नृत्य को आत्मा की छुपी हुई अभिव्यक्ति भी कहा जाता है। संस्कृतियों तथा भौगोलिक परिस्थियों के
आधार पर इसमें ढेरों विविधताएँ पाई जाती है, यहाँ तक की एक ही देश के विभन्न क्षेत्रों, राज्यों में संगीत के
अनेक शैलियाँ देखने को मिल जाती हैं। ऐसी ही एक लोकप्रिय नृत्य शैली शास्त्रीय बैले (Classical ballet)
भी है। बैले एक तरह का नृत्य प्रदर्शन है, जिसकी उत्पत्ति 15वीं शताब्दी में इतालवी नवजागरण के दौरान
हुई, और आगे चलकर फ्रांस, इंग्लैंड और रूस में इसे एक समारोह नृत्य शैली के तौर पर विकसित किया
गया।
शास्त्रीय बैले, बैले शैलियों में नृत्य का सबसे व्यवस्थित रूप माना जाता है, जिसमे पारम्परिक बैले
तकनीकों का पालन किया जाता है। हालाँकि इसकी उत्पत्ति को लेकर कई विविधताएँ देखने को मिल जाती
हैं, जैसे रूसी बैले, फ्रांसीसी बैले, डेनमार्क का बोर्नोविले बैले और इतालवी बैले इत्यादि। परंतु सबसे अधिक
प्रासंगिक बैले शैलियों की बात करे, तो उनमे से रूसी विधि (Russian method) , इतालवी विधि (Italian
ballet) , डेनमार्क की विधि (Denmark's Bournonville ballet) , बैलेंशाइन विधि (Balanchine
method) या न्यूयॉर्क सिटी बैले (New York City ballet method) विधि खासा लोकप्रिय हैं।
यह नृत्य मुख्य रूप से अपने सौंदर्यशास्त्र और कठोर तकनीक (जैसे नुकीले जूते, पैरों का घुमाव (Turnout)
और उच्च विस्तार) , इसके बहाव, सटीक हावभाव और इसके अलौकिक गुणों के लिए जाना जाता है।
शास्त्रीय बैले नृत्य के लिए प्रारंभ में नुकीले जूते (इनका मूल आकार चप्पलों की ही भांति होता था, जिनकी
नोक पर भारी काम (रफू) किया होता था।) इस प्रकार से यह जूता नर्तकी को कुछ समय के लिए अपने
अंगूठो में खड़ा होने में सक्षम बनाता था। हालांकि बाद में इसे पूरी तरह से नया रूप देकर एक सख्त (ठोस)
जूते की नोक का रूप दे दिया गया, और आज भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।
क्षेत्रीय भिन्नताओं के आधार पर शास्त्रीय बैले नृत्य में शैलीगत भिन्नताएँ आ जाती हैं, उदारहण के लिए
रूसी बैले में नृत्य के दौरान बारीकियों और तीव्र मोड़ो पर-पर अधिक ध्यान दिया जाता है। वही दूसरी ओर
इतालवी बैले में तेज़ गति के साथ पैरों के कदमताल (Footwork) पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाता है,
साथ ही नृत्य के दौरान नर्तक ज़मीन से भी अधिक संपर्क में रहते हैं। इसके अलावा भी कई शैलीगत
विविधताएँ विशिष्ट प्रशिक्षण विधियों से जुड़ी हैं, जिन्हें उनके प्रवर्तकों के नाम पर रखा गया है।हालाँकि
अनेक विविधताओं के बावजूद, शास्त्रीय बैले का प्रदर्शन और शब्दावली पूरी दुनिया में काफ़ी हद तक
सुसंगत (मूल रूप से सामान) है।
पहली बार बैले की उत्पत्ति इतालवी पुनर्जागरण के दौरान हुई। जिसके बाद 16 वीं शताब्दी के बाद यह फ्रांस
में भी कैथरीन डे' मेडिसी (Catherine de' Medici) द्वारा लाई गई और लोकप्रिय हुई। प्रारंभ में इस नृत्य
शैली का शौकिया तौर पर प्रदर्शन किया जाता था, परन्तु 17 वीं शताब्दी में, जैसे-जैसे फ्रांस में बैले की
लोकप्रियता बढ़ी, यह धीरे-धीरे एक पेशेवर कला में परिवर्तित होने लगा। शुरुआत में बैले प्रदर्शन में
चुनौतीपूर्ण प्रदर्शन को केवल अत्यधिक कुशल सड़क मनोरंजनकर्ताओं (street entertainers) द्वारा ही
किया जा सकता था। परंतु इसकी लोकप्रियता को देखते हुए 1661 में किंग लुई XIV (King Louis XIV)
द्वारा विश्व का पहला बैले स्कूल एकेडेमी रोयाले डी डांस (Académie Royale de Danse) स्थापित
किया गया। जिसका उद्देश्य फ्रांस में नृत्य प्रशिक्षण की गुणवत्ता में सुधार करने के साथ ही बैले को
औपचारिक तौर पर पाठ्यक्रम में जोड़ना भी था।
हालाँकि पश्चिमी शास्त्रीय बैले अभी भी भारत में एक बहुत अधिक परिचित नृत्य नहीं है, किंतु पिछले कुछ
वर्षों में, यहाँ भी होनहार प्रतिभाओं का उभरना शुरू हो गया है। यहाँ अक्सर वंचित या कामकाजी वर्ग के
परिवारों में नर्तकियाँ देखने को मिल जाती हैं। हालाँकि जिनका पहले से पश्चिमी शास्त्रीय संगीत या नृत्य
से कोई सम्बंध नहीं है।
चूँकि भारत में लाइव बैले का प्रदर्शन नहीं होता, जिस कारण अधिकांश लोग विशेष रूप से बॉलीवुड की
फ़िल्मों या इंटरनेट के माध्यम से इस बारे में जान पाए हैं। प्रासंगिक तौर पर हम दिल्ली के बाहरी इलाके में
रहने वाले कमल सिंह को ले सकते हैं, जिनके पिता एक रिक्शा चालक हैं, 2013 की बॉलीवुड फ़िल्म
एबीसीडी: एनी बॉडी कैन डांस (Any Body Can Dance) में एक बैले नृत्य के दृश्य ने उन्हें दिल्ली में एक
बैले इंस्ट्रक्टर के साथ प्रशिक्षित करने के लिए प्रेरित किया। और तीन साल बाद, वह इंग्लिश नेशनल बैले
स्कूल में आगे की पढ़ाई कर रहे हैं। कई बैले नवागंतुकों के लिए बड़ा केंद्र मुंबई, भारत का "सपनों का शहर"
रहा है, जो अपने संपन्न फ़िल्म उद्योग के लिए जाना जाता है।
अक्सर भारतीय नृत्य-नाटकों को भी बैले नृत्य के समरूप ही माना जाता है, 1942 में इंडियन पीपल्स
थिएटर एसोसिएशन (Indian People's Theater Association) उभरकर सामने आया, उन्होंने IRA
(भारतीय पुनर्जागरण कलाकार) के साथ मिलकर कई उत्कृष्ट बैले रचनाएँ कीं। इनमें' द स्पिरिट ऑफ
इंडिया (Spirit of India),' इंडिया इम्मोर्टल('India Immortal) 'और' द डिस्कवरी ऑफ इंडिया(The
Discovery of India)' शामिल हैं।
धीरे-धीरे भारतीयों ने बैले मूल से हटकर अपनी ख़ुद की शैली बनाई, ऑपरेटिव बैले, इसका उदाहरण हैं। यहाँ
गाने भी स्वयं गायकों या नर्तकियों द्वारा प्रस्तुत किए गए थे। (पश्चिमी बैले के साथ ऐसा कभी नहीं था)
और दृश्यता को हटा दिया गया था, और जल्द ही बैले नृत्य-नाटक बन गया। कथकली, कुचिपुड़ी, मेलम
परंपराओं की शुरुआत भी यही से हुई थी थी। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में प्रक्षिशण देने वाले संस्थानों में नए
भागीदारों (नर्तकों) के दाखिले भी बढ़ रहे हैं। जब टुशना डलास (Tushna Dallas) ने 1966 में मुंबई में द
स्कूल ऑफ़ क्लासिकल बैले एंड वेस्टर्न डांस (The School of Classical Ballet and Western Dance)
की स्थापना की, तो उनके चार छात्र थे। आज, उनकी बेटी खुशचेर डलास (Khushcher Dallas) , जो स्कूल
चलाती हैं, कहती हैं कि 300 से अधिक नामांकन हैं और रुचि चरम पर होने के साथ, स्क्रीनिंग और प्रदर्शन
भी बेहद आम हो गए हैं।
संदर्भ
https://bit.ly/3eMGrID
https://bit.ly/36V20m0
https://bit.ly/2TuhTNj
https://bit.ly/3ztre79
चित्र संदर्भ
1. बैले नर्तकियों का एक चित्रण (flickr)
2. बैले नृत्य के लिए उपयुक्त जूतों का एक चित्रण (flikcr)
3. भारतीय बैले नर्तकियों का एक चित्रण (flickr)
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