मलेशिया एयरलाइंस (Malaysia Airlines) की उड़ान MH370 को लापता घोषित किए जाने के कुछ ही समय बाद, खोए हुए विमान के संभावित स्थान के रूप में, दुनिया का ध्यान पूर्वी हिंद महासागर के दूरस्थ, अपर्याप्त रूप से ज्ञात क्षेत्र पर केंद्रित हुआ। यह घटना इंगित करती है कि, समुद्र तल के बारे में हमारी जानकारी कितनी कम है। यह क्षेत्र, और इस मामले में, विश्व के अधिकांश महासागर अक्सर अपर्याप्त अन्वेषण के रूप में उल्लेखित किये जाते हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि, अपर्याप्त अन्वेषण का क्या अर्थ है और हम इस बारे में इतना कम क्यों जानते हैं? किसी भी महासागर के एक क्षेत्र की खोज के लिए आमतौर पर जहाज के माध्यम से उस क्षेत्र की यात्रा की जाती है और उससे सम्बंधित विस्तृत जानकारी एकत्रित की जाती है। एकत्रित की गयी जानकारी को दो मुख्य श्रेणियों में शामिल किया जाता है, पहला, भूवैज्ञानिक (Geological) जिसमें, समुद्री सतह और उसके नीचे की सामग्री के बारे में जानकारी शामिल होती है और दूसरा समुद्रविज्ञान (Oceanographic), जिसमें, पानी में मौजूद सभी सामग्रियां जैसे इसकी जैविकी, रसायन और भौतिकी शामिल होते हैं। वर्तमान समय में, समुद्री हिस्सों के स्पष्ट मानचित्रण अधिकांशतः उपग्रहों द्वारा एकत्रित किए गए आंकड़ों से बनाए जाते हैं। ये आंकड़े पानी की ऊपरी सतह के आकार से समुद्र तल की गहराई का अनुमान लगाकर हमें महासागर की गहराई का वैश्विक मानचित्र बनाने में सक्षम बनाते हैं।
लेकिन इसमें समस्या यह है कि, ये आंकड़े लगभग 20 किलोमीटर व्यास से छोटी विशेषताओं या वस्तुओं को प्रदर्शित नहीं कर पाते। इसका मतलब है कि, उपग्रह माप के द्वारा कभी-कभी छोटी विशेषताओं का पता नहीं लगाया जा सकता। इस प्रकार समुद्र में किया गया अंवेषण अपर्याप्त होता है तथा इससे सम्बंधित कई जानकारियां उपलब्ध नहीं हो पाती। इन जानकारियों के उपलब्ध होने में समुद्र तल की भी विशेष भूमिका होती है। पूर्वी हिंद महासागर, दक्षिणी सुपरकॉन्टिनेंट गोंडवाना (Supercontinent Gondwana) के अव्यवस्थित हिस्से के रूप में लगभग 10 करोड़ साल पहले भारत और ऑस्ट्रेलिया के अलग होने पर बना। इस पृथक्करण के दौरान गठित समुद्री तल में समुद्र के विवरण दर्ज हुए, जिसमें कई पठार और रैखिक विशेषताएं शामिल हैं। उड़ान MH370 का अंवेषण क्षेत्र, दो पठार, उत्तरी जेनिथ (Zenith) पठार और दक्षिणी बटाविया नोल (Batavia Knoll) को प्रदर्शित करता है। अकेले उपग्रह आंकड़ों से, यह निर्धारित नहीं किया जा सकता कि, इन विशेषताओं का गठन कैसे हुआ? इससे जुड़े अनेक सवालों का उत्तर केवल तभी दिया जा सकता है, जब वैज्ञानिक अनुसंधान जहाजों पर इन क्षेत्रों की यात्रा करके समुद्र के अधिक विस्तृत मानचित्र और नमूने तैयार किये जायेंगे।
समुद्री तल ऐतिहासिक रूप से भी महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल है, क्यों कि, इनमें विघटित जहाज़ों और डूबते हुए शहरों के अवशेष मौजूद होते हैं, जो किसी संस्कृति और सभ्यता के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देने में सहायक हो सकते हैं। इसका एक उदाहरण कुमारी कंदम पेश करता है। कुमारी कंदम, प्राचीन तमिल सभ्यता के, एक खोए हुए महाद्वीप को संदर्भित करता है, जो हिन्द महासागर में वर्तमान भारत के दक्षिण में स्थित है। 19 वीं शताब्दी में, अफ्रीका (Africa), ऑस्ट्रेलिया (Australia), भारत और मेडागास्कर (Madagascar) के बीच भूवैज्ञानिक और अन्य समानताओं को समझाने के लिए यूरोपीय (European) और अमेरिकी (American) विद्वानों के एक वर्ग ने लेमुरिया (Lemuria) नामक एक डूबे हुए महाद्वीप के अस्तित्व की कल्पना की। तमिल पुनरुत्थानवादियों के एक वर्ग ने इस सिद्धांत को प्राचीन तमिल और संस्कृत साहित्य में वर्णित समुद्र में खोये हुए पांड्यन (Pandyan) क्षेत्र या भूमि की किंवदंतियों से जोड़ते हुए अपना लिया। इन लेखकों के अनुसार, समुद्र में खोने से पूर्व एक प्राचीन तमिल सभ्यता, लेमुरिया पर मौजूद थी। 20 वीं शताब्दी में, तमिल लेखकों ने इस जलमग्न महाद्वीप का वर्णन करने के लिए इसे ‘कुमारी कंदम’ नाम दिया। हालांकि लेमुरिया सिद्धांत को बाद में महाद्वीपीय बहाव (प्लेट टेक्टोनिक्स - Plate tectonics) सिद्धांत द्वारा अप्रचलित किया गया था, लेकिन लेमुरिया की अवधारणा 20 वीं सदी के तमिल पुनरुत्थानवादियों के बीच लोकप्रिय रही। उनके अनुसार, कुमारी कंदम वह स्थान था जहाँ पांड्यन शासनकाल के दौरान पहले दो तमिल साहित्यिक अकादमियों (संगम्स - Sangams) का आयोजन किया गया था। तमिल भाषा और संस्कृति की प्राचीनता को साबित करने के लिए उन्होंने कुमारी कंदम को अपनी सभ्यता का आधार बताया। कई प्राचीन और मध्ययुगीन तमिल और संस्कृत कार्यों में भी दक्षिण भारत में समुद्र में खो जाने वाले क्षेत्रों या भूमियों के प्रसिद्ध वर्णन मौजूद हैं।
पांड्यन भूमि के समुद्र में समा जाने का सबसे पहला वर्णन इरायनार अकापोरुल (Iraiyanar Akapporul) में मिलता है। इसके अलावा टोल्काप्यम (Tolkappiyam) जैसे प्राचीन ग्रंथों और पूरनुरु (Purananuru - पहली शताब्दी और 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व) तथा कालिथ्थोकई (Kaliththokai - (6 वीं -7 वीं शताब्दी ईसा पूर्व) के छंदों में भी समुद्र में डूबे हुए क्षेत्रों का उल्लेख मिलता है। कुमारी कंदम सिद्धांत पर चर्चा करने वाली पुस्तकों को पहली बार 1908 में वर्तमान तमिलनाडु के कॉलेज पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि, समुद्र तल अपने आप में कई गहन जानकारियों को छिपाए हुए है।
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