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कुछ वर्ष पहले तक लोगों द्वारा केवल हाथ से बने छनने का इस्तेमाल किया जाता था। बांस और सराई की सींकों से बने यह छनने अनाज साफ करने के काम आते थे। आज भी इनका प्रयोग कुछ अनुष्ठानों और धार्मिक रीति रिवाजों में किया जाता है। छनने का इस्तेमाल छठ पूजा में सूर्य देवता की पूजा के दौरान होता है। छनना बनाने के इस काम में मुख्यतः दो वर्ग के लोग शामिल होते थे: पहला वर्ग उन लोगों का था जो घूम घूम कर बात और ताड़ के पत्तों के साथ सराई के इस्तेमाल से रोजमर्रा का सामान बना कर बेचते थे और फिर दूसरी जगह जाकर नए सिरे से अपनी कारीगरी का हुनर दिखा कर सामान बेचते थे। दूसरे वर्ग में वे लोग थे जो स्थाई रूप से यह काम हुकूलगंज, अलीपुर, रामनगर, सुंदरपुर, मलदहिया और लोहटा जैसे इलाकों में करते थे। बांस के छनने बनाने की प्रक्रिया काफी समय लेती है, क्योंकि छनना बनाने से पहले बांस की टहनियों को काटा जाता है और फिर चार दिनों के लिए उन टहनियों को सूखने के लिए रख दिया जाता है। इसके बाद इन टहनियों को पानी में लगभग 2 दिनों के लिए भिगाया जाता है।
लेकिन, लगभग 30 वर्ष पहले, धातु के छनने आ जाने के कारण, धीरे-धीरे बांस से बने इन छनने की मांग में गिरावट देखी जाने लगी। दरसल 30 वर्ष पहले पीतल के छनने का चलन वाराणसी से ही शुरू हुआ था। बिहार के लोग इस छनने को खरीदते थे और देखते ही देखते पिछले 10 सालों में पीतल के छनने की मांग में काफी वृद्धि होने लगी। जौनपुर, गाजीपुर और उसके आसपास के गांव के अलावा पास ही पड़ने वाले बिहार के जिलों की मांग को वाराणसी शहर पूरा करता है जबकि बाकी इलाकों में पीतल के छनने की आपूर्ति नेपाल करता है। बर्तन बनाने वालों और पीतल के कारीगरों के अनुसार पिछले दशक में पीतल के छनने का आधे से ज्यादा व्यापार नेपाल में केंद्रित हो गया। उनका यह भी कहना है कि पीतल के छनने के व्यापार में छनने बनाने से लेकर उसकी विपणन करने तक की प्रक्रिया में नेपाल, वाराणसी को कड़ी टक्कर दे रहा है।
आज की कड़वी वास्तविकता यह है कि पीतल या धातु से बने छनने ने पारंपरिक बांस के छनने का बाजार पूरी तरह से कब्जा लिया है। धातु के छनने बाजार में 200 से 400 रुपये में मिलते हैं जो कि बांस के छनने के मुकाबले कहीं ज्यादा टिकाऊ होते हैं। यही वजह है कि ज्यादातर लोग अब बांस के छनने नहीं खरीद रहे। पहले कारीगर हाथ से बने छनने को बनाकर शहर के बाहरी इलाकों के मुख्य बाजार में बेच लेते थे, अब मांग के गिरने के कारण यही कारीगर ग्रामीण इलाकों तक सीमित रह गए हैं। ऐसे ही जौनपुर के पास के गांव के तमाम परिवार जो पिछले 40 वर्षों से इन हाथ से बने छनने के रोजगार पर निर्भर थे उन्हें भीषण गरीबी का सामना करना पड़ रहा है। बांस के छनने की निरंतर घटती मांग के अलावा इनके कारीगरों के सामने और भी कई चुनौतियाँ थी। असंगठित क्षेत्र का रोजगार होने के कारण कच्चे माल का मूल्य, मजदूरी, रोजगार, बिचौलियों की बढ़त के कारण कारीगरों को उनके कार्य का वास्तविक मूल्य नहीं मिल पाता है। कभी जिस बांस की कला ने इनके जीवन संवारे थे आज वही हाथ से बने छनने के कारीगर बदहाली का शिकार हैं। पहले किसान इन कारीगरों को बांस की टोकरी बनाने का अच्छा खासा ऑर्डर (Order) दिया करते थे, लेकिन बाजार में सस्ते प्लास्टिक के छनने आने के बाद से करिगरों को काम मिलना बंद हो गया। करिगरों द्वारा बांस की छनने बनाना बंद करने का केवल एक यही कारण नहीं है, जहां पहले वे मुफ्त में बांस के पेड़ों से टहनियाँ तोड़ लाते थे उन्हें आज ये टहनियाँ सरकार से पैसों में खरीदनी पड़ रही है। जिस वजह से बांस की टोकरियाँ और छनने का मुनाफा और भी कम हो गया।
वहीं बांस की टोकरियों के निर्माता, छनना और 'अरता का पट' (लाल रंग के सूती धागे की पतली परत), जो चार दिवसीय छठ पर्व के दौरान आवश्यक वस्तुएं मानी जाती हैं और देश के विभिन्न भागों में निर्यात की जाती हैं, को सारण जिले में कोविड-19 (Covid-19) महामारी के चलते पिछले वर्षों की तुलना में खराब मांग और ग्राहक की कम संख्या का सामना करना पड़ा। दरियापुर प्रखंड के सज्जनपुर-मटिहान पंचायत के अंतर्गत आदमपुर और कमालपुर गाँव और मरहौरा ब्लॉक के अंतर्गत तेनहटी कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ कारीगरों को बांस की टोकरियाँ और छनना बनाने वालों के लिए जाना जाता है। न केवल सारण, बल्कि पटना, भोजपुर, मुजफ्फरपुर, वैशाली और उत्तर प्रदेश के पड़ोसी जिलों में भी उनके उत्पाद मांग में हैं।
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