प्राचीन काल से ही भारत में मिट्टी के बर्तनों को बनाया जा रहा है, और इसका विभिन्न तरीकों से उपयोग किया जा रहा है। समय के साथ इसका विकास होता गया तथा आज यह विभिन्न रूपों में देखने को मिलती है। मिट्टी के बर्तनों को बनाने के लिए विविध प्रकार की मिट्टी का उपयोग किया जाता है तथा इनमें से काली मिट्टी भी एक है।
काली मिट्टी के बर्तनों के इस शिल्प की उत्पत्ति गुजरात के कच्छ क्षेत्र से हुई। औरंगजेब के मुगल शासन के दौरान क्षेत्र के कुछ कुम्हार निजामाबाद चले गए। इस मिट्टी से बने पात्रों का चांदी का पैटर्न (Patterns) इलाहाबाद के बिदरीवेयर (Bidriware) से प्रेरित है, जिसके अंतर्गत चांदी के तारों का उपयोग करके बर्तनों को सजाया जाता हैं। इन बर्तनों को स्थानीय रूप से उपलब्ध महीन बनावट वाली मिट्टी से बनाया जाता है। मिट्टी के सांचे अलग-अलग आकार में तैयार किए जाते हैं और इसके बाद तपाए जाते हैं। बाद में इन मिट्टी के पात्रों को वनस्पतियों के पाउडर से धोया जाता है और सरसों के तेल के साथ मला जाता है। नुकीली टहनियों का उपयोग करके बर्तनों को फूलों और ज्यामितीय पैटर्न वाले खांचे से सजाया जाता है। इसके बाद उन्हें संलग्न भट्ठी में चावल की भूसी के साथ धुएं वाली आग में तपाया जाता है, जो कि पात्रों को अनूठी चमकदार काली सतह देता है। उन्हें फिर से तेल के साथ घिसकर भट्टी में पकाया जाता है।
मिट्टी के पात्रों के खांचों को फिर जस्ता और पारा के सिल्वर पाउडर (Silvery Powder) से भरा जाता है, जिसे पानी से धोया जाता है और फिर से पॉलिश (Polish) किया जाता है। इसके अलावा लेड या टिन अमलगम (Lead or Tin Amalgam) का भी उपयोग किया जाता है। चांदी का पाउडर मिट्टी की काली पृष्ठभूमि के विरुद्ध सतह को चमकदार रंग देता है। कभी-कभी उन्हें लाह के साथ भी लेपित किया जाता है।
इससे विभिन्न प्रकार के घरेलू और सजावटी सामान जैसे गुलदस्ता, प्लेट, दीपक, चाय के बर्तन, कटोरे और हिंदू धार्मिक मूर्तियां आदि बनाए जाते हैं। यह शिल्प भारतीय उपमहाद्वीप की शहरी लौह युगीन संस्कृति के उत्तरी ब्लैक पॉलिश्ड वेयर पॉटरी (Black Polished Ware Pottery) के समान है और इसलिए इतिहासकारों ने काली मिट्टी के बर्तनों का अध्ययन करने में रूचि ली है। मुगल काल की समृद्ध काली मिट्टी के बर्तन बनाने की कला को निजामाबाद के लोगों द्वारा आज भी जीवित रखा गया है। यह भारत की विशिष्ट कलाओं में गिनी जाती है। यह व्यवसाय निजामाबाद, आजमगढ़ के लोगों के आय का मुख्य स्त्रोत भी है। दिलचस्प बात यह है कि यह पूर्वोत्तर भारत से पत्थर के पात्र के विपरीत भारत का एकमात्र ऐसा स्थान है, जो मिट्टी के साथ काली मिट्टी के बर्तन बनाता है।
काली मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का मूल गुजरात में था, जो 17वीं शताब्दी में मुगलों के हनुमंतगढ़ में हमले के बाद यहां आयी तथा इन्होंने ही इस क्षेत्र का नाम बदलकर निजामाबाद रख दिया। शहर चारों ओर से झील से घिरा होने के कारण यहां मुस्लिम महिलाओं के स्नान के लिए भूमिगत मार्ग बनाया गया था तथा इनके स्नान हेतु मिट्टी के बर्तनों के निर्माण का जिम्मा गुजराती कुम्हारों को सौंपा गया। धीरे-धीरे इनकी कला में मुगल स्वरूप भी देखने को मिलने लगा। निजामाबाद के काली मिट्टी के बर्तन प्रायः स्थानीय महीन चिकनी मिट्टी से तैयार किये जाते हैं। वर्ष 2014 में काली मिट्टी के बर्तनों को बढ़ावा देने के लिए ‘ग्रामीण धरोहर विकास के लिए भारतीय ट्रस्ट’ (‘Indian Trust for Rural Heritage Development’) द्वारा निजामाबाद में ब्लैक पॉटरी उत्सव का आयोजन किया गया। निजामाबाद के इस कला को बढ़ाने में दिये गये अपने अप्रतिम प्रयास के लिए भारत सरकार द्वारा 2015 में भौगोलिक चिन्ह (Geographical Indication) प्रदान किया गया। जीआई टैग (GI Tag) के साथ, निज़ामाबाद की काली मिट्टी के बर्तनों ने एक अलग पहचान हासिल की है और इसलिए शिल्प प्रेमियों के बीच नई लोकप्रियता हासिल की है। यहाँ के बर्तनों में इनके रासायनिक संघटन की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह मिट्टी प्लास्टिक मिट्टी (Plastic Clay) की तरह व्यवहार करती है। इनको करीब 850 डिग्री सेल्सियस (Degree Celsius) पर गर्म किया जाता है, जिससे इनको यह स्वरुप प्राप्त होता है। इनमें सजावट के लिए जिंक (Zinc) और मर्करी (Mercury) के पाउडर का भी प्रयोग किया जाता है। निज़ामाबाद में लगभग 200 परिवार इस शिल्प में शामिल हैं और उनके अधिकांश कार्यों का निर्यात किया जाता है, किंतु इनकी हालत अभी भी अति गहन का विषय है क्योंकि शिल्प ने समय के साथ काफी उतार-चढाव देखा है।
रोजगार के अवसर नहीं होने के कारण शिल्प से जुड़े कई शिल्पकारों ने अपना गांव छोड़ दिया था क्योंकि यहां काली मिट्टी के बर्तनों का कोई बाजार नहीं था। केवल कुछ परिवारों ने ही इस शिल्प का अभ्यास करना जारी रखा। लेकिन अब समय बदल रहा है, यह बदलाव उत्तर प्रदेश सरकार के ‘एक जिला एक उत्पाद’ पहल, के कारण हो रहा है, जिसे 2018 में शुरू किया गया ताकि राज्य के शिल्प समूहों को पुनर्जीवित किया जा सके और विरासत संरक्षण के साथ-साथ आजीविका के अवसरों में सुधार किया जा सके। अब कौशल के साथ-साथ कच्चे माल की प्रचुर उपलब्धता भी है और सरकार वित्त और विपणन में मदद कर सकती है। यह पारंपरिक शिल्प को बढ़ावा देता है और शिल्पकारों की आय में भी सुधार करता है। वर्ष 2018 की शुरुआत में, राज्य सरकार ने हर जिले में 'एक जिला एक उत्पाद' के तहत शिल्प के पुनरुद्धार के लिए 250 करोड़ रुपये का आवंटन किया। सरकार के इस प्रयास ने काली मिट्टी के बर्तनों के विज्ञापन के रूप में काम किया है। लोग अब इस शिल्प के बारे में अधिक जानते हैं और विपणन में सुधार हुआ है। व्यापार और उत्पादन पिछले दो वर्षों में दोगुने से अधिक हो गए हैं। शिल्पकार चूंकि अब विदेशी प्रदर्शनियों में भाग लेने में सक्षम हैं, इसलिए काली मिट्टी के बर्तनों के उत्पादों के बारे में जागरूकता बढ़ी है। सबसे महत्वपूर्ण बात, यह है कि अब मध्यस्थों को समाप्त कर दिया गया है, क्योंकि शिल्पकार अब सीधे ग्राहकों से जुड़ने में सक्षम हैं। थोक व्यापारी निर्यात के साथ-साथ घरेलू बाजार के लिए भी सीधे शिल्पकारों से संपर्क करते हैं।
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