भारतीय शिल्प में धातुकार्य, काष्ठ कार्य, वस्त्र, गहने, टेरा की वस्तुएं, मिट्टी के बर्तन एवं बेंत और बांस से बनी वस्तुएं आदि शामिल हैं। कुछ शिल्प जैसे कि लकड़ी का कार्य, पेंटिंग (painting) और स्टोनवर्क (stonework) को वास्तुशिल्प के तत्वों और कला की वस्तुओं के रूप में चित्रित किया जाता है। शिल्प समुदाय की गतिविधियों व उनकी सक्रियता का प्रमाण हमें सिंधु घाटी सभ्यता (3000-1500 ई.पू.) काल से मिलता है। इस स्थल से मिले सूती वस्त्र और विभिन्न, आकृतियों, आकारों और डिजाइनों के मिट्टी के पात्र, कम मूल्यवान पत्थरों से बने मनके, चिकनी मिट्टी से बनी मूर्तियां, मोहरें (सील) एक परिष्कृत शिल्प संस्कृति की ओर इशारा करते हैं। आगे चलकर 16 वीं और 17 वीं शताब्दी में मुगल शासकों के शासन काल के दौरान शिल्प का एक नया रूप उभरकर सामने आया।
भारत अपने बुने हुए आसनों, रेशमी कपड़े, पीतल के बर्तन, चिकन कढ़ाई, रंगीन रेशम, मुगल लघुचित्र और चांदी के गहनों के लिए प्रसिद्ध है। अन्य आकर्षक वस्तुओं में छोटे लाख के बक्से, शॉल, पेंटिंग (painting), सैंडल (sandal) और आदिवासियों द्वारा बनाए गए गहने शामिल हैं। भारत वस्त्रों का एक बड़ा निर्यातक है और आगंतुक पारंपरिक भारतीय कपड़ों (साड़ियों और कुर्तों) को खरीदकर अपने साथ विश्वभर में ले जाते हैं। दरी, कालीन इत्यादि विभिन्न प्रकार के पैटर्न (Pattern) और रंगों में बनाए जाते हैं। भारत के अलग-अलग हिस्सों में शिल्प के भिन्न-भिन्न रूप पाए जाते हैं। शिल्प के कुछ प्रसिद्ध रूप इस प्रकार हैं:
ढोकरा:
ढोकरा वास्तुकला की वस्तुएं भारतीय शिल्प भंडारों में भरपूर मात्रा में उपलब्ध हैं, इन्हें बनाने की विधि श्रमसाध्य और समय लेने वाली है। इसमें हल्के सुनहरे रंग की फिनिशिंग (Finishing) के साथ शानदार ढंग से तैयार किए गए डिजाइन शामिल हैं, ढोकरा शिल्प पारंपरिक रूप से धार्मिक मूर्तियों, गहने, दीये, पशु मूर्तियों और जहाजों के रूप में पाया जाता है। इस पारंपरिक विधि में मोम और मिट्टी के माध्यम से धातु को मनचाही आकृति दी जाती है। इस विधि का उपयोग बड़े पैमाने पर खानाबदोश जनजातियों द्वारा किया जाता है, जो पश्चिम बंगाल, झारखंड, उड़ीसा और दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों में रहते हैं। गुजरात में सुनार के परिवार से आने वाले, तेजस सोनी ने ढोकरा की पारंपरिक विधि के साथ कुछ आधुनिक तकनीक का उपयोग करके इसे अद्यतन रूप देने का प्रयत्न किया है।
मीनाकारी इनेमल वर्क (Meenakari Enamel work):
मीनाकारी एक धातु की सतह को तामचीनी के साथ गहने की तरह सजाने की एक प्राचीन कला है; जिसे मुगलों द्वारा भारत लाया गया था। यह सामान्यत: गहने, फूलदान, कटोरे और उपहार के बक्से पर की जाती है, यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें धातु पर डिजाइनों को उकेरा जाता है और रंगीन तामचीनी के साथ उत्पाद के रिक्त स्थानों पर भरा जाता है। परंपरागत रूप से इसे रंगने के लिए लाल, हरे, नीले और सफेद रंग का उपयोग किया जाता है, जिसमें सफेद रंग का उपयोग पहले और लाल रंग का उपयोग अंत में किया जाता है, यह रंग आग के प्रतिरोधक होते हैं। भट्ठी की गर्मी रंगों को पिघला देती है और वे डिजाइन के खांचे के भीतर फैल जाते हैं। तैयार डिजाइन की चमक बढ़ाने के लिए उसे मृदु अम्ल में उबाला जाता है। मीनाकारी में पारंपरिक रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले प्राथमिक रंगों के उत्पादों को रोजमर्रा की जिंदगी में उपयोग करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है, अत: इसे आधुनिक स्वरूप देने के लिए आभूषणों को रंगने हेतु आधुनिक रंगों का उपयोग किया जा रहा है, ये आभूषण 23।5 कैरेट सोने और चमकदार रत्नों से तैयार किए जाते हैं।
मिट्टी और शीशे का कार्य
यह शिल्प गुजरात के कच्छ रेगिस्तान के कलाकारों और निवासियों द्वारा अभ्यास किया जाता है। यह कलाकारी मुख्यत: दीवारों पर की जाती है, इसे रेगिस्तान में पाए जाने वाले घरों में और मुख्य रूप से उनके शीतलन गुणों के लिए उपयोग किया जाता है। मिट्टी और ऊंट गोबर जैसी स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री को दीवारों पर लगाया जाता है, ज्यादातर हथेलियों और उंगलियों का उपयोग करके मिश्रण को आकार दिया जाता है; फिर शीशे को गोंद के माध्यम से डिजाइन में लगाया जाता है। हाल ही में नई दिल्ली के शिल्प संग्रहालय की दीवार में इस डिजाइन को उकेरा गया और लोग व्यक्तिगत स्तर पर भी अपनी दुकानों इत्यादी की सजावट के लिए इस शिल्पकला का उपयोग कर रहे हैं।
जमदानी (Jamdani)
भारत में सबसे अच्छे शिल्पकारों में से एक, जामदानी (जिसे मलमल के कपड़े के रूप में भी जाना जाता है) एक आकर्षक पैटर्न वाला, महीन सूती कपड़ा है, जो परंपरागत रूप से बांग्लादेश के ढाका में शिल्पकारों और प्रशिक्षुओं द्वारा एक बंद कपड़ा तकनीक का उपयोग करके हाथ से बुना जाता है। एक कहानी के अनुसार मुगल युग में, इसकी महीनता का परीक्षण करने के लिए इसे एक छोटी सी सोने की अंगूठी से गुजारा गया था। यह वस्त्र शांत या जीवंत रंगों और रूपांकनों के साथ डिजाइन की गहनता को जोड़ते हैं, इनमें मुख्यत: पौधे और पुष्प के ज्यामितीय चित्र बनाए जाते हैं । बुनकर परिवारों के बीच कौशल को आगे बढ़ाया जाता है और यह शिल्पकार अपनी विरासत पर गर्व करते हैं।
एलए-आधारित डिजाइनर क्रिस्टीना किम (Christina Kim’) डिजाइन के लिए अद्वितीय दृष्टिकोण, शिल्प तकनीकों और निष्पक्ष-श्रम प्रथाओं की लंबी खोज के साथ पर्यावरण और मानव-अनुकूल कॉउट्योर (couture ) को जोड़ती हैं। उन्होंने अपनी नई परियोजना में जामदानी को शामिल किया और एक साड़ी बनाने के लिए 11 मीटर कपड़े का उपयोग किया गया। किसी भी श्रम प्रक्रिया को व्यर्थ जाने से बचाने के लिए, कटिंग रूम (cutting room ) से कीमती स्क्रैप (scrap) को एक नया पैचवर्क फैब्रिक (patchwork fabric) बनाने के लिए पुनर्नवीनीकरण किया जाता है, जिससे गुजरात में महिला कारीगरों के कौशल को रोजगार मिलता है।
बिडरवेयर (Bidriware):
बिडरवेयर शब्द की उत्पत्ति बिदर (Bidar) शहर से हुई है, जो अभी भी अद्वितीय मेटलवेयर (metalware) के निर्माण का मुख्य केंद्र है। अपनी विचित्र जड़ना कलाकृति के कारण, बिडरवेयर भारत की एक महत्वपूर्ण निर्यात हस्तकला है और यह संपत्ति के प्रतीक के रूप में बेशकीमती है। इसमें चांदी, जस्ता और तांबे का उपयोग किया जाता है।
पेम्बर्थी मेटल क्राफ्ट (Pembarthi Metal Craft)
पेमबर्थी मेटल क्राफ्ट की उत्पत्ति तेलंगाना राज्य के वारंगल जिले में स्थित पेम्बर्थी नामक स्थान से हुयी है, यह एक धातु हस्तशिल्प है। यह स्थान अपने अति सुंदर शीट धातु कला कार्यों के लिए लोकप्रिय है। काकतीय साम्राज्य के शासनकाल के दौरान इस शानदार पीतल कार्य कला का विकास हुआ। काकतीय लोगों ने रथों और मंदिरों को सजाने के लिए शीट धातु कला का व्यापक रूप से उपयोग किया।
भारत का हिमालयी क्षेत्र अपने ऊन और कश्मीरी (बकरी के महीन ऊन से बने) स्वेटर, कंबल, थुलमास (रजाई), तिब्बती कालीन, तीतर (महिलाओं के लिए कशीदाकारी अंगरखे) और विलो वर्क बास्केट (willow work baskets) के लिए जाने जाते हैं। कभी-कभी तिब्बती शिल्प में मानव खोपड़ी से बने मग और जांघ की हड्डी से बनी बांसुरी भी बेची जाती हैं। कश्मीर अपनी पश्मीना शॉल, पन्ना, रेशम और ऊन के कालीन, पपीर की लुद्गी या मेच (mache) से बने उत्पाद, शिल्प से बने नक्काशीदार अखरोट, पपीर के मेच के बक्से, हाथ से बुने हुए और ऊन के रेशमी आसन, लाह के बर्तन, रेशम से बने विभिन्न प्रकार के वस्त्रों के लिए जाना जाता है। बिहार अपनी मधुबनी चित्रकला के लिए प्रसिद्ध है, मिथिला के मूल निवासियों में एक मनोरम कथात्मक कला को जन्म देने का गुण है। ये भारतीय चित्रों के शुरुआती रूपों में से एक हैं।
राजाओं महाराजाओं की नगरी रहा राजस्थान में सदियों से शिल्प परंपरा को संरक्षण दिया जा रहा है। राजस्थानी शिल्प में आभूषणों में की गयी मीनकारी (तामचीनी का काम) और कुन्करी (रत्नों के साथ जड़ाऊ) काफी प्रसिद्ध हैं। जिसमें नाक के छल्ले, हार, कंगन, बक्से, सोने, चांदी और कई प्रकार के कीमती पत्थरों से बने छल्ले आदि शामिल हैं। गोवा जैसे तटीय राज्य मिट्टी के बर्तनों एवं हस्तशिल्प, समुद्री कौड़ियों और ताड़ के पत्तों से बने सजावटी सामानों के लिए जाने जाते हैं। दक्षिणी भारत अपने परिष्कृत मोती, चावल के मोती, चंदन की नक्काशी, जड़े हुए फर्नीचर (furniture), शीशम की नक्काशी, मसाले, इत्र, सी-शेल कॉन्कोक्शन्स (sea-shell concoctions), कांच के बने पदार्थ, जड़ित चूड़ियाँ, हाथ से बुनी हुई साड़ियाँ, कोंडापल्ली के खिलौने (Kondapalli toys), करीमनगर ज़रदोजी के काम के लिए प्रसिद्ध है। तमिलनाडु का कांचीपुरम रेशम के लिए प्रसिद्ध है।
केरल शीशम और चंदन की नक्काशी, हाथी दांत का काम, पीतल के उत्पाद, अन्य सजावटी सामान, सींग के उत्पाद, लकड़ी के खिलौने, नारियल से बने उत्पाद के लिए प्रसिद्ध है। पश्चिम बंगाल को टेरा कोट्टा (terra cotta) और मिट्टी के बर्तनों के हस्तशिल्प, लोक कांस्य और कांथा सुईवर्क (needlework) के लिए जाना जाता है। असम अपने जंगली रेशम, आदिवासी बुनाई और बांस के सामान के लिए जाना जाता है। उड़ीसा में आप जटिल नक्काशीदार सोपस्टोन (soapstone) देख सकते हैं। महाराष्ट्र बढ़िया मलमल और हाथ से बुने हुए रेशम के लिए जाना जाता है। गुजरात अपने कपड़ा उत्पादन के तरीकों के लिए प्रसिद्ध है। गुजरात सुंदर, हस्तनिर्मित, टाई डाई (tie-dye) के वस्त्रों और चकला पैचवर्क (chakla patchworks) एवं ग्लास वॉल हैंगिंग (glass wall hangings) का उत्पादन करता है।
प्राचीन समय से ही भारत के शिल्प का महत्व रहा है; उनका अस्तित्व आज उनके संरक्षण में किए गए प्रयासों को साबित करता है। रितु कुमार और रितु विरानी जैसे समकालीन डिजाइनर (designers) लगातार पारंपरिक शिल्प को अपने डिजाइनों में एम्बेड (embed) कर रहे हैं। इसके अलावा, एक पूर्ण शैक्षिक संस्थान, भारतीय शिल्प और डिजाइन संस्थान (IICD) है, जो जयपुर, राजस्थान में स्थापित है, यह मुख्य रूप से शिल्प और डिजाइन के साथ उनके अस्तित्व के लिए शिक्षण देता है। इन प्रयासों के बावजूद, इन शिल्पों की जड़ें, जो ग्रामीण शिल्पकार हैं, पतन की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इंडिया फाउंडेशन फॉर द आर्ट्स संगठन (India Foundation for the Arts organisation) द्वारा तर्क दिया गया है कि सामग्री और आपूर्ति की बढ़ती लागत ने इनमें से कई शिल्प समुदायों को वित्तीय संघर्ष के लिए खड़ा कर दिया है। अखिल भारतीय हस्तशिल्प बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 50 वर्षों से शिल्प निर्यात 230 मिलियन से बढ़कर 90 बिलियन से अधिक हो गया है। भारत में बढ़ते आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों के साथ, शिल्प क्षेत्र को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है। यद्यपि डिजाइनरों और संस्थानों में शिल्प की संस्कृति को बनाए रखने की रुचि देखी जाती है। हस्तशिल्प आधुनिक मशीनरी और उपकरणों की सहायता के बिना हाथ के कौशल द्वारा बनाए गए रचनात्मक उत्पाद हैं। आजकल, हाथ से बने उत्पादों को एक फैशन स्टेटमेंट (fashion statement) और विलासिता की वस्तु माना जाता है।
© - 2017 All content on this website, such as text, graphics, logos, button icons, software, images and its selection, arrangement, presentation & overall design, is the property of Indoeuropeans India Pvt. Ltd. and protected by international copyright laws.