कोविड -19 महामारी के भारत में आगमन ने कृषि संकट को और अधिक बढ़ा दिया है।भारत में
ग्रामीण श्रमजीवी वर्ग, गरीब किसान और मध्यम किसानों का एक वर्ग प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ
है।मौजूदा ग्रामीण रोजगार गारंटी योजनाओं (Rural employment guarantee scheme) के विस्तार,
किसानों को विभिन्न इनपुट सब्सिडी (Input subsidies), ग्रामीण उत्पादकों के लिए सुरक्षा सामग्री के
सार्वभौमिक प्रावधान और खाद्यान्न की विस्तारित सार्वजनिक खरीद सहित कृषि संकट की इस
वृद्धि से निपटने के लिए एक समग्र नीतिगत पहल का सुझाव दिया गया है।
भारत में अनियोजित तालाबंदी के परिणामस्वरूप कृषि संबंधों की पुनरुत्पादक प्रक्रिया में कई तरह के
व्यवधान उत्पन्न हुए हैं:
सबसे पहला, अनियोजित तालाबंदी के कारण कुछ मामलों में किसानों द्वारा कृषि उत्पादन की बिक्री
में देरी हुई है, जिसके परिणामस्वरूप खराब होने वाली वस्तुओं में भारी नुकसान का सामना करना
पड़ा है।इस समस्या को कम करने के लिए आवश्यक सीमा तक कृषि उत्पादन की सार्वजनिक खरीद
शुरू नहीं की गई है।
दूसरा, अनियोजित तालाबंदी के कारण संकटग्रस्त कीमतों पर कृषि उत्पादों की गैर-बिक्री या आंशिक
बिक्री के परिणामस्वरूप, कई किसान ऋण भुगतान प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में असमर्थ रहे हैं,
कृषि ऋण के शोषण के कारण भविष्य में कृषि उत्पादन की दरिद्रता या कमी या संदिग्ध व्यवहार्यता
का संयोजन होना संभव है।
तीसरा, संकट-आधारित क्षेत्रीय ग्रामीण-से-ग्रामीण या ग्रामीण-से-शहरी प्रवास, कोविड -19 महामारी की
शुरुआत के बाद, पंजाब जैसे कुछ क्षेत्रों में कृषि के लिए श्रम की कमी हुई है।
चौथा, अनियोजित तालाबंदी के परिणामस्वरूप शहरी-से-ग्रामीण प्रवास में भारी संकट उत्पन्न हुआ है,
जिसके परिणामस्वरूप ग्रामीण श्रमजीवी वर्ग और गरीब किसानों दोनों के जीवन स्तर में गिरावट आई
है, लेकिन मजदूरी वार्ता में उनकी सौदेबाजी की शक्ति में भी संभावित गिरावट आई है।
पांचवां, कोविड -19 महामारी की शुरुआत के कारण गरीब किसानों और ग्रामीण श्रमजीवी वर्ग की
आय में कमी के साथ-साथ लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के कारण खाद्य सुरक्षा में अंतराल के
परिणामस्वरूप इन दो वर्गों के सदस्यों और मध्यम किसानों के एक वर्ग के लिए खाद्य असुरक्षा में
वृद्धि हुई है।
छठा, कोविड -19 महामारी के लिए नीतिगत प्रतिक्रिया के सार और विवरण दोनों के कारण ग्रामीण
क्षेत्रों में कोविड -19 संक्रमण के प्रसार ने ग्रामीण आबादी (विशेष रूप से ग्रामीण गरीब जिसमें ग्रामीण
सर्वहारा वर्ग, गरीब किसान और मध्यम किसानों का एक वर्ग शामिल है) की रोग भेद्यता (रुग्णता
और मृत्यु दर दोनों) में वृद्धि की है।
कोविड -19 महामारी के कारण भारत में कृषि संकट के बढ़ने की प्रक्रिया के छह आयामों के लिए
एक समग्र राजनीतिक प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। दरसल महामारी के कारण लाभ के अनुसरण के
विभिन्न घटकों के सभी पहलुओं में प्रतिकूल परिवर्तन हुए हैं।हालांकि, ये प्रतिकूल परिवर्तन विभिन्न
वर्गों पर विषम रूप से प्रभाव डालते हैं। उदाहरण के लिए, पूंजीवादी जमींदार और अमीर किसान
(सामूहिक रूप से ग्रामीण अमीर) अक्सर अन्य आर्थिक गतिविधियों में शामिल होते हैं, जिसके
परिणामस्वरूप फसल उत्पादन की कम व्यवहार्यता से उन पर कम प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
इसके अलावा, ग्रामीण श्रमजीवी वर्ग और गरीब किसान पर्याप्त ग्रामीण रोजगार प्राप्त करने में सक्षम
नहीं हैं। मध्यम किसानों की संभावनाएं संभवतः ग्रामीण अमीर और ग्रामीण श्रमजीवी वर्ग और गरीब
किसानों के बीच मध्यवर्ती हैं।उत्पादन तब तक फायदेमंद नहीं है जब तक उसे उपयोग का एक बेहतर
स्रोत नहीं मिल जाता है और उपयोग तब तक पूरा नहीं होता है जब तक कि उसे बाजार में बेचने के
लिए एक उचित बाजार प्रणाली नहीं मिल जाती है और कोविड के कारण बाजार प्रणाली इसके लिए
पूरी तरह से खुला नहीं है, इसलिए किसान जो उत्पादन कर रहे हैं वह बाजार तक नहीं पहुंच रहा है
जिस वजह से वह संपूर्ण लाभ अर्जित नहीं कर पा रहा है। इसके अलावा यह किसानों के लिए फसल
बोने का समय है लेकिन बाजार के आंशिक रूप से खुलने के कारण वे उर्वरक, कीटनाशक नहीं खरीद
पा रहे हैं और यह सब एक साथ कृषि के लिए विनाशकारी है।
हालांकि महामारी से पूर्व भारत में जहां किसानों की आत्महत्याओं की खबर आए दूसरे दिन सुनाई
देती थी, तो वहीं किसानों द्वारा कृषि छोड़ अन्य पेशे को चुनना कृषि के लिए काफी गंभीर संकटों में
से है। दिल्ली में स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ (Centre for Study of
Developing Societies) ने पाया कि देश में अधिकांश किसान खेती के अलावा किसी अन्य विकल्प
को चुनना पसंद करेंगे। इसका मुख्य कारण खराब आय, धुंधला भविष्य और तनाव है। इस सर्वेक्षण
में शामिल 18% लोगों ने कहा कि वे परिवार के दबाव के कारण ही खेती को जारी रख रहे हैं।एक
सर्वेक्षण से पता चलता है कि 76% किसान खेती के अलावा कुछ अन्य काम करना पसंद करेंगे और
इनमें से 60% किसान बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार को देखते हुए शहरों में नौकरी का
विकल्प चुनना पसंद करेंगे।
साथ ही किसानों के एक उच्च प्रतिशत ने बार-बार खेती में होने वाले नुकसान की शिकायत की और
70% ने कहा कि बेमौसम बारिश, सूखा, बाढ़ और कीट के हमले के कारण उनकी फसलें नष्ट हो
जाती हैं।इस अध्ययन के विवरण में पाया गया कि सरकारी योजनाओं और नीतियों का लाभ
ज्यादातर बड़े किसानों को दिया जा रहा है जिनके पास 10 एकड़ (4.05 हेक्टेयर) और उससे अधिक
की भूमि है। 1-4 एकड़ (0.4 से 1.6 हेक्टेयर) औसत भूमि वाले गरीब और छोटे किसानों को केवल
10% सरकारी योजनाओं और सब्सिडी (Subsidy) से लाभ हुआ है। वहीं कई किसानों ने अपनी
वर्तमान स्थिति के लिए राज्य और केंद्र सरकारों को दोषी ठहराया, जिनमें से 74% का आरोप था कि
उन्हें कृषि विभाग के अधिकारियों से खेती से संबंधित कोई जानकारी नहीं मिलती है। वहीं भारत में
कृषि संकट दो कारकों की वजह से उत्पन्न हुआ है, पहला हरित क्रांति से कम लाभ की स्थिति की
पहचान करने में विफलता और दूसरा सब्सिडी का आर्थिक प्रभाव। घटती मिट्टी की उर्वरता, पानी में
कमी और बढ़ती लागत (हरित क्रांति के सभी प्रभाव) किसानों को खेती से खराब लाभ दिलाने के
प्रमुख कारणों में से हैं। वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो कृषि सामग्रियों के लिए मांग और आपूर्ति की
प्रकृति को नहीं समझने के कारण नीतिगत विफलताएं उत्पन्न हुई हैं। यदि बाज़ार में मांग बहुत
अधिक है, यानि बाजार में 100 किलो टमाटर की मांग है और यदि कोई 125 किलो टमाटर की
आपूर्ति करता है, तो टमाटरों की कीमतें अवश्य ही गिर जाएंगी। इसके विपरीत, यदि केवल 75 किलो
टमाटर की आपूर्ति की जाए, तो उनकी कीमतें आसमान छू जाती हैं।
तो भारतीय किसान जो बोते हैं, उसका लाभ उन्हें क्यों नहीं मिल पाता है?यदि देखा जाए तो वास्तव
में, 3-एकड़ किसान की वार्षिक आय एक आईटी (IT) क्षेत्र या कॉर्पोरेट (Corporate) नौसिखिया की
तुलना में बहुत कम है। एक कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते, हमारे देश के लिए हमारे किसान बहुत
अधिक मूल्यवान हैं। किसानों के लिए अधिक सक्षम वातावरण बनाने के लिए कुछ कदम उठाए जा
सकते हैं: जैसे,
किसानों के लिए जोखिम को कम करना और कृषि मूल्य श्रृंखला को समान रूप से वितरित
किया जाना चाहिए।
अंतिम उपभोक्ता से उत्पन्न मूल्य का उचित हिस्सा किसानों को सुनिश्चित किया जाना
चाहिए।
विभिन्न फसलों के बीच नीतिगत ढांचे समान रहते हैं और कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं डालते
हैं। चाहे वे बुनियादी खाद्य अनाज और दालें हों, या कपास, गन्ना, मिर्च की तरह
वाणिज्यिक फसलें जो उद्योगों में प्रयोग होती हैं या फल व सब्ज़ियाँ जो घरेलू खपत या
निर्यात फसलें हैं, सभी में समान व्यापक आघात नीति उपायों का उपयोग किया जाता
है।भारतीय किसान क्या उत्पन्न करता है और उपभोक्ता क्या मांग करते हैं, इसके बीच एक
फासला है।
किसान किसी भी समूहक, खाद्य प्रोसेसर (Processor) और खुदरा श्रृंखला से जुड़े न होने के कारण
उपज की प्रकृति को आकार देने में मदद करने में असफल हैं। उनकी खेती का उत्पादन सालाना एक
ही रहता है, जो काफी हद तक किसानों पर निर्भर है और अक्सर सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य
कार्यक्रम द्वारा संचालित होता है।किसान को आपूर्तिकर्ता के रूप में मुश्किल से ही सशक्त बनाया
जाता है, क्योंकि यह पूर्णरूप से व्यापारियों पर निर्भर है।भारतीय जनसंख्या का 60% हिस्सा
आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है जबकि कृषि के माध्यम से राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में
योगदान केवल 14% है। नई प्रौद्योगिकी समाधानों का अभाव किसान को वैश्विक स्तर पर एक
समान अवसर हासिल करने से रोकता है। भारतीय कृषि क्षेत्र में क्रांति लाना काफी आवश्यक है, और
इसके लिए अल्पकालिक निश्चित नहीं, बल्कि दीर्घकालिक, रणनीतिक, स्थायी उपायों की जरूरत है।
संदर्भ :-
https://bit.ly/2SSLfVl
https://bit.ly/3jPr5GT
https://bit.ly/2TAt2MI
https://bit.ly/3wnLMfF
https://bit.ly/39MQ8Tl
https://bit.ly/3wjmI9r
https://bit.ly/35plJqU
चित्र संदर्भ
1. चावल की खेती के लिए तैयारी करता एक भारतीय किसान (wikimedia)
2. भारत में प्रति 100,000 लोगों पर किसान और कुल आत्महत्या दर का एक चित्रण (wikimedia)
3.भारत में जिलेवार कृषि उत्पादकता का एक चित्रण (wikimedia)
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