जौनपुर के ग्रामीण विकास प्रक्रिया में शहरी अर्थव्यवस्था की भूमिका

जौनपुर

 08-12-2020 09:41 AM
वास्तुकला 1 वाह्य भवन

भारत को गाँवों का देश कहा जाता है और यहाँ की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में ही रहती है। हमारे देश के आधे से अधिक लोगों का जीवन खेती पर निर्भर है, इसलिये गाँव के विकास के बिना देश के विकास की कल्पना करना शायद बेमानी होगी। परंतु आजादी के बाद शहरीकरण के दौर में ग्रामीण विकास कहीं पीछे छूटता गया। ग्रामीण संकट का मूल कारण वहाँ रहने वालों की आय का कम होना है। शहरी विकास की इस प्रक्रिया ने गाँवों के सामने अस्तित्व का संकट उत्पन्न कर दिया है। शहरी क्षेत्रों में रोज़गार की संभावनाएँ अधिक होने से लोग इसकी ओर आकर्षित होने लगे और गांव से पलायन करने लगे। इस कारण ग्रामीण और शहरी विकास दर के मध्य बढ़ते अंतर ने दोनों के बीच एक विशाल सामाजिक और आर्थिक खाई बना दी। दरअसल, भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल है जहां ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की विकास दर में भारी अंतर है। शहरी क्षेत्र देश के प्रगतिशील और विकासशील समाज को दर्शाते हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्र पिछड़े और ग़रीब समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं।
स्थानिक योजना की अवधारणा और अनुप्रयोग का अध्ययन तथा क्षेत्रीय विकास में इसकी भूमिका कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है, और जौनपुर क्षेत्र के कृषिगत सामाजिक संदर्भ में सेवा केंद्रों के माध्‍यम से कार्यात्मक क्षेत्र का अध्‍ययन करके कई सामाजिक आर्थिक समस्याओं को उजागर किया जा सकता है, जिसने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच विकास दर में अंतर पैदा किया। कुछ क्षेत्रों और सेवा केंद्रों में विभिन्न सामाजिक-आर्थिक सेवाओं के अनियमित केन्‍द्रीकरण, परिवहन और अन्य बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच एक बड़ा सामाजिक और आर्थिक अंतर पैदा हो गया है। इसके अतिरिक्‍त ग्रामीण क्षेत्रों में मानव संसाधन और अनारक्षित क्षेत्रों के स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों का ठीक से उपयोग नहीं किया गया। जिस कारण शहरी क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक समृद्ध हो गए हैं। परंतु आज भारत की ग्रामीण अर्थव्‍यवस्‍था मात्र कृषि पर निर्भर नहीं है। पिछले दो दशकों के दौरान, ग्रामीण भारत ने गैर-कृषि गतिविधियों में काफी विविधता लायी है। जिसने इन्हें शहरों के काफी निकट खड़ा कर दिया है। इसलिए, जौनपुर में आज स्थानिक औद्योगिक योजनाएं, क्षेत्रीय कृषि, औद्योगिक और सामाजिक/सुविधाएं अनिवार्य हो गयी हैं और ये यही बुनियादी आवश्यकताएं आर्थिक विकास की मुख्य वाहक हैं। किंतु फिर भी दोनों के मध्‍य विकास प्रक्रिया में अभी भी काफी अन्तर है। आज हमें ग्रामीण क्षेत्र के विकास में तेजी लाकर गांव और शहर के बीच की खाई को जल्द से जल्द पाटने की जरूरत है। इसके बिना भारत का विकसित देश बनने का सपना पूरा नहीं हो पाएगा। अतः विकास दर गांव और शहर दोनों के मध्‍य समान होनी अनिवार्य है।
1947 में भारत को ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिलने के तुरंत बाद किए गए आर्थिक फैसलों में नीति निर्माताओं ने कृषि निवेश और ग्रामीण भूमि सुधार के बजाय पूंजी-गहन, औद्योगिकीकरण और शहरी बुनियादी ढांचे पर ज़ोर दिया, जिससे शहरीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ी तथा ग्रामीण असंतुलन आगे बढ़ा। परंतु यह दौर हमेशा ऐसा ही नहीं रहा। शहरीकरण के कुछ नकारात्मक प्रभाव, जैसे प्रदूषण, यातायात क्षेत्र में भीड़-भाड़, जीवन यापन की उच्च लागतें आदि सामने आये। शहरों का अनियोजित विकास, महानगरों का असुरक्षित परिवेश एवं शहरी संस्कृति में बढ़ते जा रहे संबंधमूलक तनाव ने सोचने पर विवश कर दिया कि शहरी विकास की अवधारणा पर एक बार फिर से विचार किया जाना चाहिये। असल में देखा जाये तो शहरीकरण और ग्रामीण क्षेत्र आपस में जुड़े हुए हैं। यदि हम शहरीकरण और ग्रामीण-शहरी अनुपात के बीच दो-तरफ़ा संबंधों को देखे तो हमें पता चलता शहरीकरण से शहरी और ग्रामीण असमानताओं को बढ़ावा मिलता है। परंतु कुछ ऐसे आंकड़े भी सामने आये हैं जिन्हें देखकर यह लगता है कि शहरीकरण से शहरी-ग्रामीण असमानताओं को शायद कम किया जा सकता है।
ग्रामीण और शहरी भारत के बीच बदलते संबंधों के बारे रूपा पुरुषोत्तमन (Roopa Purushothaman- जो एक अमेरिकी प्रशिक्षित अर्थशास्त्री हैं) से पता चलता है कि शहरी व्यय में 10% की वृद्धि ग्रामीण गैर-कृषि रोज़गार की 4.8% की वृद्धि के साथ जुड़ी हुई है। आपूर्ति श्रृंखला पूरे देश में मजबूत होने के कारण, शहरी मांग बढ़ने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को महत्वपूर्ण बढ़ावा मिल सकता है। पुरुषोत्तमन और उनके सहयोगियों ने अपने शोध में ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्थाओं के बीच चार संबंधों को उजागर किया और हमें बताया कि ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था उत्पादन संबंध, उपभोग संबंध, वित्तीय संबंध और प्रवास संबंध के माध्यम से एक दूसरे से सम्बंधित हैं। इनके अध्ययनों से पता चलता है कि बढ़ते शहरी खपत व्यय का प्रभाव ग्रामीण रोज़गार और आय पर पड़ता है। पिछले 26 वर्षों में एक अर्थमितीय दृष्टिकोण (Econometric Approach) के अध्ययन से पता चलता है कि शहरी उपभोग व्यय में 100 रुपये की वृद्धि से ग्रामीण घरेलू आय में 39 रुपये की वृद्धि होती है। जिस प्रणाली के माध्यम से ग्रामीण गैर-कृषि क्षेत्र में रोज़गार में वृद्धि होती है। आंकड़ों की मानें तो पिछले दशक में देखी गई शहरी घरेलू खपत वृद्धि दर यदि निरंतर बनी रहती है, तो ग्रामीण क्षेत्रों में 63 लाख गैर-कृषि रोज़गार उत्पन्न हो सकता है और अगले कुछ दशक में वास्तविक ग्रामीण घरेलू आय 67 खरब तक हो सकती है। पुरुषोत्तमन कहती हैं कि देश के उपभोग और उत्पादन पैटर्न (Pattern) में तेजी से बदलाव के लिए शहरी और ग्रामीण भारत के बीच एकीकरण की अधिक बारीक समझ की आवश्यकता है, न कि ग्रामीण-शहरी विभाजन के बारे में पारंपरिक मिथकों पर विचार की। उनका कहना है कि पिछले दो दशकों के दौरान, भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था शहरी अर्थव्यवस्था की तुलना में काफी तेजी से बढ़ी है। पिछले एक दशक में शहरी अर्थव्यवस्था में 5.4% की तुलना में ग्रामीण अर्थव्यवस्था औसतन 7.3% बढ़ी है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (Central Statistical Organisation) के आंकड़े बताते हैं कि 2000 में भारत की जीडीपी (GDP) में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का 49% हिस्सा था जबकि 1981-82 में यह 41% और 1993-94 में यह 46% था।
आँकड़े बताते हैं कि ग्रामीण इलाकों में कृषि केवल औसतन 3.2% की दर से बढ़ रही है, और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के इस विकास का अधिकांश हिस्सा ग्रामीण गैर-कृषि क्षेत्र द्वारा संचालित है। गैर-कृषि क्षेत्र में वृद्धि ही ग्रामीण भारत के लिए वास्तव में महत्वपूर्ण है। इस गैर-कृषि क्षेत्र के विकास में अग्रसर होने के लिये स्थानिक योजनाएं (Spatial Planning) महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। स्थानिक योजना क्षेत्रीय या स्थानीय योजना को संदर्भित करती है, जो विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों को स्थान प्रदान करने और क्षेत्रीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने का प्रयास करती है। यह उन केंद्रीय स्थानों या सेवा केंद्रों के नेटवर्क (Network) की पहचान के लिए आवश्यक है, जो आसपास की आबादी की ज़रूरतों को पूरा करते हैं और अपने कार्यों और सेवाओं के आधार पर आसपास के क्षेत्रों की आवश्यकताओं को भी पूरा करते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि यदि शहरी और ग्रामीण आर्थिक विकास को एक समान करना है तो हमें बेहतर बुनियादी ढांचे तैयार करने होंगे, आर्थिक गतिविधियों की एकाग्रता को सुनिश्चित करना होगा और लोगों को तेज़ी से बढ़ते क्षेत्रों से जोड़ना होगा, तभी ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्थाएँ समान रूप से लाभ प्राप्त कर पायेंगी।

संदर्भ:
https://shodhganga.inflibnet.ac.in/jspui/bitstream/10603/242624/11/11_chapter7.pdf
https://knowledge.wharton.upenn.edu/article/does-urban-development-drive-rural-growth-in-india/
https://shodhganga.inflibnet.ac.in/jspui/bitstream/10603/242624/7/07_chapter3.pdf
चित्र सन्दर्भ:
मुख्य चित्र में जौनपुर के ग्रामीण क्षेत्र को दिखाया गया है। (Prarang)
दूसरी तस्वीर में जौनपुर में एक ग्रामीण मंदिर दिखाया गया है। (Prarang)


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