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गंगा घाट पर स्थित चुनार का किला दुनिया के सबसे ज्यादा मशहूर और सुरक्षा व्यवस्था के लिए चाक-चौबंद किलों में से एक था। यह कहा जाता है कि अगर चुनार का किला जीत लिया तो आप भारत को जीत सकते हैं। हालांकि ब्रिटिश शासन में पंजाब की रानी को कैद करके इस किले में रखा गया था, लेकिन वह वहां से फरार हो गई और नेपाल में जाकर उसने शरण ली, जहां ब्रिटिश उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। रानी के भाग निकलने के दिलेर प्रसंग सामने आए हैं, जिनसे यह पता चलता है कि जौनपुर शहर में भी नेपाल जाने से पहले उन्हें शरण मिली थी। एक शोधार्थी ने 2 साल पहले पंजाब की रानी जिंदन के चुनार के किले से भागने की पूरी कहानी पर से रहस्य का पर्दा उठाया, अभी रानी के जौनपुर में शरण लेने के बारे में ज्यादा पता नहीं चल सका है।
कहानी रानी के पलायन की
बैरागन के वेश में पंजाब की रानी ने चुनार के किले से पलायन किया था। 19 अप्रैल 1849 को सुबह 11:00 बजे मध्य भारत के चुनार किले के गेट पर एक पत्र पड़ा हुआ मिला, यह वही किला था जहां खूंखार कैदी ब्रिटिश द्वारा बंदी बनाकर रखे जाते थे। उस पत्र का एक हिस्सा इस प्रकार था- ‘आपने मुझे एक पिंजरे में लाकर कैद किया है। सारे तालों और मंत्रियों के बावजूद मैं अपने जादू के बल पर यहां से बाहर हूं। मैंने पहले ही कहा था कि मेरे साथ इतनी सख्ती मत बरतो। लेकिन यह मत समझना कि मैं भाग गई, मैं अपने बलबूते पर बिना किसी की मदद के भाग रही हूं।’ यह कैदी वह हस्ती थी जिसे लॉर्ड डलहौजी (Lord Dalhousie) सबसे बड़ा खतरा मानते थे। कैदी अर्थात महारानी जिंदन, पंजाब के आखिरी महाराजा दिलीप सिंह की मां थी। वह सरदार गुजरांवाला की बेटी थी, जो शिकारी कुत्तों की देखभाल करते थे और उनकी पहुंच महाराजा रणजीत सिंह तक थी।
महारानी का जन्म 1817 में हुआ था, जो अपने आकर्षण और खूबसूरती के लिए विख्यात थी और इसी कारण 'चंदा' नाम से पुकारी जाती थी। जब वह मात्र 11 साल की थी तो महाराजा रणजीत सिंह ने उनको देखा और आकर्षित होकर उन्हें अपने जनाना में रख लिया। 1835 में महाराजा ने उनसे विवाह किया। विवाह का प्रस्ताव एक तीर और तलवार के साथ रिवाज के मुताबिक उनके गांव भेजा गया। फरवरी 1837 में उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम 'दिलीप' रखा गया। जब राज परिवार में काफी खून खराबा हुआ, तो दिलीप को 5 साल की उम्र में महाराजा नामित किया गया। यह उनकी मां महारानी जिंदन ही थी, जिन्होंने प्रभावशाली ढंग से उनके नाम पर पंजाब का शासन चलाया।
शोधार्थी के अनुसार कैप्टन रॉस (Captain Ross), जो किले के कमांडेंट थे, उनकी सुपुर्दगी में रानी को बनारस से एक पालकी में जबरन बैठा कर चुनार के किले लाया गया। उनके साथ 17 महिला सुरक्षाकर्मी और 2 कंपनी पैदल सेना लेफ्टिनेंट नेल्सन (Lieutenant Nelson) की देखरेख में थे। यह वाक्या 4 अप्रैल 1849 का है। बनारस से चुनार रानी को सुरक्षा कारणों से लाया गया था क्योंकि उनकी 'हरगो' नाम की एक नौकरानी कड़े पहरे में से फरार हो गई थी।
कैप्टन रॉस को ख़ास हिदायत दी गई थी कि कैदी के पास नियमित रूप से जाएं और उससे बात करके आवाज से पहचाने क्योंकि बनारस जेल में रानी ने अपनी पहचान छुपाने के लिए यह कह कर कि वह एक पर्दानशी महिला है, हाथ और मुँह दिखाने से मना कर दिया था।
महारानी की पंजाब स्टेट, ब्रिटिश राज्य के कब्जा पाने के लिए आखिरी स्टेट थी। पंजाब में मची उथल-पुथल को देखते हुए रानी ने परदे से बाहर आकर लाहौर किले से राजपाट संभाला था। लाहौर दरबार में हुए खून-खराबे के बाद इस महिला से ब्रिटिश बहुत खौफ खाते थे। लाहौर के रेजिडेंट जॉन हेनरी लॉरेंस (Resident John Henry Lawrence) ने 8 अगस्त 1847 में कोलकाता को एक पत्र लिखा था कि पूरे देश में हमारी नीतियों की एकमात्र प्रभावी शत्रु पंजाब की महारानी हैं।
19 अप्रैल 1849 के महारानी के पत्र ने पूरे ब्रिटिश राज्य की रीढ़ कंपा दी। सारी चेक पोस्ट( चुंगी) को भागी रानी के बारे में सचेत किया गया। दो हफ़्ते पहले कैप्टन रॉस की देखरेख में आई महारानी से वे नियमित बातचीत करते थे और हेड ऑफिस को सूचना भेजते थे। भागने से 4 दिन पहले कैप्टन ने सीनियर अधिकारी को बताया था कि महारानी की आवाज मोटी सुनाई दे रही है। पूछने पर बताया गया कि वह सर्दी से पीड़ित हैं। कैप्टन रॉस ने फिर से पूरा पत्र पढ़ा। उसमें लिखा था-’ मैंने जब चुनार का किला छोड़ा, मैंने सारे कागज एक यूरोपियन चारपाई पर छोड़ा और आपके सभी यूरोपियन को नींद से जगा दिया, अब आप यह कल्पना नहीं कर सकते कि मैं चोर की तरह भागी।’ यह कभी पता नहीं चल सका कि खत किसने लिखा और किले के दरवाजे पर किसने छोड़ा। ब्रिटिश सिर्फ यह बता सके कि किले के तहखाने में 48 घंटे तक बंदी रहकर महारानी ने चुनार छोड़ दिया था।
अगले दिन एक जांच बैठाई गई, जिसमें बताया गया कि महारानी गंगा नदी से अपने लिए गंगाजल लाने वाले के वेश में गायब हो गई। अपनी देखरेख करने वाली से कपड़े बदल कर महारानी किले की सुरक्षा में तैनात तमाम लोगों के सामने से निकल गई।
सफर चुनार से नेपाल तक का
महारानी जिंदन नाव से रामनगर पहुंची, जहां सिख समुदाय उनकी राह देख रहा था। वहां एक नौकरानी के जरिए महारानी को पता चला कि ब्रिटिश प्रशासन कैसे उन्हें तलाश रहा है। रामनगर से फतेहगढ़ और फिर आजमगढ़ में गोमती के तट पर पहुंची। सड़क का रास्ता छोड़कर रानी नदी के रास्ते नेपालगंज पहुंची। वहां शरण की अपील मंजूर होने पर 29 अप्रैल 1849 को महारानी जिंदन काठमांडू पहुंची। इस पूरी यात्रा में उनका वेश एक बैरागन का था। नेपाल में वह अमर बिक्रम शाह के घर पर रही। इसके बाद थापाथाली में चारभुजा दरबार में रही। हालांकि नेपाल अदालत ने उनके इस तरह शरण लेने पर सवाल उठाए लेकिन जंग बहादुर ने दिवंगत राजा रणजीत सिंह के नेपाली सरकार के साथ पुराने मैत्रीपूर्ण संबंधों का सम्मान करते हुए महारानी को शरण देना स्वीकार कर लिया। नेपाल में महारानी ने ब्रिटिश दूतावास से बनारस में जमा अपने ज़ेवर, भक्तों को देने तथा पंजाब जाकर अपने बेटे से मिलने की अनुमति मांगी लेकिन ब्रिटिश प्रतिनिधि ने एक भगोड़े अपराधी के तौर पर सारी मांगे खारिज कर दी।
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