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सिख समुदाय में बैसाखी सबसे पावन और बेहद खास पर्वों में से एक माना जाता है। बैसाखी प्रतिवर्ष 14-15 अप्रैल को हिन्दू तथा सिख समुदाय में बेहद धूम-धाम तथा हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। वस्तुतः यह दिन अनेक रिवाजों तथा कार्यक्रमों की वजह से जाना जाना जाता है। और जिनमे से नगर कीर्तन अपने आप में एक बेहद दर्शनीय परंपरा है।
नगर कीर्तन शब्द की उत्पत्ति पंजाबी भाषा से हुई है, जहां नगर किसी शहर अथवा पड़ोस को दर्शाता है और कीर्तन का अर्थ होता है भजन या यूँ कहे दिव्य संगीत का गायन। नगर कीर्तन प्रत्येक शहर में सिख समुदाय के फैलाव के सन्दर्भ में होता है। इस परमपरा का मुख्य उद्देश्य ईश्वर के सन्देश को हर व्यक्ति तक पहुंचाना होता है। जहां भी सिख समुदाय की उपस्थिति होती है, वहां पर बैशाखी के मौके पर नगर कीर्तन आयोजित किया जाता है। सिख धर्म के अनुयाइयों द्वारा नगर कीर्तन के मौके पर एक विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है। यह बेहद भव्य और रोमांचित करने वाली होती है। यह यात्रा सिख समुदाय द्वारा विश्व के विभिन्न देशों में निकाली जाती है। इस यात्रा में गुरु ग्रंथ साहिब को साथ में लिया जाता है, पीछे से मधुर भजन गाए जाते हैं। रास्ते में किसी खास निर्धारित जगह पर विश्राम किया जाता है। तथा जुलूस में भोजन भी परोसा जाता है। नगर कीर्तन का प्राम्भिक उद्द्येश्य सिख समुदाय को एकत्रित करने का था, जहां हजारों सिखों का समूह एक साथ भजनों की धुन में आगे बढ़ता है। यह यात्रा शहर के गुरुद्वारा से शुरू की जाती है जिसकी अगुवाई पंच प्यारे करते हैं।
पांचो प्यारे पूरी यात्रा में गुरु ग्रंथ साहिब जी के ठीक आगे चलते हैं। यात्रा में शामिल सभी लोगों द्वारा सर झुकाकर गुरु ग्रन्थ साहिब जी का आभार और सम्मान किया जाता है। सेवादारों द्वारा प्रसाद भी वितरित किया जाता है। यात्रा के दौरान पंच प्यारों को उपहार स्वरूप रंग बिरंगे बाना भी भेंट किया जाते हैं।
अंक 5 सिख समुदाय में अपना एक विशेष महत्व रखता है। ऐसा माना जाता है कि सन 1699 में बैसाखी के दिन सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह ने भारत के कोने-कोने से पांच सबसे भरोसेमंद लोगों को चुना था। तथा उनके साथ खालसा पंथ की शुरुआत की गयी थी। गुरु गोविन्द द्वारा पांच प्यारों को चुने जाने का प्रसंग भी बहुत साहसिक और दार्शनिकता से भरा है।
1699 में बैसाखी पर्व पर आनंदपुर साहिब के एक विशाल मैदान में लगभग 80,000 लोगो को सिख धर्म के दसवें गुरु गोविन्द सिंह द्वारा आमंत्रित किया गया। उन्होंने भरी भीड़ से किसी एक व्यक्ति के सिर की मांग की। यह सुनते ही पूरी भीड़ में भयंकर सन्नाटा छा गया। और इस सन्नाटे को चीरते हुए दया सिंह नाम का व्यक्ति (उस समय उसका नाम दया राम था) जो कि लाहौर का निवासी था, वह बाहर आया। और अपना शीश देने की पेशकश की। गुरुदेव उसे निकट के तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद लहू (खून) से सनी तलवार लेकर तम्बू से बाहर आये। और ऐलान किया कि मुझे एक और सर चाहिए। इस बार धर्मदास (उर्फ़ धरम सिंह) आगे आये, जो मेरठ जिले के हस्तिनापुर के पास सैफपुर करमचंदपुर गाँव के निवासी थे। अब तम्बू से रक्त की धारा बाहर आने लगी। तीसरी बार फिर बाहर आये। उनकी तलवार अभी भी शीश की प्यासी थी। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय उर्फ़ हिम्मत सिंह अंदर गए। गुरुदेव पुनः बाहर आये और एक और शीश की मांग की। चौथी बार द्वारका के युवक मोहकम चन्द उर्फ़ मोहकम सिंह आगे आए। आखिर में पांचवी और अंतिम बार शीश मांगने पर बीदर निवासी साहिब चन्द उनके साथ तंबू के भीतर गए। वहां पर उपस्थित पूरी भीड़ में सन्नाटा छाया हुआ था। अचानक से केसरिया बाना पहने हुए वही पांच नौजवान बहार आये जो गुरु गोविन्द सिंह जी के तम्बू के भीतर गए हुए थे। गुरसाहिब अपने तख़्त पर विराजे और पांचों नौजवानों ने बताया कि गुरुदेव उन्हें शीश काटने के लिए भीतर नहीं ले गए थे। बल्कि यह तो उनकी परीक्षा ली गयी थी। और वही पर गुरु गोविन्द सिंह ने उन्ही पांच लोगो को अपने पंच प्यारों के रूप में चुना। जिनके द्वारा खालसा पंथ की स्थापना की गयी।
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