हिन्दू धर्म में प्राचीन वेदों और ग्रंथों का विशेष महत्त्व है। इन वेदों में लिखे शब्द मनुष्य को ज्ञान का मार्ग दिखाते हैं। ऐसे ही दो शब्द हैं: श्रुति तथा स्मृति। यह दो शब्द कुछ-कुछ सामान उच्चारण होने के कारण आपस में भ्रमित मालूम पड़ते हैं किन्तु ये ऐसी व्यापक श्रेणियां हैं, जिनमें हिन्दू साहित्य को वर्गीकृत किया गया है। श्रुति और स्मृति हिन्दू धर्म के वैदिक साहित्य पाठ के दो मूल रूप हैं। ऐसा माना जाता है कि श्रुति की प्रकृति शाश्वत और निरर्थक है, वहीं स्मृति पौराणिक काल में उत्सर्जित द्रष्टा और ऋषियों की रचना है।
श्रुति और स्मृति दोनों ही हिंदू दर्शन की विभिन्न परंपराओं के ग्रंथों की श्रेणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, फिर भी एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं।
श्रुति
पहला शब्द श्रुति, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है - जो सुनाई देता है। श्रुति एक पवित्र पाठ है और इस पवित्र पाठ में चारों वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का समावेश है। शास्त्रों के अनुसार, यह वेद सदियों पूर्व ऋषि-मुनियों द्वारा लिखे गए हैं, जिन्होंने वर्षों के तप के फलस्वरूप ईश्वर को अनुभव किया था। उन्होंने अपने ज्ञान को जनकल्याण के उद्देश्य से वेदों, ग्रंथों और पुराणों में व्यक्त किया है। धर्म के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करने वाले ये चार ग्रन्थ काव्यात्मक भजन के रूप में लिखे गए हैं। इन वेदों में पवित्र पाठों का वर्णन मिलता है। इन पवित्र पाठों को सामान्यतः तीन उपसमूहों में विभाजित किया जा सकता है। यह उपसमूह इस प्रकार हैं: अरण्यक, ब्राह्मण तथा उपनिषद। चार प्रमुख वेदों में अरण्यक उपसमूह का दर्शन निहित है तथा उपनिषद वेदों में निहित दर्शन का विस्तृत रूप है। ब्राह्मण वेदों के लिए किए गए भाष्य का वर्णन है।
स्मृति
स्मृति के पाठ जीवन के दर्शन को सम्बोधित करते हैं। स्मृति का शाब्दिक अर्थ है स्मरण अर्थात याद रखना। हिन्दू धर्म ग्रन्थ एवं महाकाव्य महाभारत और रामायण स्मृति के प्रमुख उदाहरण हैं। साथ ही भगवद गीता, पुराण, मनु की संहिता, तांत्रिक ग्रंथ और कौटिल्य के अस्त्रशास्त्र भी इसी श्रेणी में आते हैं। श्रुति के अतिरिक्त जो भी अन्य पवित्र ग्रन्थ हैं, उनका वर्गीकरण स्मृति के रूप में मिलता है। स्मृति को द्वितीयक अधिकार प्राप्त हैं, जो इसे श्रुति से मिले हैं। पाठ के आधार पर, स्मृति का वर्गीकरण चार श्रेणियों में किया गया है: वेदांग, उपवेद, उपंग और दर्शन। वेदों में वर्णित पाठ को भली-भांति समझने के लिए वेदांग विषय का अध्ययन आवश्यक है। उपवेद में विभिन्न कलाओं और विज्ञानों का समावेश मिलता है। धर्म उपंगों का आधार है तथा दर्शन सत्य का मार्ग प्रदर्शित करता है।
इस प्रकार श्रुति और स्मृति दोनों का आपस में परस्पर सम्बन्ध है। एक विषय का अध्ययन करते हुए यदि कोई भी संदेह रह जाए तो उसे दूसरे विषय के अध्ययन की सहायता से दूर किया जा सकता है।
अनेकों विद्वानों, पंडितों, संस्कृतिकर्मियों ने समय-समय पर श्रुति और स्मृति के बीच के अंतर को स्पष्ट किया है।
फ्रांसीसी इंडोलॉजिस्ट रॉबर्ट लिंगट (Indologist Robert Lingat) के अनुसार, "परंपरा (स्मृति) और रहस्योद्घाटन (श्रुति) में भिन्नता है क्योंकि यह दिव्य धारणा की प्रत्यक्ष रूप से "सुनी हुई" धारणा न होकर एक अप्रत्यक्ष धारणा है, जो स्मृति (स्मरण) को स्थापित करती है। गोकुल नारंग कहते हैं, 'श्रुति' पुराणों में धार्मिक कथाओं की दिव्य उत्पत्ति के रूप में वर्णित है। जबकि रॉय पेरेट (Roy Perrett) के अनुसार, प्राचीन और मध्यकालीन हिंदू दार्शनिक ऐसा नहीं मानते और श्रुति को दिव्य एवं भगवान द्वारा लिखित मानते हैं।
हिन्दू धर्म में श्रुति के लिए प्रसिद्ध मीमांसा विद्यालय, ने मौलिक रूप से "लेखक", "पवित्र पाठ" या श्रुति की दिव्य उत्पत्ति जैसी धारणाओं के लिए कोई प्रासंगिकता न देते हुए श्रुति का अर्थ "मनुष्यों के लिए उचित मूल्य और इसके प्रति प्रतिबद्धता" को बताया है।
नस्तिका दार्शनिक विद्यालयों जैसे कि पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व के श्रावकों ने श्रुति के अधिकार को अस्वीकार किया था और वे उन्हें असंबद्ध काव्य, असंगतताओं और तनातनी से पीड़ित मानवीय कार्य मानते थे। परंपरागत रूप से, स्मृति को श्रुति की प्रतिक्रिया का मानवीय विचार माना जाता है। इन दोनों श्रेणियों के प्रति धारणाएं चाहे भिन्न-भिन्न हों, किन्तु दोनों का उद्देश्य मनुष्य कल्याण है और लोगों को सत्य का मार्ग दिखाना है।
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