प्राचीन भारत में भूगोल की समझ तथा भौगोलिक जानकारी के मूल्यवान स्रोत

जौनपुर

 25-11-2021 09:43 AM
ठहरावः 2000 ईसापूर्व से 600 ईसापूर्व तक

आधुनिक समय में आज हमारे पास अंतरिक्ष में उपग्रह हैं तथा जीपीएस (GPS) का उपयोग आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने के लिए किया जा रहा है। हम पहाड़ों और नदियों की उपग्रह छवियों को आसानी से देख सकते हैं तथा मोबाइल फोन जैसे उपकरणों पर दैनिक मौसम पूर्वानुमान भी प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन प्राचीन काल में भारत की भौतिक जानकारियों के स्रोत आधुनिक स्रोतों से भिन्न तथा अल्प थे।
हमारे देश में भारतीय सभ्यता की शुरुआत से ही विभिन्न भौगोलिक अवधारणाएं विकसित होती रही हैं‚ तथा भारतीय भूगोल का एक लंबा इतिहास रहा है। भले ही आज हमारे पास शास्त्रीय भारतीय भौगोलिक अवधारणाओं का एक व्यवस्थित विवरण उपलब्ध नहीं है‚ फिर भी कुछ मूल्यवान भौगोलिक जानकारी हिंदू पौराणिक कथाओं‚ दर्शनशास्रौं‚ महाकाव्यों‚ इतिहास और पवित्र कानूनों में सम्मिलित हैं। कालक्रम के अनुसार‚ वैदिक‚ रामायण‚ महाभारत‚ बौद्धों और जैनियों के कार्य‚ जातक कथाओं तथा पुराण‚ प्राचीन भारतीय भौगोलिक अवधारणाओं के मुख्य स्रोत हैं। प्राचीन काल के भारतीय विद्वानों को भारत और आसपास के देशों की स्थलाकृति‚ आकृति विज्ञान‚ वनस्पतियों‚ जीवों‚ प्राकृतिक संसाधनों‚ कृषि और अन्य सामाजिक आर्थिक गतिविधियों का सटीक ज्ञान था। वैदिक युग ने भूगोलवेत्ताओं को प्रेरित किया और उन्होंने भूगोल की विभिन्न शाखाओं में बहुमूल्य रचनाएँ कीं। रामायण में‚ पहाड़ों‚ नदियों‚ पठारों और महत्वपूर्ण स्थानों की सूची बनाई गई है तथा महाभारत का महाकाव्‍य भौगोलिक ज्ञान के विश्वकोश के रूप में काम कर सकता है। भुवनकोसा अन्य बातों के अलावा‚ जलवायु विज्ञान और मौसम विज्ञान के बारे में विस्तार से बताता है तथा बौद्ध जातक प्राचीन भूगोल का काफी अच्छा ज्ञान प्रस्तुत करते हैं। भारतीय भौगोलिक साहित्य में ‘भुगोला’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सूर्यसिद्धान्त में किया गया था‚ यह शब्द पूर्वजों के लिए जाना जाता है। लेखक इसमें पृथ्वी की सतह की अवधारणा‚ जो भारतवर्ष तथा उसकी भूमि‚ लोग‚ गाँव और नगर नियोजन के संबंध में पूर्वजों की धारणा को स्पष्ट करती है‚ को परिभाषित करने में सफल रहे हैं। प्राचीन भारतीय भूगोल धर्म पर टिका है‚ प्रत्येक भौतिक घटना तथा पृथ्वी की सतह पर प्रत्येक प्रमुख या भव्य स्थलचिह्न‚ भारतीयों के लिए एक धार्मिक पृष्ठभूमि है। भारत में हर पर्वत शिखर‚ नदियां‚ चट्टानें‚ विशाल तथा सार्थक पेड़ पावन तथा अलौकिक हैं और इन परंपराओं में संरक्षित है। धार्मिक अभिलेखों के अलावा‚ दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के वर्णन में यात्रियों और उनके वृत्तांतों की भी प्रचुरता है। इन यात्रियों के विवरण से पता चलता है कि भारत के पड़ोसी देशों के साथ घनिष्ठ संबंध थे और भारतीय विद्वान चीन‚ दक्षिण-पूर्व एशिया‚ मध्य एशिया‚ मेसोपोटामिया (Mesopotamia) और ट्रांस-ऑक्सस एशिया (Trans-Oxus Asia) की भौगोलिक परिस्थितियों से भी परिचित थे। धार्मिक अभिलेखों‚ ऐतिहासिक लेखों तथा यात्रा वृत्तांतों के गहन अध्ययन से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय विद्वानों के पास विभिन्न द्विपों‚ महाद्वीपों‚ पर्वत प्रणालियों‚ नदियों‚ जीवों और उपमहाद्वीप के वनस्पतियों और इसके आसपास की भूमि का भी अच्छा ज्ञान था। वराहमिहिर (उज्जैन, 505-587)‚ ब्रह्मगुप्त‚ आर्यभट्ट‚ भास्कराचार्य‚ भट्टिला‚ उत्पल‚ विजयनंदी तथा अन्य विद्वानों द्वारा किए गए कार्यों ने खगोल विज्ञान‚ गणितीय भूगोल और मानचित्रकारी के विकास में काफी मदद की है। इस प्रकार‚ प्राचीन काल के भूगोल में खगोल विज्ञान को अपने क्षेत्र में शामिल किया गया होगा। भारतीय पद्म पुराणों में भोगोल अर्थात भूगोल‚ खोगोल अर्थात अंतरिक्ष विज्ञान तथा ज्योतिषशास्त्र अर्थात खगोल-विद्या के बीच अंतर किया गया है। पृथ्वी की अवधारणा भूगोल के अध्ययन में सबसे बुनियादी अवधारणा है। वेदों और पुराणों में ‘पृथ्वी’ शब्द का व्यापक रूप से प्रयोग किया गया है। प्राचीन भारतीय साहित्य में ‘भोगोल’ शब्द पृथ्वी के गोलाकार आकार को दर्शाता है। पृथ्वी एक चपटा गोलाकार है जो ध्रुवों पर थोड़ा चपटा होता है‚ इसका भूमध्यरेखीय व्यास 12‚757 किमी और ध्रुवीय व्यास 12‚713 किमी है। वैदिक और पौराणिक साहित्य में पृथ्वी के आयामों के बारे में कोई निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है‚ लेकिन 5 वीं और 6 वीं शताब्दी का खगोल विज्ञान पर साहित्य कुछ ठोस जानकारी देता है। भूमध्य रेखा के संबंध में पृथ्वी की सतह पर एक बिंदु की स्थिति‚ जिसे भूमध्य रेखा से इसकी कोणीय दूरी के रूप में व्यक्त किया जाता है‚ अक्षांश के रूप में जाना जाता है‚ जबकि देशांतर किसी दिए गए बिंदु की कोणीय दूरी है‚ जिसे ग्रीनविच मध्याह्न (Greenwich meridian) के पूर्व या पश्चिम में डिग्री में मापा जाता है। शास्त्रीय भारतीय खगोलविद पृथ्वी की सतह पर किसी बिंदु या स्थान के निर्धारण में अक्षांश (latitudes) और देशांतर (longitudes) के महत्व के प्रति सचेत थे। पुराणों में भी अक्षांश और देशांतर का उल्लेख मिलता है। अक्षांशों के आधार पर उन्होंने पृथ्वी को विभिन्न प्रदेशों में विभाजित किया है। सल्तनत काल की शुरुआत के साथ‚ भारत का पहला भौगोलिक एटलस 1646-47 में जौनपुर में पूरा हुआ‚ यह एक परिचयात्मक विश्व मानचित्र से शुरू होता है‚ जो एक कुंजी के रूप में कार्य करता है और देशांतर और अक्षांश की रेखाओं द्वारा चित्रित किया जाता है। मुहम्मद सादिक इस्फ़हानी का यह एटलस इंडो-इस्लामिक मानचित्रकारी के इतिहास में अद्वितीय है। इसमें 33 क्षेत्रीय मानचित्र हैं जो इसे संदर्भित करते हैं। विश्व मानचित्र में प्रदर्शित होने पर‚ भूमध्य रेखा बाएँ किनारे का निर्माण करती है। कैस्पियन सागर (Caspian sea) और फारस (Persia) केंद्र में हैं। ऊपर पश्चिम में अफ्रीका (Africa) और अंडालूसिया (Andalusia, Spain) तथा नीचे पूर्व में भारत‚ तुर्केस्तान (Turkestan) और चीन (China) हैं। इसमें समुद्र को लाल तथा भूमि को सफेद रंग में दर्शाया गया है।

संदर्भ:
https://bit.ly/3FJwuXK
https://bit.ly/3FGKvoN

चित्र संदर्भ   
1. जौनपुर एटलस मानचित्र को दर्शाता एक चित्रण (prarang)
2. देवीमहात्म्य (मार्कंडेय पुराण) की संस्कृत में 11वीं शताब्दी की नेपाली ताड़-पत्ती पांडुलिपि को दर्शाता एक चित्रण (wikimedia)
3.पौराणिक द्विपास को दर्शाता एक चित्रण (yourarticlelibrary)
4. भारत को कमल फूल के सामान दर्शाने वाला पेरोन मानचित्र एक चित्रण (prarang)



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