मुगल काल के दौरान भारत में कई ऐतिहासिक परिवर्तन हुए, जिसने भारत के परिदृश्य को बदल कर रख दिया। इसका प्रभाव आज भी हमारी संस्कृति में झलकता है, जिसे हम मुगलकालीन इमारतों, उनके द्वारा बसाए गए शहरों, उनमें रहने वाले लोगों के रहन-सहन, खानपान और पहनावे में देख सकते हैं। आज हम मुगलकाल से ही प्रारंभ हुए एक प्रसिद्ध व्यंजन जर्दा के विषय में बात करेंगे। चावल से बनाए जाने वाले इस व्यंजन का उल्लेख अबुल फ़ज़ल ने अपनी पुस्तक आइन-ए-अकबरी में 'जर्द बिरिन्ज' के नाम से किया है। जिसे चावल, चीनी, मेवे, केसर, दालचीनी और अदरक से बनाया जाता था। यह मुगल शासक शाहजहां का प्रिय भोजन था। इसे मेहमानों को विशेष रूप से परोसा जाता था।
जर्दा मुख्यत: मीठा चावल होता है, जिसमें खाद्य रंग, दूध, चीनी, इलायची, किशमिश, केसर, पिस्ता या बादाम इत्यादि डाला जाता है। जर्दा फारसी शब्द ‘जर्द’ से बना है, जिसका अर्थ होता है ‘पीला’। इसलिए चावल को पीला रंग देने के लिए पीला या नारंगी खाद्य रंग का प्रयोग किया जाता है। इसे आमतौर पर मीठे चावल के नाम से भी जाना जाता है। सामान्यत: इसे खाने के साथ परोसा जाता है किंतु आजकल यह शादियों में मिठाई की तरह उपयोग किया जा रहा है, जो ईरान की परंपरागत मिठाई, 'शोलेज़र्द' के समान है। शोलेज़र्द को भी जर्दा की भांति चावल से बनाया जाता है तथा इसे रंग देने के लिए केसर का उपयोग किया जाता है। इसे तीरगन (Tirgan), रमज़ान जैसे त्यौहारों के अवसर पर परोसा जाता है।
पाकिस्तान में भी यह काफी प्रचलित है। लीज़ी कोलिंगहैम (Lizzie Collingham) ने अपनी पुस्तक "करी: ए टेल ऑफ कुकस एंड कॉनकरर्स, 2006" (Curry : A Tale of Cooks and Conquerors, 2006) में ' जर्द बिरिन्ज ' का उल्लेख किया है, जो आज के समय में 'जर्दा' नाम से प्रसिद्ध है।
जर्दा एक तुर्की मिठाई भी है, यह चावल का एक मिठा हलवा है, जिसे रंग देने के लिए केसर का उपयोग किया जाता है। यह शादियों, जन्मदिन समारोहों और मुहर्रम के पवित्र महीने के पहले दस दिनों के दौरान बनाया जाने वाला एक लोकप्रिय व्यंजन है। तुर्की में, ज़र्दे उन क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय है, जहां पारंपरिक रूप से धान की खेती की जाती है। जर्दा उत्तर प्रदेश में व्यापक रूप से लोकप्रिय है और कई लोगों द्वारा मिठाई के रूप में इसका आनंद लिया जाता है।
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