मार्च 2020 में कोविड-19 मामलों की बढ़ती संख्या से निपटने के लिए भारत सरकार द्वारा पहला लॉकडाउन
(lockdown) जारी करने के ठीक बाद, भारत में ऊर्जा की खपत में नाटकीय रूप से गिरावट आई और इस मांग
की कमी की वजह से बिजली का उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ। मार्च 2020 में भारत की बिजली की खपत
9.24% तथा 22.75% घट गई, लेकिन बिजली की खपत में यह गिरावट मई में घटकर 14.16% रह गई।
अप्रैल 2020 को देश की बिजली की खपत में लगभग 19% की गिरावट आई, और लॉकडाउन शुरू होने के ठीक
बाद के दो हफ्तों में कोयला आधारित बिजली उत्पादन में 26% की कमी आई, गिरावट की सबसे बड़ी वजह
औद्योगिक गतिविधियां का पूरी तरह से ठप हो जाना था, इस अवधि में सबसे ज्यादा मांग की कमी औद्योगिक
राज्यों में आई। बिजली की मांग में कमी की सीधा असर देश में औद्योगिक गतिविधियों पर देखने को मिला।
लॉकडाउन की वजह से हर तीसरे छोटी और मझोली इकाइयों के बंद होने का खतरा पैदा हो गया था। ऐसे में
अगर यह इकाइयां बंद हो जाती, तो जाहिर है कि बिजली की मांग भी घट जाती, इसका सीधा असर रोजगार
पर दिखने को मिलता।
हालांकि लॉकडाउन के दौरान घरेलू ऊर्जा खपत में वृद्धि तो हुई परंतु उद्योग क्षेत्र में
ऊर्जा खपत की मात्रा घरेलू उपयोग से काफी अधिक होती है, और इस प्रकार, सामान्य रूप से लॉकडाउन का
ऊर्जा खपत पर नकारात्मक प्रभाव देखने को मिला।
हालांकि, जैसे ही लॉकडाउन में ढील दी गई, ऊर्जा की खपत में सुधार होने लगा। इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च
(India Ratings and Research) ने एक रिपोर्ट में कहा, मार्च 2021 में, भारत में ऊर्जा मांग साल-दर-साल
22.8 प्रतिशत की दर से बढ़कर 122 बिलियनयूनिट (billion units) पहुंच गई है। गर्मी के मौसम की शुरुआत
ने भी उच्च मांग में योगदान दिया। ऊर्जा की मांग में सुधार और हाइड्रों (hydro) तथा नवीकरणीय स्रोतों से कम
उत्पादन ने मार्च 2021 में थर्मल प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) (thermal plant load factor (PLF)) को
बढ़ाकर 66.5 प्रतिशत की वृद्धि प्राप्त करने में मदद की है।मार्च 2021 में अक्षय स्रोतों से बिजली उत्पादन 10.1
प्रतिशत बढ़कर 11.9 बिलियन यूनिट हो गया, जिसमें सौर उत्पादन 21 प्रतिशत बढ़ गया। पूरे वित्तीय वर्ष
2020-21 में, अक्षय ऊर्जा उत्पादन 5.8 प्रतिशत बढ़कर 146.4 बिलियन यूनिट हो गया। लॉकडाउन खुलने के
बाद ऊर्जा खपत पर सकारात्मक प्रभाव देखने को मिले। अमीर क्षेत्र अपनी ऊर्जा खपत को पहले के स्तर पर
पुनर्प्राप्त कर लिया। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस अवधि में आर्थिक गतिविधियां धीरे-धीरे फिर से शुरू हो गई हैं।
साथ ही गर्मी भी बढ़ी है। इस कारण घरेलू और कॉमर्शियल (commercial) मांग बढ़ने की पूरी उम्मीद है। जो
अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने का भी संकेत है।परंतु पूर्वी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में ऐसे सकारात्मक प्रभाव नहीं
देखने को मिला, जोकि अध्ययन में जांचे गए पांच क्षेत्रों में सबसे गरीब क्षेत्र थे।इसका तात्पर्य यह है कि गरीब
क्षेत्रों को अपनी अर्थव्यवस्था को कोविड-19 संकट से हुए नुकसान से उबरने के लिए विशेष सहायता और नीति
की आवश्यकता है।
ऊर्जा खपतकी मांग में वृद्धि देश की जनसंख्या पर भी निर्भर करती है। साथ ही बढ़ती आबादी का मतलब है कि
हमें अपने नवीकरणीय संसाधनों पर दबाव डालने के साथ-साथ अधिक भोजन, पानी और आश्रय की
आवश्यकता होगी।आने वाले दस से 20 वर्षों में वैश्विक ऊर्जा मांग और अधिक बढ़ जायेगी, क्योंकि दुनिया
विद्युतीकरण, ऊर्जा दक्षता और अधिक सेवा-संचालित आर्थिक विकास पर केंद्रित है।यदि आप पिछले 100 वर्षों
को देखें, तो हमने देखा है कि ऊर्जा की मांग प्रति वर्ष लगभग दो से तीन प्रतिशत बढ़ती है, जो कि वैश्विक
आर्थिक विकास के अनुरूप है। लेकिन अनुमान है कि आने वाले समय में ऊर्जा की मांग में वृद्धि और आर्थिक
विकास की दर में अंतर आने की उम्मीद है। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (International Energy Agency) के
अनुसार 2018 में भारत की ऊर्जा मांग वैश्विक वृद्धि से आगे निकल गई। भारत में ऊर्जा की मांग में 2018 में
4% वृद्धि देखी गई थी, जबकी दुनिया भर की विकसित अर्थव्यवस्थाओं में 2018 में 2.3% की वृद्धि दर्ज की
गई थी।
वर्तमान में, पृथ्वी की जनसंख्या में हर आठ घंटे में 60,000 लोग बढ़ जाते हैं। यानी दुनिया भर में कहीं न कहीं
हर सेकेंड में दो बच्चे पैदा होते हैं।विशेषज्ञों का मानना है कि यदि हम इसी गति से बढ़ते रहे, तो हमें 2050 तक
मानवता को बनाए रखने के लिए 50 प्रतिशत अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होगी।हालाँकि विकसित देश
विकासशील देशों की तुलना में उतनी तेजी से नहीं बढ़ रहे हैं, लेकिन उनकी आबादी में भी वृद्धि देखी जा
सकती है। और जैसा कि प्रत्येक मानव को पृथ्वी में जोड़ा जाता है, संसाधन एक कीमती वस्तु के रूप में
विकसित हो जाते हैं, विशेष रूप से गैर-जीवाश्म जैसे जीवाश्म ईंधन, जो विश्व को अधिकांश ऊर्जा प्रदान करते
हैं।ऊर्जा की खपत करने वाले ऊर्जा संसाधनों की मांग करते हैं जो उन्हें दुर्लभ बनाते हैं और उनको निकालना
कठिन हो जाता है।कच्चे तेल की खपत में ये वृद्धि इतिहास में सबसे अधिक जनसंख्या वृद्धि के साथ हुई है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कम जनसंख्या वृद्धि के बाद, 1964 में विकास तेजी से बढ़कर 2.2% के शिखर पर
पहुंच गया, जो दुनिया में अब तक की उच्चतम दर है। वहीं ऊर्जा की खपत और जनसंख्या वृद्धि के बीच संबंध को
विभिन्न प्रकार की ऊर्जा खपत के अलग-अलग प्रभाव से देखा जा सकता है। यदि बायोमास एकमात्र ऊर्जा स्रोत
है, तो आबादी बहुत तेजी से नहीं बढ़ेगी। ऊर्जा स्रोत के रूप में कोयले के उद्भव ने जनसंख्या वृद्धि की वहन
क्षमता की सीमा को समाप्त कर दिया जिसके लिए किसी भी पारंपरिक और बायोमास ऊर्जा आधारित संस्कृति
को अंततः सामना करना पड़ेगा। बायोमास आधारित जनसंख्या धीमी दर से बढ़ सकती है, जब तक कि इसमें
प्रवास करने के लिए सीमांत भूमि है।
लेकिन केवल हमारी जनसंख्या वृद्धि दर को कम करने से हमारी ऊर्जा खपत की समस्या का समाधान नहीं
होगा। इसके बजाय, विशेषज्ञों का कहना है कि हमें ऊर्जा के स्वच्छ, अधिक कुशल स्रोत खोजने चाहिए, अपनी
वर्तमान खपत में कटौती करनी चाहिए और सरकारों को सख्त नियमों के लिए प्रेरित करना चाहिए।समाधान
जो भी हो, विशेषज्ञों का मानना है कि अगर बदलाव की कोई उम्मीद है तो दुनिया भर में सामूहिक प्रयास की
जरूरत है।
संदर्भ:
https://bit.ly/3gpVOXD
https://bit.ly/3gip7fG
https://bit.ly/3wh3wtX
https://bit.ly/2TRqXeO
https://bit.ly/3xhHvuS
चित्र संदर्भ
1. एन्नोर, चेन्नई के पास 220 केवी ट्रांसमिशन लाइन का समर्थन करने वाला एक टावर का एक चित्रण (wikimedia)
2. विभिन्न स्रोत द्वारा भारत अक्षय बिजली उत्पादन का एक चित्रण (wikimedia)
3. 31 मार्च 2019 तक भारत में विद्युतीकरण की स्थिति का एक चित्रण (wikimedia)
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