लेकिन मवेशियों के इलाज में दवा की बहु-खुराक शीशियों का दुरुपयोग अभी भी गिद्धों में मृत्यु का कारण बन रहा है। ऐसे में स्काई बरियल प्रथा और पर्यावरण के लिए महत्वपूर्ण गिद्ध के संरक्षण के लिए जन शिक्षा और जागरूकता को मजबूत करने की आवश्यकता है।
संदर्भ
https://bit.ly/3sL02AE
https://bit.ly/3vF7wH3
https://bit.ly/3Mpbd9P
https://en.wikipedia.org/wiki/Sky_burial
चित्र संदर्भ
1. आकाश दफन (Sky burial) को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
2. मानव शरीर का भोग करते गिद्धों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
3. 2009 में तिब्बत के लितांग मठ में गिद्धों के साथ आकाश दफन कला को दर्शाता चित्रण (flickr)
4. मालाबार पहाड़ियों के जंगल में एक दखमा -टॉवर ऑफ साइलेंस (Tower of Silence) को दर्शाता एक चित्रण (flickr)
5. ल्हासा आकाश दफन चट्टान पर गिद्धों को दर्शाता चित्रण (wikimedia)
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