गाँवों में अक्सर बगीचों, बाँस की कोठ, तालाबों के किनारे एक जानवर देखने को मिल जाता है जिसके प्रति लोगों में दोहरी मानसिकता है। कुछ लोग इसे मगरगोह, गोह, मगरगोहटा आदि नाम से बुलाते हैं तथा कुछ इसे बिसखोपड़ा या खोपड़ा, बितनुआ नाम से। इन दोनों नामों को लेकर यह धारणा समाज में व्याप्त है कि मगरगोह, गौ जैसी सीधी है तथा बिसखोपड़ा सांप से भी ज्यादा जहरीला। यह एक कारण है कि वर्तमान में इस प्रजाती का शिकार बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। पर्यावरण शास्त्रियों से लेकर नृतत्वशास्त्रियों द्वारा कितने ही प्रयास किये जा रहे हैं पर इन जानवरों का शिकार रोका जाना संभव नहीं प्रतीत हो रहा है। सरकार ने इसे विलुप्तप्राय जीव की संज्ञा दे दी है लेकिन जहाँ मानव की धारणा की बात हो वहाँ पर कोई कुछ नहीं कर सकता है। वास्तविकता में जिसे लोग जहरीला और विषैला जीव मानते हैं वह कुछ और नहीं बल्की मगरगोह का ही बच्चा है। गोह सरीश्रिपों के स्क्वामेटा गण के वैरानिडी कुल के जीव हैं, जिनका शरीर छिपकली के आकार का, लेकिन उससे बहुत बड़ा होता है। ये ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका से लेकर सम्पूर्ण एशिया में पाये जाते हैं। मगरगोह का आकार 10 फीट तक हो सकता है तथा ये दलदल, तालाब, या जलीय स्थान को अपने बसेरे के लिये चुनते हैं। मगरगोह अपने भोजन में मछली, मेंढक, केकड़े, कीड़े-मकोड़े आदि पसंद करते हैं। भारत में मगरगोहों की छ: जातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें कवरा गोह सबसे प्रसिद्ध है। मगरगोह के बच्चे जिसे सब बिसखोपड़ा समझते हैं, चटकीले रंग के होते हैं, जिनकी पीठ पर बिंदियाँ पड़ी रहती हैं। मगरगोह की एक और खास बात यह है कि ये अच्छे तैराक होने के साथ-साथ अच्छे धावक भी होते हैं जिसके कारण इनको पकड़ पाना अत्यन्त दुर्गम हो जाता है। भारत में इन गोहों को पालने की भी परम्परा रही है। इनके पंजों की पकड़ बड़ी मजबूत होती है, कहते हैं शिवाजी के सैनिक इनका उपयोग दुर्गम किलों पर चढ़ने के लिए करते थे। प्रशांतमहासागर के आदिवासी मगरगोह को खाते भी हैं। इनका शिकार इनके खाल के लिये भी किया जाता है। मगरगोह के लिंग को कालीशक्तियों वाली जड़ के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बेचा जाता है। इन सारे अंधविश्वासों के कारण ही वर्तमान समय में मगरगोह आज विलुप्तता के कगार पर खड़ा है। जौनपुर में पहले ये मगरगोह बड़ी संख्या में दिखाई देते थे परन्तु वर्तमान में ये विरले ही दिखाई देते हैं। जिले में यह धारणा आज भी व्याप्त है कि बिसखोपड़ा जो कि मगरगोह का ही बच्चा है बहुत विषैला होता है, इस कारण ने इनकी मृत्यु के कपाट को खोल दिया है। इस प्रकार के अंधविश्वास को फैलाने में सोखों का बड़ा योगदान है जो कि कुछ जड़ी-बूटी के द्वारा व्यक्ति को ठीक करने का दम-खम दिखाते हैं। वास्तविकता में मगरगोह या बिसखोपड़ा जहरीला होता ही नहीं है। बिसखोपड़ा के काटने से कई तो सदमे में आकर मर जाते हैं जिसमें जहर का शून्य योगदान होता है। इसके काटने पर सोखा, व्यक्ति को एक महीने सोने तक नहीं देता जिससे व्यक्ति पागल होने लगता है। अब लोग इसे जहर का असर मानते हैं। यही सब अंधविश्वास आज इस खूबसूरत प्रजाति के जान का जंजाल बना हुआ है। अंधविश्वास से प्रकृति को होने वाली हानि को राकेश रोशन ने बखूबी अपनी कविता में दर्शाया है-
शिकायत है मुझे उस समाज से
अंधविश्वास में जीते हर उस इन्सान से
दिल में बसे उनके मंद – बुद्धि जज़्बात से…
कहते हैं वो,
पुरखों से चली आई, परम्परागत विद्या,
ये महान है।
करेंगे सब कुछ, इसे ही मानते वो अपनी आन हैं,
सत्य से ना जाने, वो क्यों अंजान हैं,
मेरी नज़रों में, ये मूर्खता अति महान है।
शिकायत है मुझे उस समाज से,
आँखों पे अँधा नकाब ओढ़े,
अंधेरों में राह तलाशने के प्रयास से।
पाखन्डी बाबाओं में ढूंढते,
वो तेरा स्वरुप निरंकार हैं,
विज्ञान का ज्ञान नहीं, परम ज्ञान का जिन्हें अहंकार है।
ना जाने समस्या का, ये कैसा समाधान है,
जहाँ नर बलि जैसी प्रथा भी, लगती आम है।
शिकायत है मुझे उस समाज से,
अन्धें कुंए में डूब,
प्यास बुझाने के रस्म-ओ-रिवाज़ से।
वंश बढ़ाने को वो तत्पर, हर बार हैं,
पर एक नन्ही परी के आगमन को,
मानते वो एक अभिशाप हैं।
वासना की हवस में,
करते हैं वो, जो दुष्कर्म,
तुम्हीं कहो, क्या नहीं
वो सबसे घिनौना पाप है।
पर मानो या ना मानो,
अंधविश्वासों की इस दुनिया में,
सब कुछ माफ़ है।
एक अंधी बस्ती है,
अँधेरे में भटकता, एक अधमरा समाज है।
दिनोदिन बढ़ता रहता,
ऐसा ये अन्धविश्वास है।
अँधेरे को चीरती रौशनी की,
मुझे एक आस है।
अंधविश्वासों को तोड़,
ज्ञान की एक प्यास है,
होंगें कामयाब हम, अब एक दिन
दिल को मेरे ये विश्वास है।