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सकल बन फूल रही सरसों, हज़रत निजामुद्दीन की दरगाह पर बसंत पंचमी का त्योहार

जौनपुर

 05-02-2022 02:52 PM
विचार I - धर्म (मिथक / अनुष्ठान)
आज के दिन पूरे भारत में बसंत पंचमी मनाई जा रही है।वसंत पंचमी, जिसे सरस्वती पूजा भी कहा जाता है, देवी सरस्वती के सम्मान में, एक त्योहार है,जो बसंत के आगमन का भी प्रतीक है। यह त्योहार भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों द्वारा क्षेत्र के आधार पर विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है। बसंत पंचमी, होलिका और होली की तैयारी की शुरुआत का भी प्रतीक है, जो इसके चालीस दिन बाद होती है। यह त्योहार विशेष रूप से भारतीय उपमहाद्वीप, से मुख्य रूप से भारत और नेपाल में हिंदुओं द्वारा मनाया जाता है।यह सिखों की भी एक ऐतिहासिक परंपरा रही है। दक्षिणी राज्यों में, इस दिन को श्री पंचमी कहा जाता है तथा बाली (Bali) द्वीप और इंडोनेशिया (Indonesia) के हिंदुओं द्वारा इसे "हरि राय सरस्वती" (सरस्वती का महान दिन) कहा जाता है। माना जाता है, कि इस दिन हिंदू देवी सरस्वती जो कि ज्ञान, भाषा, संगीत और सभी कलाओं की देवी हैं, का जन्मदिन होता है।वह अपने सभी रूपों में रचनात्मक ऊर्जा और शक्ति का प्रतीक है, जिसमें लालसा और प्रेम भी शामिल है। बसंत का मौसम और यह त्योहार,सरसों की फसल के पीले फूलों के साथ कृषि क्षेत्रों में फसल के पकने का जश्न भी मनाता है।सरसों के पीले फूलों को देवी सरस्वती का पसंदीदा रंग माना गया है। इस दिन लोग पीले रंग के वस्त्र और गहने पहनते हैं, और पीले रंग के खाद्य पदार्थों का आपस में आदान-प्रदान करते हैं।हालांकि यह एक हिंदू त्योहार है, लेकिन भारत में मुस्लिम समुदाय के लिए भी यह पर्व एक विशेष महत्व रखता है। क्यों कि मुस्लिम समुदाय के लिए इस पर्व को सूफी संतों द्वारा पेश किया गया था।लोचन सिंह बक्सी के अनुसार, इस हिंदू त्योहार को दिल्ली में मुस्लिम सूफी संत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह को चिह्नित करने के लिए 12 वीं शताब्दी में कुछ भारतीय मुस्लिम सूफियों द्वारा अपनाया गया था और तब से चिश्ती वंशक्रम द्वारा यह पर्व मनाया जाता रहा है।मुगल काल तक, प्रमुख सूफी मस्जिदों में बसंत एक लोकप्रिय त्योहार था जिसे बहुत धूम-धाम से मनाया जाता था। उदाहरण के लिए, निज़ाम औलिया की बसंत, ख्वाजा बख्तियार काकी की बसंत, खुसरो की बसंत के ऐतिहासिक अभिलेख आज भी मौजूद हैं।इन विभिन्न सूफी संतों के दरगाहों के आसपास बसंत के त्योहार को मनाने की व्यवस्था की गई। अमीर खुसरो (1253-1325) और निजामुद्दीन औलिया ने ऐसे कई गीतों के साथ यह त्योहार मनाया, जिसमें बसंत शब्द का इस्तेमाल किया गया था। तेरहवीं शताब्दी के सूफी कवि अमीर खुसरो ने वसंत के बारे में कुछ छंदों की रचना की, जैसे “आज बसंत मनाले, सुहागन, आज बसंत मनाले अंजन मंजन कर पिया मोरी, लम्बे नेहर लगाले, तू क्या सोवे नींद की मासी, सो जागे तेरे भाग, सुहागन, आज बसंत मनाले। ऊँची नार के ऊँचे चितवन, ऐसे दियो है बनाए शाह अमिर तुहाय देखन को, नैनों से नैना मिलाए,सुहागन, आज बसंत मनाले।

सूफी समुदाय में इस त्योहार को मनाने की परंपरा अमीर खुसरो द्वारा शुरू की गई।अमीर खुसरो,हजरत निजामुद्दीन (चिश्ती सम्प्रदाय के संत) के शिष्य थे।हजरत निजामुद्दीन को अपनी बहन के लड़के ख्वाजा नूह से अपार स्नेह था,किंतु नूह का बहुत कम उम्र में ही देहांत हो गया। इस कारण हजरत निजामुद्दीन उदास रहने लगे। उनकी यह हालत देखकर उनके शिष्य अमीर खुसरो भी बहुत उदास थे तथा उनसे अपने गुरू की यह हालत देखी नहीं गयी।उन्होंने अपने गुरू को खुश करने की पूरी कोशिश की।एक दिन अमीर खुसरो ने ख्वाजा के चीला-खनक के पास निजामुद्दीन के घर के बाहर घूमते हुए देखा कि गाँव की महिलाओं के एक समूह ने चमकीले पीले रंग के कपड़े पहने हुए हैं तथा उनके पास सरसों के पीले फूल हैं। वे बेहद निश्छल भावना के साथ गीत गाते और ताली बजाते हुए झूम रहे हैं। जब अमीर खुसरो ने उन लोगों से इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि वे बसंत का त्योहार मना रहे हैं और मंदिर जा रहे हैं, जहां वे अपने देवता या भगवान को खुश करने के लिए नृत्य करेंगे तथा गीत गाएंगे। इन बातों से मंत्रमुग्ध होकर,अमीर खुसरो ने सोचा कि वे भी ऐसा करके अपने देवता या गुरू को प्रसन्न करेंगे। उन्होंने पीले रंग की साड़ी पहनी, सरसों के फूलों से खुद को सजाया, और निजामुद्दीन औलिया के सामने प्रस्तुत हो गए। इसके बाद वे अपने गुरू के सामने बसंत की प्रशंसा में रसीले गीत गाकर नाचने लगे। जब निजामुद्दीन औलिया ने अपने प्रिय शिष्य को पीली साड़ी में देखा तो वे आश्चर्यचकित हो गए तथा हंसने लगे। तब से यह त्योहार खुसरो द्वारा मनाया जाने लगा।उनके मरने के बाद भी निजामुद्दीन की दरगाह पर बसंत पंचमी इस प्रकार से मनाई जाने लगी।अमीर खुसरो द्वारा बसंत पर लिखी गई एक कविता अति प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार है।

सकल बन फूल रही सरसों
बन बन फूल रही सरसों
अम्बवा फूटे टेसू फूले
कोयल बोले डार-डार
और गोरी करत सिंगार
मलनियाँ गढवा ले आईं कर सों
सकल बन फूल रही सरसों
तरह तरह के फूल खिलाए
ले गढवा हाथन में आए
निजामुद्दीन के दरवज्जे पर
आवन कह गए आशिक़ रंग
और बीत गए बरसों
सकल बन फूल रही सरसों।

संदर्भ:
https://bit.ly/3L8Sa2V
https://bit.ly/3B0U9Sm
https://bit.ly/3gpzk9s https://bit.ly/3sjjlzt

चित्र संदर्भ:
1.हज़रत निजामुद्दीन की दरगाह पर बसंत पंचमी का त्योहार(youtube)
2.बसंत पंचमी पर पीले रंग का महत्व(youtube)


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