खिरकी खुली रही सारी रतिया, रतिया कहाँ बितायउ ना।। सोने के थारी मा ज्योंना परोसेउँ, जेंवना परा रहा सारी रतिया। रतिया कहाँ..... झाँझरे गेंडुवा गंगाजल पानी, पानी धरा रहा सारी रतिया। रतिया कहाँ..... फूलन ते चुनि-चुनि सेजिया लगायेउँ, सेजिया सूनी रही सारी रतिया। रतिया....... कजरी व इससे सम्बन्धित गीतों का एक अनूठा महत्व जौनपुर व अन्य क्षेत्रों में है तथा यही कारण है कि औरते इस गीत को बड़े आस्था व प्रसन्नता के साथ गाती हैं, इस त्योहार के आने पर औरतें लाल रंग की साड़ी व मेंहदी आदि लगाती हैं। सृष्टि के आरम्भ से ही मानव प्रकृति की सुकुमारता और लावण्य पर मुग्ध हो तदनुरूप भावाभिव्यक्ति करता आ रहा है। लोकजीवन और प्रकृति का घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रकृति के उन्मुक्त आंगन में लोक का स्वच्छन्द विचरण होता है और प्रत्येक ऋतु में वह स्वानुभूति को विभिन्न रूपों में प्रकट करता रहा है। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य का प्रचण्ड आतप जहाँ सबको आकुल कर देता है, वहीं शिशिर की शीतल मन्द बयार सम्पूर्ण वातावरण में जड़ता तथा वसन्त ऋतु का सुधामयी चन्दा मानव की कल्पनाओं में माधुर्य बिखेर देता है। प्रकृति के इन्हीं मदमाते रूपों को देख कर स्त्री-पुरुषों के सुमन झूम उठते हैं और उनकी अभिव्यक्ति ऋतुगीतों के रूप में साकार हो उठती है। प्रकृति का कण-कण सहृदय कवि के प्राणों को रसप्लावित कर नये-नये गीतों का सृजन करवा लेता है। इन्हीं को ऋतुगीत तथा एतद् वर्णन को ऋतु-वर्णन कहा गया है। ऋतु वर्णन की लिखित परम्परा वैदिक साहित्य में ऋतुओं और उसके महीनों की गणना तथा ऋतु विशेष के स्वामी के वर्णन से प्रारम्भ होती है। यह परम्परा लौकिक संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि, महाकवि कालिदास, माघ, भवभूति, भट्टि, शुद्रक आदि के साहित्य से गुजरती हुई प्राकृत, पालि एवं अपभ्रंश में सतत् गतिमान रही है। प्राकृत साहित्य (पालि, प्राकृत, अपभ्रंश) में जीवन के मनोरम और सुखद रूपों के प्रति विशेष आसक्ति उन्मुक्त जीवन के घात-प्रतिघातों एवं अकुण्ठित यौन सम्बन्धों का चित्रण पारिवारिक पृष्ठभूमि में हुआ है। हिन्दी-साहित्य के आदिकालीन ग्रंथों में भी ऋतु वर्णन की यह परम्परा दृष्टिगत होती है। यहाँ ऋतुओं का उद्दीपन विभाव में वर्णन हुआ है। भक्तिकालीन साहित्य की दोनों धाराओं (निर्गुण-सगुण) में भी ऋतु-वर्णन की यह परम्परा विद्यमान है। जायसी प्रभृति महाकवियों ने तो ऋतु-वर्णन की सफलता हेतु बारहमासा एवं छःमासा पद्धतियों का भी आश्रय लिया है। गोस्वामी तुलसीदास ने प्रकृति चित्रण के उद्दीपन विभाव में न करके उपदेशात्मकता को महत्व दिया है। रीतिकालीन साहित्य में श्रृंगार रस के उद्दीपन हेतु ऋतु-वर्णन किया गया है। ऐसे वर्णनों में विप्रलम्भ श्रृंगार पर विपरीत प्रभाव वर्णन, आलम्बनात्मकता, अलंकरण की प्रवृत्ति तथा हेलाभास के रूप में ऊहात्मक बाहुल्य चित्रण की प्रधानता है। ऋतुगीतों की यह परम्परा लोकभाषाओं में अधिक मुखर हुई है। अवधी, ब्रज एवं भोजपुरी भाषी क्षेत्रों में ऋतुओं की मनोहारी सुषमा तथा मानव मन पर पड़नेवाले विविध प्रभावों का चित्रण ऋतुगीतों में प्राप्त है। कज़री श्रृँगार रस से पूर्ण एक गीत प्रकार है, इसमें विरह प्रेम सभी प्रकार के भाव देखने को मिलते हैं; मुख्यरूप से यह सावन के महीने का विरह गीत है और अवध क्षेत्र तथा जौनपुर में कज़री का एक महत्वपूर्ण स्थान है। मिर्जापुर, जौनपुर, भदोहीं कजरी के लिये प्रमुख माना जाता है। यह मूलत स्त्रियों द्वारा गाये जाते हैं किन्तु कुछेक स्थानों पर पुरुषों द्वारा भी इनका गायन किया जाता है। कजरी गीतों के उद्भव एवं इनके नामकरण को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। तत्सम्बन्धी विभिन्न मत-मतान्तरों के बीच कजरी गीतों ने निरन्तर विकास किया है। यहाँ कजरी गीतों से सम्बन्धित कुछ विचार प्रस्तुत करना समीचीन होगा: 1. कालेकाले भूघराकार मेघों से आच्छादित ऋतु में गाये जाने के कारण इन्हें कजरी कहा गया है। 2. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कजरी गायन परम्परा को मध्यभारत के किसी धर्म परायण एवं प्रजावत्सल राजा दादूँराय से जोड़ते हैं। उनके अनुसार, राजा दादूँराय की मृत्यु पर वहां की स्त्रियों ने अपने दुख को प्रकट करने के लिए एक नये तर्जी के गीतों का आविष्कार किया जो कजरी कहलाये। 3. कजरी गीतों के सम्बन्ध में भारतेन्दु जी ने एक अन्य मत भी प्रस्तुत किया है, जिसका समर्थन अब्राहम गियर्सन ने भी किया है जिसके अनुसार सावन महीने की शुक्ल पक्ष तृतीया से शादी की शुक्ल पक्षीय तृतीय अर्थात हरियाली तीज से लेकर हरितालिका तीज तक इनका गायन किया जाता है। इसीलिए उन्हें कजरी कहा गया। 4. मिर्जापुर और उसके आसपास के क्षेत्रों में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार, कजरी गीतों के गायन का आरम्भ मिर्जापुर से हुआ क्योंकि विन्ध्याचल स्थित विन्ध्यवासिनी का एक नाम कज्जला देवी है। क्षेत्र जब इस में आज भी यह परम्परा विद्यमान है कि भी कोई कजरी लेखक कजरी गीतों का सृजन करता है तो वह अपनी प्रथम कजरी माँ कन्जला देवी अर्थात् विन्ध्यवासिनी को समर्पित करता है। इस क्षेत्र के हिन्दू-मुसलमान कजरी लेखक इस परम्परा का सम्यक निर्वाह करते हैं। 5. भविष्यपुराण के उत्तर पर्व के बीसवें अध्याय में कजरी पर्व और हरिकाली व्रत के सम्बन्ध में एक दृष्टान्त दिया गया है, जो इस प्रकार है- "एक बार युधिष्ठिर के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि एक बार भगवान शिव ने विष्णु आदि देवताओं की उपस्थिति में नील-कमल सी कान्तिवाली अपनी पत्नी हरिकाली को परिहास में काजल सी काली कह दिया। इस परिहास को हरिकाली ने अपना अपमान समझकर छुभित हो अपने शरीर को भस्म कर दिया और हिमाचल के घर में पुनर्जन्म धारण किया " इस कथा से प्रभावित हो कजरी पर्व और कुछ गीतों में स्वर परिवर्तन करके कजरी के रूप में नये गीतों को जन्म दिया। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कजरी या कजली संस्कृत के कज्जल शब्द से निष्पन्न है। 1. अवधी ग्रंथावली खण्ड-एक: जगदीश पियूष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 2. भारतीय संगीत सामाजिक स्वरूप व परिवर्तन: प्रीती राजपाल, यूनीस्टार प्रकाशन, चंडीगढ, 2013 3. सुमंगल से श्रद्धाँजली तक: सूर्यपाल सिंह, दीवी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004 4. पकी जेठ का गुलमोहर, भगवानदास मोरावाल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,
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