हर साल 3 दिसंबर को पूरे विश्व में ‘अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस’ मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य दिव्यांग या विकलांग लोगों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ना है। विकलांग लोगों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए समय-समय पर अनेकों प्रयास किये जाते रहे हैं, ताकि जीवन के हर पहलू (शिक्षा, समाज, व्यवसाय आदि) में उन्हें समान अवसर प्राप्त हो सकें। विश्व सहित भारत में विकलांग लोगों को समाज में समान व्यवहार और अधिकार प्रदान करने के लिए विभिन्न प्रयास किये गये हैं, जिसे ‘विकलांग अधिकार आंदोलन’ (Disability Rights Movement - DRM) कहा जाता है। भारत में विकलांग अधिकार आंदोलन के विकास में चार दशकों का समय लगा। यूं तो, विकलांग लोगों के लिए अधिकारों की मांग सबसे पहले 1970 के दशक की शुरुआत में की गयी थी, लेकिन उस समय ये मांगे अव्यवस्थित या बिखरी हुयी थीं। इसके बाद 1980 के दशक में विभिन्न समूहों और संगठनों ने विकलांग लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हुए उनके अधिकारों की मांग की। इस दशक में, कई गैर-सरकारी संगठनों ने विकलांगता के क्षेत्र में काम करना शुरू किया, जिससे विकलांग अधिकार आंदोलन को गति प्राप्त हुई। कई याचिकाओं और विरोधों के बाद, सरकार ने विकलांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम, 1995, पारित किया, जिसके अंतर्गत विकलांग व्यक्ति की श्रेणी में आने वाले लोगों के लिए 3% सरकारी पद आरक्षित किये गए। वर्ष 1995 ने एक नए युग की शुरूआत करके विकलांगता से पीड़ित लोगों को शैक्षिक संस्थानों और सरकारी सेवाओं में दृश्यता प्रदान की। सन् 2006 में, संयुक्त राष्ट्र ने विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर एक सम्मेलन को अपनाया, जिस पर सन् 2007 में भारत ने भी हस्ताक्षर किए। 2012 में भारत की केंद्र सरकार विकलांगता विधेयक के साथ आई, जिसे कुछ संशोधनों के साथ संसद में पेश किया गया। 2016 में विकलांग व्यक्तियों के अधिकार विधेयक को संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया। सन् 1941 से 1971 तक भारत की जनगणना में विकलांग व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया था, इस प्रकार 1980 के दशक तक विकलांग व्यक्तियों को जनसंख्या जनगणना से बाहर रखा गया। हालांकि 1981 की जनगणना में तीन प्रकार की अक्षमताओं या विकलांगताओं वाले व्यक्तियों की जानकारी को इसमें शामिल किया गया था। सन् 1991 की जनगणना में विकलांग व्यक्तियों को पुनः शामिल नहीं किया गया, और परिणामस्वरूप भारत की जनसंख्या जनगणना में विकलांग व्यक्तियों के समावेशन की मांग की गई। लंबे समय के संघर्ष के बाद आखिरकार 2001 की जनगणना में विकलांग व्यक्तियों को शामिल किया गया। न्यूनतम जागरूकता और प्रशिक्षण के साथ प्रगणकों ने पाया कि, देश की कुल आबादी में 2.1% हिस्सा विकलांग व्यक्तियों का है। भारत ने आखिरकार स्वीकार किया कि, उसके 210 लाख नागरिक विकलांग थे। हालांकि, जनगणना में विकलांग व्यक्तियों की केवल 5 श्रेणियां शामिल थीं।
विकलांगता की मौजूदा ऐतिहासिक समझ, यूरोपीय (European) और अमेरिकी (American) अनुभवों से प्रभावित है, तथा यह मानती है कि, यहूदी-ईसाईयों का कलंकित करने और बहिष्कार करने का विचार ही सार्वभौमिक नियम है। भारत में विकलांगता का अनूठा अनुभव मौजूद है, तथा सीमांत-करण को जटिल बनाने में गरीबी, लिंग, जाति और समुदाय की भूमिका विकलांग लोगों द्वारा भी महसूस की जाती है। भले ही, पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश में विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को लेकर कई महत्वपूर्ण सुधार हुए हैं, लेकिन आज भी विकलांग व्यक्ति और उनके परिवार अलगाव और बहिष्कार का सामना करते हैं। इन्हीं सभी समस्याओं का हल करने के लिए विकलांग व्यक्तियों के समावेशन पर जोर दिया जा रहा है, जो विभिन्न क्षेत्रों से सम्बंधित है। समावेशन, एक विश्वास है, जो कि दर्शनशास्त्र पर आधारित है। समावेशन, ‘मेरे लिए, आपके लिए और सभी के लिए सम्मान’ को संदर्भित करता है। सामाजिक रूप से समावेशी वातावरण, एक ऐसा स्थान है, जहां सभी को अपनी पहचान स्थापित करने और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की अनुमति होती है। सामाजिक समावेश यह सुनिश्चित करता है कि, सभी (चाहे वो सक्षम हो या असक्षम) के विचारों और अनुभवों को समान रूप से सम्मानित किया जाए। कोई भी समुदाय यदि अपने एक भी सदस्य को खुद से अलग करता है, तो वह वास्तव में समुदाय नहीं है। किसी भी प्रकार का बहिष्करण व्यक्तियों को सामाजिक संबंधों से अलग करता है और मानदंडों और सम्मेलनों के अनुसार समाज द्वारा सौंपी जाने वाली गतिविधियों में उनकी पूर्ण भागीदारी को सीमित करता है। समावेशन के अभाव में व्यक्ति खराब मानसिक स्वास्थ्य, अकेलेपन, अलगाव, हीनभावना आदि का शिकार होता है। सामाजिक समावेश के साथ, लोग खुद को समाज से संबंधित महसूस करते हैं। उन्हें उनके समुदाय में स्वीकार किया जाता है और पहचान दी जाती है। सामाजिक समावेश के साथ वे सक्रिय रूप से समुदाय में भाग लेते हैं। उन्हें व्यक्तिगत पसंद के आधार पर अपनी गतिविधियों और सामाजिक सम्बंधों को चुनने का अधिकार होता है। एक समावेशी वातावरण में उन्हें विभिन्न लोगों का सहयोग प्राप्त होता है और वे असहज महसूस नहीं करते हैं। समावेशी शिक्षा, विकलांग समावेशन का एक अन्य क्षेत्र है, जिसे समावेशी समाज का मुख्य आधार माना जाता है।
विकलांग समावेशन का एक अन्य पहलू या क्षेत्र, कार्य स्थलों में किया जाने वाला समावेशन भी है, जो समावेशी समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक समावेशी कार्य स्थल सभी कर्मचारियों को उनकी योग्यता के लिए महत्व देता है। यह उन कर्मचारियों को भी पेश करता है, जो विकलांग हैं, चाहे फिर वह विकलांगता दृश्य हो या अदृश्य। इस प्रकार एक समावेशी कार्य स्थल सभी को सफल होने, सीखने, प्रतिफल देने, और आगे बढ़ने के समान अवसर प्रदान करता है। विकलांग समावेशन किसी भी व्यवसाय का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, क्यों कि, यदि कोई व्यवसाय, विकलांग समावेशन के लिए सक्रिय नहीं है तो, वह वास्तव में अनेकों प्रतिभाओं को खोता है। विकलांग समावेशन कार्यबल को मजबूत करता है। कर्मचारी अब ऐसे कार्यस्थलों की तलाश कर रहे हैं, जो विविध तथा समावेशी हैं। समावेशन मनोबल बढ़ाता है, और सभी कर्मचारियों को बेहतर तरीके से काम करने में मदद करता है। एक समावेशी कार्यस्थल का निर्माण कार्यस्थल की संस्कृति में भी सुधार करता है। समावेशी व्यवहार न केवल विकलांग लोगों का समर्थन करता है, बल्कि यह सभी कर्मचारियों के लिए एक अधिक स्वीकार्य और सहायक कार्यस्थल बनाता है। समावेशन का उद्देश्य विकलांग व्यक्तियों को एक गुणवत्तापूर्ण जीवन प्रदान करना है, लेकिन यह तभी सम्भव है, जब लोग विकलांग व्यक्तियों के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएंगे तथा समावेशन को सफल बनाने में अपनी पूर्ण रूप से भागीदारी देंगे।
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