अभी तक हमने यही सुना है कि पेड़ों पर फल फूल और सब्जियां उगती हैं, परंतु शायद ही आपने सुना हो कि पेड़ से फर्नीचर उगाया जा सकता है। ये बात सुनने में अजीब लग सकती है, परंतु ये सच है। इस कला में पौधों को फर्नीचर का आकार दे कर उसे बड़ा किया जाता है और यह कला ट्री शेपिंग (Tree Shaping) के नाम से प्रसिद्ध है। ट्री शेपिंग में विभिन्न कलात्मक आकारों और संरचनाओं को बनाने के लिए जीवित पेड़ों और लकड़ी वाले पेड़-पौधों का उपयोग किया जाता है। आज के समय में विभिन्न कलाकारों द्वारा अपने पेड़ों को आकार देने के लिए कुछ अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जिनमें प्लीचिंग (Pleaching), बोन्साई (Bonsai), एस्पालियर (Espalier) और टॉपीएरी (Topiary) आदि शामिल हैं। अधिकांश कलाकार डिज़ाइन (Designs) और कलात्मक आकृतियां बनाने के लिये पेड़ों की शाखाओं, तनों और जड़ों का उपयोग करते हैं, लेकिन इसके लिए बहुत मेहनत, धैर्य और समय की जरूरत होती है।
भारत में यह अभ्यास कई सौ वर्षों से किया जा रहा है, जिसे भारत की खासी (Khasi) जनजाति द्वारा निर्मित किये गये जीवित पुलों या सेतुओं द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है। ये लिविंग रूट ब्रिज (Living Root Bridges) पश्चिम जयंतिया हिल्स (Jaintia Hills) जिले और पूर्वी खासी हिल्स (Khasi Hills) जिले में पाए जाते हैं। पूर्वी खासी पहाड़ियों में, चेरापूंजी (Cherrapunji) के पास रहने वाले लोग अब इन पुलों को सोहरा (Sohra) कहते है। खासी जनजाति को यह सही से ज्ञात तो नहीं है कि इन जीवित पुलों की परंपरा उनके वंश में कब और कैसे शुरू हुई? परंतु सोहरास (चेरापूंजी) (Sohra's (Cherrapunji's) जीवित पुलों का सबसे पहला लिखित रिकॉर्ड (Record) लेफ्टिनेंट हेनरी यूल (Lieutenant Henry Yule) द्वारा रखा गया था, जिन्होंने 1844 जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल (Journal of the Asiatic Society of Bengal) में उनके बारे में आश्चर्य व्यक्त किया था। भारतीय राज्य नागालैंड (Nagaland) में भी ये रूट ब्रिज (Root Bridges) देखे जा सकते हैं।
लिविंग रूट ब्रिज एक प्रकार का सरल सेतु है, जिसे ट्री शेपिंग के द्वारा जीवित पौधों की जड़ों से बनाया जाता है। ये पूर्वोत्तर भारतीय राज्य मेघालय के दक्षिणी हिस्से में आम हैं। इन्हें शिलांग पठार के दक्षिणी भाग के साथ पहाड़ी इलाके में खासी और जयंतिया लोगों द्वारा रबड़ अंजीर (Ficus Elastica) की वायवीय जड़ों से बनाया गया है, जोकि हस्तनिर्मित होते है। अधिकांश सेतु समुद्र तल से 50 मीटर और 1150 मीटर के बीच उपोष्णकटिबंधीय (Subtropical) नम और चौड़े पत्तों वाले जंगल की खड़ी ढलानों पर बनाये जाते हैं। जिस पेड़ से सेतु या पुल बनता है, जब तक कि वो स्वस्थ बना रहता है तब तक सेतु की जड़ें स्वाभाविक रूप से मोटी और मजबूत होती जाती हैं।
इस तरह के पुलों का निर्माण किसी धारा या नदी को पार करने या एक ओर से दूसरी ओर जाने के लिये किया जाता है और इनको बनाने के लिए फ़ाइक्स इलास्टिका या रबर का पेड़ उत्तम माना जाता है, क्योंकि यह पेड़ ढलानों और चट्टानी सतहों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाये रखते हैं और इसकी वायवीय जड़ें समय के साथ बढ़ती और मजबूत होती जाती हैं, जिस कारण पुल का स्व-नवीनीकरण चलता ही रहता है और ये स्वाभाविक रूप से स्व-मजबूत होते जाते हैं। माना जाता है कि, यदि पेड़ स्वस्थ बना रहता है तो आदर्श परिस्थितियों में एक रूट ब्रिज कई सैकड़ों वर्षों तक जीवित रह सकता है। यह रूट ब्रिज कई तरीकों से बनाया जा सकता है, जैसे कि हाथों से जड़ों को एक दूसरे में गुंध कर, लकड़ी या बांस का उपयोग करके, एरेका पाम (Areca Palm) तने का उपयोग करके आदि।
इस कला को दुनिया भर में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है जैसे कि: अरबोरटेक्चरर (Arbortecture), बायोटेक्चर (Biotecture), ग्रोन फर्नीचर (Grown Furniture), लिविंग आर्ट (Living Art), प्लीचिंग (Pleaching) आदि। इसके निर्माण के लिये आपको पेड़ की वृद्धि की बुनियादी भौतिकी और शाररिक विज्ञान को समझने की आवश्यकता है। दुनिया भर में, सदियों से, व्यावहारिक और सौंदर्यवादी उद्देश्यों के लिए, लोगों द्वारा पेड़ों को नया आकार देने और उन्हें मोड़ने के नये-नये तरीके विकसित किये जा रहे हैं। अधिकांश भागों में यह तकनीक अलगाव में विकसित हुई किंतु बाद में पेड़ों को आकार देने की इस कला की तकनीकों या विधियों को एक दूसरे से सीखा जाने लगा, और अब कलाकारों द्वारा इन पेड़ों को इमारतों से लेकर फर्नीचर तक के महत्वाकांक्षी रूपों में विकसित करने का लक्ष्य रखा जाता है। इसके मूल सिद्धांत की बात करें तो इस कला में सर्वप्रथम पेड़ों को संरचनाओं में ढालने के लिये तैयार किया जाता है। इंडोनेशिया और उत्तरपूर्वी भारत में, बरगद और रबर के पेड़ों की जड़ों को सेतु बनाने के लिए बांस के तख्ते के चारों ओर लपेटा जाता है जो भयंकर मानसून का सामना कर सकते हैं। यूरोप में, बागवानों ने एक सपाट तल पर पेड़ों को तैयार करने की एक तकनीक विकसित की, ताकि वह सपाट हो जाएं। इस तकनीक को एस्पालियर (Espalier) नाम दिया गया, इसके बाद पेड़ों को औपचारिक पैटर्न (Patterns) और शब्दों की आकृति में निर्देशित किया जा सकता है। पुराने पेड़ों को आकार देने की रणनीतियों द्वारा अक्सर व्यावहारिक उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है। इसलिए पेड़ की शाखाओं को प्लिचिंग तकनीक की सहयता से तैयार किया जाता है।
पेड़ों को आकार देने के मुख्यतः तीन तरीके हैं: एरोपोनिक रूट कल्चर (Aeroponic Root Culture), इंस्टेंट ट्री शेपिंग (Instant Tree Shaping-Arborsculpture) और ग्रेजुएल ट्री शेपिंग (Gradual Tree Shaping)।
एरोपोनिक रूट कल्चर (Aeroponic Root Culture): एरोपोनिक रूट कल्चर में एरोपोनिक रूप से जड़ों को बढ़ाया जाता है। इसके लिये जड़ों को एक पोषक तत्व के समृद्ध मिश्रण में उगाया जाता है, जब तक कि जड़ें पांच मीटर या उससे अधिक लंबाई की न हो जाएं, ताकि वे लचीली बने रहें। इस पद्धति के पीछे विचार यह है कि बड़ी मात्रा में जड़ें विकसित की जा सकती हैं, जिनका उपयोग भवन निर्माण सामग्री के रूप में किया जा सकता है। जैसे-जैसे जड़ें मोटी होंगी, वे समय के साथ पेड़ों की एक ठोस दीवार बनाएंगी। परंतु यह विधि केवल उन पेड़ों के उपयोग तक सीमित है, जिसमें वायवीय जड़ें विकसित होती हैं। खासी लोगों द्वारा निर्मित रूट ब्रिज इस विधि का प्रमुख उदाहरण है। इस क्षेत्र को विकसित करने के लिये कई नई तकनीक और अनुप्रयोग किये जा रहे हैं। 2008 में, जड़ शोधकर्ता और शिल्पकार ईजेकील गोलन (Ezekiel Golan) ने पेटेंट (Patent) का वर्णन किया जोकि पौधों की जड़ों को लंबा और मोटा बनाने में सहायक है, साथ ही साथ इसमें जड़ों का लचीलापन भी बना रहता है। इसके अलावा इको-आर्किटेक्चर (Eco-Architecture) तकनीक के माध्यम से भी बड़े पैमाने पर जड़ों को आकार दे कर स्थायी संरचनाएं बनाई और विकसित की जा सकती हैं।
इंस्टेंट ट्री शेपिंग (Instant tree shaping): इंस्टेंट ट्री शेपिंग मूल रूप से 3D प्लिचिंग है, जिसमें पेड़ की अशाखित 2-3 मीटर लंबी टहनी का उपयोग होता है। इनसे डिज़ाइन (Design) बनाने के लिये इन टहनियों को मोड़ा और बुना जाता है तथा धातु की सलाखों या रॉड (Rods) के पास तब तक रखा जाता है, जब तक कि पेड़ों में नए विकास के छल्ले (केंबियम परत (Cambium Layer)) न बन जाएं। पेड़ों की परिपक्वता और झुकने की प्रक्रिया से होने वाले नुकसान से शाखा मजबूत बनाने हेतु नयी वृद्धि करेगी और फिर नए आकार में स्थिर बने रहने के लिए आवश्यक समय को निर्धारित करेगी। यह समय 2-15 साल या उससे अधिक की भी हो सकता है। इस विधि में तनों की लम्बाई शायद 6-12 फीट (2-3.6 मीटर) और व्यास लगभग 3-4 इंच (10 सेंटीमीटर) में होना चाहिये ताकि तनों को आसानी से मोड़ा जा सके और वे टूटे नहीं। कुछ ट्री शेपर्स मेज (Tree Shapers Table) , कुर्सी, पुल और यहाँ तक कि घर बनाने के लिए भी इस विधि का प्रयोग करने का प्रयास कर रहे हैं। इस पद्धति का फायदा यह है कि इससे एक त्वरित सुखद प्रभाव प्राप्त किया जा सकता है और एक कुर्सी या मध्यम आकार की वस्तु को आकार देने का काम एक घंटे में किया जा सकता है। परंतु नुकसान की बात की जाये तो, इस विधि द्वारा बनाई गयी वस्तु में असमान वृद्धि और शीर्षारंभी क्षय को दिखाने में कई साल लग सकते हैं।
ग्रेजुएल ट्री शेपिंग (Gradual tree shaping): इस विधि को सहायक ढांचे के साथ शुरू किया जाता है। इस ढाँचे में विकास पथ बने रहते हैं और ये पथ या तो लकड़ी के सांचों के होते हैं या फिर तार के आकार के होते हैं। इसमें विकास को पूर्व निर्धारित डिजाइन मार्गों के साथ निर्देशित किया जाता है। फिर रोपाई या 7-30 सेंटीमीटर लंबे तनों को कटिंग (Cuttings) करके लगाया जाता है। इसके बाद नयी वृद्धि का वास्तविक आकार शेपिंग ज़ोन (Shaping Zone) के प्रशिक्षण के साथ होता है। डिजाइन की लंबाई के साथ एक पेड़ को उगने में कितना समय लगता है, इस बात का निर्धारण प्रशिक्षण परियोजना के आकार पर निर्भर करता है। एक बार यदि पेड़ की लंबाई पूरे आकार में बढ़ जाये तो डिजाइन को बाद में समय के साथ मोटा भी किया जा सकता है। इस पद्धति के लाभ यह है कि यह वृद्धि के साथ भी दोहराई जा सकती है, और आप अपने डिजाइनों का परीक्षण आसानी से कर सकते हैं तथा अपने परीक्षण के समय को कम करके अन्य लोगों के डिज़ाइनों को विकसित कर सकते हैं। आप अपनी रचना की एक जीवंत विरासत छोड़ सकते हैं और इसके लिये आपको ज्यादा पैसे भी खर्च करने की जरूरत नहीं है। इस विधि का मुख्य नुकसान यह है कि पेड़ के वृद्धि वाले मौसम में नयी वृद्धि की जाँच और प्रशिक्षण के लिए आपको प्रति दिन 5-20 मिनट देने पड़ सकते हैं और दूसरा यह कि किसी विशेष प्रजाति के पेड़ को आकार देने की विधि को सीखने में काफी समय लग सकता है। यह पद्धति अन्य विधियों की तुलना में लंबी है।
इसके इतिहास की एक झलक देखें तो 20वीं शताब्दी में, कुछ आविष्कारशील व्यक्तियों ने स्वतंत्र रूप से पेड़ों को आकार देने के नए तरीकों की कल्पना की। 1900 के शुरुआती दिनों में, जॉन क्रैब्सैक (John Krubsack), जो कि विस्कॉन्सिन (Wisconsin) के एक बैंकर (Banker) थे, ने अपने घर के पीछे वाले आँगन में 32 बॉक्स (Box) वाले ऐसे बड़े पेड़ लगाए, जो एक बढ़ई द्वारा बनाई जाने वाली किसी भी कुर्सी से अधिक मजबूत थी। इन पेड़ों को झुकाने, कलम बांधने (Graft), और पेड़ों को एक शानदार फर्नीचर के रूप में विकसित करने में उन्हें 11 साल लग गए। 1920 के दशक में, कैलिफ़ोर्निया के एक किसान, एक्सल एर्लैंडसन (Axel Erlandson) ने पेड़ों को मेहराबों और ज्यामितीय आकृतियों में आकार देने का प्रयोग करना शुरू किया, उनके जैसे डिजाइनों (Design) की कल्पना किसी ने पहले कभी नहीं की थी। इसी दौरान, एक जर्मन इंजीनियर आर्थर वेइचुला (Arthur Wiechula) ने बढ़ते हुए पेड़ों से घरों के लिए काल्पनिक, विस्तृत विचारों की रूपरेखा तैयार की। परंतु उनके वास्तविक प्रयास कम सफल रहे। आज जर्मनी में शोधकर्ता "बाउबोटानिक" (Baubotanik) तकनीकों को परिष्कृत करने के लिए काम कर रहे हैं, जिससे जीवित पेड़ों से टावरों (Towers) और अन्य इमारतों का निर्माण किया जा सकता है। इनके अलावा एक्सल एर्लडसन (Axel Erlandson - एक स्वीडिश अमेरिकी किसान (Swedish American Farmer)), डैन लैड (Dan Ladd - अमेरिकी कलाकार (American Artist)), निरेंडर बूनट्रेस (Nirandr Boonnetrs - थाई फर्नीचर डिजाइनर (Thai Furniture Designer)) और पीटर कुक और बेकी नॉर्थे (Peter Cook and Becky Northey - ऑस्ट्रेलियाई कलाकार (Australian Artist)) आदि भी ऐसे लोगों की सूची में शामिल हैं जिन्होंने पेड़ों को आकार देने का प्रयास किया और सफल रहे। हाल के दशकों में, अमेरिका (America) में रिचर्ड रीम्स (Richard Reames) और जर्मनी (Germany) में कॉन्स्टेंटिन किर्श (Konstantin Kirsch) ने अन्य डिजाइनों, उपयोगी वस्तुओं और इमारतों को विकसित करने के लिए इन तकनीकों को सीखने और आगे बढ़ाने के लिए काम किया, इसका विवरण रीम्स ने अपनी पुस्तक अरबरस्कल्प्चर (Arborsculpture) में भी दिया है। अरबोरस्कल्प्चर वास्तव में पेड़ों के तनों को उगाने और उन्हें आकार देने की एक कला और तकनीक है। इसमें ग्राफ्टिंग (Grafting) , झुकने और प्रूनिंग (Pruning) के माध्यम से पेड़ों को आर्बोर्सकुल्टर (Arborsculptor) द्वारा निर्धारित आकृतियों में उगाया जाता है। यह तकनीक एक वांछित आकार धारण करने के लिए पौधों या पेड़ों की एकजुट होने, कैंबियम (Cambium) की नई परतों के बनने और एक नया आकार बनाए रखने की क्षमता पर निर्भर करती है।
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